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प्रस्तावना
"जिनसेन अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में हुए हैं, जैसा कि उन्होंने पार्वाभ्युदय में कहा है । पार्वाभ्युदय संस्कृत-साहित्य में एक कौतुकजन्य उत्कृष्ट रचना है । यह उस समय के साहित्य-स्वाद का उत्पादक और दर्पणरूप अनुपम काव्य है । यद्यपि सर्वसाधारण की सम्मति से भारतीय कवियों मे कालिदास को पहला स्थान दिया गया है तथापि जिनसेन मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा अधिकतर योग्य समझे जाने के अधिकारी हैं।"
चूंकि पाश्र्वाभ्युदय प्रकाशित हो चुका है अतः उसके श्लोकों के उद्धरण देकर उसकी कविता का माहात्म्य प्रकट करना इस प्रस्तावनालेख का पल्लवन ही होगा। इसकी रचना अमोघवर्ष के राज हई है यह उसकी अन्तिम प्रशस्ति से ज्ञात होता है :
"इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेघं बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम् ।
मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशांकं भवनमवत देवः सर्वदामोघवर्षः॥"
वर्षमामपुराण'-आपकी द्वितीय रचना वर्धमानपुराण है जिसका कि उल्लेख जिनसेन (द्वितीय) ने अपने हरिवंशपुराण में किया है। परन्तु वह कहाँ है, आज तक इसका पता नहीं चला। बिना देखे उस पर क्या कहा जा सकता है ? नाम से यही स्पष्ट होता है कि उसमें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी का कथानक होगा।
___जयधवला टीका-कषायप्राभूत के पहले स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर जयधवला नाम की २० हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखकर जब श्री गुरु वीरसेनाचार्य स्वर्ग को सिधार चुके, तब उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने उसके अवशिष्ट भाग पर ४० हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखकर उसे पूरा किया। यह टीका जयधवला अथवा वीरसेनीया नाम से प्रसिद्ध है । इस टीका में आपने श्री वीरसेन स्वामी की ही शैली को अपनाया है और कहीं संस्कृत कहीं प्राकृत के द्वारा पदार्थ का सूक्ष्मतम विश्लेषण किया है। इन टीकाओं की भाषा का ऐसा विचित्र प्रवाह है कि उससे पाठक का चित्त कभी घबराता नहीं है । स्वयं ही अनेक विकल्प उठाकर पदार्थ का बारीकी से निरूपण करना इन टीकाओं की खास विशेषता है।
आदिपुराण
___ महापुराण के विषय में पहले विस्तार के साथ लिख चुके हैं। आदिपुराण उसी का आद्य भाग है। उत्तर भाग का नाम उत्तरपुराण है। आदिपुराण में ४७ पर्व हैं जिनमें प्रारम्भ के ४२ और तैतालीसवें पर्व के ३ श्लोक जिनसेनाचार्य-द्वारा रचित हैं, शेष पर्वो के १६२० श्लोक उनके शिष्य भदन्त गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित हैं। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण के पीठिकाबन्ध में जयसेन गुरु की स्तुति के बाद परमेश्वर कवि का उल्लेख किया है और उनके विषय में कहा है :
"वे कवि परमेश्वर लोक में कवियों के द्वारा पूजने योग्य हैं जिन्होंने कि शब्द और अर्थ के संग्रह-स्वरूप समस्त पुराण का संग्रह किया था।" इन परमेश्वर कवि ने गद्य में समस्त पुराणों की रचना की थी, उसी का आधार लेकर जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण की रचना की है। आदिपुराण की महत्ता बतलाते हुए गुणभद्राचार्य ने कहा है :
१. इस वर्षमानपुराण का न तो गुणभद्राचार्य ने अपनी प्रशस्ति में उल्लेख किया है और न जिनसेन
के अपरवर्ती किसी आचार्य ने अपनी रचनाओं में उसकी चर्चा की है, इसलिए किन्हीं विद्वानों का खयाल है कि वर्षमानपुराण नामक कोई पुराण जिनसेन का बनाया हुआ है ही नहीं। जिनसेन द्वितीय ने अपने हरिवंशपुराण में अज्ञातनाम कवि के किसी अन्य वर्धमानपुराण का उल्लेख किया है। प्रेमीजी ने भी अपने हाल के एक पत्र में ऐसा ही भाव प्रकट किया है। २. देखें आदि पु०१/६० ।