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* प्राकृत व्याकरण *
'कालोपा १-२२८ सेम' के स्थान पर 'ष' को प्राप्ति; ३-३१ से स्त्रीलिंग-मर्थ में मूल प्राकृत विशेषन रूप 'सरल' में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में मंस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जर काममोप होकर अत्यालोजण-तरला प सिद्ध हो जाता।
इतर-फीनाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इअर-कईणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या 1-1७७ से' और 'व' का लोपः ३-१२ से मूल रूप 'कवि' में स्थित अन्त्य हव 'इ' को वीर्घ 'ई' को प्राप्ति; ३-६ में संस्कृतीय षष्ठी विमक्ति के मनुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'प' अस्पय को आदेश आप्ति र र
र र पारस बार की प्राप्ति होकर 'जभर-फाड़ कप सिद्ध हो पाता है।
अमन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भमन्ति होता है। इसम सूत्र-संख्या २-७५ का लोप; ४-२३९ से हलन्स पातु 'भम' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; और ३-१४२ से बसमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान हो प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर भवन्ति र सिद्ध हो जाता है।
वलयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत का सीओ होता है । इसम सूत्र -संख्या-३-२५ से सप'बुद्धि' में स्थित भन्स्व हस्व स्वर 'इ' को वीर्घ 'ई' की प्राप्ति एवं.३-२७ से हो संस्कृतोष प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्ताप प्रत्यय 'जस्' :: अस्' के स्शन पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की गप्ति होकर बचिो म सिद्ध हो जाता है।
अर्थाः संस्कृत प्रपशन्त बावधन प है । इसका प्राकृत रुप (यहां पर) अत्य है । इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्वतात शेष रहे हए 'घ' को वित्व 'थ्य' को प्राप्ति; २-८९ से प्रान्त पूर्व के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त कर 'अश्य' के अन्स्य हुन्ध स्वर 'अ' के स्थान पर 'मा' को प्राप्ति; ३-४ से पपव विभमित के बहबचन में संस्कृतीय प्राप्तम्प प्रत्यय 'जस' का पाकृत में लोप; मौर १-४ पाकृत में प्राप्त बहुवचनान्त रुप 'भरथा' में स्थित अन्त्य दोध स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ को पाप्ति होकर अस्थ' रुप सिद्ध हो जाता है।
एवं संस्कृत विश्वय माधक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप से होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-१८४ से 'एच' के स्थान पर धे' आयेश और २-९९ से प्राप्त 'चेब' में स्थित '' का द्विस्व 'क' को प्राप्ति होकर 'रअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
. निरारम्भम् मरगत द्वितीयान्स एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भी निरारम्भम् हो होता है। इसमें एकरूपता होने के कारण से सानिका को आवश्यकता न होकर अपवा ३-५ से 'म' प्रत्यक्ष की प्राप्ति होकर भारत में भी बितीया-विभक्ति के एक अपन में निरारम्भम् तक ही सिद्ध करते हैं क्योंकि