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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन _कानपुर का प्रसंग है । स्थानीय अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आचार्यश्री के विरोध में तरह-तरह की बातें छपी। इस स्थिति से उद्वेलित होकर एक वकील आचार्यवर के उपपात में पहुंचा और बोला--"अमुक पत्र का सम्पादक मेरा किराएदार है । आप विरोध का प्रत्युत्तर लिखकर दे दें, मैं उसे वैसा ही छपवा दूंगा।" आचार्यवर ने उत्तर दिया--"कीचड़ में पत्थर डालने से क्या लाभ ? आलोचना का उत्तर में कार्य को मानता हूं। यदि स्तर का विरोध या आलोचना हो तो उसके उत्तर में शक्ति लगायी जाए अन्यथा शक्ति लगाना व्यर्थ है । निरुद्देश्य और निरर्थक विरोध अरण्य प्रलाप की तरह एक दिन स्वयं शांत हो जाएगा। मुझे तो विरोध देखकर दुःख नहीं, बल्कि नादानी पर हंसी आती है। ये विरोध तो मेरे सहयोगी हैं । इनसे मुझे अधिक कार्य करने की प्रेरणा मिलती है । यदि विरोध से घबराने लगे तो कुछ भी कार्य नहीं कर सकेंगे।'' बाल वीक्षा का विरोध
जयपुर में जब बाल-दीक्षा के विरुद्ध में विरोध का वातावरण बना तो तेरापंथी लोगों में भी कुछ आक्रोश उभरने लगा। संगठित संघ होने के कारण अनेक स्थानों से हजारों-हजारों लोग उसका प्रतिकार करने के लिए पहुंच गए। यद्यपि उन्हें शांत रखना कोई सहज कार्य नहीं था, पर अहिंसा की तेजस्विता प्रकट करने के लिए यह हर स्थिति में आवश्यक था। उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रतिबोध देते हुए कहा"हिंसा को हिंसा से जीतना कोई मौलिक विजय नहीं होती। हिंसा को अहिंसा से जीतना चाहिए। हम साधन-शुद्धि पर विश्वास करते हैं, अतः पथ की समस्त बाधाओं को स्नेह और सौहार्द से ही पार करना होगा। उत्तेजित होकर काम को बिगाड़ा ही जा सकता है, सुधारा नहीं जा सकता। मैं यह नहीं कहता कि आप विरोधों के सामने झुक जाएं। यह तो उन्हीं की सफलता मानी जाएगी। किन्तु आप यदि उस समय भी शांत रहें तो यह आपकी सफलता होगी । मैं आशा करता हूं कि कोई भी तेरापंथी भाई न उत्तेजित होगा और न उत्तेजना बढ़े, वैसा कार्य करेगा। दूसरा क्या कुछ करता है, यह उसके सोचने की बात है। पर हमारा मार्ग सदैव शांति का रहा है और इसी में हमारी सफलता के बीज निहित हैं।" आचार्यश्री का उपर्युक्त प्रतिबोध सचमुच ही अत्यन्त प्रभावी सिद्ध हुआ। लोगों के मनों में उफन रहे आक्रोश को शान्त करने में उसने जल के छींटे का सा काम किया । अहिंसा की तेजस्विता मूर्त हो उठी। अग्नि-परीक्षा बनाम अहिंसक-परीक्षा _____ आचार्य तुलसी का चातुर्मास रायपुर में था। वहां उनका अभूतपूर्व
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