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में पांच कम एक लाख, सातवों में पाच और सातों में तब मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं। उन पवियों में क्रम से तेरह, ग्यारह, नौ सात, पांच, तीन और एक प्रस्तार अर्थात् पटल हैं। घर्मा पृथिवी के तेरह प्रस्तारों में क्रम से निम्नलिखित तेरह इन्द्रक विल हैं।-१. सीमन्तक २. नारक ६. रोरुक ४. भ्रान्त ५. उद्भ्रान्त, ६. सभ्रान्त, ७: असंभ्रांत ८. विभ्रांत ६ त्रस्त, १०ः असित,११. वक्रान्त, १२. अवक्रान्त और १३: विक्रान्त।
श्री जिनेन्द्र देव ने बंशा नामक दूसरी पृथ्वी के प्रस्तारों में निम्नाकित ग्यारह इन्द्रक बिल बताए हैं। -१. तरक २. स्तनक, ३. मनक, ४. वनक, ५. घाट, ६. संघाट, ७. जिह्व. ८. जिह्वक, ६. लोल, १०. लोलुप और ११. स्तन लोलुप ।
तीसरी मेघा पृथ्वी के नौ प्रस्तारों में निम्न प्रकार नौ इन्द्रक बिल बतलाये हैं-१. तप्त, २. तपित, ३. तपन ४. . तापन, ५. निदाघ, ६. प्रज्वलित ७. उज्वलित, ८. संज्वलित ६. संप्रज्वलित । चौथी पृथिवी के सा निम्नलिखिति सात इनके दिल हैं- १. प्रार, .. तार ३. मार ४ बरक ५ ६मक ६ खंड ७ खडखड ।
पांचवी पृथ्वी के पांच प्रस्तारों में निम्नलिखित पांच इन्द्रक विल हैं।- १. तम २ भ्रम ३ झष ४ अन्त ५ तामिस्त्र ये इन्द्रक विल नगरों के प्रकार के हैं।
छठी पथ्वी में १. हिम २ बर्दल ३ लल्लक ये तीन इन्द्रक विल हैं। सातों पृश्चियों के सब इन्द्रक मिलकर उनचास हैं। ऊपर से नीचे की ओर प्ररे क पृथ्वी में दो दो कम हो जाते हैं । और नीचे से ऊपर की ओर प्रत्येक पृथ्वी में दो-दो अधिक हो जाते हैं।
प्रथम पथ्वी के प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी सीमन्तक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में प्रत्येक में उनचास श्रेणिबद्ध विल हैं और ये परस्पर बहुत भारी अन्तर को लिये हुए हैं।
इसी सीमन्तक विल की चार विदिशाओं में प्रत्येक में अड़तालीस श्रेणीबद्ध विल हैं। इन श्रेणियों तथा श्रेणीबद्ध बिलों के सिवाय बहुत से प्रकीर्णक विल भी हैं। इन सीमन्तक आदि नरकों में नीचे नीचे क्रम-क्रम से एक एक विल कम होता जाता है। इस प्रकार सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक के केवल चार विल हैं वहां न श्रेणी है और न प्रकीर्णक विल हैं। इस प्रकार प्रथम पृथिवी के प्रथम सीमन्तक इन्द्रक की चार दिशायों में एक सौ छियानवे चार विदिशाओं में एक सौ बानवे और सब मिलकर तीन सौ अठासी श्रेणीबद्ध विल है। दूसरे प्रस्तार के नारक इन्द्रक को चार दिशामों में एक सौ बानवे चार विदिशाओं में एक सौ अठासी और सब मिलकर तीन सौ अस्सी श्रेणीबद्ध विल हैं। तीसरे प्रस्तार के रोरुक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक सौ अठासी, चार विदिशामों में एक सौ चौरासी और सब मिलाकर तीन सौ बहत्तर श्रेणीबद्ध विल हैं। चौथे प्रस्तार के भ्रान्त नामक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक सौ चौरासी और विदिशाओं में एक सो अस्सी
उनतालीस, पचहत्तर, तेतीस, फिर तेतीस, उनतीस, पच्चीस, इक्कीस, सत्तरह और बाईस, इनमें से प्रत्येक को चमराज के प्रभार गुणा करने पर मेरु-तल से ऊपर ऊपर कम से घनफल का प्रमाण आता है।
उदाहरण-'मुहभूमि जोग दले' इत्यादि के नियम के अनुसार मौधर्मादिक का घनफल इस प्रकार है--
(१) +9:२४३४७= =१६३० (२)-31-32x1x७=१ :३७६ रा. (३)-11-४२x६४७=१४ -१६ रा० (४) +4:२४x७ -३३- १६३ रा० (५) 39-२४-२४३४७.३६ - १४३ रा. (६) २७+२-२४३४७=१५. : १२६ रा. (७) 12-२४३४७-२१-१०: रा (८) 15+१४:२४x७=१ = रा. (8) +3-२४१४-७-११ रा
योग 3
++--
+३+२
-३+२+३=१४७ रा. कुल ।