________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
४१/६६४
वह यज्ञदत्त तो जान सकता नहीं है। अर्थात् यज्ञदत्त को देवदत्त के चित्त में चलते हुए विचारो का अनुपलंभ है। फिर भी इतने मात्र से देवदत्त के मन में चलते हुए विचारो का असत्त्व सिद्ध नहीं होता है।
"सर्वज्ञ का अनुपलंभ दृश्य पदार्थ के ( उपलंभलक्षणप्राप्त विशेषण सहित के पदार्थ के) अनुपलंभ से होता है।" वैसा कहोंगे तो वह भी योग्य नहीं है। क्योंकि दृश्यपदार्थ का उपलंभ सभी जगह और सभी काल में होता ही नहीं है। क्योंकि सभी जगह पे और सभी काल में जिसका अनुपलंभ हो वह दृश्य ही किस तरह कहा जायेगा? जैसे घट दृश्य होने से कोई स्थान पे या कोई काल में उसका अनुपलंभ मिले, परन्तु सर्वत्र और सभी काल में उसका अभाव देखने को नहि मिला । क्योंकि दृश्यपदार्थ का किसी स्थान पे और किसी काल में तो उपलंभ नियत रुप से होता ही है।
इसलिए दृश्य की अनुपलब्धि से सर्वज्ञ का अत्यंत अभाव सिद्ध किया नहि जा सकता । हा, इतना कहा जा सकता है कि "इस समय पे, इस स्थान पे सर्वज्ञ नहीं है।"
इससे सर्वसंबंधी पक्ष भी दूषित हो जाता है। क्योंकि दृश्यपदार्थ की अनुपलब्धि सभी प्राणीयों को नहीं हो सकती। तथा असर्वज्ञप्राणीयों को सर्वज्ञ की उपलब्धि नहीं होती, परंतु सर्वज्ञ को तो "मैं सर्वज्ञ हुं" ऐसी उपलब्धि होती है। इसलिए सभी प्राणियो को सर्वज्ञ की अनुपलब्धि नहीं होती है।
उपरांत जगत के सर्वजीवो को सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है, वैसा आप नहीं कह सकते । क्योंकि आप असर्वज्ञ हो तथा सर्वज्ञ के सिवा का दूसरा कोई व्यक्ति जगत के सभी जीवो के अध्यवसायो को (निश्चयो को) जान सकता नहीं है।
नापि कारणानुपलम्भः, तत्कारणस्य:-43 ज्ञानावरणादिकर्मप्रक्षयस्यानुमानेनोपलम्भात् । एतत्साधकं चानुमानं, युक्तयश्चाग्रे वक्ष्यन्ते । कार्यानुपलम्भोऽप्यसिद्धः, तत्कार्यस्याविसंवाद्यागमस्योपलब्धेः। व्यापकानुप-लम्भोऽप्यसिद्धः, तव्यापकस्य सर्वार्थसाक्षात्कारित्व-स्यानुमानेन प्रतीतेः । तथाहि-अस्ति कश्चित्सर्वार्थसाक्षात्कारी, तद्ग्रहणस्वभावत्वे सतिप्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् । यद्यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धकं तत्तत्साक्षात्कारि, यथापगततिमिरादिप्रतिबन्धं लोचनं रूपसाक्षात्कारीति नानुपलम्भादिति साधनं सर्वज्ञाभावं E-44साधयति । विरुद्धविधिरपि साक्षात्परंपरया वा सर्वज्ञाभावं साधयति । प्रथमपक्षे सर्वज्ञत्वेन साक्षाद्विरुद्ध-स्यासर्वज्ञत्वस्य क्वचित्कदाचिद्विधानात्सर्वत्र सर्वदा वा । तत्राद्यपक्षे न सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावः सिध्येत्, यत्रैव हि तद्विधानं तत्रैव तदभावोः नान्यत्र । नहि क्वचित्कदाचिदग्नेविधाने सर्वत्र सर्वदा वा तद्व्यापकविरुद्धशीताभावो दृष्टः । द्वितीयोऽप्ययुक्तः, अर्वागदृशः सर्वत्र सर्वदा वा सर्वज्ञत्वविरुद्धासर्वज्ञत्वविधैरसंभवात, तत्संभवे च तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तेः सिद्धं नः समीहितम् । परंपरयापि (E-43-44) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org