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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
प्राप्तत्वविशेषणः, सर्वत्र सर्वदा च सर्वज्ञाभावसाधनस्याभावप्रसङ्गात् । न हि सर्वथाप्यसत उपलब्धिक्षणप्राप्तत्वं घटते, क्वचित्कदा-चित्सत्त्वोपलम्भाविनाभावित्वात्तस्य । एतेन सर्वसंबन्धिपक्षोऽपि प्रत्याख्यातः । किं चासिद्धः सर्वसंबध्यनुपलम्भः, असर्वविदा प्रतिपत्तुमशक्यत्वात्-42 । न खलु सर्वात्मनां तज्ज्ञानानां चाप्रतिपत्ती तत्संबन्धी सर्वज्ञानुपलम्भः प्रतिपत्तुं शक्यः । व्याख्या का भावानुवाद :
अनुमान भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ के बाधक अनुमान में धर्मी किसको रखोंगे? साध्य किसको बनाओंगे? और किसको हेतु करोंगे? (उसका स्वरुप ही) अनिश्चित है। __ अच्छा, आप बताये कि आपके सर्वज्ञबाधक अनुमान में धर्मी के रुप में कौन है ? क्या धर्मी के रुप में (१) सर्वज्ञ अभिप्रेत है ? या (२) बौद्ध आदि अभिप्रेत है ? या (३) सभी पुरुष अभिप्रेत है ?
यदि ऐसा कहोंगे कि धर्मी के रुप में सर्वज्ञ अभिप्रेत है, तो कहो कि उस सर्वज्ञ का असत्त्व सिद्ध करोंगे या असर्वज्ञत्व सिद्ध करोंगे? ___ यदि आप ऐसा कहोंगे कि इस सर्वज्ञ का असत्त्व सिद्ध करेंगे - तो सर्वज्ञ का असत्त्व सिद्ध करने के लिए आप (१) अनुपलंभ को हेतु बनायेंगे? या (२) विरुद्ध विधि को हेतु बनायेंगे? या (३) वक्तृत्वादि को हेतु बनायेंगे? - यदि सर्वज्ञ के असत्त्व की सिद्धि करने के लिए अनुपलंभ का प्रयोग करोंगे, तब वह बताना चाहिए कि आप (१) अनुपलंभ सर्वज्ञ का बतायेंगे? या (२) उसके कारणो का? या (३) उसके कार्य का? या (४) उसके व्यापक का अनुपलंभ बतायेंगे? ___ यदि सर्वज्ञ के असत्त्व कि सिद्धि करने के लिए सर्वज्ञ के अनुपलंभ को हेतु के रुप में आगे करोंगे तो सर्वज्ञ का अनुपलंभ क्या स्वसंबंधी आपको ही है ? या सर्वसंबन्धी है - सर्वसंबन्धी है-जगत के सभी प्राणीओ को है?
अब यदि खुद आपको सर्वज्ञ का अनुपलंभ होने से सर्वज्ञ का अभाव है, ऐसा आप मानते है तो कहो कि... वह अनुपलंभ विशेषणरहित सामान्य अनुपलंभ से होता है या उपलब्धि लक्षण से युक्त विशेषणसहित अनुपलंभ से होता है। कहने का मतलब यह है कि सर्वज्ञ का अनुपलंभ होता है वह दृश्यआदि विशेषणरहित होता है या दृश्य आदि विशेषणसहित होता है । (दृश्य = देखनेलायक पदार्थ) । यदि आप सर्वज्ञ का अनुपलंभ विशेषणरहित सामान्य अनुपलंभ से होता है। ऐसा कहोंगे तो परचित्त विशेषादि के साथ व्यभिचार आयेगा। क्योंकि अनुपलंभ हेतु है । अर्थात् पर (देवदत्त के) चित्त में क्या विचार चल रहा है,
(E-42)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International
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