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मादिपुराण
योगिराट पण्डिताचार्य नाम के किसी विद्वान् ने इसकी संस्कृत टीका की है जो विक्रम की पन्द्रहवीं शती के बाद की है। उसके उपोद्घात में उन्होंने लिखा है कि एक बार कवि कालिदास वंकापुर अमोघवर्ष की सभा में आये और उन्होंने बड़े गर्व के साथ अपना मेघदूत सुनाया । उसी सभा में जिनसेन स्वामी भी अपने सधर्मा विनयसेन मुनि के साथ विद्यमान थे। विनयसेन ने जिनसेन से प्रेरणा की कि इस कालिदास का गर्व नष्ट करना चाहिए । विनयसेन की प्रेरणा पाकर जिनसेन ने कहा कि यह रचना प्राचीन है, इनकी स्वतन्त्र रचना नहीं है किन्तु चोरी की हुई है। जिनसेन के वचन सुनकर कालिदास तिलमिला उठे। उन्होंने कहा कि यदि रचना प्राचीन है तो सुनायी जानी चाहिए । जिनसेन स्वामी एक बार जिस श्लोक को सुन लेते थे उन्हें याद हो जाता था इसलिए उन्हें कालिदास का मेघदूत उसी सभा में याद हो गया था । उन्होने कहा कि यह प्राचीन ग्रन्य किसी दूरवर्ती ग्राम में विद्यमान है अतः आठ दिन के बाद लाया जा सकता है । अमोघवर्ष राजा ने आदेश दिया कि अच्छा, आज से आठवें दिन वह ग्रन्थ यहाँ उपस्थित किया जाये। जिनसेन ने अपने स्थान पर आकर ७ दिन में पार्वाभ्युदय की रचना की और आठवें दिन राजसभा में उसे उपस्थित कर दिया। इस सुन्दर काव्यग्रन्थ, को सुनकर सब प्रसन्न हुए और कालिदास का सारा अहंकार नष्ट हो गया। बाद में जिनसेन स्वामी ने सारी बात स्पष्ट कर दी।
परन्तु विचार करने पर यह कथा सर्वथा कल्पित मालूम होती है। क्योंकि मेघदूत के कर्ता कालिदास और जिनसेन स्वामी के समय में भारी अन्तर है । साथ ही, इसम जो अमोघवर्ष की राजधानी वंकापुर बतलायी है वह भी गलत है क्योंकि अमोघवर्ष की राजधानी मान्यखेट थी और वंकापुर अमोघवर्ष के उत्तराधिकारी अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य की। यह पीछे लिख आये हैं कि लोकादित्य के पिता वंकेयरस ने अपने नाम से इस राजधानी का नाम वंकापुर रखा था। भमोघवर्ष के समय तो सम्भवतः वंकापुर नाम का अस्तित्व ही नहीं हागा, यह कथा तो ऐसी ही रही जैसी कि अमरसिंह और धनंजय के विषय में छोटी-छोटी पाठशालाओं के विद्वान् अपन छात्रों का सुनाया करते हैं :
__ "राजा भोज ने अपनी सभा में प्रकट किया कि जो विद्वान् सबसे अच्छा कोष बनाकर उपस्थित करेगा उसे भारी पारितोषिक प्राप्त होगा। धनंजय कवि ने अमरकोष की रचना की। उपस्थित करने के एक दिन पहले अमरसिंह धनंजय के यहाँ आये । ये उनके बहनोई होते थे। धनंजय ने उन्हें अपना अमरकोष पढ़कर सुनाया। सुनते ही अमरसिंह उस पर लुभा गये और उन्होने अपनी स्त्री के द्वारा उसे अपहृत करा लिया। जब धनंजय को पता चला कि हमारा कोष अपहृत हो गया है तब उन्होंने एक ही रात में माममाला की रचना कर डाली और दूसरे दिन सभा में उपस्थित कर दी। नाममाला की रचना से राजा भोज बहुत ही प्रभावित हुए और कोषरचना के ऊपर मिलने वाला भारी पुरस्कार उन्हें ही मिला।"
इस कथा के गढ़ने वाले हमारे विद्वान् यह नहीं सोचते कि अमरसिंह जो कि विक्रम के नवरत्नों में से एक थे, कब हुए, धनंजय कब हुए और भोज कब हुए । व्यर्थ ही भावुकतावश मिथ्या कल्पनाएँ करते रहते है। फिर योगिराद् पण्डिताचार्य ने पार्वाभ्युदय के विषय में जो कथा गढ़ी है उससे तो जिनसेन की असूया तथा परकीयंसहिष्णुता ही सिद्ध होती है जो एक दिगम्बराचार्य के लिए लांछन की बात है।
पाश्र्वाभ्युदय को प्रशंसा के विषय में श्रीयोगिराट् पण्डिताचार्य ने जो लिखा है कि श्रीपार्श्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई दुष्ट और पार्वाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलायी देता है, वह ठीक ही लिखा है। प्रो० के० बी० पाठक ने रायल एशियाटिक सोसायटी में कुमारिलभट्ट और भर्तहरि के विषय मे जो निबन्ध पढ़ा था, उसमें उन्होंने जिनसेन और उनके काव्य पार्वाभ्युदय के विषय में क्या ही मच्छा कहा था:
१. "श्रीपाश्र्वात् साधुतः साधुः कमठात् खलतः खलः। पार्वाभ्युदयतः काव्यं न च क्वचिदपीष्यते ॥१७॥"