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शताब्दियों में पश्चिमोत्तर से यवन, पहलव, शक, कुषाण, हूण आदि आक्रमणकारी हमारे देश में आये और पश्चिम भारत के प्रदेशों पर उन्होंने अपना आधिपत्य कर लिया। उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए उन प्रदेशों में साधुचर्या में कुछ परिवर्तन आवश्यक हो गये होंगे। उन्हीं को दृष्टिगत रखते हुए धीरे-धीरे श्वेत वस्त्रधारी अर्थात् श्वेताम्बर साधुचर्या का प्रारम्भ हुआ । मथुरा से पहली - दूसरी शताब्दी ईस्वी के जो पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, उनमें दिगम्बरत्व को ढाँपने के लिए हाथ से एक वस्त्र-पट्ट लटका हुआ प्रदर्शित है। इस प्रकार के चित्रांकन को अर्धफालक की संज्ञा दी गयी है । शक संवत् 54 (132 ईस्वी) की सरस्वती की मूर्ति पर भी अर्धफालक साधु का चित्रांकन है। इस प्रकार का चित्रांकन भी वस्त्रधारी श्वेताम्बर साधुओं की उपस्थिति का संकेत करता प्रतीत होता है ।
जैनधर्म में आस्था बनाये रखने और जैनधर्म के अनुयायियों को एक-साथ बाँधे रखने की दृष्टि से प्रभावक आचार्यों द्वारा समय-समय पर बहुत-सी व्यवस्थाएँ की गयीं, जिनको सैद्धान्तिक दृष्टि से मान्य नहीं किया जा सकता। जिन देवी-देवताओं के प्रति अथवा अन्य अमानवीय शक्तियों के प्रति लोक-मानस में सामान्य रूप से आस्था थी, उन सभी को शनैः-शनै: जैन देव- समूह में भी सम्मिलित कर लिया गया । मनोरथ पूर्ति के लिए जो विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड प्रचलित थे, उन्हें भी जैन-आराधनापद्धति में सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति को भक्ति और आराधना के लिए जो सम्बल चाहिए, वे जैनधर्म में भी उपलब्ध करा दिए गये, ताकि अपने आस-पास के परिदृश्य से आकर्षित होकर वह जैनधर्म से विमुख न हो जाएँ । इस परिप्रेक्ष्य में आराध्य अर्हन्त तीर्थंकर के अतिरिक्त शासन- देवता के रूप में तथा मनोकामना पूर्ण करने वाले देवी-देवताओं के रूप में जैनों के देव-समूह में भी बहुत से देवी-देवता सम्मिलित कर लिए गये, परन्तु इन देवी-देवताओं को तीर्थंकर से निम्न स्तरीय द्वितीय स्थान पर रखा गया । यह लोक - संस्कृति से सम्मिश्रण का प्रतीक है।
मध्य काल में 13वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक मुस्लिम शासन-काल रहा । इस काल में सभी भारतीय धर्मों को संरक्षण की विशेष आवश्यकता अनुभूत हुई । मन्दिर और मूर्तियों का ध्वंस किया जाने लगा। साधुओं के वेश और आचार की सुरक्षा कठिन हो गयी । उन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारक संस्था का प्रारम्भ हुआ। भट्टारक प्रकट रूप में वस्त्रधारी होते थे और उनका कुछ आचार दिगम्बर मुनि के समान होता था । विभिन्न स्थानों पर भट्टारकों की गद्दी स्थापित हुई, जहाँ वे जैनधर्म के अनुयायियों का धर्म मार्ग में मार्गदर्शन करते थे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसी प्रकार यतियों की गद्दियाँ स्थापित हुईं।
इस्लाम की मन्दिर - मूर्ति भंजक मानसिकता से सभी भारतीय त्रस्त थे। इस परिस्थिति में अपने धर्म के संरक्षण के लिए जैनधर्म के अनुयायियों में भी कुछ सुधारात्मक प्रयास
इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 47
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