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अ०१३ / प्र०१
भगवती-आराधना / १५ १.४. प्रेमी जी की महाभ्रान्ति
__पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि भगवती-आराधना की "गाथा ७९-८३ में मुनि के उत्सर्ग और अपवादमार्ग का विधान है, जिसके अनुसार मुनि वस्त्रधारण कर सकता है।" इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने विजयोदया टीका के निम्नलिखित वाक्य उद्धृत किये हैं-"वसनसहित-लिङ्गधारिणो हि वस्त्रखण्डादिकं शोधनीयं महत्। इतरस्य पिच्छादिमात्रम्।" (भ.आ./ गा. गंथच्चाओ'८२)।१८
प्रेमी जी आगे लिखते हैं-"गाथा ७९-८०-८१ में शिवार्य ने भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में कहा है कि उत्सर्गलिंगवाले (वस्त्रहीन) को तो, जो कि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता है, उत्सर्गलिंग ही चाहिए, परन्तु जो अपवादलिंगी (सवस्त्र) है, उसे भी उत्सर्गलिंग ही प्रशस्त कहा है, अर्थात् उसे भी नग्न हो जाना चाहिए और जिसके लिंगसम्बन्धी तीन दोष दुर्निवार हों, उसे वसति में संस्तरारूढ़ होने पर उत्सर्गलिंग धारण करना चाहिए। १८
यह निष्कर्ष प्रेमी जी की महाभ्रान्ति का फल है। यह भ्रान्ति इसलिए हुई है कि उन्होंने निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया
१. उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि शिवार्य ने अपवादलिंग की जो परिभाषा की है, वह श्वेताम्बर-यापनीय-मान्य परिभाषा से भिन्न है। उन्होंने सपरिग्रह और मुक्ति के लिए त्याज्य तथा मुनि के लिए निन्दा के कारणभूत लिंग को अपवादलिंग कहा है, जो स्पष्टतः श्रावक का लिंग है।
२. उनकी दृष्टि इस तथ्य पर भी नहीं गयी कि शिवार्य ने आचेलक्य को मुनि का स्थितिकल्प अर्थात् अनिवार्य आचार बतलाया है और वस्त्रादि-सकलपरिग्रह त्याग किये बिना संयतगुणस्थान की प्राप्ति असंभव बतलायी है, इसलिए उनके सिद्धान्त में श्वेताम्बर-यापनीय-मान्य स्थविरकल्प के लिए स्थान हो ही नहीं सकता।
३. उन्होंने इस बात पर भी गौर नहीं किया कि श्वेताम्बर और यापनीय ग्रन्थों में जिनकल्प और स्थविरकल्प का विधान है, किन्तु भगवती-आराधना में सवस्त्र स्थविरकल्प को कहीं भी मुनिधर्म या मोक्षमार्ग नहीं माना गया है। इसलिए उसे अपवादलिंग कहे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
४. प्रेमी जी ने इस तथ्य को भी दृष्टि से ओझल किया है कि शिवार्य ने अपवादलिंगधारी को महासम्पत्तिवान् एवं परिवारवाला कहा है। ये धर्म न तो जिनकल्पिक मुनि में हो सकते हैं, न स्थविरकल्पिक मुनि में, क्योंकि दोनों अनगार होते १८. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./ पृ.७१ ।
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