________________ प्रथमः सर्गः। धशालाभ्यन्तरं 'वाजिशाला तु मन्दुरे'त्यमरः / एतेनोसमाश्वलक्षणयुक्तं सितं श्वेत. मरवमुपाहरणानिन्युरित्यर्थः // 57 // तदनन्तर वे नौकर मलकारोंसे विभूषित, श्वेतवर्ण, वेग तथा ऊँचाई में भी पुरुषसे अधिक और निरन्तर चमक खुराप्रमागोंसे अश्वशाला (घुड़सवार ) के मध्यमागको चूर्णित करनेवाले घोड़ेको उस नल के लिए लाये // 57 / / अथान्तरेणावटुगामिनाऽध्वना निशीथिनीनाथमहस्सहोदरैः। निगालगाद् देवमणेरिवोत्थित विराजितं केसरकेशरश्मिभिः // 58 // अथ सप्तभिः कुलकमाह-अयेत्यादि / अथानयनान्तरं स नलो हयमारोहे. स्युचरेणान्वयः। कथंभूतमान्तरेणाभ्यन्तरेण अवटुगामिना काटिकायमस्तक. पृषभाजा 'अवटुर्धाटा काटिके'त्यमरा, अचना मार्गेण निगालगागलोदेशात 'निगालस्तु गलोद्देश' इत्यमरः / देवमणिः आवर्तविशेषः, 'निगालजो देवमणिरि' ति लक्षणात्। दिव्यमाणिक्यं च गम्यते, तस्मादुरिथरिव स्थितरित्युप्रेश। निशीथिनीनाथमहासहोदरैश्चन्द्रांशुसरशेरिल्युपमा। केसरकेशा एव रश्मय इति रूपकं तैर्विराषितम् // 58 // (भब सात कोकों ( 1158-64 से उक्त घोड़ेका वर्णन करते है-) इसके बाद गलप्रदेशस्थ देवमणि ( दक्षिणावर्त घूमी हुई बालों की मौरीरूप 'देवमणि' नामक शुमाग. सूचक चिह-विशेष ) से कण्ठके बीचमें स्थित गर्दनके ऊपरी प्रदेशकी ओर जाते हुए मार्ग निकले हुए तथा चन्द्रमाकी किरणों के समान (उज्ज्वक वर्णवाले) केसर (भयाक) के बालोंकी किरणोंसे शोभित (या-पक्षिराब गरुडके समान आचरण करनेवाले ) 'घोड़ेपर वे नक सवार हुए' ऐसा भागामी ( 1 / 64 ) ३कोकसे सम्बन्ध करना चाहिए। [ देवमणि कौस्तुम मणि तथा चन्द्रको मी कहते हैं, वे दोनों ही समुद्र से उत्पन्न है, अतएव देवमणिते उत्पन्न केरके वाकोका चन्द्रसहोदर होना उचित ही है ] // 58 // अजस्रभूमीतटकुट्टनोगतैरुपास्यमानं चरणेषु रेणुभिः / स्यप्रकर्षाध्ययनार्थमागतर्जनस्य चेतारिवाणिमाहितः / / / / / / अजस्रति / अजस्रेण भूमीतटकुट्टनेन उद्दतैकस्थित रेणुभिः रयप्रकर्षस्य धेगातिशयस्याध्ययनार्थमभ्यासायागतैरणिमाक्षितैरणुस्वपरिमाणविशिष्टजनस्य लोकस्य चेतोभिरिवेत्युत्प्रेक्षा / चरणेषु पादेषु उपास्यमानं सेव्यमानम् / 'अणुपरिमाणं मन' इति तार्किकाः // 59 // तीव्र वेग को पढ़ने के लिए भाये हुए अणुपरिमाणवाले, लोगों के मनों के समान निरन्तर भूतलको चूर्णित करनेसे उत्पन्न हुई धूलियों के द्वारा चरणों में सेवित-(घोड़ेपर वे नक सवार हुए' ऐसा अग्रिम ( 1964 ) इकोकसे सम्बन्ध करना चाहिये ) / [ उस घोड़ेका वेग मनुष्यों के मनसे मी तीव्र था, अतः वे ( लोगों के मन ) उस घोड़े के पास तीव्र वेगको सीखने के लिए आकर शिष्यके समान उसके चरणों की सेवा करते हैं, ऐसा प्रतीत होता