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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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रेफ रूप 'र' का लोप; १-२६० से द्वितीय 'श' के स्थान पर "स' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर महा-पसु-दसण' रूप सिद्ध हो जाता है ।
संभ्रम-पररथरारूडा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संभम-परोप्पराकडा होता है। इसमें सूध संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-६२ से वित्तीय 'र' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ओ' को प्राप्ति २-७७ खें हल त व्यञ्जन 'स' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात् रहे हुए 'प' को द्विस्व 'प' की प्राप्ति; ३-१२ से अस्य शम 'स्व' में स्थित अस्य हुम्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति और ३.४ से प्रथमा विमति के महवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जम = अस' का प्राकृत में लोप होकर-संभव-परोप्परा रूदा कप सिद्ध हो जाता है।
गगन संस्कृत सप्तम्यन्त एक बच्चन रूप है । इसका प्राकृत रूप गयणे होता है । इसमें सूत्र-संख्या-4-१७७ से द्वितीय 'ग्' का लोप; १-१८० • लोप हुए 'ग: के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के पान पर 'ग' को प्राप्ति और ३-११ से संस्कृतीय सप्तमा विमक्ति के एक बचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ड' प्रत्यय की प्राप्ति; तबनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ई' में '' इत्संक होने से पूर्वस्य पर गयण' में स्थित अन्स्य 'प' के 'अ' की परसंज्ञा होने से लोप एवं तत्पश्चात शेष हलन्त 'म्' में पूर्वोक्स '' प्रत्यय को संयोजना होकर गयणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
‘एवं संस्कृत अस्वय है। इसका प्राकृत रूप 'चिन' होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-1८४ से 'एब' के स्थान पर नि आदेश और २-९९ से प्राप्त चिज' में स्थित 'च' को द्वित्व 'बच्' को प्राप्ति होकर चिम रूप सिद्ध हो जाता है।
गन्ध-गुटीम संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप-'गंध-डि होता है। इसमें मूत्र-संख्या -१७७ से 'ए' का लोप; १-८ से पूर्वोक्त 'प' का लोप होने से शेष 'उ' को उत्त स्वर के रूप में प्राप्ति मौर संधि का अभाव, १-१९५५ से 'द' के स्थान पर 'ड' को प्राप्ति, ३-३६ से दीर्घ स्वर ६ के स्थान पर हुस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति, ३-५ से द्वितं या विभक्ति के एक बयान में 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर गन्ध-उहि रूप सिद्ध हो जाता है।
कुवैति संस्कृत सकर्मक किया पर का रूप है। इसका प्राकृत रूप कुणन्ति होता है। इसमें सूर-संख्या४-६५ से मत संस्कृत क्षतु 'कृ' के स्थानापन्न रूप 'कुर्व' के स्थान पर प्राकृत में 'कुष' बादेश; और ३-१४२ से वर्तमान-काल के प्रथम पुरुष के बहु बचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुणन्ति रुप सिद्ध हो जाता है।
तष संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप सुह होता है 1 इसमें सूत्र-संख्या ३-९९ से संस्कृतीव सर्वनाम 'पुरुमत' के षष्ठी विभक्ति के एक वक्षम में प्राप्त रूप 'लव' के स्थान पर मालतुह आदेश-प्राप्ति होकर 'तुहं रूप सिद्ध हो जाता है।