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प्रस्तावना
"जो शरीर से यद्यपि कृश थे परन्तु तपरूपी गुणों से कृश नहीं थे। वास्तव में शरीर की कृशता कृशता नहीं है। जो गुणों से कृश है वही कृश है।"
"जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र पक्ष में तैरने का घड़ा) को प्रहण किया और न अधिक चिन्तन ही किया, फिर भी जो अध्यात्म-विद्या के द्वितीय पार को प्राप्त हो गये।"
"जिनका काल निरन्तर ज्ञान की आराधना में ही व्यतीत हुआ और इसीलिए तत्त्वदर्शी जिन्हें ज्ञानमय पिण्ड कहते हैं।"
जिनसेन सिद्धान्तश तो थे ही, साथ ही उच्चकोटि के कवि भी थे। आपकी कविता में ओज है, माधुर्य है, प्रसाद है, प्रवाह है, शैली है, रस है, अलंकार है । जहाँ जिसकी आवश्यकता हुई, वहाँ कवि ने वही भाव उसी शैली में प्रकट किया है। आप वस्तुतस्व का यथार्थ विवेचन करना पसन्द करते थे, दूसरों को प्रस
यथार्थ विवेचन करना पसन्द करते थे, दूसरों को प्रसन्न करने के लिए वस्तुतत्व को तोड़मरोड़कर अन्यथा कहना आपका निसर्ग नहीं था। वह तो खुले शब्दों में कहते हैं, कि दूसरा आदमी सन्तुष्ट हो अथवा न हो, कवि को अपना कर्तव्य करना चाहिए । दूसरे की आराधना से भला नहीं होगा किन्तु समीचीन मार्ग का उपदेश देने से होगा।
अब तक आपके द्वारा प्रणीत निम्नांकित ग्रन्थों का पता चला है:
पार्वाम्पत्य-संस्कृत-साहित्य में कालिदास का मेघदूत नामक खण्डकाव्य बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसकी रचना और भाव सभी सुन्दर हैं। उसके चतुर्थ चरण को लेकर हसदूत, नेमिदूत आदि कितने ही खण्डकाव्यों की रचना हुई है। जिनसेन स्वामी का पाश्र्वाभ्युदय काव्य, जोकि ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों में पूर्ण हुआ है, कालिदास के इसी मेघदूत की समस्यापूर्ति-रूप है। इसमें मेघदत के कहीं एक और कहीं दो पादों को लेकर श्लोक-रचना की गयी है तथा इस प्रकार सम्पूर्ण मेघदूत इस पाश्वभ्युदय काव्य में अन्तविलीन हो गया है। पार्वाभ्युदय मेषदूत के ऊपर समस्यापूर्ति के द्वारा रचा हा सर्वप्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसकी भाषा और शैली बहुत ही मनोहर है। श्री पार्श्वनाथ भगवान् दीक्षाकल्याणक के बाद प्रतिमा-योग धारण कर विराजमान हैं। वहाँ से
सम्बर नामक ज्योतिष्क देव निकलता है और अवधिज्ञान से उन्हें अपना पैरी समझकर नाना कष्ट देने लगता है। बस इसी कथा को लेकर पार्वाभ्युदय की रचना हुई है। इसमें शम्बरदेवको यक्ष, ज्योतिर्भव को अलका और यक्ष की वर्षशाप को शम्बर की वर्षशाप मान ली है । मेघदूत का कथानक दूसरा और पाश्र्वाभ्युदय का कथानक दूसरा, फिर भी उन्हीं शब्दों के द्वारा विभिन्न कयानक को कहना, यह कवि का महान् कौशल है। समस्यापूर्ति में कवि को बहुत ही परतन्त्र रहना पड़ता है और उस परतन्नता के कारण प्रकीर्णक रचना की बात तो जाने दीजिए, सन्दर्भरचना में अवश्य ही नीरसता आ जाती है परन्तु इस पाश्र्वाभ्युदय में कहीं भी नीरसता नहीं माने पायी है, यह प्रसन्नता की बात है। इस काव्य की रचना श्री जिनसेन स्वामी ने अपने समर्मा विनयसेन की प्रेरणा से की थी और यह इनकी प्रथम रचना मालूम होती है।
१. "यः सोऽपि शरीरेण न शोऽभूत्तपोगुणैः । न हशत्वं हि शारीरं गुणैरेव कृशः सः ॥३२॥" २. “यो नागृहीत्कापालिकान्नाप्यचिन्तयाजसा । तथाप्यध्यात्मविद्याम्बेः परं पारमशिधियत् ॥३३॥" ३."शानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरम् । ततोज्ञानमयं पिण्ड यमाहस्तत्त्ववशिनः ॥३४॥" ४. "श्रीवीरसेनमुनिपावपयोजभृङ्गः श्रीमानभूविनयसेनमुनिगरीयान् ।। तच्चोवितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यपायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥"