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माविलराव
पार्वजिनमस्तुति तवा वर्धमानपुराण नामक दो अन्यों की रचना कर चुके थे तथा इन रचनाबों के कारण उनकी विशद कीति विद्वानों के हृदय में अपना घर कर चुकी थी। जिनसेम स्वामी की जयधवला टीकाका अन्तिम भाग तथा महापुराण-जैसी सुविस्तृत श्रेष्ठतम रचनाओं का हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन ने कुछ भी उल्लेब नहीं किया है। इससे पता चलता है कि उस समय इन टीकाबों तथा महापुराण की रचना नहीं हुई होगी। यह श्रीजिनसेनकी रचनाओं का प्रारम्भिक काल मालूम होता है। और इस समय इनकी आयु कम-से-कम होगी तो २५-३० वर्ष की होगीक्योंकि इतनी बायु के बिना उन-जैसा अगाध पाण्डित्य बीरगौरव प्राप्त होना सम्भव नहीं है।
हरिवंशपुराण के अन्त में जो उसकी प्रशस्ति' दी गयी है उससे उसकी रचना शकसंवत् ७०५ में पूर्ण हुई है यह निश्चित है। हरिवंशपुराण की श्लोकसंख्या दस-बारह हजार है। इतने विशाल ग्रन्थ की रचना में कम-से-कम ५ वर्ष अवश्य लग गये होंगे। यदि रचना-काल में से यह ५ वर्ष कम कर दिये जायें तोहरिवंशपुराण का प्रारम्भ काल ७०० शकसंवत् सिद्ध होता है। हरिवंश की रचना प्रारम्भ करते समय आदिपुराणके कर्ता जिनसेन की आयु कम से-कम २५ वर्ष अवश्य होगी। इस प्रकार शकसंवत् ७०० में से यह २५ वर्ष कम कर देने पर जिनसेन का जन्म ६७५ शकसंवत् के लगभग सिद्ध होता है। यह मानुमानिक उल्लेख है अतः इसमें अन्तर भी हो सकता है परन्तु अधिक अन्तर की सम्भावना नहीं है।
जयघवला टीका की प्रशस्ति से यह विदित होता है कि जिनसेन ने अपने गुरुदेव श्रीवीरसेन स्वामी के द्वास प्रारब्ध वीरसेनीया टीका शकसंवत् ७५६ फागुन सुदी १०के पूर्वाह्न में जब कि नाष्टाहिक महोत्सव की पूजा हो रही थी, पूर्ण की थी। इससे यह मानने में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि जिनसेन स्वामी ७५६ शकसंवत् तक विद्यमान थे। अब देखना यह है कि वे इसके बाद कब तक इस भारत-भूमण्डल पर अपनी शानज्योति का प्रकाश फैलाते रहे।
यह पहले लिखा जा चुका है कि जिनसेन स्वामी ने अपने प्रारम्भिक जीवन में पार्वाभ्युदय तथा वर्धमानपुराण लिखकर विद्वत्समाज में भारी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। वर्धमानपुराण तो उपलब्ध नहीं है परन्तु पाश्र्वाभ्युदय प्रकाशित हो चुकने के कारण कितने ही पाठकों की दृष्टि में आ चुका होगा। उन्होंने देखा होगा कि उसकी हृदयहारिणी रचना पाठक के हृदय को किस प्रकार बलात् अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। वर्धमानपुराण की रचना भी ऐसी ही रही होगी। उनकी दिव्य लेखनी से प्रसत इन दो काव्य-मन्बों को देखकर उनके सम्पर्क में रहने वाले विद्वान् साधुनों ने अवश्य ही उनसे प्रेरणा की होगी कि यदि आपकी दिबलेखनी
१. "शाकेव्यबसते सप्तस दिशं पंचोत्तरेतरा पातीनायुधनाम्नि कुष्मनपचे भीवल्लभ मिनाम् । पूर्वा श्रीमत्वन्तिभूमृति नृपे वत्साधिरामेऽपरा सौरानामधिमण्डलं नवयुते वीरे बराहेऽवति ॥"
२. "कवायत्राभूत की २० हजार श्लोक प्रमाण बीरसेनस्वामी की और ४० हजार लोक प्रमाण जिनसेनस्वामी की नो टीका है यह बीरसेनीया टीका कहलाती है । और बीरसेनीया टीकासहित जो कवायप्राभूत के मूलसूत्र तथा पूणिसूत्र वातिक वगैरह अन्य आचार्यों की टीका है, उन सबके संग्रह को जयधवला टीका कहते हैं। यह संग्रह किसी बीपाल नामक आचार्य ने किया है, इसलिए जयधवला
को 'श्रीपाल-संपालिता' कहा है। ३. "इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रावसिनी । बाटग्रामपुरे भीमद्गुरार्यानुपालिते ॥ फाल्गने मासि पूर्वाह ने बराम्या शुक्लपलके । प्रवर्षमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे॥ "एकोलवष्टिसमधिकसप्तशतानेषु शकनरेनास्य । समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभूतव्याल्या ॥"