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आदिपुराणे
द्वारा बहुत मान्यता प्राप्त की थी । २९, ३०, ३१ वें पद्यों में राष्ट्रकूट अकालवर्ष की प्रशंसा की है। इसके पश्चात् ३२,३३,३४,३५, ३६वें पद्यों में कहा है कि जब अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य वंकापुर राजधानी में रहकर सारे वनवास देश का शासन करते थे, तब शकसंवत् ८२० के अमुक-अमुक मुहूर्त में इस पवित्र और सर्वसाररूप श्रेष्ठ पुराण की भव्यजनों द्वारा पूजा की गयी । ऐसा यह पुण्य पुराण जयवन्त रहे। इसके बाद ३७ वें पद्य में लोकसेन ने यह कहकर अपना वक्तव्य समाप्त किया है कि यह महापुराण चिरकाल तक सज्जनों की वाणी और चित्त में स्थिर रहे। इसके आगे दो पद्य और हैं जिनमें महापुराण की प्रशंसा वर्णित है। लोकसेन मुनि के द्वारा लिखी हुई दूसरी प्रशस्ति उस समय लिखी गयी मालूम होती है जब कि उत्तरपुराण ग्रन्थ की विधिपूर्वक पूजा की गयी थी। इस प्रकार उत्तरपुराण की प्रशस्ति में उसकी पूर्ति का जो ८२० शकसंवत् दिया गया है, वह उसके पूजा महोत्सव का है। गुणभद्राचार्य ने ग्रन्थ की पूर्ति का शकसंवत् उत्तरपुराण में दिया ही नहीं है उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों 'आत्मानुशासन' तथा 'जिनदत्तचरित' में भी नहीं दिया है । इस दशा में उनका ठीक-ठीक समय बतलाना कठिन कार्य है। हाँ, जिनसेनाचार्य के स्वर्गारोहण के ५० वर्ष बाद तक उनका सद्भाव रहा होगा, यह अनुमान से कहा जा सकता है ।
जिनसेन स्वामी और उनके ग्रन्थ
जिनसेन स्वामी वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। उनके विषय में गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति में ठीक ही लिखा है कि जिस प्रकार हिमालय से गंगा का प्रवाह, सर्वश के मुख से सर्वशास्त्ररूप दिव्यध्वनि का और उदयाचल के तट से देदीप्यमान सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार वीरसेन स्वामी से जिनसेन का उदय हुआ । जयधवला की प्रशस्ति में आचार्य जिनसेन ने अपना परिचय बड़ी ही आलंकारिक भाषा में दिया है । देखिए :
"उन वीरसेन स्वामी का शिष्य जिनसेन हुआ जो श्रीमान् था और उज्ज्वल बुद्धि का धारक भी । उसके कान यद्यपि अविद्ध थे तो भी ज्ञानरूपी शलाका से बेधे गये थे ।""
"निकट भव्य होने के कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्सुक होकर मानो स्वयं ही वरण करने की इच्छा से जिनके लिए श्रुतमाला की योजना की थी ।"*
"जिसने बाल्यकाल से ही अखण्डित ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया था, फिर भी आश्चर्य है कि उसने स्वयंवर की विधि से सरस्वती का उद्वहन किया था । "3
" जो न बहुत सुन्दर थे और न अत्यन्त चतुर ही, फिर भी सरस्वती ने अमन्यशरणा होकर उनकी सेवा की थी ।"*
"बुद्धि, शान्ति और विनय यही जिनके स्वाभाविक गुण थे, इन्हीं गुणों से जो गुरुओं की आराधना करते थे। सो ठीक ही है, गुणों के द्वारा किसकी आराधना नहीं होती ?"५
१. " तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनः समिद्धधीः । भविवृधावपि यत्कणों बिडी शानशलाकया ।" २. " यस्मिन्नासन्न भव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका। स्वयंबरीतुकामेव भौतीं मालामयूयुजत् ॥२८॥" ३. "येवानुचरितं बाल्याद् ब्रह्मव्रतमलण्डितम् । स्वयंबरविधानेन चित्रमूढा सरस्वती ॥२६॥"
४. "यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः । तयाप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥३०॥” ५. "श्रीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिका गुणाः । सूरीनाराधयन्ति स्म गुणराराध्यते न कः ॥ ३१ ॥ "