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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
• मैं सोचता हूं थोड़े-से अंधेरे को देखकर ढेर सारे प्रकाश से आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए । आज समाज में उल्लुओं की नहीं, हंसों की आवश्यकता है, जो क्षीर और नीर में भेद कर सकें । ० मैं हर क्षण उत्साह की सांस लेता हूं,
इसलिए सदा प्रसन्न रहता
हूं
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" बचपन से ही अहिंसा के प्रति मेरी आस्था पुष्ट हो गयी । आस्था की वह प्रतिमा आज तक कभी भी खंडित नहीं हुई ।"
कभी सफलता मिली, कभी न भी मिली, पर सुधार के क्षेत्र में मैं कभी निराश होता ही नहीं, निराश होना मैंने सीखा ही नहीं । मैं जिंदगी भर आशावान् रहकर अडिग आत्मविश्वास के साथ काम करता रहूंगा ।"
अन्य साहित्यकारों की भांति वे किसी भी लेख में लम्बी भूमिका नहीं लिखते हैं । सीधे कथ्य की अभिव्यक्ति ही करना चाहते हैं। भूमिका में अनेक बार पाठक केवल शब्दों के जाल में उलझ जाता है, उसे कुछ नई प्राप्ति का अहसास नहीं होता |
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है ।'
प्रवचन साहित्य में ही नहीं, निबंधों में भी उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक तथा काल्पनिक घटनाओं से अपने कथ्य की पुष्टि की है । अनेक स्थानों पर तो उन्होंने छोटे-छोटे कथा - व्यंग्यों एवं संस्मरणों के माध्यम से भी अपनी बात का समर्थन किया है। यह शैलीगत वैशिष्ट्य उनके सम्पूर्ण साहित्य में छाया हुआ है। यही कारण है कि उनका साहित्य केवल विद्वद्भोग्य ही नहीं, सर्वसाधारण के लिए भी प्रेरणादायी है ।
उनके निबंधों में वार्तालाप शैली का प्राधान्य है । इससे पाठक के साथ निकटता स्थापित हो जाती है । वार्तालाप का एक उदाहरण द्रष्टव्य
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एक बार मोरारजी भाई ने कहा - 'आचार्यजी ! नेहरूजी के साथ आपके अच्छे संबंध हैं | आप उन्हें अध्यात्म की ओर मोड़ सकें तो बहुत लाभ हो सकता है ।'
मैंने उनसे पूछा - 'यह प्रयत्न आप क्यों नहीं करते ?'
वे बोले - 'हम नहीं कर सकते। आप चाहें तो यह काम हो सकता
हमने सलक्ष्य प्रयत्न किया। तीन वर्षों के बाद मोरारजी भाई फिर मिले । वे बोले - 'हमारा काम हो गया ।'
मैंने पूछा- 'क्या नेहरूजी बदल रहे हैं ? '
वे बोले-'हां, उनके चिन्तन में ही नहीं, व्यवहार में भी बदलाव आ
रहा है ।'
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