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प्रस्तावना
से एक-दो ही नहीं, चौबीसों-तीर्थकरों तथा उनके काल में होने वाले शलाकापुरुषों का चरित्र लिखा जाये तो जनसमूह का भारी कल्याण हो और उन्होंने इस कार्य को पूरा करने का निश्चय अपने हृदय में कर लिया हो। परन्तु इनके गुरु श्री वीरसेन स्वामी के द्वारा प्रारब्ध सिद्धान्त-ग्रन्थों की टीका का कार्य उनके स्वर्यारोहण के पश्चात् अपूर्ण रह गया । योग्यता रखने वाला गुरुभक्त शिष्य गुरुप्रारब्ध कार्य की पूर्ति में जुट पड़ा और उसने ६० हजार श्लोक-प्रमाण टीका आद्य भाग के बिना शेष भाग की रचना कर उस कार्य को पूर्ण किया। इस कार्य में आपका बहुत समय निकल चुका । सिद्धान्तग्रन्थों की टीका पूर्ण होने के बाद जब आपको विश्राम मिला तब अपने चिराभिलषित कार्य को हाथ में लिया और उस पुराण की रचना प्रारम्भ की जिसमें त्रेसठ शलाकापूरुषों के चरित्रचित्रण की प्रतिज्ञा की गयी थी। आपके ज्ञानकोष में न शब्दों की कमी थी और न अर्थों की। अतःमाप विस्तार के साथ किसी भी वस्तु का वर्णन करने में सिद्धहस्त थे। आदिपुराण का स्वाध्याय करने बाले पाठक श्रीजिनसेन स्वामीकी इस विशेषता का पद-पद पर अनुभव करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।।
हां, तो आदिपुराण-आपकी पिछली रचना है। प्रारम्भ से लेकर ४२ पर्व पूर्ण तथा तैतालीसवें पर्व के । ३ श्लोक आपकी सुवर्ण लेखनी से लिखे जा सके कि असमय में ही आपकी आयु समाप्त हो गयी और आपका चिराभिलषित कार्य अपूर्ण रह गया। आपने आदिपुराण कब प्रारम्भ किया और कब समाप्त किया, यह जानने के कोई साधन नहीं हैं इसलिए दृढ़ता के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपका ऐहिक जीवन अमुक शक संवत् में समाप्त हुवा होगा। परन्तु यह मान लिया जाये कि वीरसेनीया टीका के समाप्त होते ही यदि महापुराण की रचना सुरू हो गयी हा और चूंकि उस समय श्री जिनसेन स्वामी की अवस्था ८० वर्ष स ऊपर हो चुकी होगी अतः रचना बहुत थोड़ी-थोड़ी होती रही हो और उसके लगभम १० हजार श्लोकों की रचना में कम-से-कम १० वर्ष अवश्य लग गये होंगे। इस हिसाब से शक सवत् ७७० तक अथवा बहुत जल्दो हुआ हो तो ७६५ तक जिनसेन स्वामो का अस्तित्व मानने में आपत्ति नही दिखती । इस प्रकार जिनसेन स्वामी ६०-६५ वर्ष तक संसार के सम्भ्रान्त पुरुषों का कल्याण करते रहे, यह अनुमान किया जा सकता है।
गुणभद्राचार्य की आयु यदि गुरु जिनसेन के स्वर्गवास के समय २५ वर्ष की मान ली जाये ता वे शक संवत् ७४० के लगभग उत्पन्न हुए होंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है परन्तु उत्तरपुराण कब समाप्त हवा तथा गुणपत्राचार्य का तक धराधाम पर जीवित रहे यह निर्णय करना कठिन कार्य है । यद्यपि उत्तरपुराण की प्रशस्ति में यह लिखा है कि उसकी समाप्ति शकसंवत् ८२० में हुई। परन्तु प्रशस्ति के सूक्ष्मतर अध्ययन के बाद यह मालूम होता है कि उत्तरपुराण की प्रशस्ति स्वयं एकरूप न होकर दो रूपों में विभाजित है। एक से लेकर सत्ताईसवें पद्य तक एक रूप है और अट्ठाईस से लेकर बयालीसवें तक दूसरा रूप है। पहला रूप गुणभद्र स्वामी का है और दूसरा उनके शिष्य लोकसेन का। लिपिकर्ताओं की कृपा से दोनों रूप मिलकर एक हो गये हैं। गुणभद्र स्वामी ने अपनी प्रशस्ति के प्रारम्भिक १६ श्लोकों में संघ की और गुरुओं की महिमा प्रदर्शित करने के बाद बीसवें पद्य में लिखा है कि अति विस्तार के भय से और अतिशय हीन काल के अनुरोध से अवशिष्ट महापुराण को मैंने संक्षेप में संग्रहीत किया। इसके बाद ५-६ श्लोकों में ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन कर अन्त के २७वें पद्य में कहा है कि भन्यजनों को इसे सुनाना चाहिए, व्याख्यान करना चाहिए, चिन्तवन करना चाहिए, पूजना चाहिए और भक्तजनों को इसकी प्रतिलिपियाँ लिखानी चाहिए । गुणभद्रस्वामी का बक्तव्य यहीं समाप्त हो जाता है।
- इसके बाद २८वें पद्य से लोकसेन की लिखी हुई प्रशस्ति शुरू होती है जिसमें कहा है कि उन गुणभद्रस्वामी के शिष्यों में मुख्य लोकसेन हुमा जिसने इस पुराण में निरन्तर गुरुविनय रूप सहायता देकर सज्जनों
१. "शब्दराशिरपर्यन्तः स्वाधीनोऽर्थः स्फुटा रसाः । सुलभाश्च प्रतिज्छन्दा: कवित्वे का दरिद्रता ॥१०१॥"
--आ.पु०,५०१