________________
गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
१९१ . कभी-कभी वे मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यापारियों की विशेषताओं को सहलाकर उन्हें नैतिकता की प्रेरणा देते हैं-''व्यापारी वर्ग को साहूकार का जो खिताब मिला है, वह किसी राष्ट्रपति या सम्राट् को भी नहीं मिला, इसलिए इस शब्द को सार्थक करने की अपेक्षा है।" ।
अर्थार्जन के साधन की शुद्धता पर भगवान् महावीर ने विस्तृत विवेक दिया है। आचार्य तुलसी ने उसे आधुनिक परिवेश एवं आधुनिक सन्दर्भो में व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है। उनके साहित्य में हिंसाबहुल एवं उत्तेजक व्यवसायों की खुले शब्दों में भर्त्सना है।
आचार्य तुलसी खाद्य पदार्थों में मिलावट के सख्त विरोधी हैं। वे इसे हिंसा एवं अक्षम्य अपराध मानते हैं। 'अमृत महोत्सव' के अवसर पर अपने एक विशेष सन्देश में वे कहते हैं- "मिलावट करने वाले व्यापारी समाज एवं राष्ट्र के तो अपराधी हैं ही, यदि वे ईश्वरवादी हैं तो भगवान् के भी अपराधी हैं । .... ." मिलावट ऐसी छेनी है, जो आदर्श की प्रतिमा को खंडखंड कर खंडहर में बदल देती है।"१
आचार्य तुलसी उस व्यवसाय एवं व्यापार को समाज के लिए घातक मानते हैं, जो हमारी संस्कृति की शालीनता एवं संयम पर प्रहार करते हैं, मानव की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं । विज्ञापन-व्यवसाय के बारे में उनकी निम्न टिप्पणी अत्यन्त मार्मिक है-"विज्ञापन एक व्यवसाय है । अन्य व्यवसायों की तरह ही यह व्यवसाय होता तो टिप्पणी करने की अपेक्षा नहीं थी। किन्तु जब इससे व्यक्ति के चरित्र और सूझ-बूझ दोनों पर प्रश्नचिह्न खड़े होने लगे, तो सचेत होना पड़ेगा । ......साड़ियों के विज्ञापन में एक युवा लड़की का चित्र देकर लिखा जाता है कि मैं शादी दिल्ली में ही करूंगी क्योंकि यहां मुझे उत्तम साड़ियां पहनने को मिलेंगी। पर्यटन एजेंसियों का विज्ञापनदाता विवाह योग्य कन्या के मुख से कहलवाता है कि वह उसी व्यक्ति के साथ शादी करेगी, जो उसे विदेश यात्रा करा सके । इस प्रकार के विज्ञापन युवा मानसिकता को गुमराह कर देते हैं ।"२
इसी सन्दर्भ में उनका निम्न वक्तव्य भी अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है ..."महिलाओं के लिए खासतौर से सिगरेट बनाना और उसे विज्ञापनी चमक से जोड़ना महिलाओं को पतन के गर्त में धकेलना है । सिगरेट बनाने वाली कम्पनी को उससे आर्थिक लाभ हो सकता है, पर देश की संस्कृति का इससे कितना नुकसान होगा, यह अनुमान कौन लगाएगा ?'
१. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १७९ । २. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ८४,८५। ३. अणुव्रत, १ अप्रैल १९९० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org