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स्वयं परका ममत्व है। इसी ममत्वके लिये जीव मानसिक तथा शारीरिक अनेक उपाधिये सहन करता है इस और ममताका वास्तविक स्वरूप समझनेकी अत्यन्त आवश्यकता है। सर्व पौद्गलिक पदार्थे पराई है इनमें और आत्मामें किसी भी प्रकारका संबन्ध नहीं है। आत्माको इनपरके ममत्वसे और उलटा सहन करना पड़ता है-श्रादि विषयोंको अपने अन्तःकरणमें स्पष्टतया जान लेनेकी आवश्यकता है। ऐसा होनेपर ही समझमें प्रासकता है कि आत्मा व्यतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तुपर ममत्व रखना नितान्त मूर्खता है, संसार है, परिभ्रमण है। यह स्थिति वैराग्य कहलाती है। . ___'विगतो रागो यस्मात् विरागः तस्य भावः वैराग्यः ' अर्थात् जिसमेंसे रागका लोप हो गया वह विराग और उसका भाव वह
वैराग्य कहलाता है। राग और ममत्व ये पर्यायवैराग्य ममत्व. वाची शब्द हैं, लगभग एक ही अर्थवाले हैं ।
राग और द्वेष अत्यन्त निकट सम्बन्धवाले होनेसे इस विषयमें जहां जहां राग शब्द आवे वहां द्वेष शब्द मी साथ ही समझलें। यह राग प्राणीको सचमुच फँसानेवाला है । इसमें दुःखकी बात यह है कि राग करते समय बहुत वार प्राणीको यह खबर नहीं पडती है कि मैं पौद्गलिकदशामें-विभावदशामें वर्त रहा हुँ, सारांशमें कहा जाय तो राग इस जीवको अपना बना कर मारता है। इसलिये राग को उपमिति भवप्रपंचके कर्ता श्री सिद्धर्षिगणि केशरीका उपनाम देते हैं । इस मोह-ममत्वरागको दूर करनेका उद्देश वैराग्यका होता है । इस रागको दूर करनेका एक ही कारण है और वह यह है कि इस जीवको संसारमें भटकानेवाला वह ही है। इसके कारण जीव वस्तुस्वरूपको यथार्थरूपसे नहीं समझ सकता है और बहुत नीची हदमें रह कर गोते खाया करता है। इसका आधिपत्य होता है तब तो जीव अपने कर्तव्याकर्तव्यका भान भी भूल जाता है । ऐसी स्थितिमें वह बहुत कर्मबन्ध करता है और रेटकी मालाके तुल्य संसार अरघट्टघट्टीमें फिरता रहता है, एक योनीमेंसे दूसरीमें और तीसरीमें इसप्रकार भटकते हुए उसका .अन्त कभी नहीं पाता है । इस ममत्व-रागको दूर करनेके अनेकों साधन होते हैं, उनमेंसे मुख्यतया करके वस्तुस्वरूपका चिन्तयन ( भावना भाना आदि )