Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराख ॥४५॥
शीतल जलमें प्रवेश करते भये, उनकी यह चेष्टा देखकर आकाशमें देवबाणी भई कि मुनि रूपधार कर तुम ऐसा काम मत करो, यहरूप धार तुमको ऐसा कार्य करना नरकादिक दुखको कारण है, तब वे नग्न मुद्रा तजकर बक्कल धारते भयेकैएक चरमादि धारते (पहनते) भये, कैएक दर्भ (कुशा दिक) धारते भये और फलादि से सुधा को शीतल जलसे तृषा को निवारते भये, इस प्रकार यह लोग चारित्र भ्रष्ट होकर और स्वेच्छाचारी बनकर भगवान के मत से पराङ्मुख होय शरीरका पोषण करते भये किसी ने पूछा कि तुम यह कार्य भगवान की प्राज्ञा से करो हो वा मन हीसे करो हो, तब उन्हों ने कहा कि भगवान तो मौन रूप हैं कुछ कहते नहीं हम सुघा तृषा शीत उष्ण से पीडित होकर यह कार्य करे हैं, और केएक परस्पर ( आपस में ) कहते भए कि आओ गृह में जाय कर पुत्र दारादिक का अवलोकन करें तब उनमें से किसी ने कहा जो हम घर में जावेंगे तो भरत घर में से निकाल देंगे और तीव्र दण्ड देंगे इस लिये घर नहीं जायें, तब बनही में रहें,इन सब में महा मानी मारीच भरतका पुत्र भगवानका पोता भगवे बस्त्र पहरकर परिव्राजक (संयासी) मार्ग प्रकट करत भया।
अथानंतर कच्छ महाकच्छके पुत्र नमिबिनमि आयकर भगवान के चरणोंमें पड़े और कहने लगे कि हे प्रभु तुमने सबको रान दिया हमको भी दीजे इस भांति याचना करते भए तबधरणीन्द्रका श्रासन | कंपायमान भया धरणीन्द्रने आयकर इनको विजियाका राज दिया वह विजिया पर्वत भोगभूमि के समान है, पृथिवी तलसे पच्चीस योजन ऊंचा है और सवाछै योजन का केन्द्र है और भमि पर | पचास योजनचौड़ा है और दशदश योजन ऊपर दशदशयोजनकी चौड़ीदोयश्रेणी में एक दग्विणश्रेणी
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