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आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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सही ऐसा कौन-सा मानव है, जिसका सृजन हाड़-मांस या रक्त से न हुआ हो ? ऐसी कौन-सी माता हैं, जिसने बच्चे की सफाई में हरिजनत्व न स्वीकारा हो ? भाइयो ! मनुष्य अछूत नहीं होता, अछूत दुष्प्रवृत्तियां होती हैं ।' ऐसे ही एक विशेष प्रसंग पर लोक चेतना को प्रबुद्ध करते हुए वे कहते हैं- " मैं समझ नहीं पाया, यह क्या मखौल है ? जिस घृणा को मिटाने के लिए धर्म है, उसी के नाम पर घृणा और मनुष्य जाति का विघटन ! मन्दिर में आप लोग हरिजनों का प्रवेश निषिद्ध कर देंगे पर यदि उन्होंने घर बैठे ही भगवान् को अपने मनमंदिर में बिठा लिया तो उसे कौन रोकेगा ?
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लम्बी पदयात्राओं के दौरान अनेक ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए, जबकि आचार्यश्री ने उन मंदिरों एवं महाजनों के स्थान पर प्रवास करने से इन्कार कर दिया, जहां हरिजनों का प्रवेश निषिद्ध था । १ जुलाई १९६८ की घटना है । आचार्य तुलसी दक्षिण के वेलोर गांव में विराज रहे थे । अचानक वे मकान को छोड़कर बाहर एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। पूछने पर मकान छोड़ने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा - "मुझे जब पता चला कि कुछ हरिजन भाई मुझसे मिलने नीचे खड़े हैं, उन्हें ऊपर नहीं आने दिया जा रहा है, यह देखकर मैं नीचे मकान के बाहर असीम आकाश के नीचे आ गया । इस विषम स्थिति को देखकर मेरे मन में विकल्प उठता है कि समाज में कितनी जड़ता है कि एक कुत्ता मकान में आ सकता है, साथ में खाना खा सकता है किंतु एक इन्सान मकान में नहीं आ सकता, यह कितने आश्चर्य की बात है ?" आचार्य तुलसी मानते हैं - "जाति, रंग आदि के मद से सामाजिक विक्षोभ पैदा होता है इसलिए यह पाप की परम्परा को बढ़ाने वाला पाप है ।"
आचार्य तुलसी के इन सघन प्रयासों से समाज की मानसिकता में इतना अन्तर आया है कि आज उनके प्रवचनों में बिना भेदभाव के लोग एक दरी पर बैठकर प्रवचन का लाभ लेते हैं ।
सामाजिक क्रान्ति
देश में अनेक क्रांतियां समय-समय पर घटित होती रही हैं, उनमें सामाजिक क्रांति की अनिवार्यता सर्वोपरि है क्योंकि रूढ़ परम्पराओं में जकड़ा समाज अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं बना सकता । आचार्य तुलसी को सामाजिक क्रांति का सूत्रधार कहा जा सकता है। समाज को संगठित करने, उसे नई दिशा देने, जागृत करने तथा अच्छा-बुरा पहचानने में उनका
१. जैन भारती, ३० अप्रैल १९६१ । २. २४-९-६५ के प्रवचन से उद्धृत । ३. जैन भारती, २१ जुलाई १९६८ ।
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