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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १४५ मेरा काम नहीं है पर यह निश्चित है कि आधुनिकता के प्रयोग में यदि औचित्य की प्रज्ञा जागृत नहीं रही तो पारम्परिक संस्कारों की इतनी निर्मम हत्या हो जाएगी कि उनके अवशेष भी देखने को नहीं मिलेंगे। संस्कारों का ऐसा हनन किसी व्यक्ति या समाज के लिए नहीं, पूरी मानव-संस्कृति के लिए बड़ा खतरा है।'' भारतीय जीवन-शैली में विकृति एवं अपसंस्कृति की घुसपैठ होने पर भी वे इस संस्कृति को विश्व की सर्वोच्च संस्कृति के रूप में स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में उनका निम्न प्रवचनांश उल्लेखनीय है- “विश्व के दूसरे-दूसरे देशों में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्रांतियां हो जाती हैं पर हिंदुस्तानी लोग बहत-कूछ सहकर भी खामोश रहते हैं।" विवेकानन्द की भांति भारतीय संस्कृति के गौरव को विदेशों तक फैलाने की उनकी तीव्र उत्कंठा भी समय-समय पर मुखर होती रहती है । १२ दिस० १९८९ को भारत में सोवियत महोत्सव हुआ। उस समय भारत की प्राचीन महिमामंडित संस्कृति को रूसी युवकों के सामने उजागर करने हेतु सरकार को दायित्वबोध देती हुई उनकी निम्न पंक्तियां मार्मिक एवं प्रेरक ही नहीं, उत्कृष्ट राष्ट्र-चेतना का परिचय भी दे रही हैं--- "जिस समय सोवियत संघ की सड़कों पर एक तिनका भी गिरा हुआ नहीं मिलता, उस समय भारत की राजधानी की सड़कों पर घूमने वाले रूसी युवक उन सड़कों को किस नजरिए से देखेंगे ? मिट्टी, पत्थर, कांच, कागज, फलों के छिलके आदि क्या कुछ नहीं बिखरा रहता है यहां ? और तो क्या, बलगम और श्लेष्म भी सड़कों की शोभा बढ़ाते हैं। एक ओर गन्दगी, दूसरी ओर बीमारी के कीटाण तथा तीसरी ओर केले आदि के छिलकों से फिसलने का भय । क्या हमारे देश के विकास की कसौटियां यही हैं ? ........ ... भारतीय लोग अपने जीवन के लिए और अपनी भावी पीढ़ी के लिए नहीं तो कम से कम उन आगन्तुक यायावरों के मन पर अच्छी छाप छोड़ने के लिए भी सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की सुरक्षा करें तो देश की छवि उजली रह सकती है । अन्यथा कोई विदेशी दल यहां के लोक-जीवन की उजड़ी-उखड़ी शैली को इतिहास के पृष्ठों पर उकेर देगा तो हमारी शताब्दियों-पूर्व की गरिमा खण्ड-खण्ड नहीं हो जाएगी? ...... क्या भारत सरकार और राष्ट्रीय एवं सामाजिक संस्थाओं का यह दायित्व नहीं है कि वे अपने आगंतुक अतिथियों को इस देश की मूलभूत संस्कृति से परिचित कराएं ? क्या उनके मन पर ऐसी छाप नहीं छोड़ी जा सकती, जिसे वे रूस पहुंचने के बाद भी पोंछ न सके ?" १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १०७ । २. वही, पृ० ७-८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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