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* ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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इसका यन्ति संस्कृत सकर्मक क्रिया पर का रूप है । इसका प्राकृत रूप एन्ति होता है। इसमें पूत्र-संख्या(हेम० ) ३-३-६ से मल पातु 'इण' की प्राप्ति, संस्कृतीय विधानानुसार मूल धातु इण' में स्थित अन्स्य हसन्त 'ण' की इत्संझा होकर लोप; ४-२३७ से प्राप्त धातु 'ई' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बल वचन में संस्कृत के समान हो प्राकृत में भी 'म्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर एन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
हृदयम संस्कृत रूप हं । इसका प्राकृत रुप हिअयं होता है ।सम सूत्र-संख्या १-१२८ से 'क' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति १-१७७ से 'द' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचा में 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर हिशयं रूप सिद्ध हो जाता है।
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कवीन्द्राणाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कइन्वाणं होता है। इसमें सूबसंख्या १-१७७ से '' का लोप: १-४से वीर्घ स्वर के स्थान पर स्व स्वर की प्राप्तिः २-७९सेर का लोप: ३-१२ स प्राप्त प्राकृत रूप 'कइन्च' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीप षष्ठी विभक्ति के यह वचन में 'आम' प्रत्यय के स्थानीय रूप ‘णाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर काइन्मार्ण रूप सिद्ध हो जाता है । १-७॥
स्वरस्योवृत्त ॥ १-८॥ व्यञ्जन-संपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उदृत इहोच्यते । स्वरस्य उवृत्ते स्वरे परे संधिनं भवति ।। विगसिज्जन्त-महा-पमु-दसण-संभम-परोपरारूढा । गयणे च्चिय गन्ध-उडि कुणन्ति तुह कउल-गणारीयो ।। निसा-श्ररो। निसि-अरो : रयणी-अरो । मणुअत्त । बहुलाधिकारात् क्वचिद विकल्पः । कुम्भ-ग्रारो कुम्भारो । सु-उरिसों सूरिसो । क्वचित् संधिरेच सालाहणो चक्काओ || अतएव प्रतिपेधात् समासे पि स्वरस्य संधी भिन्नपदत्वम् ॥
: अर्थ-व्यञ्जन में मिला हुआ स्वर उस समय में 'उबृत्त-स्वर' कहलाता है। जबकि वह व्यञ्जन लुप्त हो जाता है और केवल 'रवर' हो शेष रह जाता है । इस प्रकार अवशिष्ट 'स्वर' को संज्ञा 'उवृत्त स्वर' होती हैं । ऐसे उवृत्त स्वरों के साथ में पूर्वस्प स्वरों की संधि नहीं हुआ करती है। इसका तात्पर्य यह है कि उदत्त स्वर अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों बनाये रखते हैं और पूर्वस्थ रहे हए स्वर के साथ संधि-पोग नहीं करते है । जैसे कि मूल माया में ऊपर गन्य-पुटीम के प्राकृत रूपान्तर में 'गन्ध-डि' होने पर 'घ' में स्थित 'अ' को 'पुटीम्' में स्थित 'यू' का