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(३) ऋ की जगह 'उ' हो जाता है
ऋजु
ऋषभ
पृच्छति
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ऋॠ के पालि प्रतिरूपों में अनक विभिन्नताएँ हैं । कहीं-कहीं एक ही शब्द के दो परिवर्तित स्वरूप दृष्टगोचर होते हैं । जैसे 'कृत' से 'कत' और 'कित'; 'मृत' से 'मत' और 'मित'; 'ऋक्ष' से 'अच्छ' और 'इक्क' । कहीं कहीं इस प्रकार के समान प्रयोगों में अर्थ की कुछ भिन्नता भी हो गई है, यथा 'वड्ढि' और 'बुद्धि' दोनों सं० 'वृद्धि' के ही परिवर्तित स्वरूप हैं, किन्तु प्रथम का प्रयोग होता है उन्नति के अर्थ में और दूसरे का उगने के अर्थ में । इसी प्रकार 'मृग' के दो परिवर्तित रूप 'मग' और 'मिग' हैं । 'मग' का प्रयोग होता है सामान्य पशु मात्र के लिये, किन्तु 'मिग' का केवल हिरन के लिये । अन्य भी अनेक विचित्रताएँ हैं । 'ऋण ' का पालि में 'इण' होता है, किन्तु 'स ऋण' के लिये 'स + इण' न हो कर 'स + अण' अर्थात् 'साण' होता है । इसी प्रकार 'अनण' होता है, 'अनिण' नहीं। सम्भवतः यह परिवर्तन स्वर - अनुरूपता के कारण है । 'पितृ ' और 'मातृ' शब्दों के परिवर्तन एक जगह तो 'पितिपक्खतो' 'माति-पक्खतो' इस प्रकार होते हैं, किन्तु दूसरी जगह 'पितुघातक' 'मातुघातक' इस प्रकार होते हैं । 'पृथिवी' शब्द के पालि प्रतिरूप तो और भी अधिक आश्चर्यमय हैं -- पथवी, पठवी, पृथवी, पुथ्वी, पुठुवी। ये सब पालि के भिन्नतामयी लोक भाषा होने के साक्षी हैं । (४) कहीं कहीं ॠ व्यंजन भी हो जाता है-
संस्कृत
बृहत
वृक्ष
प्रावृत
अपावृत
(आ) 'लू' का 'उ' हो जाता है
संस्कृत
क्लृप्त
क्लृप्ति
उजु या उज्जु
उसभ
पुच्छति
पालि
ब्रूहेति
रुक्ख
पारुत
अपारुत
पालि
कुत्त
कुत्ति