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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
किं तद्व्यापकविरुद्धस्य १, तत्कारणविरुद्धस्य २, तत्कार्यविरुद्धस्य ३ वा विधिः सर्वज्ञाभावमादिशेत् । न तावद्व्यापकविरुद्धविधिःE-45, स हि सर्वज्ञस्य व्यापकमखिलार्थसाक्षात्कारित्वं तेन विरुद्धं तदसाक्षात्कारित्वं नियतार्थग्राहित्वं वा तस्य च विधिः क्वचित्कदाचित्तदभावं साधयेन्न पुनः सर्वत्र सर्वदा वा, तुषारस्पर्शव्यापकशीतविरुद्धाग्निविधानात् क्वचित्कदाचित्तुषारस्पर्शनिषेधवत् । कारणविरुद्धविधिरपि क्वचित्कदाचिदेव सर्वज्ञाभावं साधयेत्, न सर्वत्र । सर्वज्ञत्वस्य हि कारणमशेषकर्मक्षयः, तद्विरुद्धस्य कर्माक्षयस्य च विधिः क्वचित्कदाचिदेव सर्वज्ञाभावसाधकः, रोमहर्षादिकारण-शीतविरुद्धाग्निविधानात् क्वचित्कदाचिच्छीतकार्यरोमहर्षादिनिषेधवत् न पुनः साकल्येन, सकलकर्माप्रक्षयस्य साकल्येन संभवाभावात्, क्वचिदप्यात्मनि तस्याग्रे प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । नापि विरुद्धकार्यविधिः, सर्वज्ञत्वेन हि विरुद्धं किंचिज्ज्ञत्वं, तत्कार्यं नियातार्थविषयं वचः तस्य विधिः स च न सामस्त्येन सर्वज्ञाभावं साधयेत् । यत्रैव हि तद्विधिस्तत्रैवास्य तदभावसाधनसमर्थत्वात्, शीतविरुद्धदहनकार्यधूमविशिष्टप्रदेश एव शीतस्पर्शनिषेधवत्, तन्न विरुद्धविधिरपि सर्वविदो बाधकः । व्याख्या का भावानुवाद :
अब "सर्वज्ञता के कारणो की अनुपलब्धि होने से सर्वज्ञ का अभाव है।" ऐसा आप कहोंगे तो वह भी उचित नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञता के कारणरुप ज्ञानावरणीयादि कर्मो का क्षय अनुमान से उपलब्ध ही है। (कहने का मतलब यह है कि, सर्वज्ञता में कारण ज्ञानावरणीयादि कर्मो का अत्यंतनाश है तथा कर्मो का अत्यंतनाश तो हो ही सकता है। हम कर्मो के चढाव-उतार को देख सकते है। उससे वे कर्म आत्मा में आये हुए है, स्वाभाविक नहीं है, वह भी निश्चित होता है, इसलिए जब ठंडी का प्रतिपक्ष गर्मी आने से ठंडी का अत्यंतनाश होता है, वैसे आगंतुक कर्मो का अत्यंतनाश भी प्रतिपक्ष आने से हो जाता है।)
"कर्म का अत्यंतनाश होता है।" उसकी सिद्धि करनेवाली युक्तिर्यां आगे कही जायेगी।
"सर्वज्ञ के कार्य की अनुपलब्धि होने से सर्वज्ञ का अभाव है" - वैसा कहोंगे तो वह भी उचित नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ के कार्य के रुप में अविसंवादि आगम उपलब्ध है ही। ___ "सर्वज्ञ के व्यापकधर्म की अनुपलब्धि होने से सर्वज्ञ का अभाव है।" वैसा कहोंगे तो वह भी योग्य नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ का व्यापकधर्म "सर्वार्थसाक्षात्कारित्व" अनुमान से प्रतीत ही है। अर्थात् अनुमान से सर्वज्ञ का व्यापक धर्म सर्वार्थसाक्षात्कारित्व प्रसिद्ध है। वह इस अनुसार से- "कोई व्यक्ति सकलपदार्थो का यथावत् साक्षात्कार करता है, क्योंकि.... उसका सकल पदार्थो का यथावत् साक्षात्कार
(E-45) - तु० पा० प्र० प० ।
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