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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन सर्वोपरि महत्त्व देता है।
वे इस बात को मानकर चलते हैं कि राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की आशा नहीं की जा सकती, पर वे पशुता पर उतर आएं, यह ठीक नहीं है। अतः राजनीतिज्ञों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं---"यदि राजनीतिज्ञ स्थायी शांति चाहते हैं तो उन्हें हिंसा के स्थान पर अहिंसा, प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोगिता और हृदय की वक्रता के स्थान पर सरलता को अपनाना होगा ।
यदि शासक में विलासिता, आलस्य और कदाचार है तो देश को अनुशासन का पाठ कौन पढ़ाएगा ? अतः सत्ताधीशों के विलासी जीवन पर कटाक्ष करने से भी वे नहीं चूके हैं--"देखा जाता है कि एक ओर लोगों के पास चढ़ने को साइकिल भी नहीं है और दूसरी ओर नेता लोग लाखों रुपयों की कीमती कारों में घूमते हैं। एक ओर देश के लाखों-लाखों व्यक्तियों को झोंपड़ी भी उपलब्ध नहीं है और दूसरी ओर नेता लोग एयरकंडीशन बंगलों में रहते हैं। पिता मिठाई खाए और बच्चे भूखे मरें, क्या यह भी कोई न्याय
है ?"३
सत्तादल और प्रतिपक्ष दोनों को ही छींटाकशी एवं विद्वेष को भुलाकर एकता एवं सामंजस्य की प्रेरणा वे कितने तीखे एवं सटीक शब्दों में दे रहे हैं --"दोनों ही दलों को यह चिन्ता कहां है कि हमारी आपसी लड़ाई से ५० करोड (वर्तमान में ८५ करोड़) जनता का कितना अहित हो रहा है ? विरोधी राष्ट्रों को इससे लाभ उठाने का कैसा अवसर मिल रहा है ?"४ वे अनेक बार यह दृढ़ विश्वास व्यक्त कर चुके हैं कि यदि चरित्रसम्पन्न व्यक्ति राजनीति के रथ को हांकते रहेंगे तो उसके उत्पथ में भटकने की संभावना क्षीण हो जाएगी।''५ लोकतंत्र
वर्तमान में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आचार्य तुलसी का मानना है कि लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है। लोकतंत्र की नींव जनता के मतों पर टिकी होती है। यदि मत भ्रष्ट हो जाए तो प्रशासन तो भ्रष्ट होगा ही। इस संदर्भ में उनके निम्न उद्धरण १-२. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११६२ । ३. जैन भारती, ५ जुलाई, १९७० । ४. वही, ३० नव० १९६९ । ५. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ९७। ६. राजपथ की खोज, पृ० १२८ ।
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