Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥४३४
| भये प्रथमहै नगर ग्राम गृहादिककी रचना भई और जे मनुष्य शूरवीर जानें तिनको क्षत्री वर्ण ठह
राये और उनको यह अाज्ञा भई कि तुम दीन अनाथोंकी रक्षा करो कैएकनको वाणिज्यादिक कर्म बताकर वैश्य ठहराए और जो सेवादिक अनेक कर्मके करने वाले उनको शुद्र ठहराए, इस भांति भगवानने किया जो यह कर्म भूमि रूप युग उसको प्रजा कृतयुग [सत्ययुग] कहते भए और परम हर्षको प्राप्त भए श्री ऋषभदेव के सुनंदा और नंदा यह दो राणी भई, बड़ी गणी के भरतादिक सौ पुत्र और एक ब्राह्मी पुत्री भई और दूसरी राणीके बाहुबल एक पुत्र और सुंदरी एक पुत्री भह इस प्रकार भगवान ने त्रेसठ लाख पूर्व काल राज किया और पहले बीस लाख पूर्व कुमार रहे. इस भांति तिरासी लाख पूर्व गृह में रहे। ____एक दिन नीलांजना अपसरा नृत्य करती करती विलाय [मर ] गई उसको देखकर भगवान की बुद्धि वैराग्य में तत्पर भई वह बिचारने लगे कि यह संसारके प्राणी वृथाही इन्द्रियों को रिझा कर उन्मत्त चरित्रोंकी विडंबना करे है, अपने शरीरको खेद का कारण जो जगत की चेष्टा उस से जगत जीव सुख माने है इस जगतमें कई एक तो पराधीन चाकर हो रहे हैं कई एक अापको स्वामी मान तिनपर आज्ञा करे हैं जिनके बचन गर्व से भरे है धिकार है इस संसार को जिस । जीव | दुःख ही भोगे हैं और दुःखही को सुख मान रहे हैं इस लिये मैं जगतके विष सुखोंको तजवर तप
संयमादि शुभ चेष्टा कर मोक्ष सुखकी प्राप्तिके अर्थ यत्न करूं यह विषय मुख क्षणभंगुर हैं और कर्म || के उदय से उपजे हैं इस लिये कृत्रिम [ बनावटी ] है इस भांति श्री ऋषभदेवके मन वैराग्य चिन्त
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