Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितम् श्रीस्थानाङ्गसूत्रम्। (द्वितीयो विभागः [मूल तथा श्री चंद्रगच्छालङ्कार श्रीमद् अभयदेवसूरिकृत टीकाना अनुवाद युक्त] संशोधक तथा संपादक उपाध्याय श्री देवचन्द्रजी महाराज प्रकाशक तथा प्राप्तिस्थान मुंद्रा (कच्छ) अष्टकोटी बृहद्पक्षीय संघ वीर सं. २४६९ ] प्रत ५०० [वि. सं. १९९९ मुद्रक-शेठ गुलाबचंद देवचंदः मानन्द प्रिन्टिग प्रेस-भाषनगर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विषयानुक्रम पृष्ठ चतुर्थस्थानक २३१-५५५ प्रथम उद्देशः द्वितीय तृतीय च " 39 www.kobatirth.org " ३३१ ३८५ ४४४ ५०१ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie Reergreemae.ADESH ॥ॐ श्रीपार्श्वः॥ ॥ वन्देऽहम् श्रीजिनेश्वरम् ॥ श्रीमदआर्यसुधर्मस्वामिविरचितम् Biyana 900 eu1 REOGORS Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् । । मूल अने श्रीअभयदेवसूरिविरचित टीकाना अनुवाद सहित Mone"KSHAMPAREENAD...[ द्वितीयो विभागः ].०००७०...:5885F-*-*HARE AND For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३१ ॥ www.kobatirth.org ॥ अथ चतुर्थस्थानकाध्ययने प्रथमः उद्देशः ॥ त्रीजा अध्ययननुं व्याख्यान करायुं, हवे संख्याना क्रमवडे संबंधमां आवेलुं चार स्थानक नामनुं चोथुं अध्ययन शुरू थाय छे. आ अध्ययननो पूर्वना अध्ययन साथै आ प्रमाणे संबंधविशेष छे. पूर्व अध्ययनमां विचित्र प्रकारे जीव अने अजीव द्रव्यनां पर्यायो कह्या, आ चोथा अध्ययनमां पण ते ज कहेवाय छे, तेवा संबंधवडे प्राप्त थयेल आ अध्ययनना चार अनुयोगद्वारवाळा चार उद्देशकना सूत्रानुगममां प्रथम उद्देशकनुं पहेलुं सूत्र आ प्रमाणे छे चत्तारि अंतकिरियातो पं० तं०- तत्थ खलु पढमा इमा अंतकिरिया - अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति, सेणं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले हे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति णो तहपगारा वेणा भवति तहप्पगारे पुरिसजाते दीहेणं परितातेणं सिज्झति बुज्झति मुञ्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहा से भरहे राया चाउरंतचक्कवही, पढमा अंतकिरिया १, अहावरा दोच्चा अंताकरिया, महाकम्मे पञ्चाजाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir X ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ अन्तक्रियाः सू० २३५ ॥ ३३१ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx गारियं पव्वतिते, संजमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति तहप्पगारा वेयणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाते निरुद्धणं परितातेणं सिज्झति जाव अंतं करेति जहासे गतसूमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया २, अहावरा तच्चा अंतकिरिया, महाकम्मे पच्चायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते, जहा दोच्चा, नवरं | दीहेणं परितातेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा से सणंकुमारे राया चाउरंतचक्क वट्टी तच्चा अंतकिरिया ३, अहावरा चउत्था अंतकिरिया अप्पकम्मपञ्चायाते यावि भवति, से णं मुंडे | भवित्ता जाव पव्वतिते संजमबहले जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति णो तहप्पगारा वेयणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं परितातेण सिज्झति जाव सव्वदुवखाणमंतं करेति,जहासा मरुदेवा भगवती, चउत्था अंतकिरिया ४ । सू० २३५ ___ मूलार्थः-चार अंतक्रियाओ-भवनो अंत करनारी कहेली छे, ते आ प्रमाणे-' खलु' शब्द वाक्यालंकारमा छे. पहेली अंतक्रिया अल्पकर्मप्रत्यायात-अल्प कमेने लीधे देवलोकथी च्यवी मनुष्य भवने पामेल ते यावत् मुंड थई, घरथी (नीकलीने) अनगारपणाने प्राप्त थयेल, पृथ्वी आदिनी रक्षारूप बहुल (अधिक) संयमवाळो, आश्रवना निरोधरूप अधिक Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३२।। KXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxx संवरखाळो, इंद्रिय अने मननी प्रशमतारूप अधिक समाधिवाळो, स्नेह रहित, भवन तवानो अर्थी (इच्छनारो), उपधान तपन ४ स्थानकरनार, दुःखना कारणभूत कर्मने खपावनार, तपस्वी-तप करनार थाय छे तेने तथाप्रकारनो-अति घोर तप न होय, तथा- काध्ययने प्रकारना दुःखे सहन करी शकाय एवी वेदना न होय, तथाप्रकारना अल्पकर्मी विगेरे विशेषणवाळो पुरुषजात, घणा काळनी उद्देशः १ प्रव्रज्यावडे सिद्ध थाय छ-मोक्षे जाय छ, केवलज्ञानवडे जाणे छे, सकल कर्मथी मकाय छ, समग्र कर्मना छूटवाथी शीतळ४ अन्तक्रियाः थाय छ, समस्त ( शारीरिक अने मानसिक) दुःखोनो अंत करे छे-जेम चारे दिशाना स्वामी चक्रवती भरत महाराजाए को |सू०२३५ तेम. (१), हवे बीजी अंतक्रिया कहे छे-घणा कर्मोवडे बहुल कर्मवाळी प्रत्यायात-मनुष्यपणाने प्राप्त थयेल यावत् मुंड थइने ते अगारथी अणगारपणाने पामेल, अधिक संयमवाळो, विशेष संवरवाळो यावत् उपधानतपवाळो, दुःखनो क्षय करनारो तपस्वी थाय छ, तेने तथाप्रकारनो घोर तप, तथाप्रकारनी अत्यंत वेदना थाय छे, तेवा प्रकारनो पुरुषजात थोडा काळनी प्रव्रज्यावडे सिद्ध थाय छे यावत् सर्व दुःखोनो गजसुकुमाल मुनिनी माफक अंत करे छे. आ बीजी अंतक्रिया. (२), वळी अन्य त्रीजी अंतक्रिया कहे छे-महाकर्मवाळो, मनुष्यत्वने प्राप्त थयेल यावत् होय छे, ते मुंड थईने अगारथी अणगारपणाने पामेल इत्यादि जेम बीजी अंतक्रिया कही तेम जाणवी, परंतु विशेष ए के-लांचा कालनी प्रव्रज्यावडे सिद्ध थाय छे यावत् चारे दिशाना स्वामी सनत्कुमार चक्रवर्तीनी माफक सर्व दुःखोना अंतने करे छे. आत्रीजी अंतक्रिया (३), वळी अन्य चोथी अंतक्रिया कहे छ-अल्प कर्मवाळो मनुष्यपणाने पामेल यावत् थाय छे, ते मुंड थईने यावत् प्रव्रज्याने प्राप्त करेल, बहुल संयमवाळो यावत् तेने तथाप्रकारनो तप नथी, तथाप्रकारनी वेदना नथी, तेवा प्रकारनो पुरुषजात अल्पकालीन प्रव्रज्यावडे मोक्षे xxxxxxxxxxxxx PARXXXXX ★॥३३२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाय छे यावत् भगवती पूज्या मरुदेवी मातानी माफक सर्व दुःखोनो अंत करे छे. आ चोथी अंतक्रिया (४). ( सू० २३५ ) टीकार्थ :- आ (चोथा) उद्देशकनो आ प्रमाणे संबंध छे. पूर्वना (त्रीजा) उद्देशकना छेल्ला सूत्रमां कर्मना चय बिगेरे वर्णल छे. अहं पण कर्म अथवा तेना कार्यभूत भवनो अंत करवानी क्रिया कहेवाय छे. अथवा में सांभळ्युं छे के आयुष्मान् भगवाने आ प्रमाणे कहेलं, तेथी तेमनावडे जे कहेवायेलं ते कधुं तेमज वळी आ बीजुं जे तेमणे ज कहेलं ते पण कहेवाय छे, माटे आवा प्रकारना आ संबंधी व्याख्या कराय छे. अंतक्रिया एटले भवनो अंत करवो. तेमां ( चार प्रकारनी अंतक्रियामां ) जेने तथाविध तप नथी, तथाविध परीषद विगेरेथी उपजती वेदना ( पीडा ) पण नथी, परन्तु लांबा काळना दीक्षापर्यायवडे सिद्धि थाय छे ते पहेली अंतक्रिया होय. १. जेने तथाविध तप अने वेदना छे अने थोडा कालना प्रव्रज्यापर्यायवडे सिद्धि थाय तेने बीजी अंतक्रिया होय. २. जेने उत्कृष्ट तप अने वेदना (होय छे ) अने दीर्घ दीक्षापर्यायवडे सिद्धि थाय छे तेने श्रीजी अंतक्रिया होय छे. ३. वळी जेने तथाप्रकारनुं तप अने वेदना नथी अने अल्प पर्याय ( थोडा समयनी प्रव्रज्या ) वडे सिद्धि थाय छे तेने चोथी अंतक्रिया होय छे. ४. अंतक्रियानी एकस्वरूपता होवा छतां पण साधनना भेदथी चार प्रकाररूप छे. आ सामुदायिक अर्थ समजवो. अवयव (प्रत्येक शब्द) नो अर्थ नीचे प्रमाणे जाणवो-भगवाने चार अंतक्रिया कहेली छे, एम जणाय छे-प्राप्त थाय छे. 'तत्रे'ति० अहिं निरधारण-चोकस करवाना अर्थमां सप्तमी विभक्ति छे, ते चारना मध्यमां एवो एनो अर्थ छे. 'खलु' शब्द वाक्यालंकारमां छे. आ, तरत ज कहेवामां आवनार होवाथी साक्षात्रूप पहेली, बीजानी अपेक्षाए आद्य, अंतक्रिया, अहिं कोईक पुरुष, देवलोकादिने विषे जईने, त्यांथी अल्प-थोडा साधनभूत कर्मोबडे प्रत्यायात - मनुष्यत्व फरीथी जे पाम्यो ते अल्पकर्मप्रत्यायात, For Private and Personal Use Only ***** ************************************** Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KX श्रीस्थानाङ्गमूत्र सानुवाद ॥३३३॥ XXXXXXXXXXXXXXXXXKKKKKXXX एम जणाय छे. अथवा एक स्थले उत्पन्न थईने त्यांथी अल्पकर्मवाळो थयो थको जे पाछो (मनुष्य भवमां) आवेल ते अल्पकर्म- ४ स्थानप्रत्यायात अर्थात् लघु कर्मपणाए उत्पन्न थयो एवो अर्थ छे. आगळ कहेवामां आवनार महाकर्मनी अपेक्षाए मलमा जे 'च'कार 1४ काध्ययने छे ते समुच्चयना अर्थवाळो छ, 'अपि' संभावनाना अर्थमां छे. आ पक्षनी पण संभावना कराय छे, भवति-होय, से-आ अने 'ण' |x उद्देशः १ वाक्यांलकारमा छे. द्रव्यथी शिरर्नु हुँचन करवावडे अने भावथी रागादिने दूर करवाथी मुंड थईने, अगार-द्रव्यतः घरथी अने अन्तक्रिया: भावतः संसारमा आनंद माननार जीवोना निवासभूत अविवेकरूप घरथी नीकळीने, ए प्रमाणे अर्थ समजवो. अनगारिता-अगारी सू० २३५ असंयत गृहस्थ, तेनो निषेध करवाथी अनगारी-संयत, तेनो भाव ते अनगारिता अर्थात साधपणाने, प्रवजित-प्राप्त थयो अथवा विभक्तिना परिणाम( बदलवा )थी अनगारीपणाए-निग्रथपणाए प्रव्रज्याने पामेल, ते केवो छ ? 'संजयबहुले'त्ति. पृथ्वी विगेरेना संरक्षणरूप संयमवडे जे बहुल-अधिक ते संयमबहुल अथवा संयम छ विशेष जेने ते. एवी रीते संवरबहुल पण समजवु. विशेष ए के-आश्रवनो जे निरोध ते संवर, अथवा इंद्रिय अने कषायनो निग्रह विगेरे भेद, अहिं संवरबहुलनुं ग्रहण करेलुं छे ते प्राणातिपात( हिंसा )नी विरतिर्नु प्राधान्य जाणवा माटे ज. कडुं छे केएक चिय एत्थ वयं, निद्दिष्टुं जिणवरेहिं सव्वेहि। पाणाइवायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खा ॥१॥ प्राणातिपातविरमणरूप एक ज व्रत समस्त जिनवरोए कहेलुं छे, बाकीना मृषावादविरमण विगेरे व्रतो तेनी रक्षा माटे छे. आ बीजु विशेषण पण रागादिना उपशमयुक्त चित्तनी वृत्तिथी थाय छे, आ कारणथी ज कहे छे-समाधिबहुल, समाधि X॥३३३॥ KXXXXXXXXX XXXRA For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy तो प्रशमवाहिता अथवा ज्ञानादिस्वरूप, वळी समाधि स्नेह रहितने ज होय छे माटे कहे छे के-लहे-रुक्ष-शरीर अने मनने विषे द्रव्य-भावरूप स्नेह रहितपणाए कठोर, अथवा लूषयति-कमरूप मळने दूर करे छे ते लूप, आ कई रीते संवृत्त-संबरवाळो छ ? ते कारणथी कहे छ- तीरट्ठी' तीर--भवरूप समुद्रना पारने प्रार्थे छ एवा स्वभाववाळो ते तीरार्थी अथवा तीरस्थायी, तीर-भवना पारने विष स्थितिवाळो, अथवा प्राकृतपणाथी 'तीरढे 'त्ति० आ कारणथी 'उवहाणवं' ति० जेनाबडे श्रुत स्थिर कराय छे ते उपधान, अर्थात् श्रुतविषय तपना उपचारवाळो, आ कारणथी 'दुक्खक्खवे' त्ति० सुख नहिं ते दुःख अथवा तेना कारणपणाथी कर्म, तेनो जे क्षय करे छे ते दुःखक्षय, तपना निमित्तथी कर्मनुं खपवु (क्षय ) थाय छ, आ कारणथी कहे छ-'तवस्सी' ति० तप-अभ्यंतर तप, कर्मरूप इंधन( लाकडा )ने बाळनार अग्नि जेवो, निरंतर शुभ ध्यान लक्षण छ जेनुं ते तपस्वी. 'तस्स णं' ति. जे आ प्रकारनो छे तेने (णंकार अलंकारना अर्थमां छे) तथाप्रकार-महावीर भगवानना जेवो अत्यंत घोर तप (अनशनादि) न होय. वळी तथाप्रकार-अति भयंकर उपसगांदिवडे प्राप्त करवा योग्य दुःखने विषे रहेनारी वेदना न होय, अल्प कर्मवडे ( मनुष्यभवमां) आवेल होवाथी अने ते कारणथी तथाप्रकाररूप अल्प कर्मप्रत्यायातादि विशेषणना समूह युक्त पुरुषजात-पुरुषप्रकार, दीर्घ-बहुकालीन पर्याय-साधनभूत प्रव्रज्यालक्षणबडे सिद्धयतिअणिमादि सिद्धिना योगवडे कृतार्थ अथवा विशेषथी मोक्ष जवाने योग्य थाय छे, कारण के सकल कर्मना नायकरूप मोहनीय कर्मनो नाश थाय छे अने एकंदर चार घातिकर्मना नाशवडे प्रगटेल केवळज्ञानथी समग्र वस्तुने जाणे हे, तेथी भापग्राही (भव संबंधी) कोवडे मृकाय छे, तेमज परिनिवाति-समस्त कर्मोबडे थयेल विकारना समूहनुं निराकरण थवाथी शीतल थाय For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३४ ॥ www.kobatirth.org छ. हवे शुं कहें थाय छे ? ते माटे कहे छे के सकल दुःखोना अंतने करे छे अर्थात् शारीरिक अने मानसिक सर्व दुःखोना अंतने करे छे, जेने तथाविध तप अने वेदना नथी ते दीर्घकालीन पर्यायवडे कोईपण सिद्ध थयो छे ? आ शंकाने दूर करवा माटे कहे छे के'जहा से ' इत्यादि ० प्रथम जिन ऋषभदेवना पहेला पुत्र, एकसो पुत्रमां मोटा पुत्र, पूर्व दक्षिण पश्चिमना समुद्र अने हिमवान पर्वतरूप चार अंत-छेडावाळी पृथ्वीना स्वामीपणाए चातुरंत, एवा जे भरत नामना राजा चक्रवर्ती ते पूर्वभवमा कमी, सर्वार्थसिद्ध विमानथी च्यवीने, चक्रवर्त्तीपणामां उत्पन्न थईने, राज्यावस्थामां ज केवळज्ञानने उत्पन्न करीने एक लाख पूर्वनी प्रव्रज्याचाळा तथाविध तप अने वेदना रहित ज मोक्षने प्राप्त थया. आ पहेली अंतक्रिया समजवी. (१), 'अहावरे' ति० त्यारबाद बीजी अंतक्रिया (पूर्वनी अपेक्षाए अन्य अर्थात् बीजाना स्थानमां कहेवाथी बीजी) बहुभारे कर्मेवडे महाकर्मवाळो थयो थको प्रत्यायात अथवा प्रत्याजात - मनुष्य भवने प्राप्त थयेलने-महाकर्मवडे मनुष्यमां आववापणाए ते महाकर्मनो क्षय करवा माटे तथाप्रकारनं घोर तप होय छे, एम वेदना उपसर्ग विगेर पण कर्मना उदयथी प्राप्त थवा योग्य छेथाय छे, 'निरुद्धेने' ति० अल्पेन जेम श्रीकृष्णना लघु बंधु गजसुकुमाल, भगवान् अरिष्टनेमिनी समीपे प्रव्रज्या स्वीकारीने श्मशानमां कायोत्सर्गरूप महातपना करनार, शिर उपर मूकेल जाज्वल्यमान अंगाराथी उत्पन्न थयेल अत्यंत वेदनावाळा, थोडा ज समयना पर्यायवडे सिद्ध थया. शेष हकीकत सुगम छे. (२), 'अहावरे' त्यादि० सुगम छे. सनत्कुमार चोथा चक्रवर्ती, ते तो महातपवाळा अने महावेदनावाळा रोग सहित होवाथी दीर्घकालीन पर्यायवडे ते भवमां सिद्धिना अभावथी भवांतरमां सिद्धत्वने पामनार होवाथी त्रीजी अंतक्रिया (३), 'अहावरे' त्यादि० सरळ छे. जेम मरुदेवी माता, पहेला जिन ऋषभदेवनी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अन्तक्रियाः सू० २३५ | ३३४ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org माता स्थावरकायपणामां पण बहुलताए क्षीण कर्मपणाथी अल्प कर्मवाळा, वळी जेने तप अने वेदना नथी ते सिद्ध थया. उत्तम हाथी उपर बेठेला मरुदेवी मातानुं आयुष्य समाप्त धये सिद्धपणुं थयेल छे. (४) आ दाष्टतिक (उपमा अने उपमेयरूप) अर्थोनुं सर्व प्रकारे समानपणुं विचारखुं नहि. एओने देश ( अमुक अंश ) रूप दृष्टांतपणाथी विचार. ) कारण के मरुदेवीमाताने 'मुंडे भवित्ते 'त्यादि० केटलाएक विशेषणो घटी शकता नथी पण फळथी सर्वथा समानपणुं घटी शके छे. ( सू०२३५ ) पुरुपविशेषोनी अंतक्रिया कही, हवे तओना ज स्वरूपने निरूपण करवा माटे दातिक छवीश सूत्रो कहे छे चत्तारि रुक्खा पं० तं० - उन्नए नामेगे उन्नए १, उन्नते नाममेगे पणते २, पणते नाममेगे उन्नते ३, पणते नाममेगे पणते ४, १। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-उन्नते नामेगे उन्नते, तव जाव पणते नामेगे पणते २ । चत्तारि रुक्खा पं० तं०- उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणए १, उore नाममेगे पणतपरिणए २ पणते णाममेगे उन्नतपरिणते ३ पणए नाममेगे पणतपरिणए ४, ३ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते चउभंगो ४, ४ । चत्तारि रुक्खा पं० तं०- उन्नते नामेगे उन्नतरूवे तहेव चउभंगो ४, ५ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३५॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ उन्नतादि सू०२३६ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx उन्नए नामं०४.६। चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-उन्नते नाममेगे उन्नतमणे उन्न०४, ७ । एवं संकप्पे ८ पन्ने ९ दिट्ठी १० सीलायारे ११ ववहारे १२ परक्कमे १३ एगे पुरिसजाए पडिवक्खो नथि। चत्तारि रुक्खा पं० सं०-उज्जूनाममेगे उज्जू, उज्जूनाममेगे वंके, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-उज्जूनाममेगे [उज्जू] ४, एवं जहा उन्नतपणतेहिं गमो तहा उज्जुवंकेहिवि भाणियव्वो, जाव परक्कमे २६ । सू० २३६ मूलार्थ:-चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे ('नाम' शब्द संभावनाना अर्थमा छे )-कोई एक वृक्ष द्रव्यथी उन्नत-शरीरथी ऊंचो अने भावथी पण उन्नत-ऊंचो ते अशोकादि १, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी ऊंचो पण भावथी प्रणत-नीचो ते लींबडो विगेरे २, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी प्रणत-नीचो पण भावथी ऊंचो ते नीचा (नाना) *अशोकादि ३, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी प्रणत-नीचो अने भावथी पण प्रणत-नीचो ते (नाना) लींबडा विगेरे ४ (१), ए प्रमाणे वृक्षना दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-कोई साधु अथवा गृहस्थ द्रव्यथी-शरीरथी ऊंचो अने भावथी कुल, ऐश्वर्यादि लौकिक गुणवडे HIRAAM चार उन्नत-ऊंची अथवा कोईक साधु लौकिक गुणोथी अने शरीरथी ऊंचो अने दीक्षा लीधा पछी पण ज्ञानादि गुणोथी ऊंचो *टबामा त्रीजे भांगे एलची विगैरे अने चोथे भांगे नानो बावळ विगेरे जणावेल छे, ते पण संभवित जणाय छे. KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX H॥ ३३१ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xoxoxxxxxxxxxxxxxxxxxxx १. कोई पुरुष द्रव्यथी-शरीरथी ऊंचो पण भावथी नचिो २, कोई पुरुष द्रव्यथी नीचो पण भावथी ऊंचो ३, कोई एक पुरुष द्रव्यथी पण नीचो अने भावथी पण नीचो ४ (२), चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक वृक्ष द्रव्यथीशरीरथी उन्नत अने भावथी उन्नत परिणत-शुभ रसादिरूप श्रेष्ठतावडे परिणत छे १, कोई एक वृक्ष शरीरथी ऊंचो छ पण अशुभ रसादिवडे परिणत छ २, कोई एक वृक्ष शरीरथी नीचो छ पण शुभ रसादिवडे परिणत छे ३, कोई एक वृक्ष शरीरथी नीचो छे अने अशुभ रसादिवडे परिणत छे ४ (३), ए प्रमाणे चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक पुरुष जात्यादिवडे अथवा शरीरवडे उन्नत छे अने शुभ परिणामवडे पण उन्नत छे १, कोई एक पुरुष शरीरादिवडे ऊंचो छे पण परिणामवडे नीचो छ २, कोई एक पुरुष शरीरादिवडे नीचो छ पण परिणामवडे ऊंचो छे ३, कोई एक पुरुष शरीरवडे नाचो अने परिणामवडे पण नीचो छे ४ (४), चार प्रकारे वृक्षो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-कोईक वृक्ष शरीरथी ऊंचो छे अने भावथी शुभ आकारवाळो छ १, कोईक वृक्ष शरीरथी ऊंचो छ पण रूप-आकारथी कुरूप छे २, कोईक वृक्ष शरीरथी नीच (नानो) छे पण आकारथी सुंदर छ ३, कोईक वृक्ष शरीरथी नीचो अने आकारथी कुरूप छे ४, आ चार भंग जाणवा (५), ए न्याये चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक जाति विगेरेथी ऊंचा अने सुंदर आकारवाळा, २ कोईक जाति विगेरेथी ऊंचा पण खराब आकारवाळा, ३ कोईक जाति विगरेथी नीचा पण सुंदर आकारवाळा, ४ कोईक जाति विगैरेथी नीच अने खराब आकारवाळा छ (६), चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष शरीर विगेरेथी उन्नत-ऊंचा छे अने औदार्य आदि गुणथी ऊंचा मनवाळो छ १, कोई एक शरीरादिथी ऊंचो छ पण हलका मनवाळो छे २, कोई xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXX For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxx . ४- श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३६ ॥४ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः? उन्नतादि सू० २३६ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx एक शरीरादिधी नीच पण मोटा मनवाळो छ ३, कोई एक शरीरादिथी नचि अने हलका मनवाळो ४ (७). एवी रीति (८) संकल्प-विचार, (९) प्रज्ञा-सूक्ष्म अर्थनी विचारणा, (१०) दृष्टि-नजर अथवा अभिप्राय, (११) शीलाचार-स्वाभाविक आचार, (१२) व्यवहार-परस्पर देवुलेQ विगेरे, (१३) पराक्रम. आ मन प्रमुख सात भांगामां एक पुरुषजातरूप आलावा जाणवो परंतु प्रतिपक्ष (वृक्ष) सूत्र नथी. चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक वृक्ष शरीरथी-द्रव्यथी ऋजु-सरल अने भावथी पण सरल-उचित फलने देनार १, कोई एक वृक्ष शरीरथी सरल पण भावथी वक्र-विपरीत फलने देनार २, कोई एक वृक्ष शरीरथी वक्र पण भावथी सरल-उचित फलने देनार ३ अने कोई एक वृक्ष शरीरथी वक्र अने भावथी पण वक्र-विपरीत फलने देनार छे ४, एवी रीते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष शरीरादि बाह्य स्वरूपथी सरल अने अंतरथी पण सरल छे १, कोईक पुरुष शरीरादिथी सरल पण अंतरथी वक्र-मायावी छे २, कोईक पुरुष शरीरादिथी वक्र पण अंतःकरणथी सरळ छे ३ अने कोईक पुरुष शरीरादिथी वक्र अने अंतःकरणथी पण चक्र छे ४. एवी रीते जेम उन्नतप्रणत शब्दवडे गमो-आलावो कहेल छ तेम ऋजु अने वक्र शब्दबडे पण कहेवा यावत् पराक्रम पर्यंत चार चार भांगा कहेवा. एम १३ सूत्रो कहेवा (२६) (सू०२३६) टीकार्य-चत्तारि रक्ख' त्यादि० सूत्रो सरळ छे. वृश्च्यते-छेदाय छे ते वृक्षा, विवक्षावडे भगवाने ते चार प्रकारना कहेला छे, तेमा उन्नत-द्रव्यथी ऊंचो, 'नामे ति० संभावनामां अथवा वाक्यालंकारमा छे. एक-कोईक वृक्षविशेष, ते ज वृक्ष वळी जात्यादि भावथी पण ऊंचो अशोकवृक्ष विगेरे, आ एक भांगो. कोई एक अन्य वृक्ष द्रव्यथी ज ऊंचो अने प्रणत-जात्यादि xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥३३६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भावोवडे हीन (हलको) लींबडो विगेरे, आ बीजो भांगो. कोई एक वृक्ष द्रव्यथी प्रणत- नीचो ( नानो) ते ज जात्यादि भाववडे ऊंचो (श्रेष्ठ) अशोकादि, आ त्री जो भांगो. कोई एक वृक्ष द्रव्यथी ज नानो ते ज जात्यादिथी हीन लींबडो विगेरे, आ चोथो भांगो, अथवा पहेला ऊंचो अने हमणां पण ऊंचो ज-ए प्रमाणे कालनी अपेक्षाए चार भांगा जाणवा. (१), 'एव' मित्यादि० एवी रीते वृक्षनी जेम पुरुषोना चार प्रकारो, ते साधुओ अथवा गृहस्थोना पण छे. कुल, ऐश्वर्य विगेरे लौकिक गुगोवडे अथवा गृहस्थपर्याय मां शरीरवडे ऊंचो (श्रेष्ठ), वळी लोकोत्तर ज्ञानादिवडे दीक्षा पर्यायमां श्रेष्ठ अथवा उत्तम भाववडे उन्नत, वळी कामदेव विगेरेनी जेम शुभ गतिवडे श्रेष्ठ, आ पहेलो भंग. 'तहेब' ति० वृक्ष सूत्रनी माफक आ सूत्र पण 'जाव'त्ति० यावत् 'पणए नाम एगे पणए' ति० एम चार भंग पर्यंत कहे. तेमां उन्नत - कुलादिवडे अने प्रणत-ज्ञान अने बिहार विगेरेमां हीनपणार्थी शैलक राजर्षिनी जेम अथवा दुर्गतिमां जवाथी ब्रह्मदत्तनी माफक बीजो भंग जाणवो. फरीथी वैराग्यने प्राप्त थयेल शैल के राजर्षिनी माफक अथवा मेतार्यनी जेम प्रणत-उन्नत नामनो श्रीजो भंग अने उदायीनृपने मारनारनी जेम अथवा काल सौ करिक (कसाई) नी माफक प्रणत-प्रगत चोथो भंग जाणवो. (२), ए रीते दृष्टांत अने दाष्टतिकना सूत्रमां सामान्यथी कहीने तेना विशेष सूत्रोने कहे छे - ऊंचाईपणाए एक वृक्ष, उन्नत परिणत-अशुभ रसादिरूप नीचपणाने छोडीने शुभ रसादिरूप श्रेष्ठपणावडे परिणत छे, आ एक भंग. बीजा भांगामां प्रणतपरिणत- कट्टेल लक्षणविशिष्ट उन्नतपणाने छोडवाथी, अने ए बेना आधारे त्रीजो अने चोथो भांगो जाणवो. (३), आ चतुभंगी सूत्रनी विशेषता आ प्रमाणे छे-पहेलां उन्नतपणुं अने प्रणतपणुं सामान्यथी कां. आ सूत्रमां तो पूर्वनी अवस्थाथी अन्य अवस्थाने पामवावडे विशेष रूपे कहेल छे. एवी रीते उपमेयमां पण परिणत सूत्र जाणवुं (४), परिणाम आकार, बोध अने क्रियाना भेदथी त्रण प्रकारे छे, तेमां आकारनो आश्रय करीने रूपं सूत्र- छे. ५७ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३३७॥ KXXXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx तेमां उन्नतरूप (वृक्ष), आकार अने अवयवादिना सौंदर्यथी (५), गृहस्थ पुरुष संबंधे पण एमज जाणवू. प्रव्रजित तो संविग्न- ४ स्थान साधुना वेपने धरनार (६), बोधपरिणामनी अपेक्षावाळा चार (मन, संकल्प, प्रज्ञा अने दृष्टि) सूत्रो छे. तेमां जात्यादि गुणोवडे काध्ययने अथवा ऊंचाईवडे उन्नत, स्वभावे औदार्यादि युक्त मनवाळो. एवी रीते बीजा पण त्रण भंगो जाणवा. 'एव'मिति०संकल्प उद्देशः१ विगेरे सूत्रोमां चोभगीनो अतिदेश लाघव माटे सूत्रकारे कर्यो छे. संकल्पविकल्प एटले विशेष विचार. आ उन्नतपणुं औदार्य उन्नतादि विगरेथी युक्तपणाए अथवा सत्पदार्थना विषयपणावडे छे (८), श्रेष्ठ ज्ञान ते प्रज्ञा अर्थात् सूक्ष्म अर्थ- विवेचकपणुं, प्रज्ञान सू० २३६ श्रेष्ठपणुं अविसंवादि-अविरोधपणाएछे (९), दर्शन-दृष्टि-चक्षुजन्य ज्ञान अथवा नयनो अभिप्राय, तेनुं उन्नतपणुं तो अविसंवादिपणाए छ (१०), क्रियारूप परिणामनी अपेक्षावाळा त्रण सूत्रोमां शीलाचार-शील एटले समाधि, ते समाधिप्रधान आचार अथवा समाधिनो आचार-अनुष्ठान ते शीलवडे अथवा स्वभाववडे आचार. आनुं उन्नतपणुं तो निर्दपणपणाए छे, वाचनांतरमा तो शीलसूत्र अने आचारसूत्र भेदवडे कहेवाय छे अर्थात् जुदा छे. (११), व्यवहार परस्पर देवू-लेवु विगेरे अथवा विवाद, आर्नु उन्नतपणुं तो प्रशंसायोग्यपणाए छे. (१२), पराक्रम-उद्यमविशेष अथवा वीजा-शत्रुओर्नु आक्रमण करवु ( दवावq ), तेर्नु उन्नतपणुं तो अपराजितपणाए अने सारा विषयपणाए छे. (१३), उन्नतथी विरुद्ध(प्रणतपणुं) सर्वत्र विचार. 'एगे पुरी'त्यादि. आ मन विगेरे चौभंगीना सात सूत्रोमा एक ज पुरुषजातनो आलावो जाणवो. प्रतिपक्ष-बीजो पक्ष ( दृष्टांतभूत वृक्ष ) सूत्र नथी अर्थात् पराक्रम पर्यंत न कहेवू, केम के दृष्टांतभूत वृक्षोने विषे उपमेय पुरुषना धोनो (मन विगेरेनो) असंभव छ. 18 'उज्जु'त्ति० ऋजु-पूर्वनी माफक कोईक सरल वृक्ष तथा ऋजु-अविपरीत स्वभाव, उचितपणावडे फलादिना x॥ ३३७॥ KK XXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादनथी आ एक भंग. बीजा भंगमां बीजुं पद चंक-वक्र अर्थात् फलादिने विषे विपरीत, त्रीजा भंगमां पहलं पद वक्रवांको अने चोथो भंग सुगम छे. अथवा पहेला ऋजु--सरल, पछी पण ऋजु अथवा मूळमां सरल अने छेडे पण सरळ, एम ऋजु अने वक्र पदवडे चार भांगा करवा. आ दृष्टांतरूप छे. पुरुष तो ऋजु एटले बहारथी शरीर, गति, वाणी अने चेष्टा विगेरेथी सरल तेमज अंतरथी कपटरहितपणाए सुसाधुनी माफक ऋजु, आ एक भंग. तथा ऋजु तो बहारथी पूर्वनी जेम चंक-वक्र अने अंतरमां कारणवशात् कपटीपणाए सरलभाव बतावनार दुष्ट साधुनी जेवो, आ बीजो मंग. त्रीजो भंग तो कारणवशात् बहारथी बतावेल वक्रभाव अने अंतरथी कपट रहित, प्रवचन- शासनना गोपननी रक्षामां प्रवर्तेल साधुनी जेम. चोथो भंग तो बने रतिथी वक्र, तथाप्रकारना शठ-कपटीनी माफक अथवा कालना भेदवडे पण व्याख्या करवी. हवे ऋजु अने ऋजुपरिणत विगेरे अगियार चोभंगीओ लाघव (संक्षेप) माटे अतिदेशवडे कहे छे- 'एव' मिति ० आ शब्दवडे ऋजु नाम ऋजु इत्यादिवडे बतावेल क्रमथी भांगाना क्रमवडे 'येथे' ति० जे प्रकारे परिणत रूपादि विशेषणवडे [ उन्नत प्रणत ] विशेषितपणाए ऋजु-वक्र छे, आ अर्थ छे. उन्नत अने प्रणत- आ बन्ने शब्द उन्नत - उन्नत अने उन्नत - प्रणत परस्पर प्रतिपक्षभूत ( प्रणत- उन्नत अने प्रणत- प्रणत ) वडे सरखो पाठ करेल छे. 'तथा' ते प्रकारवडे परिणत अने रूपादि वे विशेषणवाळा ऋजु अने वक्र शब्दवडे पण पाठ कहेवो. क्यां सुधी ते कहेवो ? ते दर्शावता कहे छे- 'जाव परक्कमे' ति० ऋजु -वक्र वृक्ष सूत्रथी यावत् तेर सूत्र पर्यंत. तेमां ऋजु २ ऋजुपरिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणवाळा छ सूत्रो, वृक्ष दृष्टांत अने पुरुष दाष्टतिकस्वरूप छे, अने मन प्रमुख शेष सात सूत्रो दृष्टांत रहित छे. ( सू० २३६ ) हजु पुरुषना विचार संबंधी ज कहे छे के For Private and Personal Use Only ***** Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३८ www.kobatirth.org पडिमा पडिवन्नस्स णमणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासातो भासित्तए तं०-जायणी पुच्छणी अनवणी पुटुस्स वागरणी । सू० २३७, चत्तारि भासाजाता पं० तं०- सच्चमेगं भासज्जायं बीयं मोसं तइयं सच्चमोतं चउत्थं असच्चामोस ४ । सू० २३८, चत्तारि वत्था पं० तं० - सुद्धे णामं एगे सुद्धे १ सुद्धे णामं एगे असुद्धे २ असुद्धे णामं एगे सुद्धे ३ असुद्धे णामं एगे असुद्धे ४, एवामेवारि पुरिसजाता पं० तं० - सुद्धे णामं एगे सुद्धे चउभंगो ४, एवं परिणतरूवे वत्था सपविक्खा, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे चउभंगो ४, एवं संकप्पे जाव परक्कमे । सू० २३९ मूलार्थ:-बार प्रतिमाने प्रतिपन्न स्वीकारेल अनगारने चार भाषा बोलवा मांटे कल्ये छे, ते आ प्रमाणे- अन्न, पाणी विगेरेनी याचना माटे जे बोल ते याचनी, मार्ग विगेरेनुं पूछवं ते प्रच्छनी, अवग्रह ( वसति) विगेरेनी याचना अर्थात् 'हूं थोडा बखत अहं रहूं छु' एम गृहस्थने जणावयुं ते अनुज्ञापनी अने कोईए पूछेल अर्थनुं कहेनुं ते वागरणी-व्याकरणी भाषा. (सू० २३७) चार प्रकारे भाषा कहेली छे, ते आ प्रमाणे- सर्वने हितकर ते सत्य ए प्रथम भाषा, बीजी मृपा-असत्य भाषा, त्रीजी सत्यमृषा - मिश्रभाषा अने चोथी असत्यमृषा-व्यवहारभाषा. ( सू०२३८) चार प्रकारना वस्त्रो कहेलां छे, ते आ प्रमाणे- कोई एक For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *************** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ प्रतिभावतः पानकानि भाषाः शु द्धादिः सू० २३७-३९ ॥ ३३८ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx वस्त्र प्रथमथी ज तंतु विगेरेथी शुद्ध छे अने पछी पण शुद्ध छे १, कोई एक वस्त्र प्रथम शुद्ध होय छे अने पछी (मेलथी) अशुद्ध थाय छ २, कोई एक वस्त्र पहेला अशुद्ध अने पछी (धोवराववाथी) शुद्ध थाय छे ३, कोई एक वस्त्र पहेला अशुद्ध छे अने पछी पण अशुद्ध होय छे ४. एवी रीते ज चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक पुरुष जात्यादिथी शुद्ध अने गुणथी शुद्ध १, जात्यादिथी शुद्ध पण गुगथी अशुद्ध २, जाति विगेरेथी अशुद्ध पण गुणथी शुद्ध ३ अने जात्यादिथी अशुद्ध पण गुणथी अशुद्ध ४, एवी रीते परिणत अने रूप दृष्टांत सहित वस्त्रो कहेवा, ते आ प्रमाणे-१ कोई एक वस्त्र शुद्ध अने शुद्धपरिणत-शुभ परिणामवाळ,२ कोई एक वस्त्र शुद्ध पण अशुभ परिणामवाल्लं,३ कोई एक वस्त्र अशुद्ध पण शुभ परिणामवाल्छु, | अने ४ कोई एक बन अशुद्ध अने परिणामे पण अशुभ. तेम रूप शब्द साथ चार भांगा करवा. चार प्रकारना पुरुषो कहला छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक मनुष्य जात्यादिकथी शुद्ध अने मन-अंतवृत्तिवडे शुद्ध १, कोईक मनुष्य जात्यादिथी शुद्ध पण अंतवृत्तिथी अशुद्ध २, कोईक जात्यादिथी अशुद्ध पण अंतवृत्तिथी शुद्ध ३ अने कोईक मनुष्य जात्यादिथी अने अंतवृतिथी पण अशुद्ध छे. एवी रीते संकल्प यावत् पराक्रम पर्यंत शब्दो शुद्ध पद साथे जोडवा अने चार चार भांगा करवा. (सू० २३९) * एक वस्त्र शुद्ध अने शुद्ध आकारवाळू छे १, एक वस्त्र शुद्ध अने अशुद्ध आकारवाळु छे २, एक वस्त्र अशुद्ध अने शुद्ध आकारवाळ छे ३ अने एक वस्त्र अशुद्ध अने आकार पण अशुद्ध छे ४. ए प्रमाणे चार प्रकरना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक जात्यादिवडे शुद्ध अने सुंदर रूप सठाणवाळो छ १, एक पुरुष नात्यादिवडे शुद्ध पण रूपादिवडे अशुद्ध छे २, एक जात्यादिवडे अशुद्ध पण रूप आकारादिवडे शुब्ध (सुदर) छे ३ अने एक जात्यादिवडे अशुद्ध अने रूप आकारादिवडे पण अशुद्ध छे ४. OMOKOMKOKOKOKOMKOMKOXXXXXXXXXXXXXMOKOKMOKOKAK: For Private and Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३९ ॥ www.kobatirth.org टीकार्थः- स्पष्ट छे. प्रतिमा - सिद्धांतमां प्रसिद्ध भिक्षुनी बार प्रतिमा, तेने स्वीकारनारवडे जे याचना कराय छे ते याचनी - पाणी विगेरेनी याचना 'मने आमांथी आटलं पाणी विगेरे तुं आपश इत्यादि सिद्धांतना प्रसिद्ध क्रमवडे. तथा मार्ग विगेरेनुं पूछ अथवा कंईक सूत्र अने अर्थनुं पूछवुं ते प्रच्छनी, तथा [ अमुक समय पर्यंत रहेवा माटे ] अवग्रह( जग्या )नुं अनुज्ञापन - जणाववुं ते अनुज्ञापनी तथा कोईए पूछेल अर्थ विगेरेनुं प्रतिपादन करवुं ते व्याकरणी. (०२३७) भाषाना प्रसंगथी भाषाना भेदोने कहे छे 'चत्तारि भासेत्यादि० जात- उत्पत्तिधर्मविशिष्ट, ते व्यक्तिरूप वस्तु, आ कारणथी भाषाथी उत्पन्न थयेल व्यक्तिरूप वस्तुओ, भेदो प्रकारो ते भाषाजातो, तेमां विद्यमान रहेला मुनिओ, गुणो reat पदार्थोor air हितरूप ते सत्य, एक सूत्रनी अपेक्षाए प्रथम, अथवा जेनावडे जे बोलाय छे ते भाषा अथवा बोलनुं ते भाषा - काययोगवडे ग्रहण करेल अने वचनयोगवडे नीकळेल भाषाद्रव्यनी संहति (वर्गणा) नो जे प्रकार ते भाषाजात आत्मा छे, इत्यादिनी जेम. सूत्रना क्रमथी बीजं 'मोस' ति० प्राकृतपणाथी मृषा-असत्य, 'आत्मा नथी' इत्यादिनी माफक श्रीजुं सत्यामृषा - कईक सत्य ने कईक असत्य - मिश्ररूप, 'आत्मा छे, अकर्त्ता छे' इत्यादिनी जेम, चोथुं असत्यामृपा - सत्य नहिं अने असत्य नहिं, आत्मा इत्यादिनी माफक. ( आ चार भाषाजात है ). आ संबंधे वे गाथा जणावतां कहे छे के— सच्चा हिया सतामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा । तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ॥२॥ सत्पुरुषोना हितरूप ते सत्या अथवा सारा मुनिओ माटे हितरूप अथवा सुंदर मूलोत्तर गुणोने हितरूप अथवा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** ४ स्थान. काध्ययने उद्देशः १ प्रतिभावतः पानकानि भाषाः शु द्वादि: सू० १२३७-३९ ॥ ३३९ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir cxxxxxxxxxxxx ॥३॥ Xxxxxxxxxxxxxxxxx भगवाने कहेल विद्यमान जीवादि पदार्थोना माटे हितरूप ते सत्यभाषा, सेनाथी विपरीत स्वरूपवाळी ते मृषाभाषा, सत्य अने असत्य बन्ने स्वभाववाळी ते मिश्रभाषा ( सत्यमृषा) छे. अणहिगया जातीसुवि, सद्दो च्चिय केवलो असचमुसा। एया सभेयलक्खण, सोदाहरणा जहास त्रण भाषामां पण जे स्वीकारेली नथी, मात्र शब्दरूप ज छे ते असत्यमृषा-आमंत्रण अने आज्ञापन (हुकम कर) विगेरे विषयवाळी छे. आ चार भाषा भेद सहित, लक्षण सहित अने उदाहरण सहित सूत्रमा जेम कहेली छे तेम जाणवी. पुरुषना भेदर्नु निरूपण करवा माटे ज आ तेर सूत्रो-'चत्तारि वत्थे' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-शुद्ध वस्त्र--पवित्र तंतु विगेरे कारणवडे बनावेल होवाथी, वळी शुद्ध-नवीन मलना अभावथी अथवा पहेला शुद्ध हतुं अने हमणा पण शुद्ध ज छे. प्रथम भगना बे पदथी विपक्षभूत सुगम ज छे. हवे दार्टीतिकनी योजना कहे छे-'एवमेवे'त्यादि. शुद्ध-जात्यादिवडे शुद्ध, वळी निर्मल ज्ञानादि गुणपणाए अथवा कालनी अपेक्षाए 'चउभंगो'त्ति. चार भांगानो समुदाय ते चतुभंगी अथवा चतुर्भग. पुल्लिंगपणुं तो अहिं प्राकृतपणाथी छे. तेनो आ अर्थ-वसनी माफक चार भांगा पुरुषने विषे पण कहेवा. 'एव'मिति. जेम शुद्ध पदथी बीजा शुद्ध पदमा दार्टीतिक सहित चार भांगावाळू वस्त्र का, एवी रीते शुद्ध पद छ पूर्वपदमा जेने एवा परिणतपद अने रूपपदमां चार भांगावाला वस्त्रो 'सपडिवक्ख'त्ति० प्रतिपक्ष सहित (अशुद्ध परिणत विगेरे) दार्टीतिक (पुरुष) सहित कहेवा. ते आ प्रमाणे-'चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुद्धे नाम एगे सुद्धपरिणए चतुर्भगी' 'एवमेवे त्यादि० पुरुषजात Xxxxxxxxxx Ixxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गपुत्र सानुवाद ॥ ३४० ॥ www.kobatirth.org सूत्रनी चोभंगी, एवी रीते शुद्ध वस्त्र अने शुद्ध रूपनी चोभंगी वस्त्रमां करवी ए मज पुरुषमां पण चोभंगी करवी. व्याख्या तो पूर्वनी माफक जाणवी. " चत्तारी " त्यादि० शुद्ध-बहारथी अने शुद्ध मनवाळो - अंतरथी, एवी रीते शुद्ध संकल्प, शुद्ध प्रज्ञ, शुद्ध दृष्टि, शुद्ध शीलाचार, शुद्ध व्यवहार अने शुद्ध पराक्रम आ [सात सूत्रोमां] वखने छोडीने पुरुषो ज चार भांगाचाळा कहेवा, व्याख्या तो पूर्वनी माफक जाणवी. आ ज कारणथी कहे छे 'एवमि 'त्यादि ० ( सू० २३९ ) पुरुषभेदना अधिकारमा ज नीचे सूत्र कहे छे. चत्तारि सुता पं० तं०- अतिजाते अणुजाते अवजाते कुलिंगाले । सू० २४०, चत्तारि पुरिस - जाता पं० तं०- सच्चे नामं एगे सच्चे, सच्चे नामं एगे असच्चे ४, एवं परिणते जाव परक्कमे, चत्तारि वत्था पं० [सं० - सुतीनामं एगे सुती, सुईनामं एगे असुई, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता, पं० [सं० - सुतीणामं एगे सुती, चउभंगो, एवं जहेव सुद्धेणं वत्थेणं भणितं तहेव सुतिणावि, जात्र परमे । सू० २४१, चत्तारि कोरवा पं० तं० - अंबपलंब कोरवे तालपलं कोरवे वल्लिप * शुद्ध संकल्प विगेरे सूत्रोनो अर्थ पूर्वे लखाई गयेल छे, x वस्त्र जड होवाथी तेमां मन, संकल्प विगेरे चैतन्य धर्मो न होय तेथी वस्त्रमां प्रतिपक्ष सहित छ सूत्रो छे अने पुरुषमां फक्त सात सूत्रो छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ अतिजातादिः सत्या दिः कारकाः सु० २४०४२ ।। ३४० ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx लंबकोरवे मेंढविसाणकोरवे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-अंबपलंबकोरवसमाणे तालपलंबकोरवसमाणे वल्लिपलंबकोरवसमाणे मेंढविसाणकारवसमाणे । सू० २४२ __मूलार्थ:-चार प्रकारना पुत्रो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अतिजात-पितानी अपेक्षाए अधिक संपदावावाळो, श्री ऋषभदेवस्वामीनी माफक, अनुजात-पितानी अपेक्षाए समान संपदावाळो, महायशानी माफक, अपजात-पितानी अपेक्षाए हीन | संपदावाळो, आदित्ययशानी माफक, कुलांगार-कुलमां दषण लगाडनार, कंडरीकनी माफक. (सू० २४०) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-सत्य प्ररूपणा करनार अने सत्य (संयम ) पाळनार, सत्य बोलनार पण सत्य (संयम) न पाळनार, सत्य बोलनार नहिं पण सत्य (संयम) पाळनार अने सत्य बोलनार नहिं अने सत्य (संयम) पाळनार पण नहिं. एवी रीते सत्य पद साथे परिणतथी लईने यावत् पराक्रम पर्यंत चोभंगी करवी. चार प्रकारना वस्त्रो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक वस्त्र स्वभावथी शुचि अने शुचि-संस्कार करवाथी, एक वस्त्र स्वभावथी शुचि पण अशुचि-संस्कार न करवाथी, एक वस्त्र स्वभावथी अशुचिपण शुचि-संस्कार करवाथी अने एक वस्त्र स्वभावथी अशुचि अने अशुचि-संस्कार न करवाथी. एवी रीते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक पुरुष पवित्र शरीरवडे शुचि अने स्वभावथी पण शुचि, एक पुरुष शरीरथी शुचि पण स्वभावथी अशुचि, एक पुरुष शरीरथी अशुचि पण स्वभावथी शुचि अने एक पुरुष शरीरथी अशुचि तेमज स्वभावधी पण अशुचि छे. एवी रीते जे प्रमाणे शुद्ध पदवडे कयु छ तेमज शुचि पदवडे यावत् पराक्रम पर्यंत कहेQ ( सू० २४१) Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३४९ ॥ www.kobatirth.org चार प्रकारना कोरक ( कली ) कहेला छे, ते आ प्रमाणे- आंबाना फलनुं कोरक, तालना फलनुं कोरक, बेलडी - तरबूच ( कलिंगर ) विगेरेना फलनुं कोरक, मेंढाना शींगडा जेवा फलवाळी वनस्पति ( आवळ ) ना फलनु कोरक. एवी रीते चार कारना पुरुष कट्टेल छे, ते आ प्रमाणे- एक आम्रफलना कोरक समान जे पुरुष सेव्यो थको उचित काले उचित फळने आपे छे, बीजो ताल फलना कोरक समान, जे सेव्यो थको लांबे काले कष्टवडे महान उपकारकरूप फलने आपे छे, बीजो afar फलना कोरक समान थोडा समयमां कष्ट सिवाय फळने आपे छे अने चोथो मिंढविषाण ( आवळ ) ना कोरक समान मीठा वचन बोले पण कांई आपे नहि. ( सू० २४२ ) टीकार्थ:-सुताः- पुत्रो, 'अइजाए' ति० पितानी संपदाने उल्लंधीने जातः थयेल अथवा पितानी संपदाने उल्लंघीने अर्थात् पिताथी अति विशेष संपदाने पामेल अर्थात् अतिसमृद्धिवाळो माटे अतिजात अथवा अतियात श्री ऋषभ [ प्रभु]नी माफक १, तथा 'अणुजाए' ति० अनुरुप - समान संपत्तिवडे पितानी जेवो थयेल ते अनुजात, अथवा अनुगत- पितानी ऋध्धिवडे अनुसरनार - पिता समान, महायशानी माफक, आदित्ययशा पितावडे तेनुं तुल्यपणुं होवाथी, तथा ' अवजाए 'ति० अप-हीन पितानी संपत्तिथी हीन थयेल ते अपजात, पिताथी कंईक हीन गुणवाळो, आदित्ययशानी माफक भरत चक्रीनी अपेक्षाए तेनुं हीनपणुं होवाथी, तथा 'कुलिङ्गाले' ति० कुल - पोताना गोत्रमां अंगारो, दोषनो करनार होवाथी अथवा संतापनो करनार होवाथी कंडरीकनी माफक ४, एवी रीते शिष्यनुं चार प्रकारपणुं जाणवुं सुत शब्दनी शिष्योमां पण प्रवृत्ति छे, तेमां अतिजात- सिंहगिरि आचार्यनी अपेक्षाए वज्रस्वामीनी जेम १, अनुजात - शय्यंभव आचार्यनी अपेक्षाए यशोभद्र आचार्यनी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ अतिजाता दिः सत्या दिः कारकाः सू० २४०४२ ॥ ३४१ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx माफक २, अपजात-भद्रबाहुस्वामीनी अपेक्षाए स्थूलभद्रनी माफक अने कुलांगार-कुलवालक साधुनी माफक, अथवा उदायिनृपने मारनार(कपटी साधु)नी माफक (सू० २४०) तथा 'चत्तारी' त्यादि० जेम छे तेम वस्तुने कहेबाथी अने जेबी रीते प्रतिज्ञा करेल तेवी रीते करवाथी सत्य, वली सत्य-संयमीपणावडे सत्वोने-जीवोने हित होवाथी अथवा पूर्वे सत्य हाँ, हमणा पण सत्य ज छे एवी रीते चोभंगी करवी, ए प्रमाणे सूत्रोने अतिदेश करतां थकां कहे छे-'एव'मित्यादि० स्पष्ट छे. विशेष आ प्रमाणे सूत्रो छे-चत्तारि परिसजाया पं० २०-सच्चे नामं एगेसच्चपरिणए४, एवं सच्चरूवे ४ सच्चमणे ४ सच्चसंकप्पे ४ सच्चपन्ने ४ सच्चदिवी ४ सच्चसीलायारे ४ सच्चयवहारे ४ सच्चपरकम्मति ४॥१ सत्य अने सत्यपरिणत, २ सत्य अने असत्यपरिणत, ३ असत्य अने सत्यपरिणत, ४ असत्य अने असत्यपरिणत. एवी रीते सत्य रूपपद, सत्य मनपद, सत्य संकल्पपद, सत्य प्रज्ञापद, सत्य दृष्टिपद, सत्य शीलाचार, सत्य व्यवहार अने सत्य पराक्रम-आ बधा उत्तरपदो साथे पूर्वमा सत्यपद जोडवाथी चतुर्भगी थाय छे. पुरुषोना अधिकारमा ज आ बीजूं कहे छे-'चत्तारि वत्थे 'त्यादि० शुचि-स्वभावे पवित्र, वली संस्कारवडे पवित्र अथवा कालना भेदवडे एटले पूर्वे पण पवित्र अने पछी पण पवित्र. पुरुषनी चाभंगीमां शुचि पुरुष दुर्गध रहित शरीरवडे वली शुचि स्वभाववडे, 'सुइपरिणए सुइरूवे' आबे सूत्रो दृष्टांत अने दार्टीतिक सहित छे. 'सुहमणे' इत्यादि. पुरुष मात्रने आश्रित ज सात सूत्रने अतिदेश करता थका कहे छे 'एवं मित्यादि० सुगम छे. (सू०२४१) पुरुषना अधि| कारमा ज आ अन्य सूत्र कहे छे-'चत्तारि कोरवे' इत्यादि० तेमां आंबो, तेनु प्रलंब-फळ, तेनु कोरक-तेने उत्पन्न करनार मुकुल (कलिका) ते आम्रपलंबकोरक, एवी रीते बीजा पण जाणवां. विशेष कहे छे के-ताल-वृक्षविशेष (ताडि), वल्ली Xxxxxxxxxxxxxxxxxx:XXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ त्वक्खादादिः सू० २४३ श्रीस्था कालींगा विगैरेनी बेलडीओ. मढविषाणा-मेंढाना शीगडा समान फळवाळी वनस्पतिनी जाति, अर्थात् आवळ, तेनु कारक ते नाङ्गसूत्रमंडवियाणा मढविषाणकोरक. आ चार ज कोरक दृष्टांतपणाए ग्रहण करेला छे माटे चार एम का छे, परंतु लोकमां (कोरक) चार ज नथी सानुवाद परन्तु अति घणा जणाय छे. 'एवे'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के-उपनय आ प्रमाणे जाणवो-जे पुरुष, सेवायो थको ॥३४२॥ योग्य कालमां उचित उपकाररूप फळने आपे छे ते आम्रप्रलंबकारक समान, वळी जे पुरुष सेवकने घणा काळवडे कष्टथी महान् उपकारफळने करे छे ते तालप्रलंबकोरक समान, वळी जे पुरुष क्लेश विना तत्काल फलने आपे छे ते वल्लीप्रलंबकोरक समान अने जे पुरुष सेवायो थको पण सारां वचनोने ज कहे छे परंतु कंईपण उपकार करतो नथी ते मेंढविषाणकोरक समान जाणवो. आवळना कोरकनो सुवर्ण जेवो वर्ण होवाथी अने न खावा लायक फळने देनार होवाथी तेनी उपमा आपी छे. (५० २४२) पुरुषना अधिकारमा ज घुण( लाकडाने कोतरनार जंतु )ना सूत्रने कहे छे चत्तारि घुणा पं० तं०-तयक्खाते छल्लिक्खाते कट्रक्खाते सारक्खाते. एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं०२०-तयक्खायसमाणे जाव सारक्खायसमाणे, तयक्खातसमाणस्स णं भिक्खागस्स सारक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, सारक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स तयक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कट्टक्खायसमाणे तवे पण्णते, कटक्खायसमाणस्स गं भिक्खागस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते । सू० २४३ XxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXX oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy ॥३४२॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ मूलार्थ:-चार प्रकारना घुणा (काष्ठमां उपजे ते जीवो) कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक घुणा बहारनी त्वचा (छाल)खानार, कोई एक अंतरी छालने खानार, कोईएक लाकडाने खानार अने कोईएक लाकडाना सार ( गर्भ ) ने खानार, आ दृष्टांते चार प्रकारे भिक्षुको-साधुओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- एक बहारनी त्वचा -छालना खानार घुणा सरखा, ते साधु आयंबिल प्रमुख तप करनार अने तुच्छ आहारना करनार, एक अंदरनी छालने खानार घुगा समान साधु, ते लेप रहित (चणा विगेरे) आहारना करनार, कोई काष्ठना खानार घुणा समान साधु, विगय रहित आहार करनार, कोईक सार खानार घुणा समान साधु, सरस भोजन करनार, त्वचाने खानार समान साधुनुं सार खानारना जेवुं तप छे, सारने खानार समान साधुनुं त्वचाने खानार समान तप छे, छालने खानार समान साधुनुं काष्ठने खानार समान तप छे अने काष्ठने खानार समान साधुनुं छाल खानार समान तप छे. ( सू० २४३ ) टीकार्थ :- त्वचं - बहारनी छालने जे खाय छे ते त्वक्खाद त्वचाने खानार, एवी रीते शेष (त्रण) जाणवा. विशेष ए के'छल्लि ' ति० अंदरनी छाल, काष्ठ - लाकडुं अने सार - लाकडानो मध्य-अंदरनो भाग, आ दृष्टांत छे. 'एवमेवे 'त्यादि ० उपनय सूत्र छे. भिक्षण स्वभाववाळा, याचनाना धर्मवाळा अथवा भिक्षामां श्रेष्ठ ते भिक्षाको (मुनिओ), त्वचाने खानार घुणा समान - अत्यंत संतोषीपणाए आयंबिलादि तपमां प्रांत-तुच्छ आहारना खानार होवाथी त्वचाने खानार जेवो १, एवी रीते अंदरछालने खानार जेवो, लेप रहित आहारने करनार होवाथी २, काष्ठने खानार जेवो, विगय रहित आहार करवाथी ३, सार खानार जेवा, सर्वकामगुण-इंद्रियोने पुष्टि करनार आहार करवाथी, आ चारे भिक्षुओना उपविशेषने कहेनारुं सूत्र - ' तय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ******* Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३४३॥ उद्देशः १ त्वक्खादादिः सू० २४३ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx क खाये' त्यादि० सुगम छे, भावार्थ ए छे के-बहारनी छाल जेवा असार आहार वापरनारने आसक्तिपणुं न होवाथी कर्मना भेद(विनाश )ने स्वीकारीने वज्रसार (वन जेवू) तप होय छे, माटे सूचना करे छे-'सारक्खायसमाणे तवे त्ति. सारने खानार होवाथी सार खानार घुणानुं सामर्थ्य अने वज्र जेवू मुख होवाथी १, सारने खानार समान कहेल लक्षणवाळा साधुनुं सरागपणाए बहारनी हालने खानार समान तप होय छे, ते कर्मना रसने भेदवाने समर्थ थतुं नथी, बहारनी छालने खानार घुणाने चोकस त्वक् छाल )खावाप' होवाथी काष्ठना सारना भेदन प्रत्ये असमर्थ होवाथी २, तथा अंतरछालने खानार घुणा जेवा साधुने बहारनी छाल खानार घुणा जेवानी अपेक्षाए कईक विशिष्ट-सारा भोजनना करवावडे कईक सरागपणुं होवाथी अने काष्ठना सारने खानार अने काष्ठने खानार घुणा समान साधुनी अपेक्षाए तो हलका भोजन करवाबडे आसक्ति न होवाथी कर्मना भेदन प्रत्ये काष्ठने खानार घुणा समान तप कडुं छे. सारने खानार घुणानी जेम अति तीव्र तप नहि अने त्वक् अने छालने खानार घुणानी माफक अतिमंद विगेरे तप नहिं, आ रहस्य छे ३, काष्ठने खानार घुणा जेवा साधुने सारने खानार घुणा जेवानी अपेक्षाए सार रहित भोजन करवावडे आसक्ति न होवाथी त्वक् (बहारनी छाल) अने अंतर छालने खानार घुणा जेवा साधुनी अपेक्षाए विशेष सारा भोजनने करवावडे अने सरागपणु होवाथी छालने खानार घुणा समान तप का छे, कर्मना भेदन प्रत्ये सारने खानार अने काष्ठने खानार घुणानी जेम अतिसमर्थ विगेरे तप नथी, त्वकने खानार घुणानी माफक अतिमंद पण नथी ४. प्रथम विकल्पमा प्रधानतर तप, बीजामां अप्रधानतर, त्रीजामा प्रधान अने चोथा विकल्पमा अप्रधान तप छे. (सू० २४३) हमणा ज वनस्पतिना अवयवोने खानार घुणाओ कह्या, माटे वनस्पतिनी kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४॥३४३॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalbirth.org Acharya Shei Katasagarsur Gyarmandie KXXXKKKKKKAKKAKXXXXXKKKoxxxxxoxox) ज प्ररूपणा करतां कहे छे चउविहा तणवणस्सतिकातिता पं० तं-अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया। सू० २४४, चउहि ठाणेहिं अहुणोववण्णे णेरइए णेरइयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचातेइ हव्वमागच्छित्तते, अहुणोववण्णे नेरइए णिरयलोगसि समुन्भूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेजा माणसं लोगं हव्वमागच्छित्तते णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते १, अहणोववन्ने णेरइए निरत्लोगसि णिरयपालेहिं भुजो २ अहि द्विजमाणे इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेवणं संचातेति हव्वमागच्छित्तते २, अहुणोववन्ने णेरइए णिरतवेयणिज्जास कम्मंसि अवखीणसि अवेतितंसि अणिजिन्नसि इच्छेज्जा०, नो चेव णं संचाएइ ३. एवं णिरयाउआंस कम्मंसि अक्खीणसिजावणो व णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते ४, इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहणोववन्ने नेरतिते जाव नो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तए ४। सू० २४५, कप्पंति णिग्गंथीणं चत्तारि संघाडीओ धारित्तए वा परिहरित्तते वा, तं०-एगं दुहत्थवित्थारं, दो तिहत्थवित्थारा एगं चउहत्थवित्थारं । सू० २४६ DXXXXXXXXXXXXXXXXXXX.KOMXXXXxxxx. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaithong Acharya Shri Kailasagarsuri Gyarmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ३४४॥ मूलार्थ:-चार प्रकारे तृणवनस्पतिकायिको कहेल छे, ते आ प्रमाणे अग्रबीज कोरंटक, घउं विगेरे, मूलबीज-कंद विगेरे, ४ स्थानपर्वबीज-शेलडी विगेरे अने स्कंधवीज-सल्लकी (कांस) विगेरे (सू० २४४), चार स्थान-कारणवडे तत्काल उत्पन्न थयेल काध्ययने नारक, नरकलोकमांथी मनुष्यलोकमां शीघ्र आववाने माट इच्छे, पंरतु ते मनुष्यलोकमां आववाने माटे समर्थ न थाय, उद्देशः१ हमणा उत्पन्न थयेलो नैरयिक, नरकलोक( भूमि )मा उत्पन्न थयेली वेदनाने वेदतो थको मनुष्यलोकमां शीघ्र आववाने अग्रर्वाजामाटे इच्छे, परंतु ते मनुष्यलोकमा आववाने माटे समर्थ न थाय १, वर्तमानमा उत्पन्न थयेल नैरयिक, नरकभूमिमां नरकपालो- दिः नारकापरमाधामीओवडे वारंवार आक्रमण करायो थको मनुष्यलोकमां शीघ्र आववा माटे इच्छे परन्तु शीघ्र आववा माटे समर्थ न थाय xगमः संघा२, वर्तमानमा उत्पन्न थयेल नैरयिक, नरकमा भोगववा योग्य असातावेदनीयादि कर्म, स्थितिवडे क्षीण न थये छते, विपाकवडे ट्यः सू० न भोगवाये छते अने आत्मप्रदेशथी अलग न थये छते मनुष्यलोकमां आववाने माटे इच्छे, परंतु आववा माटे समर्थ न २४४-४६ थाय ३, एवी रीते नरकायुष्क कर्म, स्थितिथी क्षीण न थये छते यावत् शब्दवडे विपाकथी न वेदाये छते अने निर्जरा नहि थये छते नैरयिक मनुष्यलोकमां आववाने माटे इच्छे, परंतु आवी शके नहीं ४. आ उक्त चार कारणवडे वर्तमानमा उत्पन्न थयेल नैरयिक यावत् मनुष्यलोकमां आववाने माटे शक्तिमान थाय नहि (सू० २४५), निग्रंथी-साध्वीओने चार संघाटिका-पछेडी धारवा माटे, लेवा माटे अने ओढवा माटे कल्पे छे, ते आ प्रमाणे-एक पछेडी बे हाथना विस्तारवाळी, उपाश्रयमां ओढवा माटे. बे पछेडी त्रण हाथना विस्तारवाळी, तेमां एक गोचरीमां अने एक स्थंडिलभूमिमां जवा माटे. एक चार हाथना विस्तारवाळी पछेडी, ते समवसरणमा जवा माटे ओढे. (सू० २४६ ) १४४ KXX Xxxxxx Xxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org टीकार्य :- 'चउच्वि' त्यादि० वनस्पतिओ प्रसिध्ध छे. ते ज काय-शरीर छे जेओने ते वनस्पतिकायो, तेओ ज वनस्पतिकायिको, तृणनी जातिवाळा वनस्पतिकायिको ते तृगवनस्पतिकायिको अर्थात् बादरो. अग्र-आगळ बीज छे जेओनुं अग्रबीजो, कोरंटक विगेरे, अथवा अग्र-आगळमां बीज छे जेओने ते अग्रबीजो-त्रीही [ चोखानी जात ] विगेरे. मूलमां ज बीज छे जेओने ते मूलबीजो-कमलना कंद विगेरे, एवी रीते पर्वबीजो-शेलडी विगेरे, स्कंधबीजो- सल्लकी विगेरे. स्कंध एटले थड आ सूत्रो चीजा वनस्पति जीवोनो निषेध करनारा नथी, तेथी बीजरुह - बीजथी उत्पन्न थनार अने सम्मूर्च्छन- स्वाभाविक उत्पन्न धनार विगेरे वनस्पतिओनो अभाव मानवो नहि. जो अभावनी मानीए तो बीजा सूत्र साथै विरोध आवे. (सू० २४४) हमणां ज वनस्पति जीवोना चार स्थानक कथा, हवे जीवना साधर्म्यथी नारकर्जावाने आश्रयीने ते कहे छे 'चउही' त्यादि० सुगम छे. विशेष एके ठाणेहिं ति० कारण वडे 'अहुणोववन्ने' ति० तत्काल उत्पन्न थयेल, नीकळी गयेल छे शुभ कर्ममांथी ते निरय-नरक, तेमां उत्पन्न थवेल ते नैरयिक, तेनुं अनन्य (बीजुं नहि एवं) उत्पत्तिनुं स्थानपणुं बताववा माटे कहे छे - नरकलोकमां, ते स्थानथी आ मनुष्योना लोक क्षेत्रविशेष प्रत्ये ' हव्व' शीघ्र आववा माटे इच्छे 'नो चेव' ति० नहीं. 'ण' वाक्यालंकारमां छे. ' संचाए ' आववा माटे समर्थ, अर्थात् आवी शके नहि. 'समुन्भूयं 'ति० अत्यंत प्रबलपणाए उत्पन्न थयेली, पाठांतरथी सम्मुखभूतां एक हेला मात्रमां ( थोडी वारम) उत्पन्न थयेली, पाठांतरथी समहद्भूतां अथवा सुमहद्भूतां जे महान् नथी तेने महान् थवं ते महद्भुत, तेनी साथे जे ते समहद्भूता अथवा सुमहद्भुता, एवी दुःखरूप वेदनाने अनुभवतो थको इच्छा करे, आ मनुष्यलोकमा आववानी इच्छानुं प्रथम कारण (१), असमर्थनुं ए ज For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागसत्र सानुवाद ॥३४५॥ kxxxXKKKKKXXXXXXXXXXXXxxxxxxxx) कारण छे केम के वि वेदनाथी पराभव पामेल आववा माटे समर्थ नथी. अब विगेरे नरकपालोवडे वारंवार दबायो थको ४ ४ स्थान(नारक), मनुष्यलोकमां आववाने इच्छे, आ आगमननी इच्छानुं बीजुं कारण (२) अने आवबामां अशक्तिर्नु ए ज कारण छे, काध्ययने केम के तेओवडे अत्यंत दबायेल होवाथी आववाने अशक्त छे. तथा नरकभूमिमां जे अनुभवाय छे अथवा नरकभूमिने उद्देशः १ योग्य जे वेदनीय ते निरयवेदनीय अत्यंत अशुभ नामकर्म विगेरे अथवा असातावेदनीय, ते कर्मस्थितिवडे क्षीण न थये छते, अग्रवीजादि अनुभाग-विपाकवडे अनुभव न थये उते, जीवना प्रदेशोथी दूर न थये छते, मनुष्य लोक प्रत्ये आववानी इच्छा करे परंतु नारकागमः आवी शके नहि. अवश्य वेदवा योग्य कर्मरूप निगड( बेडी)बडे बंधायेल होवाथी आववाने असमर्थमां ए ज कारण छे (३), संघाटयः तथा 'एव' मिति. 'अहुणोववन्ने' इत्यादि अभिलाप-कथन सारी रीते सूचन करवा माटे छे. नरकनुं आयुष्यकर्म क्षीण न थये छते यावत् शब्दथी' अवेइए' इत्यादि पाठ जोयो (४), निगमन (निचोड) करता थका कहे छे-'इच्चेएहिं' सू० २४४ति० आ चार प्रकारना प्रत्यक्ष कारणोवडे हमणां ज कहेवायु. (सू० २४५) हमणां ज नारकर्नु स्वरूप कह्यु, नारको असंयमने सहायक परिग्रहथी उत्पन्न थाय छे माटे तेना विपक्षीभूत (संयमने सहायक) परिग्रहविशेषने चार स्थानकमां अवतारता थका कहे हे-'कप्पंती'त्यादि. कल्पे छे-युक्त छे, ग्रंथथी-बंधना हेतुभूत सुवर्ण विगरेथी अने मिथ्यात्वादिथी निर्गत-मुक्त थयेली निग्रंथीओ-साध्वीओ, तेणीओने संघाटीआ उत्तरीय(वस्त्र)विशेष-पछेडीओ स्वीकारवामां, पहेरवा माटे, बे हाथनो विस्तार-पहोळाई छे जेणीनो ते बे हाथवाळी 'कल्पते ' आ क्रियापदनी अपेक्षाए संघाटीओनुं कर्त्तापणुं छे, 'एग दुहत्यवित्यारं, एगं चउहत्यवित्थारं' ति. अहिं प्रथम विभक्तिना अर्थमां प्राकृतपणाथी बीजी ४॥३४५॥ RXXXXXXXXxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विभक्ति कहेली छे अथवा धारयन्ति परिभुञ्जते च आवी रीते प्रत्ययना फेरफारवडे क्रियानुं अनुस्मरण करवाथी द्वितीया विभक्ति ज थाय छे, ते पछेडीना विषयमां पहेली (बे हाथना विस्तारखाळी ) उपाश्रयमां ओढवा योग्य छे. त्रण हाथना | विस्तारवाळी वे पछेडी पैकी एक गोचरी जवामां, बीजी स्थंडिलभूमि जवामां अने चोथी समवसरणमां. कछु छे केसंघाओ चउरो, तत्थ दुहत्था उवसयंमि । दुन्नि तिहत्थायामा, भिक्खट्ठा एग एग उच्चारे ॥४॥ ओसरणे चउहत्था, निसन्नपच्छायणी मसिणा । साध्वीओने चार संघाटीओ कल्पे छे, तेमां वे हाथना विस्तारवाळी उपाश्रयमां ओढवा माटे, त्रण हाथनी पहोळाईवाळी पछेडी पैकी एक मिक्षाने अर्थे अने एक उच्चार ( वडीनित ) जवामां आ सर्व पछेडीओ लंबाईमां साडात्रण हाथ अथवा चार हाथनी जोईए. एने ओढया सिवाय क्यारे पण खुल्ले शरीरे रहेवुं नहिं. समवसरणमां चार हाथना विस्तारवाळी अने चार हाथी लांबी पछेडी ओढवी कल्पे, केम के समवसरणमां साध्वीओए ऊभा रहेवुं जोईए, तेओ थी बेसाय नहिं माटे समस्त अंगने ढांकवा वास्ते पछेडी मोटी जेईए. आ चारे पछेडीओ देहने ढांकवा माटे तथा श्लाघादिने माटे ओढाय छे (४) (मू० २४६) नारकपणुं ध्यानविशेषथी होय छे अने ध्यानविशेष माटे ज संघाटिका विगेरेनुं ग्रहण छे, ए हेतुथी ध्याननुं वर्णन करे छे. * 'धारितए वा परिहरित्तए वा, धारयितुम् परिहरिहत्तुम् ' अहि तुम् प्रत्ययने बदले धारयन्ति परिभुञ्जते आ क्रियापद लीघेल छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४स्थान श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३४६॥ xxxxxxxxxxx काध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ xxxxxxxxxxx:XXXXXXXXXXXxxxxxx चत्तारि झाणा पं० तं०-अहे झाणे रोद्दे झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे, अट्टे झाणे चउबिहे पं० तं०-अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति १, मणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति २, आयंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागए यावि भवति ३, परिजुसितकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवइ ४. अदृस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-कंदणता सोतणता तिप्पणता परिदेवणता । रोद्दे झाणे चउठिवहे पं० २०-हिंसाणुबंधि मोसाणुबंधि तेणाणुबंधि सारक्खणाबंधि, रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० सं०-ओसण्णदोसे बहुदोसे अन्नाणदोसे आमरणंतदोसे । धम्मे झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पं० त०-आणाविजते अवायविजते विवागविजते संठाणविजते, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-आणाई णिसग्गरुई सुत्तराई ओगाढरुती, धम्मस्सणं झाणस्तचत्तारि आलंबणा पं० त०-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा, धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० २०-एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुप्पेहा असरणा ॥३४६॥ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारी २, सुहुमत अन अजवे, सुकत्यहा बाय गुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, सुके झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पं० तं०-पुहुत्तवितके सवियारी १, | एगत्तवितके अवियारी २, सुहमकिरिते अणियही ३, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाती ४, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० त०-अव्बहे असम्मोहे विवेगे विउस्सग्गे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं० २०-खंती मुत्ती मद्दवे अजवे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० तं०-अणंतवत्तियाणुप्पहा विष्परिणामाणप्पेहा असुभाणुप्पेहा अवायाणुप्पेहा । स० २४७ __मूलार्थ:-चार प्रकारना ध्यान कहेला छे, ते आ प्रमाणे-आर्तध्यान-पीडामां थयेलं, दृढ अध्यवसायरूप ध्यान, रौद्रध्यान-हिंसादि अति क्रूरताथी थयेलं ध्यान, धर्मध्यान-श्रुत अने चारित्र धर्मथी युक्त अने शुक्लध्यान-कर्ममलने शुद्ध करनारु ध्यान. आर्तध्यान चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाण-अमनोज्ञ वस्तुनो संबंध थवाथी तेना वियोगनी चिंता(विचारणा)वाळु थाय छे ते अनिष्टयोगातध्यान १, मनोज्ञ वस्तुनो संबंध थवाथी तेनो वियोग न थवानी चिंतावाळं थाय छे ते इष्टवियोगआध्यान २, आतंक-रोगनो संबंध थवाथी तेना वियोग(नाश)नी चिंतावाळं थाय छे ते रोगचिंतार्तध्यान ३ अन सेवायल कामभोगनो संबंध थवाथी तेनो वियोग न थवानी चिंतावाळु थाय छे ते भोगार्तध्यान छे ४. आध्यानना चार लक्षणो कहेला छे,ते आ प्रमाणे-१ क्रंदनता-मोटे सादे रोवं, २ शोचनता-दीनता करवी,३ तेपनता-आंसु पाडवा अने ४ परिदेवनता-वारंवार दुःखपूर्वक बोलवू. रौद्रध्यान चार प्रकारे कहेलुं छे, ते आ प्रमाणे-१ हिंसानुबंधी-जीवहिंसाना अनुबंध अममलने से xxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXX KXXKOKEXXXXX For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद "३४७॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ KOKKKOKOKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ( प्रवृत्ति )वाळु ध्यान, २ मृषानुबंधी-चा चुगली प्रमुख असत्यना अनुबंधवाल्लं ध्यान, ३ स्तेयानुबंधी-परद्रव्यने चोरवाना | अनुबंधवाळं ध्यान अने ४ संरक्षणानुबंधी-विषयना साधन अने धन विगेरेने सारी रक्षण करवाना अनुबंधवानुं ध्यान. रौद्रध्याननां चार लक्षणो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ ओसन्नदोष-हिंसादि दोषमाथी कोईक एक दोपमा विशेष प्रवृत्ति करे, २ बहुलदोष-हिंसा विगेरे बधा दोषोमा विशेष प्रवर्ते, ३ अज्ञानदोष-कुशास्त्रना संस्कारथी हिंसादिमा प्रवर्ते अने ४ ज्यां सुधी जीवे त्यां सुधी पाप करे ते आमरणांतदोष, धर्मध्यान चार प्रकार अने चार पदमां अवतारवाळु छे, ते आ प्रमाणे-१ आज्ञाविचय-१ प्रभुना वचननो सम्यक रीते विचार करवो, २ अपायविचय-रोग विगेरेथी थता दोषनो अने तेनाथी छूटवानो विचार करखो, ३ विपाकविचय-कर्मना विपाक-शुभाशुभ कळनो विचार करवो अने ४ संस्थानविचय-चौद राजलोकना स्वरूपर्नु चिंतन करवू, धर्मध्यानना चार लक्षणो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ आज्ञारुचि-भगवंतभापित अर्थ(नियुक्ति विगेरे)मां रुचि, २ निसर्गरुचि-उपदेश विना जिनप्रवचनमा रुचि, ३ सूत्ररुचि-आगमने विषे रुचि अने ४ अवगाढरुचि-द्वादशांगी सिद्धांतने विस्तारथी जाणवा. धर्मध्यानना चार आलंबनो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ वाचना-सूत्रार्थनुं आपq,२ प्रतिप्रच्छनाशंकाने टाळवा माटे गुरुने पूछर्बु, ३ परिवर्तना-भणेला सूत्रादिनुं याद करवु अने ४ अनुप्रेक्षा-सूत्रादिना रहस्यनुं चिंतन करवू, धर्मध्याननी चार अनुप्रेक्षा ( ध्यान पछीनी विचारणा) कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ एकत्वानुप्रेक्षा-'हुँ एक छु, मारो कोई नथी' इत्यादि विचारणा, २ अनित्यानुप्रेक्षा-संपत्ति विगेरे सर्व वस्तु क्षणभंगुर छे इत्यादि विचारणा, ३ अशरणानुप्रेक्षा-दुःखथी मुक्त करनार धर्म सिवाय अन्य कोई शरणभूत नथी इत्यादि विचारणा अने ४ संसारानुप्रेक्षा-संसारनी विचित्रतानी XXXXXXXX Xxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥३४७॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx:XXXXREXI विचारणा. शुक्लध्यान चार प्रकार अने चार पदमा अवतारवाळू कहेलुं छे, ते आ प्रमाणे-१ पृथकूत्ववितर्कसविचारी-एकद्रव्यने आश्रित उत्पाद विगेरे पर्यायोनुं श्रुतना आलंबनपूर्वक भिन्न भिन्नपणे चिंतव, २ एकत्ववितर्कअविचारी-उत्पाद विगरे पर्यायोमांथी कोईएक पर्यायने अभेदपणाए अवलंबीने श्रुतना आलंबनपूर्वक अर्थ अने शब्दना विचार रहित चिंतन, ३ सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति-उच्छ्वास विगेरे सूक्ष्म कायानी क्रियानी निवृत्ति थयेल नथी, ते केवळीने चौदमे गुणठाणे योगने निरोध करता समये होय छे, ४ समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती-समस्त योगनी क्रियानो उच्छेद थाय छे ते अप्रतिपाती, अर्थात् अक्रियपणुं प्राप्त थाय छे. शुक्लध्यानना चार लक्षणो कहेलां छे, ते आ प्रमाणे-१ अव्यथ-देवादिकृत उपसर्गथी भय रहित, २ असंमोह-सूक्ष्म पदार्थना विषयमां मूढता रहित, ३ विवक-देहादिथी आत्मादि पदार्थर्नु पृथक्करणरूप, ४ व्युत्सर्ग-देह अने उपाधिनो त्याग. शुक्लध्यानना चार आलंबनो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ क्षमा, २ निर्लोभता, ३ माईव-कोमळता अने ४ आर्जव-सरळता. शुक्लध्याननी चार अनुप्रेक्षाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ अनंतवृत्तितानुप्रेक्षा-आ संसारमा जीव अनंती वार भटक्यो छे इत्यादि विचारणा, २ विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओर्नु विविध प्रकारे परिणमन थाय छे एवी विचारणा, ३ अशुभानुप्रेक्षा-संसारना अशुभपणानी विचारणा अने ४ अपायानुप्रेक्षा-आश्रव विगेरेथी थता दोषोनी विचारणा. (सू० २४७) टीकार्थ:-आ सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-ध्यातिओ-ध्यानो, अंतर्मुहूर्त मात्र काल सुधी चित्तनी स्थिरता लक्षणवाळां छे. कहेलुं छे के* अंतोमुहुत्तमित्तं, चितावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३४८॥ ४ स्थानकाध्ययने उदेशः १ ध्यानानि सू०२४७ कोईपण एक वस्तु(जेमा गुण अने पर्यायो वसे छे ते )मां अंतर्मुहूर्त मात्र चित्तनी स्थिरता ते छद्मस्थोनुं ध्यान अने 'योगनो निरोध' करवो ते केवळीओन ध्यान होय छे. तेमां ऋत-दुःख, तेनुं निमित्त, अथवा निमित्त थेयलु अथवा ऋत-दुःखित स्थितिमा थयेलुं ते आर्ग, ध्यान-दृढ अध्यवसायरूप १, हिंसादिमां अत्यंत क्रूरतावडे आवेलुं ध्यान ते रौद्र २, श्रुतधर्म अने चारित्रधर्मथी युक्त ध्यान ते धर्य-धर्मध्यान ३ अने आठ प्रकारे कर्मना मळने शोधे छ अथवा शुच-शोकने दूर करे छे ते शुक्ल ४. 'चउब्विहे' त्ति० चार छे भेदो जेना ते चतुर्विध, अमनोज्ञ-अनिष्ट, 'असमणुन्नस्स' ति०(आ) पाठांतरमा अस्वमनोज्ञ-आत्माने अप्रिय शब्दादि विषयनो, अथवा तेना साधनभूत वस्तुनो जे संप्रयोग-संबंध, तेथी संप्रयुक्त संबंध-आत्माने अप्रिय विषयना साधनभूत वस्तुनो संयोग ते अमनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्त अथवा अस्वमनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्त, तेनो अमनोज्ञ शब्दादिना वियोग माटे स्मृतिचिंताने जे जीव संप्राप्त थाय छे ते, अभेद उपचारथी आर्त कहेवाय छे. 'च' अने 'अपि' शब्द बीजा भेदोनी अपेक्षाए समुच्चय अर्थवाला छे. अथवा अमनोज्ञ वस्तुना संबंध सहित जे जीव, ते प्राणीने, विप्रयोग-संबंधथी अमनोज्ञ शब्दादि वस्तुओना वियोगमा स्मृति-विचारणानुं सारी रीते आवq, ते विप्रयोगस्मृतिसमन्वागत अर्थात् वियोगनी चिंतावाडं अने अनिष्ट संयोगवाटुं आध्यान थाय छे. 'च' अने 'अपि पूर्ववत् छे. अथवा अमनोज्ञ वस्तुना संयोगयुक्त प्राणीमां 'तस्ये ति० अमनोज्ञ शब्दादिना * केवलीने भावमन होतुं नथो तेथो चित्तनी स्थिरतारूप ध्यान न होय, परंतु तेरमे गुण्ठाणे ध्यानांतरिका होय छे. चौदमे गुणठाणे शैलेशीकरण करतां योगनिरोधरूप ध्यान होय छे. kxxxxxoxoxoxoxoxoxoxoxoxoxxxxxxxxx ३५८ Xxxxxx For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ***** www.kobatirth.org त्रियोगनी चिंतावाळं आर्त्तध्यान छे. कं छे के-" आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ।" ( तच्चार्थ० अ० ९, सू० ३१ ) अर्थ स्पष्ट छे. आ पहेलो भेद. एवी रीते पाछळना भेदो पण जाणवा. विशेष ए के मनोज्ञ- वहाला धन, धान्यादिनो वियोग न थाओ एम चिंतत्र ते बीजुं (भेद ) आर्त्त, आतंक - रोग ए त्रीजुं, तथा 'परिजुसिय ' ति० सेवायेला जे कामो - इच्छवा योग्य, भोगो-शब्द विगेरे अथवा शब्द अने रूप ते कामो अने गंध, रस तथा स्पर्श ते भोगो अर्थात् कामभोगो अथवा 'कामानां ' शब्द विगेरेनो जे भोग, तेनावडे जोडायेल, पाठांतरमां तो तेओनुं कामभोगना संबंधबडे जे युक्त ते निषेवित कामभोग संप्रयोग संप्रयुक्त, अथवा ' परिशुसिय' सि० जरा विगेरेवडे क्षीण धयेल अने कामभोगवडे जोडायेल जे जीव, तेने कामभोगना ज अवियोगनी स्मृतिनुं प्राप्त थनुं (आवबुं) ते पण आर्त्तध्यान कहेवाय छे. आ चोथो भेद छे. बीजो भेद वल्लभ धनादिना विषयवाळो छे अने चोथो भेद ते धनादिधी मळेल शब्दादि भोगना विषयवाळो छे. ए प्रमाणे आ बने बच्चे रहेल तफावत विचारखो. शास्त्रांतरमां तो बीजा अने चोथा भेदनुं एकपणावडे श्रीजु कहेल छे, अने चोथो भेद तो त्यां निदान ( नीयाणुं ) कहल छे. कधुं छे के अन्नाणं साइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । ( वस्तूनि - शब्दादिसाधनानि दोसोत्ति द्वेषः ) धणियं वियोगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च ॥ ६ ॥ अमनोज्ञ शब्दादि विषयना साधनभूत वस्तुओनी ( प्राप्तिमां ) द्वेषवडे मलिन थयेल जीवने एना वियोगनी अत्यंत चिंता ५१ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *************** Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३४९॥ xxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx थाय-'कई रीते आनो वियोग थाय अने भावष्यमां पण एनो संयोग न थाओ' एम अनुस्मरण करे ते प्रथम भेद. तह सूलसीसरोगाइ-वेयणाए विओगपणिहाणं । तयसंपओगचिंता, तप्पडियाराउलमणस्स ॥ ७॥ ___ शूलरोग अने मस्तकना रोग विगैरेनी पीडाना वियोगर्नु दृढ चिंतन अने भविष्यमा रोग न थाओ एवी विचारणारूप जे ध्यान ते, रोगना प्रतिकार-निवारण करवामां व्याकुळ मनवाळाने होय छे, आ बीजो भेद. इट्ठाणं विसयाईण, वेयणाए य रागरत्तरस । अविओगज्झवसाणं, तह संजोगाभिलासो य ॥ ८॥ इष्ट विषयादि भोगववामां रागवडे आसक्त थयेलने तेनो वियोग न थवानो अध्यवसाय अने तेना संयोगना अभिलाष-| रूप ध्यान होय छे, आ त्रीजो भेद. देविंदचक्कवहित्तणाइगुणरिद्धिपत्थणामइअं । अहमं नियाणचिंतण-मन्नाणाणुगयमच्चतं ॥९॥ देवेंद्र अने चक्रवर्तीत्व विगेरेना गुण( रूपादि ) अने ऋद्धि( विभृति )नी प्रार्थनारूप अधम निदान(नियाणा )नुं चिंतन, ते अत्यंत अज्ञानथी थयेलं होय छे. आ चोथो भेद. हवे आर्तध्याननां लक्षणो कहे छे-चित्तनी वृत्तिरूप होवाथी परोक्ष छतां पण जेनावडे आर्तध्यान निर्णय कराय छे ते लक्षणो, तेमां ? क्रंदनता-मोटा शब्दवडे आरडवु-रो, २ शोचनता-दीनपणुं, ३ तेपनता-तिए धातुनो क्षरण ( खरी जq ) | अर्थ होवाथी आंसुर्नु खरवू, अने ४ परिदेवनता-वारंवार खेदपूर्वक बोलवू. आ जणावेल क्रंदनतादि इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग अने RX ॥३४९। KAR For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx रोगनी पीडाथी थयेल शोकरूप आतध्यानना लक्षणो छे. कयुं छे के तस्सकंदणसोयण-परिदेवणताडणाई लिंगाई । इटाणिद्ववियोगा-वियोगवियणानिमित्ताई ॥१०॥ । प्रायः उक्तार्थ छे. अन्य निदानना अने बीजाओना लक्षणो कहे छे. कयु छ केनिंदइ निययकयाइं, पसंसइ सविम्हओ विभूईओ। पत्थेइ तासु रजइ, तयजणपरायण होइ ॥११॥ पोताना करेला कार्यना अल्प फळोने निंदे छे, बीजानी विभूतिओने आश्चर्य सहित प्रशंसे छे, प्रार्थना करे छे अने प्राप्त | थयेल ऋद्धिओमां रागवाळो थाय छे. वळी तेने मेळववामा तत्पर थाय छे. * हवे रौद्रध्यानना भेदो कहेवाय छे-हिंसा एटले विविध वधबंधनादिवडे प्राणीओने पीडा प्रत्ये अनुबध्नाति-निरंतर प्रवृत्त करे छे एवा स्वभाववाल्लं जे प्रणिधान-दृढ अध्यवसाय अथवा हिंसानो अनुबंध छे जेमा ते हिंसानुबंधी रौद्रध्यान, आ प्रक्रम छे. कड्युं छे केसत्तवहवेहबंधण-डहणंकणमारणाइपणिहाणं। अइकोहग्गहगत्थं, णिग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥१२॥ __ प्राणीओनो वध करवो, वींधवं, बंधन, बाळg, अंकन-चिह्न करवु (आंकवु) अने मार विगेरेमा अति क्रोधरूप ग्रहथी ग्रहण करायेल जे दृढ अध्यवसायरूप रौद्रध्यान निर्दय मनवाळाने होय छे अने ते अधम (नरकादि) फलवाडं थाय छे. तथा मृषा-पिशुन, असभ्य, असद्भूत (अछतुं) विगरे वचनना भेदोवडे असत्यना अनुबंधने करनार जे ध्यान ते xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था-* नाङ्गसत्र सानुवाद ३५०॥ मृषानुबंधी. कह्यु छ के ४ स्थानपिसुणाऽसम्भाऽसब्भूयभूयघायाइवयणपणिहाणं।मायाविणोऽतिसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥१३॥ काध्ययन पिशुन-अनिष्टर्नु सूचक, सभाने अप्रिय ते असभ्य, अछतुं, सत्यनो अपलाप इत्यादि वचनना प्रणिधानरूप रौद्रध्यान उद्देशः १ मायावीओ, व्यापारी विगेरेने, कोईने पण ठगवामां तत्पर थयेलने अने गुप्त पाप करनारने होय छे. ध्यानानि स्तेन-चोरनु कार्य ते स्तेय ( चोरी ), ते प्रत्ये तीव्र क्रोध विगेरेथी व्याकुलपणाए अनुबंधवालं जे ध्यान ते स्तेयानुबंधी. कह्यु छ केतह तिव्वकोहलोहा-उलस्स भूतोवघायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं, परलोगावायनिरवेक्खं ॥१४॥ तीव्र क्रोध अने लोभवडे व्याकुल थयेलने अनार्यरूप, नजीकमां आवेल प्राणीओने हणवारूप, पारका द्रव्यने चोरवामां चित्तवाल्लं अनार्य कर्म अने परलोकना अपाय-नरकगमन विगेरेथी अपेक्षा (भय) रहित एवं रौद्रध्यान होय छे. आ बीजो भेद. ____ संरक्षण-समग्र उपायोवडे विषयना साधनभूत धननुं रक्षण करवामां अनुबंध छ जेमां ते संरक्षणानुबंधी. कमु छ केसद्दाइविसयसाहण-धणसंरक्षणपरायणमणिटुं। सव्वाहिसंकणपरो-वघायकलसाउलं चित्तं ॥१५॥ शब्दादि विषयना साधनभूत धननी रक्षामा उद्यमवालं, सारा माणसोने इच्छवा योग्य नहि एवं, वळी बधा उपर शंकाने लईने व्याकुल-रखेने कोई धन लई जशे एवा विचारथी बधाओनो नाश करवो एज श्रेय छे, एवा परोपघात कषायोबडे XM३५०॥ (KXXXX Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आकुळ चित्तरूप रौद्रध्यान होय छे. हवे रौद्रध्याननां लक्षणो कहेवाय छे- 'ओसन्नदोसे' ति० हिंसादि विगेरेमांथी कोईएकने विषे ओसन - प्रवृत्तिनुं जे बहुलपणुं तेज दोष, अथवा 'ओसन्नं' ति० हिंसादि चार भेदमांथी कोई पण भेदमां बहुलताए विराम न पामवाथी जे दोष ते ओसन्नदोष १, बळी हिंसादि सर्वमां प्रवृत्तिरूप दोष ते बहुदोष अथवा बहु-घणा प्रकारे हिंसा अने असत्य विगेरेनो दोष ते बहुदोष २, तथा अज्ञान-कुशास्त्रना संस्कारथी नरकादिना कारणभूत अधर्मस्वरूप हिंसादिने विषे धर्मनी बुद्धिवडे अभ्युदय-कल्याण माटे प्रवृत्तिरूप जे दोष ते अज्ञानदोष अथवा कहेल लक्षणविशिष्ट अज्ञान ज दोष. ते अज्ञान दोष बीजे स्थले ' नानाविध दोष' एवो पाठ छे त्यां नाना प्रकारोमां तो-कहल लक्षणवाळा हिंसादि दोषोने विषे अनेकवार प्रवृत्ति ते नानाविधदोष समजयो ३ तथा मरण एज अंत ते मरणांत, मरणना अंत सुधी ते आमरणांत, नथी थयेल खेद जेने एवा कालसाकारक विगेरे व्यक्तिनी हिंसादिमां जे प्रवृत्ति ते आमरणांत दोष ४. हवे स्वरूपवडे धर्म्य - धर्मध्यान चार प्रकारे दर्शावे छे. स्वरूप, लक्षण, आलंबन अने अनुप्रेक्षारूप चार पदोने विषे विचारणीयपणाए अवतार छे जेनो ते चतुष्पदावतार, अथवा चार प्रकारनो ज आ पर्यायवाचक शब्द छे. क्वचित् 'उप्पडोयार' मिति०एवो पाठ छे, त्यां चार पदोन विषे प्रत्यवतार छे जेनो एवो समास करवो. 'आणाविजप' ति० आ एटले अभिविधि व्याप्तिथी जणाय छे अर्थोजेनावडे ते आज्ञा (प्रवचन), ते विचीयते-निर्णय कराय छे, अथवा जेने विषे विचाराय छे ते आज्ञाविचयधर्मध्यान, प्राकृतपणाथी विजय शब्द छे, जे आज्ञा विजीयते-अधिगम-उपदेश| द्वारा परिचयवाळी कराय छे जेने विषे ए आज्ञाविजय १, एवी रीते शेष ऋण भेदो पण जाणवा. विशेष ए के - २ अपायो - प्राणीओने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | बीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।३५१॥ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx रागादिथी उत्पन्न थयेल ऐहिक तथा पारलौकिक अनर्थों, ३ विषाक-कर्मोनुं फल-ज्ञानादिने रोक, विगेरे,४ संस्थानो-लोक,द्वीप, समुद्र अने जीवादिना आकारो-स्वरूपो. कडुं छे. के-आमपुरुषना वचनस्वरूप प्रवचनना अर्थनो निर्णय करयो ते आज्ञाविचय १, आश्रव, विकथा, सातादि गौरव अने परीषह विगेरेथी थता दोषनुं चिंतन ते अपायविचय २, अशुभ अने शुभ कर्मना विपाक ना अनुचिंतन अर्थवाळो ते विपाकविचय ३ तेमज द्रव्य अने क्षेत्रनी आकृतिनुं चिंतन ते संस्थानविचय ४. हवे धर्मध्यानना लक्षणो सूत्रकार कहे छ-'आणारुइ'त्ति०-आज्ञा-सूचना व्याख्यानरूप नियुक्ति विगेरे, आज्ञामा अथवा आज्ञावडे रुचि-श्रद्धा ते आज्ञारुचि.बीजी रुचिओना विषयमा एम ज जाणी ले. विशेष ए के-निसर्ग एटले उपदेश सिवाय-पोतानी मेळे अर्थात् स्वाभाविक रुचि२,सूत्र-आगममा अथवा तेना द्वारा रुचि ते सूत्ररुचि.३तथा अवगाहवू ते अवगाढ-द्वादशांगीन विस्तारथी जाणवू एम संभावना कराय छे, ते विस्तारवडे रुचि ए अवगाढरुचि अथवा 'ओगाढ 'त्ति० साधुनी समीपमा रहेलने साधुना उपदेशथी थती रुचि ते अवगाढरुचि ४. कयुं छे के आगमउवएसेणं [उवएसाणा],* निसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं, धम्मज्झाणस्स तं लिंग ॥ १६ ॥ * गाथावृत्तिमां ' उवएसाणा' ए प्रमाणे जे पाठ छे ते योग्य जणाय छे. आ०स०वाळी तथा बाबूबाळी प्रतमा 'उवएसेण एवो पाठ छे. ए पद प्रमाणे अर्थ करवाचीत्रण रुचि थवा पामे छे, परंतु आज्ञारुचि रही जवा पामे छे. X३५१॥ pxxx For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxx XXXXXXXXXXXXXXXX आगमथी, उपदेशथी,आज्ञा-अर्थथी अने निसर्ग-स्वभावथी जिनप्रणीत भावानुं श्रद्धान करवं, ते धर्मध्यानना लक्षणो छे. तत्वार्थना श्रद्धानरूप सम्यक्त्व ते धर्मर्नु लक्षण छे.आ भावार्थ छे. हवे धर्मना आलंबनो कहेवाय छे. धर्मध्यानरूप महेल उपर चडवा माटे जे आलंबन लेवाय छे ते आलंबनो कहेवाय, ते आ प्रमाणे-सम्यक् प्रकारे कहेवू ते वाचना अर्थात् शिष्यने कर्मनी निर्जरा माटे जे सूत्रनुदान विगरे आपq ते १, सूत्र विगेरेमा शंकावाळो थये छते शंकाने दूर करवा माटे गुरूने पूछबुं ते प्रतिप्रच्छना २, अहिं प्रति शब्द धातुना ज अर्थवाळो छे. तथा पूर्व भणेल सूत्र विगेरेनी विस्मृति न थाय अने निर्जरा थाय ते माटे जे अभ्यास (आवृत्ति ) ते परिवर्तना ३, तथा सूचना अर्थनुं चिंतन करवू ते अनुप्रेक्षा ४. हवे चार अनुत्प्रेक्षा (भावना) कहेवाय छे. अनु-ध्याननी पाछळ प्रेक्षणानि-सारी रीते विचारो करवा ते अनुप्रेक्षाओ. तेमां 'हुँ एक छ, मारुं कोई नथी, हुं अन्य कोईनो नथी, जेनो हुँ छु तेने जोतो नथी अने भविष्यमां कोई मारो थाय एम नथी.' एवी रीते एकाकी-असहायभूत आत्मानी अनुप्रेक्षा-भावना ते एकानुप्रेक्षा. (१) तथा 'काया, तरत नाश पामवावाळी छे, संपत्तिओ आपत्तिओनुं स्थान छे,संयोगो वियोगवाळा छे,जे उत्पन्न थाय छे ते क्षणभंगुर छे.' एवी रीते अनित्य जीवन विगैरेनी अनुप्रेक्षा ते अनित्यानुप्रेक्षा (२), तथा 'जन्म, जरा अने मरणना भयोवडे पराभव थये छते, व्याधिनी पीडावडे ग्रस्त थये छते आ लोकमां जीवने जिनवरना वचन सिवाय बीजें कोई शरणभूत नथी. एवी रीते शरण रहित एवा आत्मानी अनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षा (३) तथा 'आ संसारमा माता थईने दीकरी, बहेन अने स्त्री थाय छे, दीकरो थईने पिता थाय छे, भ्राता थाय छे, वळी शत्रु पण थाय छे.' चार गतिमां सर्व अवस्थाओने विषे संसरण(भ्रमण)रूप संसारनी अनुप्रेक्षा ते संसारानुप्रेक्षा. (४). हवे शुक्लध्यान XXXXXXXXXXXXXXXXxxxx For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३५२ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः१ ध्यानानि सू०२४७ oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कहे छ-'पुहत्तवितकेत्ति पृथक्त्व-एक द्रव्यमां रहेल उत्पाद विगेरे पर्यायोना भेदवडे अथवा अन्य आचार्यों विस्तारपणे। कह छ, वितक-विकल्प, ते पूर्वगत श्रुतना अवलंबनरूप विविध नयने अनुसरण लक्षणवाळो छ जेने विषे ते पृथक्त्ववितके. पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणे श्रुतना अवलंबनपणाए उपचारथी वितर्क-श्रुत कहेल छे, तथा विचरण एटले अर्थथी व्यंजन(शब्द)मां अने शब्दथी अर्थमां, वळी मन प्रमुख त्रण योग पैकी कोई एक योगमांथी बीजा योगमां जq ते विचार, "विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रांतिः" (तत्त्वा० अ०९, सू०४३) इति वचनात्. विचार सहित ते सविचारी, अहिं | 'सवधनादि ' गणथी समासांत इन्प्रत्यय थयेल छे. कडुं छे के:उप्पायठिति भंगाई पजयाणं जमेगदव्वमि। नाणानयाणुसरणं, पूव्वगयसुयाणुसारेणं ॥१७॥ सवियारमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्का होति पुहत्तवियकं. सवियारमरागभावस्स॥१८॥ उत्पात, स्थिति अने नाश विगेरे पर्यायोने जे एक द्रव्यमा पूर्वगतश्रुतने अनुसारे नाना-अनेक नयवडे अनुसरवू अर्थात् द्रव्यार्थिक विगरे नयभेदवडे चितव. अहिं मरुदेवी विगेरेनो अपवाद छे केम के तेमने पूर्वगतश्रुतर्नु आलंबन नथी. बळी विचार-अर्थथी शब्दमां अने शब्दथी अर्थमा संक्रमण तेम ज योगांतरमा संक्रमण ते प्रथम शुक्लध्याननो भेद पृथक्त्ववितर्क नामनो रागरहित भाववाळा पुरुषने होय छे अर्थात् उपशमश्रेणी के क्षयकश्रेणीवाळा जीवने होय छे. आ पहेलो भेद. तथा ' एगत्तवियक्के 'त्ति एकत्व-अभेदवडे उत्पादादि पर्यायोमांथी कोई एक पर्यायना अवलंबनपणावडे X॥३५२॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx वितर्क-पूर्वगतश्रुतना आश्रयवाळो व्यंजन-शब्दरूप अथवा अर्थरूप छे जे जीवने ते एकत्ववितर्क, तथा अर्थ के व्यंजनने विषे कोई एकमांथी बीजामां विचार-गमन विद्यमान नथी तथा मन विगेरे कोई एक योगमांथी बीजा योगमां, वायु वगरना गृहमा रहेल दीपकनी जेम, संचरण ( गमन ) लक्षण नथी जेने ते अविचारी पूर्वनी माफक जाणवू. कथु छ केजं पुण सुनिप्पकंपं, निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिइभंगाइयाणमेगंमि पज्जाए ॥१९॥ अवियारमत्थवंजणजोगतरओ तयं बिइयसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबण-मेगत्तवियक्कमवियारं ॥२०॥ भावार्थ उपर कह्या मुजब छे. आ एकत्ववितर्कअविचारी नामनो बीजो भेद. तथा 'सुहमकिरिए ति. निर्वाणना गमनसमयमा मनोयोग अने वचनयोगनो निरोध करेल छे अने काययोगनो अर्ध निरोध करेल छे एवा केवलज्ञानीने सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति ध्यान होय छे, तेथी काया संबंधी उच्छ्वासादि सूक्ष्म क्रिया छे जेने विषे ते सूक्ष्मक्रिय, ते अनिवृत्ति स्वभाववालुं छे केम के अत्यंत प्रवर्धमान | परिणाम होय छे. वळी कह्यु छ केनिव्वाणगमणकाले, केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स। सुहुमकिरियाऽनियटिं, तइयं तणुकायकिरियस्स॥२१॥ भावार्थ जणाच्या मुजब छे. आ बीजो भेद. Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद १३५३॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ तथा 'समुच्छिन्नकिरिए' त्ति० शैलेशीकरणमां* योगना निरोधपणाए कायिकादि क्रिया समुच्छिन्न-नाश थयेल छे जेने विषे ते समुच्छिन्नक्रिय 'अप्पडिवाए 'त्ति. विराम नहिं पामवावालो स्वभाव छ जेनो एवो अर्थ छे. समुच्छिबक्रियअप्रतिपाती नामनो चोथो भेद छे. कहे छ केतस्सेव य सेलेसी-गयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुकं ॥२२॥ भावार्थ जणाव्या प्रमाणे छे. अहिं शुक्लध्यानना छेल्ला वे भेदमां आ प्रमाणे क्रम छे-केवलीने ज्यारे चोक्स अंतर्म हतकालमा मोक्षे जवान होय छे त्यारे वेदनीयादि चार भवोपग्राही (आयुष्य पर्यत रहेनार ) कर्म, समुद्घातथी अथवा स्वभावे ज समान स्थितिवाळा होते छते केवली योगर्नु रंधन करे छे. योगनिरोधमा क्रम बतावे छेपज्जत्तमेत्तसन्निस्स, जत्तियाइं जहन्न जोगिस्स । होति मणोदव्वाइं, तव्वावारो य जम्मेत्तो ॥२३॥ तदसंखगुणविहीणे,समए समए निरंभमाणोसो।मणसो सव्वनिरोहं.कुणइ असंखेजसमएहि॥२४॥ पर्याप्त मात्र संज्ञीपंचेंद्रियX जघन्य योगवाळा जीवने मनोद्रव्यो अने तेनो व्यापार जे प्रमाणमां होय छे तेनाथी असंख्यात गुणहीन मनोयोगर्नु समये समये रंधन करता थका ते असंख्यात समयवडे सर्वथा मनोयोगर्नु रंधन करे छे. शैलेश-मेरुपर्वतनी माफक निष्प्रकंप रहेवु ते शैलेशीकरण. X पर्याप्तपणाए प्रथम समयवाळो. KXXXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXaroo antangnise XXXXX For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (OXOXOXOXOXOXOXOKOKEXXxxxxxxXXXKOK:XK:Xxxxo पजत्तमेत्तबिंदिय, जहन्नवइजोगपज्जया जे उ। तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो ॥२५|| सव्ववइजोगरोह, संखातीएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो अ सुहुमपणगस्स, पढमसमओववन्नस्स ॥२६॥ पर्याप्त मात्र द्वीन्द्रिय जीवना जघन्य वचनयोगना जेटला पर्यायो छे, तेथी असंख्यातगुणहीन वचनयोगने समये समये रुंधन करता थका असंख्यात समयमा सर्वथा वचनयोगर्नु रुंधन करे छे. त्यारबाद प्रथम समयमा उत्पन्न थयेल सूक्ष्मपनक- | (निगोदविशेष जीव )नो जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेज्जगुणहीणमेक्केके । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचतो ॥२७॥ रुभइ स काययोगं, संखाईतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेइ ॥२८॥ जे निश्चये जघन्य योग छे तेथी असंख्यातगुणहीन-एकेक समयमा निरोध करता थका अने योगना सामर्थ्यथी देहना त्रीजा भागने मृकता थकां असंख्यात समयमां ते स्वकाययोगनो निरोध करे छे, एम करतो थको स्वकार्मणशरीरथी बनेला मुख, कर्ण, शिर अने उदर विगेरेना छिद्रोने पूरे छे तेथी त्रण योगनो निरोध करेल छे जेणे एवा केवली शैलेशीभावने प्राप्त थाय छे अर्थात् श्वासोश्वासना निरोधसमये अयोगी थाय छे. शैल-पर्वत, तेनो ईश जे मेरु, तेनी माफक स्थिरता, ते शैलेशी. हवे शैलेशीनु कालप्रमाण कहे छेहस्सक्खराई मज्झेण, जेण कालेण पंच भन्नंति। अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ कालं॥२९॥ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie श्रीस्थानाङ्गस्त्र सानुवाद ॥३५४॥ ४ स्थानकाध्ययने उदेश १ ध्यानानि सू०२४७ KOXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx तणुरोहारंभाओ, झायइ सुहुमकिरियाणियदि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालंमि ॥३०॥ मध्यम रीतिवडे अहउलू, आ* पांच ह्रस्व अक्षरनो जेटला कालवडे उच्चार कराय तेटला काळपर्यंत शैलीशी अवस्था होय छे. काययोगना निरोधनी शरूआतथी केवली भगवान सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिरूप त्रीजा भेदनो विचार करे छे. त्यारवाद सर्व योगनो निरोध करवा पछी शैलेशी अवस्थामां समुच्छिम्म( व्यवच्छिन्न )क्रियाऽप्रतिपाती ध्यान करे छे. हवे शुक्लध्याननां लक्षणो कहेवाय छे-'अव्वहे 'त्ति० देव विगेरेना करेल उपसर्गादिथी उत्पन्न थयेल भय अथवा चलित थवारूप व्यथा-पीडानो अभाव ते अव्यथ, तथा देव विगेरेथी करायेल मायाजन्य मोहनो अथवा सूक्ष्म पदार्थ विषयक संमोहनो-मूढतानो निषेध ते असंमोह, तथा देहथी आत्मानु अथवा आत्माथी सर्व संयोगानुं विवेचनबुद्धिवडे पृथक्करण ते विवेक, तथा सर्वसंगपरित्यागपणाए देह अने उपधिनो त्याग ते व्युत्सर्ग. अहिं विवरणनी गाथा जणावे छे:चालिज्जइ बीहेइ व, धीरोन परीसहोवसग्गेहिं। सुहमेसु न संमुज्झइ, भावसु न देवमायासु ॥३१॥ देहविवित्तं पेच्छइ, अप्पाणं तहय सव्वसंजोगे ३ । देहोवहिवुस्सग्गं, निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥३२॥ ___परीपहो अने उपसर्गोवडे धीर पुरुष चलित थतो नथी अने भय पामतो नथी १, सूक्ष्म भावोने विषे अने देवनी मायामां संमोह पामतो नथी २, देह अने आत्माने पृथक् (जुदो) तथा आत्माने सर्व संजोगोथी भिन्न माने छे ३, देह अने उपधिनो * अन्य आचार्यों इजण न म आ पांच अक्षरो कहे छे. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx । ३५४॥ । For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX सर्वथा त्याग करे छे ते व्युत्सर्ग ४. आलंबनसूत्र स्पष्ट छे, ते संबंधी गाथा जणावे छेअह खंतिमवजव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंबणाई जेहिं उ, सुक्कज्झाणं समारुहाइ ॥३३॥ शांति, मार्दव, आर्जव अने निर्लोभता-आ चार जिनमतमा प्रधान छ, केम के कर्मक्षयना हेतुभूत होवाथी आ आलंबनो छे, जेनाद्वारा शुक्लध्यानरूप महेल प्रत्ये जीव आरोहण करे छे-चडे छे. वे धर्मध्याननी अनुप्रेक्षाओ कहेवाय छे. 'अगंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति. अनंता-अत्यंत विस्तृतवृत्ति-वर्तन के जर्नु अथवा अनंतपणाए वर्ने छे ते अनंतवर्ती, तेनो भाव ते अनंतार्तिता, जे भवपरंपरानी जाणवी, तेनी अनुप्रेक्षा (भावना) ते अनंतवृत्तितानुप्रेक्षा अथवा अनंतवर्तितानुप्रेक्षा. कडुं छे केएस अणाइ जीवो, संसारो सागरोव्व दुत्तारो। नारयतिरियनरामर-भवेसु परिहिंडए जीवो ॥३॥ अनादिकालनो आ जीव सागरनी जेम दुस्तर संसारमा नारक, तिर्यच, मनुष्य अने देवना भवोने विषे परिभ्रमण करे छे. एवी रीते बीजी त्रण अनुप्रेक्षामां पण समास करवो. विशेष ए के-'विपरिणामे' ति० वस्तुओर्नु विविध प्रकारे परिणमन थq ते विपरिणाम. कयुं छे केसव्वट्ठाणाइं असा-सयाई इह चेव देवलोगे य । सुरअसुरनराईणं, रिद्धिविसेसा सहाई च ॥३५॥ AKKKXXXXXXKKKKKOKIKKIKKEXXXKIKIKI ६० For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Si Kailassagersal Gyarmande श्रीस्थानाङ्गस्त्र सानुवाद ॥३५५॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७ XXKOKOKxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxx आ (मनुष्य ) लोकमां अने देवलोकमां सर्व स्थानो अशाश्वत छे. वळी सुर, असुर अने मनुष्यादिकनी विविध संपत्तिओ तेमज सुखो पण अशाश्वत छे. 'असुभे' त्ति० संसारर्नु अशुभपणुं छे. कर्दा छ केधीसंसारोमि(मी) जुयाणओ परमरूवगव्वियओ।मरिऊण जायइ किमी, तत्थेव कडेवरे नियए॥३६ आ संसारने धिक्कार छे के जैने विषे उत्कृष्ट रूपवडे गर्वित थयेल युवान पुरुष मरीने पोतानाज कलेवरमां कीडो थाय छे. तथा अपायो एटले आश्रवोना दोषो. यथा कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा। चत्तारि एए कलिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ ३७॥ दमन नहि करायेल क्रोध अने मान तथा प्रद्धि पामता माया अने लोभ-आ चारे दुष्ट कषायो पुनर्भवरूप वृक्षना मूलीने सींचे छे. आ संबंधमां गाथा दर्शावतां कहे छे केआसवदारावाए, तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणंतं, वत्थूणं विपरिणामं च ॥ ३८॥ मिथ्यात्वादि आश्रवद्वारोनुं चिंतन ते अपायानुप्रेक्षा, संसारर्नु अशुभपणुं चिंतबबु ते संसारानुप्रेक्षा, अनंत भवपरंपगर्नु चिंतन ते अनंतवृत्तितानुप्रेक्षा अने वस्तुओना विविध परिणाममुं चिंतन ते विपरिणामानुप्रेक्षा. (सू० २४७) xxxxxxxxAKKAKKKKKAKKAKKAKKAKK X|| ३५५॥ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXxxxxxi KXxxxxxxxxxxxxxxxxx ध्यानथी देवपणुं पण प्राप्त थाय तेथी देवस्थितिसूत्रने कहे छे चउव्विहा देवाण ठिती पं० तं०-देवे णाममेगे १, देवसिणाते नाममेगे २, देवपुरोहिते नाममेगे३, देवपज़लणे नाममेगे ४, चउठिवधे संवासे पं० तं०-देवेणाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेजा, देवे णाममेगे छवीते सद्धिं संवासं गछेज्जा, छवी णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेजा, छवी णाममेगे छवीते सद्धिं संवासं गच्छेजा।सू०२४८, चत्तारि कसाया पं० तं०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लाभकसाए, एवं णेरइयाणंजाव वेमाणियाणं २४, चउपतिट्टिते कोहे पं० तं०-आतपइद्विते परपतिट्टिते तदुभय पतिट्टिते अपतिट्टिते, एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभे. वेमाणियाणं २४, चउहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता, तं०-खेत्तं पडुच्चा वत्थु पडुच्चा सरीरं पडुच्चा उवहिं पडुच्चा, एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभ० वेमाणियाणं २४. चउविधे कोहे पं० तं०-अणंताणुबंधिकोहे अपञ्चक्खाणकोहे पच्चवखाणावरणे कोहे संजलणे कोहे. एवं णेरइयाणं जा वेमाणियाणं २४,एवंजाव लोभेवेमाणियाणं २४,चउठिवहे कोहे पं०तं.-आभोगणिव्वत्तिए अणाभोग kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxx श्रीस्थानाङ्गसत्र सानुवाद XXXXXXXXXXXXXXX णिवत्तिते उवसंते अणुवसंते, एवंनेरइयाणंजाव वेमाणियाण२४, एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं २४ । सू० २४९ __ मूलार्यः-चार प्रकारे देवोनी स्थिति-मर्यादा कईली छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक सामान्य देव छ १, कोईएक स्नातक(प्रधान) देव छे २, कोईएक शांतिकर्म करनार पुरोहित देव छ ३ अने कोईएक प्रचलन देव एटले भाट चारणनी जेम अन्य देवोनी प्रशंसा करनार देव छ ४. चार प्रकारे संवास (मैथुन) अथै पुरुष अने स्त्रीन एकत्र वसवू कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईएक देव देवीनी साथे संवास करे ( भोग करे), २ कोईएक देव छवी-नारी अथवा तिचणीनी साथे संवास करे, ३ कोईएक छत्री-नर अथवा तियंच, देवीनी साथे संवास करे अने ४ कोईएक छवी-मनुष्य के तियंच, मनुष्यणी के तियंचणी साथे संवास करे. (सू०२४८) चार कषायो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय अने लोभ कषाय. ए चार कषाय नैरपिकने होय यावत् वैमानिकने चार कायो होय. चार स्थानक( भाव )मा रहेनारो क्रोध कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ पोताना अपराधथी पोताने विषे थयेल क्रोध ते आत्मप्रतिष्ठित, २ बीजाना वचनथी थयेल क्रोध अथवा बीजा प्रत्ये थवेल क्रोध ते परप्रतिष्ठित, ३ बनेयी (कईक पोताथी अने कंईक परना निमितथी) थयेल क्रोध ते तदुभयप्रतिष्ठित अने ४ कई पण कारण सिवाय क्रोधना उदयथी ज थयेल ते अप्रतिष्ठित क्रोध. आ चार प्रकारनो क्रोध x नैरयिकथी मांडीने यावत् वैमानिकने होय छे. चार कारणोवडे क्रोध उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ पोतपोताना उत्पचिना ४ स्थान काध्ययने उद्देश: संवास: कषायाध सू०२४८ २४९ KXKAKKKKKK:XXXX ॥३५६ ।। For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्थानने आश्रयीने, २ वस्तु - सचित्तादि पदार्थ अथवा घरने आश्रयीने, ३ शरीर-खराब स्थितिवाळं अथवा कद्रूपाने आश्रयीने अने ४ उपधि-उपकरणने आश्रयीने उत्पन्न थाय छे. आ रीते नैरयिकोने अने यावत् वैमानिकाने चार कारणोवडे क्रोधनी उत्पत्ति थाय छे. एवी ज रीते मान, माया अने लोभ पण चार कारणोवडे थाय छे. ते वैमानिको पर्यंत चोवीस दंडकमां जाणवा. चार प्रकारे क्रोध कहेल छे, ते आ प्रमाणे १ अनंतानुबंधी क्रोध, ते पर्वतनी रेखा ( फाट) सरखो, २ अप्रत्याख्यानी क्रोध, ते पृथ्वीनी फाट सरखो, ३ प्रत्याख्यानी क्रोध, ते रेतीनी रेखा सरखो अने ४ संज्वलन क्रोध, ते जलनी रेखा सरखो. ए प्रमाणे नैरयिकने यावत् वैमानिकाने चार प्रकारनो क्रोध कहेल छे. एवी रीते मान, माया अने लोभ वैमानिक पर्यंत चोवीश दंडकमां चार प्रकारे होय छे. चार प्रकारे क्रोध कहेल छे, ते आ प्रमागे १ आभोगनिवर्तित-क्रोधना फळने जाणता छतां पण क्रोध करवो ते, २ अनाभोगनिवर्तित-क्रोधना फलने नहि जाणतां छतां क्रोध करो ते, ३ उपशांत-उदय अवस्थामा नहि आवेल क्रोध अने ४ अनुपशांत-उद्यमां आवेल क्रोध. एवी रीते चार प्रकारनो क्रोध नैरविकने यावत् वैमानिकाने होय छे. एवीज रीते चार प्रकारे मान, माया अने लोभ यावत् वैमानिक पर्यंत चोवीस दंडकमां होय छे. (सू० २४९) टीकार्य :- स्थितिः - क्रम, मनुष्यनी स्थिति माफक देवोमां पण राजा, प्रधान विगेरेनी मर्यादा छे. देव सामान्य मात्र, 'नामे' ति० शब्द वाक्यालंकारमां छे. कोईएक देव स्नातक (प्रधान), देव पोते ज स्नातक अथवा देवोनो स्नातक, एवो समास करवो. एवी रीते बाकीना वे भेदमां पण समास करवो. विशेष ए के पुरोहित एटले शांति कर्म करनार, 'पञ्चलणे'त्ति० मागधभाट-चारणनी जेम प्रशंसा करवाथी बीजा देवोने प्रज्वलन करे-तेजस्वी करे ते प्रज्वलन. देवनी स्थितिना प्रसंगथी देवना विशेषभूत For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था सानुवाद ॥ ३५७ ॥ www.kobatirth.org संवाससूत्र ने कहेल छे. ते सूत्र स्पष्ट छे, विशेष ए के संवास-मैथुन माटे एकत्र बसवुं, 'छवि' ति० त्वचा (चामडी ) ना योगथी औदारिक शरीर अने ते शरीरवाळी मनुष्यणी के तिर्यंचणी अथवा ते शरीरवाळा मनुष्य के तिर्यंच छवी कहेवाय. हमणां ज संवास कह्यो, ते वेदस्वरूप मोहना उदयधी होय छे, माटे मोहना विशेषभूत कषाय प्रकरणने कहे छे-' चत्तारि कसाये 'त्यादि० तत्र कर्मरूप क्षेत्रने जे खंडे छे, अर्थात् सुख-दुःखना फलने योग्य करे छे. अथवा जीवने मलिन करे छे, आ निरुक्ति विधिवडे ते कषायो कहेवाय छे. कां छे के सुहदुबखबहुसईयं, कम्मवखेत्तं कसंति ते जम्हा । क्लसंति जं च जीवं, तेण कसायत्ति वुच्चति ॥३९ प्रायः भावार्थ उपर वर्णव्या मुजब छे. अथवा प्राणीओने कषति - हणे छे ते कप-कर्म अथवा संसार, तेना लाभनो हेतु होवाथी आयो ते कषायो, प्राणीओने संसार के कर्म प्रत्ये जे ई जाय छे ते कषायो. कं छे के कम्मं कसं भवो वा, कसमाओ सिं जओ कसायातो। कसमाययंति व जओ, गमयंति कसं कसायत्ति ॥४० प्रायः भावार्थ उपर जणाव्या प्रमाणे छे. क्रोध करवो अथवा जेनाथी क्रोध थाय छे ते क्रोध, अर्थात् क्रोधमोहनीय कर्मना उदयवडे थवा योग्य जीवनी परिणतिविशेष, अथवा क्रोधमोहनीय कर्म एज क्रोध, एवी रीते मान, माया विगेरे कषायोमां पण जाणवुं. विशेष ए के हुं जाति विगेरे गुण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ संवासः कषायाच सू०२४८ २४९ ।। ३५७ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाळो छ एम मानवं-जाणवू, अथवा जेनावडे मनाय छे ते मान, तथा मान-हिंसा, वंचन (ठग) एवो अर्थ छे. जेनी द्वारा ठगे छे ते माया, तथा लोभन-वस्तुनी इच्छा अथवा जेनाद्वारा लुब्ध थाय छे ते लोभ. 'एव'मिति० जेम सामान्यथी चार कषायो कह्या छे तेम विशेषथी नारकोने, असुरोने यावत् चोवीशमा पदमां वैमानिकोने पण चार चार कषायो होय छे. 'चउप्पइदिए'त्ति. चारमा स्व, पर, तदुभय-स्वपर अने तेना अभावमा प्रतिष्ठित-रहेल ते चतुःप्रतिष्ठित. तेमां 'आयपइट्ठिएति. पोताना अपराधबडे पोताना विषयमा ऐहिक अने पारलौकिक दोषने जोवाथी जे क्रोध उत्पन्न थाय छे ते आत्मप्रतिष्ठित क्रोध, अन्यवडे आक्रोश-गाळीप्रदान प्रमुखथी उदीरणा करायेल अथवा बीजाना विषयवाळो ते परप्रतिष्ठित, पोताना अने अन्यना निमित्तवाळो ते उभयप्रतिष्ठित, आक्रोशादि कारणनी अपेक्षा सिवाय, केवळ क्रोधमोहनीयना उदयथी जे क्रोध थाय छे ते अप्रतिष्ठित. कां छ के-'फळना अनुभवोमा कर्मों, आपेक्ष अने निरपेक्ष छे.' जेम आयुष्यकर्म, सोपक्रम अने निरुपक्रम कहेल छे तेम फळना अनुभवोमां को अपेक्षा सहित अने अपेक्षा रहित होय छे. वळी आ चोथो भेद जीवने विषे रहेल छ, तथापि स्व-पर विगेरेना विषयमा (कारणवडे) उत्पन्न न थवाथी अप्रतिष्ठित कहेल छे, परंतु सर्वथा अप्रतिष्ठित नथी, केमके चार प्रतिष्ठितपणाना अभावनो प्रसंग आवी जाय. क्रोधर्नु आत्मादि प्रतिष्ठितपणुं, एकेंद्रिय अने विकलेंद्रियोने जे कहेल छे ते पूर्वभवने विषे ते परिणामपरिणत मरणबडे उत्पन्न थयेलाने आत्मादिप्रतिष्ठितपणुं होय छे. एवी रीते मान, माया अने लोभवडे पण अन्य दंडक त्रणर्नु स्त्र कहेवं. नारक विगेरेनु क्षेत्र पोतपोताना उत्पतिस्थानने आश्रर्याने, एम वस्तु-सचित्तादि पदार्थ अथवा वास्तु-घर, खराब आकारवालं शरीर, जे जेर्नु उपकरण ते उपधि, एकेंद्रियोने उपधि भवांतरनी अपेक्षाए जाणवी, एवी रीते मान, मायादिक त्रण सूत्र MAARAK XXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था- | नाङ्गसत्र सानुवाद १३५८ ॥ पाठ कहेवा. अनंत भवने जे निरंतर बांधे छे-अनंत भवनी परंपराने करे छे एवा स्वभाववाळो जे कषाय ते अनंतानुबंधी, अथवा अनंत अनुबंध छ जेनो ते अनंतानुबंधी, सम्यग्दर्शनना सहभावी [साथेथनार क्षमादि स्वरूप उपशम विगरे चारित्रना लव(लेश)न अटकावनार छे, केम के अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीयरूप छे. उपशमादिलक्षण बडे ज चारित्री कवाय नहि, केम के अल्प संज्ञा होवाथी जेम अमनस्क संज्ञी कहेवाय नहिं, परंतु मननी संज्ञावडे संझी कहेवाय तेम महान मूलगुणादिरूप चारित्रवडे चारित्री कहेवाय छे. आ कारणथी ज त्रिविध दर्शनमोहनीय अने पचीस प्रकारे चारित्रमोहनीय छे. शंका'पढमिल्लुयाण उदए नियमे 'त्यादि. प्रथम कषायना उदयमां निश्चये समकितनो अभाव होय छे, परंतु चारित्रने रोकनार कषायनी सम्यक्त्वनो अटकाव करवामां उत्पत्ति नहिं थाय, आ हेतुथी सात प्रकारे दर्शनमोहनीय अने एकशि प्रकारे चारित्रमोहनीय छे, ए मत योग्य जणाय छ, समाधान-'पढमेल्लुयाणे 'त्यादि. जे कहेलुं छे ते अनंतानुबंधी कषायोने सम्यक्त्वनो अटकाव करवावडे कहेल नथी, परंतु सम्यक्त्वना सहभावी उपशम विगेरेना अटकाव करवावडे कहेल छे. जो एम नहिं मानीए तो अनंतानुबंधी कवायोबडे ज सम्यक्त्वनु आवृत(आच्छादन )पणुं होबाथी अन्य(कारणभूत) मिथ्यात्वथी शुं प्रयोजन छे ? आवृतनुं पण आवरण करवामां अनास्था( दोष )नो प्रसंग आवशे. ते कारणथी जेम 'केवलियनाणलंभो नन्नत्य खए कसायाणं' ति० कषायोनो क्षय थया सिवाय केवळजाननो लाभ न थाय, आ प्रसंगमां कषायोनुं केवलज्ञानने आवरण करवापणुं न छते पण कषायनो क्षय, केवलज्ञानना कारणपगाए कहेल छ केम के कषायनो क्षय थये छते ज केवळज्ञाननो भाव होय छे. एवी रीते अनंतानुबंधी कषायना क्षयोपशममां ज सम्यक्त्वनो लाभ कहेवाय छे. अनंतानुबंधी xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देश: संवासः कषायाश्च सू०२४८२४९ ॥३५८॥ RUAR For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कषायोनो क्षयोपशम छते समकितनो लाभ होय छ जेथी अनंतानुबंधी कषायोनो उदय होते छत मिथ्यात्व क्षयोपशमने पामतो नधी अने क्षयोपशमना अभावथी सम्यक्त्व थतुं नथी. वळी मतांतरमांजे सप्तविध सम्यग्दर्शनमोहनीय कहेल छे, ते सम्यक्त्वना साहचर्यवडे उपशम विगेरे गुणोमां सम्यक्त्वनो उपचार करवाथी, अर्थात् चारित्रना अंशरूप उपशमादि गुणोने विषे सम्यक्त्व कह्यु छ, एम अमे मानीए छीए. अणुव्रतादिरूप प्रत्याख्यान जेने विषे विद्यमान नथी ते अप्रत्याख्यान कषाय, ते देशविरतिने आवरण करनार छे. मर्यादावडे सर्वविरतिपणाने जे आवरण करे छे ते प्रत्याख्यानावरण कषाय. सर्व सावधनी विरतिने पण संज्वलन करे छ, तपावे छ अर्थात् अतिचार दोषने करावे छे, अथवा इंद्रियना विषपनी प्राप्तिने विषे प्रदीप्त थाय छे ते संज्वलन कषाय, ते यथाख्यात चारित्रनुं आवरण करनार छे. एवी रीते मान, माया अने लोभने विषे पण अनंतानुबंधी विगैरे चार भेद कहेवा. आ चारेनी निरुक्ति पूज्यपुरुषोए नीचे प्रमाणे कहेली छे वृद्धिने वास्ते अर्थात् जन्मनी परंपरा माटे जे अनंत जन्मोनो अनुबंध करे छे तेथी प्रथम क्रोधादिना भेदमा 'अनंतानुबंधी संज्ञा बतावी छ (१) प्रस्तुत विषयमा क्रोधादिना उदयथी प्राणी अल्प पण प्रत्याख्यानने इच्छे नहि-स्वीकारे नहि, तेथी बीजा प्रकारना कषायोमा 'अप्रत्याख्यान' संज्ञा बतावी छे. (२) सर्व सावधनी विरतिरूप प्रत्याख्यान कहेल छे, तेना आवरणनी संज्ञा अर्थात् 'प्रत्याख्यानावरण एवं नाम त्रीजा प्रकारना कषायोमा राखेल छे. (३) अने शब्दादि विषयोने मेळवीने वारंवार प्रदीप्त करे छे ते 'संज्वलन' नाम चोथा प्रकारना कपायोमां | कहेवाय छे. (४) एवी रीते मानादिकथी त्रण दंडक कहेवा-'आभोगणिवत्तिए 'त्ति ज्ञानपूर्वक थयेल ते आभोगनिवर्तित * आचारांगसूत्रनो टोकामां सप्तविध दर्शनमोहनीय अने एकवोश प्रकारे चारित्रमोहनीय कहेल छे. KXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXKK) For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानानपत्र सानुवाद ३५९॥ ४ स्थान| काध्ययने | उद्देशः१ कर्मचयादि प्रतिमाश्च सू०२५० अर्थात क्रोधना विपाक(फळ,ने जाणतो थको रोष करे छे, जे क्रोधादिना फळने न जाणतो थको रोष करे छे ते अनाभोगनिवर्शित, उदय अवस्थान प्राप्त न थयेल क्रोध ते उपशांत, तेनो प्रतिपक्ष एटले उदयमां आवेल कोप ते अनुपशांत. एकद्वियादि(असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्यत )ने आभोगनिवर्तित क्रोध, संज्ञीना पूर्वभवनी अपेक्षाए कहेल छे. अनाभोगनिवर्तित क्रोध तो वर्तमान भवनी अपेक्षाए पण छे. नारकादिकने विशिष्ट उदयना अभावथी उपशांत क्रोध छे. अनुपशांत क्रोध शब्द माटे विचारवा जेवू नथी. अथवा ते सर्व दंडकमां उदयरूप होय छे. एवी रीते मानादिकवडे दंडक त्रण कहेवा. (मू० २४९) हवे कषायोनां जत्रण काल संबंधी फलविशेषो कहेवाय छे जीवा णं चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु तं०-कोहणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं जाव वेमाणियाणं २४. एवं चिणंति एस दंडओ, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेतेणं तिन्नि दंडगा, एवं उवचिणिंसु उवचिणंति उवचिणिस्संति, बंधिसु ३ उदीरिस ३ वेदेसु ३ निजरेंसु णिजति निजरिस्संति, जाव वेमाणियाणं, एवमेकेके पदे तिन्नि २ दंडगा भाणियव्वा, जाव निजरिरसंति । सु. २५०. चत्तारि पडिमाओ पं० तं०-समाहिपडिमा उवहाणपडिमा विवेगपडिमा विउस्सग्गपडिमा, चत्तारि पडिमाओ पं० तं०-भद्दा सुभद्दा महाभदा सव्वतोभद्दा, चत्तारि IMAKAXXXXXXXXXX (MOXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ३५९॥ For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX पडिमातो पं० त०-खुड्डिया मोयपडिमा महल्लिया मोयपडिमा जवमज्झा वइरमज्झा। सू० २५१४ मलार्थ:-जीवो चार कारणवडे आठ कर्मप्रकृतिओने एकत्र करता हता, ते आ प्रमाणे-क्रोधवडे, मानवडे, मायावडे आने लोभवडे, एवीरीते यावत् वैमानिको पर्यंत जाणवू अर्थात् २४ दंडकमा एम जाणवू. एवी रीते आ दंडक एकत्र करे छे, एमज आ दंडक भविष्यमा एकठा करशे ए आलापकवडे त्रण दंडको कहेवा. एवी रीते उपचयन-कमदलना निषेकनी रचना करेल छ, करे छ अने करश. बधिल छे-निकाचित करेल छे, करे छे अने करशे. उदीरणा करेल छ, को अनेको भोगवेल छ, भोगवे छे अने भोगवशे. निजरेल छ, निजैरे छे अने निर्जरशे-आत्मप्रदेशथी दूर करशे यावत् वैमानिक पर्यत एम जाणवं, एम एकेक पदमां त्रण त्रण दंडक-पाठ कहेवा यावत् निर्जरा करशे त्यां सुधी. (सू० २५०) चार पडिमाओ कडेली छे, ते आ प्रमाणे-समाधिपडिमा-श्रुतचारित्रनी समाधि, उपधानप्रतिमा-तपविशेष, विवेकपडिमा-अशुद्ध भातपाणी विगेरेना त्यागरूप अने व्युत्सर्गपडिमा-कायोत्सर्गरूप. वळी चार प्रतिमाओ कहे छे, ते आ प्रमाणे-भद्र प्रतिमाचार दिशाए मळीने सोळ प्रहरना कायोत्सर्गरूप,सुभद्रा पण प्राय: भद्रानी माफक छे, महाभद्रा-चार दिशाए आठ आठ प्रहर कायोत्सर्ग करवारूप, सर्वतोभद्रा-दश दिशाओमां एकेक अहोरात्र कायोत्सर्गरूप. वळी चार प्रतिमाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-लघु मोकपडिमा सोळ भक्ते पूर्ण थाय, मोटी मोकपडिमा अढार भक्ते पूरी थाय, यवमध्या-आदि, अंतमां कवळनी हानि अने मध्यमा वृद्धिरूप, वज्रमध्या-आदि-अंतमां कवळनी वृद्धि अने मध्यमां-हानिरूप. *प्रतिमाओनु स्वरूप बोजा ठाणाना त्रीजा उद्देशामां कहेबाई गयेल छे. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXX ४ स्थान काध्ययने । श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद उद्देशः १ कर्मचयादि प्रतिमात्र सू०२५० टीकार्थ:-'जीवा 'मित्यादि० सूत्र कहेल अर्थवाल्लु छे, विशेष ए के-चयन-कषायथी परिणत जीवने कर्मपुद्गलोर्नु ग्रहण मात्र, उपचयन-ग्रहण करेल कर्मना अबाधाकालने छोडीने ज्ञानावरणीवादि स्वरूपे निषेक करवो, ते आ प्रमाणेप्रथम स्थिति( प्रथम उदयमां आवे ते )मां अत्यंत कर्मदलिकने स्थापे छे, ते पछी बजिी स्थितिमा विशेषहीन कर्मदलने स्थापे छे, एवी रीते त्रीजी चोथी यावत् उत्कृष्ट स्थितिमां विशेषहीन दलिकने स्थापे छे. कड्युं छे केमोत्तूण सगमबाहं. पढमाइ ठिहऍ बहतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं, जावक्कोसंति सव्वेसि ॥४१॥ । भावार्थ जणाच्या मुजब छे. बंधन-ज्ञानावरणीयादि स्वरूपे निषेक करेल कर्मदलिकने फरीथी पण कषायनी परिणतिविशेषथी निकाचन-मजबूत करवारूप, उदीरण-उदयमां नहि आवेल कर्मदलिकने करण(जीवना वीर्य)वडे खेंचीने उदयमा प्रक्षेपवं-लाव, वेदन-कमेनी स्थितिना क्षयथी सहज उदयमा आवेल अथवा उदीरणाकरणबडे उदयभावमा प्राप्त थयेल कर्मर्नु अनुभव, निर्जरा-कर्मनुं अकर्मस्वरूप थ, अहिं देशथी ज निर्जरा ग्रहण करवी, केम के चोवीश दंडकमां निर्जरानो असंभव होय छे. वळी निर्जरामा क्रोध विगैरे कारण थता नथी, केमके क्रोधादिकना क्षयने ज निजेरार्नु कारण होय छे अर्थात् क्रोधादि क्षय थवाथी ज निर्जरा थाय छे. अहिं प्रज्ञापना पत्रमा कहेली संग्रहगाथा जणावे छेआयपइट्रिय १ खेत्तं, पडच्च रणंताणुबंधि३ आभोगेशचिणउवचिणबंध. उदीर वेय तह निजराचेव ॥ २५१ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX *॥३६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir cxxxxXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxx) १ आत्मप्रतिष्ठित पदवडे उपलक्षित ( जणातुं) सूत्र, २ क्षेत्रने आश्रयी सूत्र, ३ अनंतानुबंधी पदवड़े उपलक्षित सूत्र अने ४ आभोगपदवडे उपलक्षित सूत्र, त्यारवाद चयन, उपचयन, बंधन, उदीरण, वेदन अने निर्जरा अर्थात् चयनादि विषयवाळा सूत्रो छे. (सू० २५०). हमणा निर्जरा कही ते विशिष्ट निर्जरा प्रतिमादि अनुष्ठानथी थाय छे, माटे प्रतिमाना त्रण सूत्रो कहेल छे. ते वीजा स्थानक(ठाणा)मां वर्णवाई गया छे तो पण अहिं कहेवाय छे केमके चार स्थानकना अनुरोधथी तेनुं वर्णन करवू जोईए. एनी व्याख्या पूर्वनी माफक जाणवी परंतु स्मरणना वास्ते किंचिन कहेवाय छे. समाधि एटले श्रुत अने चारित्ररूप, तेना विषयवाळी प्रतिमाप्रतिज्ञा अर्थात् अभिग्रह ते समाधिप्रतिमा, अथवा द्रव्यसमाधि प्रसिद्ध छे, तेना विषयवाळी प्रतिमा-अभिग्रह ते समाधिप्रतिमा. एवीरीते बीजी प्रतिमाओना संबंधमां पण जाणवू.विशेष एके-उपधान एटले तप अने विवेक-अशुद्ध अने अतिरिक्त ( वधारे) भक्तपान, वस्त्र, शरीर अने शरीरना मल विगेरेनो त्याग. 'विउस्सग्गेत्ति० कायोत्सर्ग. भद्राप्रतिमा एटले पूर्वादि चार दिशानी सन्मुख रहेल साधुने प्रत्येक दिशामां चार प्रहर पर्यंत कायोत्सर्ग करवारूप, वे अहोरात्रिवडे आ प्रतिमानी समाप्ति थाय छे. सुभद्रा प्रतिमा पण ए प्रमाणे ज संभवे छे, कारण के कोई ग्रंथमा तेनुं स्वरूप जोयेल न होवाथी लख्घु नथी. एवी रीते दरेक दिशामा अहोरात्र प्रमाणे कायोत्सर्ग करवारूप महाभद्राप्रतिमा चार अहोरात्रवडे समाप्त थाय छे. अने जे देश दिशाओमा प्रत्येक दिशाए अहोरात्र प्रमाण कायोत्सर्ग करवारूप छे ते सर्वतोभद्रा प्रतिमा दश अहोरात्रवडे समाप्त थाय छे. मोक प्रतिमा एटले प्रश्रवण (लघुनीति) संबंधी प्रतिज्ञा, जे सोळ भक्त( सात उपवास )वडे समाप्त थाय छ, ते क्षुल्लिका awoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Si Kailassagersal Gyarmande श्रीस्थानास्त्र सानुवाद ॥ ३६१॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ अजीवास्ति काया, AAAAAXOXOXOXOXOXOXOXKXXIXXKOMOKAAMKAAIAIAIR (नानी) कहेवाय अने आठ उपवासवडे समाप्त थाय छे ते महती (मोटी) प्रतिमा. यवनी माफक दार्च (दात) अने कवलोथी आदि-अंतमा हीन अने मध्यमा वृद्धिवाळी ते यवमध्या प्रतिमा अने बज्रमध्या प्रतिमा तो आदि-अंतमा वृद्धिवाळी अने मध्यमा हीन होय छे. (सू०२५१) प्रतिमाओ जीवास्तिकायमा ज होय छे, तेनाथी विपरीत अजीवास्तिकायर्नु सूत्र कहे छे चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पं० २०-धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पं० तं०-धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए । सू० २५२, चत्तारि फला पं० २०-आमे णामं एगे आममहरे १ आमे पाममेगे पक्कमहुरे २ पक्के णाममेगे आममहुरे ३ पक्के णाममेगे पक्कमहरे ४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे ४। सू० २५३, चउबिहे सच्चे पं० २०काउज्जुयया भासुज्जुयया भावुज्जुयया अविसंवायणाजोगे, चउविहे मोसे पं० सं०-कायअणुज्जुयया भासअणुज्जुयया भावअणुज्जुयया विसंवादणाजोगे, चउविहे पणिहाणे पं० तं०-मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे उवकरणपणिहाणे, एवं गैरइयाणं पांचंदियाणं जाव वेमा आमादि, सत्यप्रणिधानानि च सू०२५२ २५४ ॥३६१॥ For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org णियाणं ४, चउव्वि सुप्पणिहाणे पं० तं०- मणसुप्पणिहाणे जाव उवगरणसुप्पणिहाणे, एवं संजमसावि चविहे दुष्पणिहाणे पं० तं०- मणदुप्पणिहाणे जात्र उवकरणदुष्पणिहाणे, एवं पचिदियाणं जाव वैमाणियाणं २४ । सू० २५४ मूलार्थ:- चार अस्तिकाय अजीवकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अन पुद्गलास्तिकाय. चार अस्तिकाय अरूपीकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. चार प्रकारां फळ कहेलां छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक फळ काचुं छे अने रसथी कईक मधुर छे १, कोई एक फळ का छे पण रसथी अत्यंत मधुर छे २, कोईएक फळ पाकुं छे पण रसथी कंईक मधुर छे ३ अने कोईएक फळ पाकेलं छे अने अतिशय मधुर छे ४. ए दृष्टांती चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष वय अने श्रुत ( ज्ञान ) थी अव्यक्तकाचो छे अने उपशमादिगुणथी अल्प मधुरतावाळो छे १, कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी काचो छे पण उपशमादिगुणथी अत्यंत मधुरतावा छे २, कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी परिणत (पाको) छे पण उपशमादिगुणथी अल्प मधुरतावाळो छे ३ अने कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी परिणत तेमज उपशमादिगुणरूप अत्यंत मधुरतावाळो छे ४. (सू० २५३) चार प्रकारे सत्य - सरल भाव कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कायानी सरलता - शरीरनी कुचेष्टादिथी रहित, भाषानी सरलता-कपट वचननो अभाव, भावनी सरलता - मननी सरलता, अविसंवादनायोग-विपरीत ज्ञान रहित बोलवु अर्थात् गायने गाय कहेवी इत्यादिरूप. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ********** Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाज-सूत्र सानुवाद ॥ ३६२ ।। www.kobatirth.org चार प्रकारे मृषा- जूटुं कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कायानी वक्रता - वांकुं चालवु, भाषानी वक्रता - कपट वचन बोलवु भावनी वक्रता - मननुं वक्रपथुं अने विसंवादन योग- गायने घोडो कहेवो इत्यादिरूप. चार प्रकारे प्रणिधान-प्रयोग कहेल छे, ते आ प्रमाणे - मननुं प्रणिधान, वचननुं प्रणिधान, कायानुं प्रणिधान अने उपकरण-वस्त्र पात्र विगेरेनुं प्रणिधान एवी रीते चार प्रकारनुं प्रणिधान नैरथिकोने, पंचेंद्रियाने यावत् वैमानिकोने होय छे अर्थात् पंचेंद्रियना सोळ दंड कमां होय छे. चार प्रकारे सुप्र णिधान - सारो व्यापार कट्टेल छे, ते आ प्रमाणे- मननो भलो व्यापार, वचननो भलो व्यापार, कायानो भलो व्यापार अने उपकरणनो भलो व्यापार आ चार प्रकारनो प्रणिधान संयत (साधु) मनुष्योने ज होय छे. चार प्रकारे दुष्प्राणधान कल छे, ते आप्रमाणे - मननो दुष्प्रणिधान, वचननो दुष्प्रणिधान, कायानो दुष्प्रणिधान अने उपकरणनो दुष्प्रणिधान. एवी रीते चार प्रकारनो दुष्प्रणिधान पंचेंद्रियाने यावत् वैमानिकोने होय छे अर्थात् सोळ दंडकमां होय छे. ( सू० २५४ ) टीकार्थः - ' अत्यिकाय'त्ति० अस्ति ए निपात त्रण कालनो बोधक है. भूतकालमां हता, वर्तमानमां होय छे अने भविष्यमा हशे एवी भावना छे. एटले त्रिकाल विषयक कायो ते कोना ? प्रदेशांना समुदायो अथवा ' अस्ति' शब्दवडे कोईक स्थलमा प्रदेशो कहेवाय छे. तेथी तेओ ( प्रदेशो ) ना काय ते अस्तिकायो अने ते चार अस्तिकायो अचेतन होवाथी अजीवकायो छे. अस्तिकायो मूर्त अने अमूर्त होय के माटे अमूर्त अस्तिकायना प्रतिपादन माटे अरूपी अस्तिकायनुं सूत्र कल छे. रूप-आकारवाळं अर्थात् वर्ण विगेरे स्वरूपवालं हे जेओने ते रूपी अस्तिकाय तेना पर्युदास-निषेधयी अरूपी अर्थात् अमूर्त अस्तिकायो, हमणां ज जीवास्तिकाय कयो, तेना विशेषभूत पुरुषना निरूपण माटे फलमूत्र कहे छे - आम एटले अपक फल छतां For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अजीवास्ति कायाः, आमादि, सत्यप्रि धानानि च सू० २५२ २५४ ॥ ३६२ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Si Kailasagarsur Gyarmandie KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX काचा फलनी जेम मधुर अर्थात् थोड़े मधुर ते *आममधुर १, तथा काचुं फल छतां पक्व-पाका फळनी जेम मधुर अर्थात् अत्यंत मधुर २, तथा पक्व फळ छतां काचा फळनी जेम मधुर एटले के पूर्वनी जेम थोडं मधुर ३, तथा पक्व फळ छतां पक्व मधुर अर्थात् पूर्वनी जेम अत्यंत मधुर ४. पुरुष तो आम-वय अने श्रुतथी अव्यक्त (काचो) अने आम मधुर फल समान, केम के अल्प उपशम विगरे लक्षणरूप माधुर्यना भावथी १, वय अने श्रुतथी अव्यक्त ज अने पक्व मधुर फल समान अर्थात् पक्व फळनी जेम मधुर स्वभाव केम के श्रेष्ठ उपशमादि गुण युक्त होवाथी २, तथा अन्य पक्व-वय अने श्रुतथी परिणत अने आम मधुर फल समान केम के उपशमादि माधुर्यन अल्पत्व होवाथी ३, तथा अन्य पक्व तेमज वय अने श्रुतथी पक्व मधुर फल समान, केमके श्रेष्ठ उपशमादि गुण युक्त होवाथी ४ (सू०२५३) हमणां पक्व मधुर कयो ते सत्य गुणना योगी होय छ ए हेतुथी सत्य अने तेव॒ विपर्यय मृपा तथा सत्य-असत्य निमित्तवाळा प्रणिधान प्रत्ये कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार ते ते सूत्रोने कहे छे 'चउबिहे सच्चे' इत्यादीनि कहेल अर्थवाळा आ सूत्रो छे. विशेष एके-ऋजुक-माया रहितनो भाव अथवा कम [कार्य] ते ऋजुकता [सरलता], काथानी ऋजुकता ते कायऋजुकता, एवी रीते वीजा पण जाणवा. विशेष ए के-भाव एटले मन, कायऋजुकता विगेरे शरीर, वाणी अने मननी यथावस्थित अर्थ(यथार्थ)स्वरूपजणाववाने माटे प्रवृत्तिओ छे तथा अजाणपणाथी गाय विगेरेने अश्व विगेरे जे कहे छे अथवा कोईना माटे कईक स्वीकारीने जे करतो नथी ते विसंवादन, तेना विपक्षथी योग-संबंध ते अविसंवादनायोग 'मोसे' ति० मृषा-असत्य, कायानी सरलता नहिं अर्थात् वक्रता इत्यादि वाक्य छे. प्रणिधिः-प्रणिधान *प्रदेशोनो अध्याहार करेल छे. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXOXOXOXOXOXXOXOXXXXX For Private and Personal use only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चौथा ान सानुवाद ॥ ३६३ ॥ www.kobatirth.org अर्थात् प्रयोग तेमां मननुं प्रणिधान - आर्त्त, रौद्र, धर्म्म विगेरे स्वरूपवडे प्रयोग ते मनप्रणिधान, एवी रीते वचनप्रणिधान अने कायप्रणिधान पण जाणवु, उपकरण - लौकिक अने लोकोत्तरूप वस्त्र पात्रादि संयम अने असंयमना उपकार माटे प्रणिधानप्रयोग ते उपकरणप्रणिधान छे. 'एव' मिति० जेवी रीते सामान्यथी कां तेम नैरयिकोने पण कहेतुं वळी कहेल चोवीश दंडना मध्ये पण वैमानिक पर्यंत जे पंचेंद्रियो छे संओने पण एवी ज रीते चार प्रणिधानो कहेवा. एकेंद्रियादिने मन विगेरेनो असंभव होवाथी प्रणिधाननो पण असंभव छे, प्रणिधान सुप्रणिधान अने दुष्प्रणिधान एम वे प्रकारना छे माटे ते बँने सूत्रो छे. शोभन-संयमना हेतु वाळं होवाथी सारुं प्रणिधान अर्थात् मन विगेरेनुं प्रयोजन [ प्रवर्त्तात्र ] ते सुप्रणिधान आ सुप्रणिधान चोवीश दंडकना निरूपणमां मनुष्योने छे, तेमां पण संयतोने ज होय छे केम के सुपणिधान चारित्रनी परिणतिरूप होय छे. सूत्रकार कहे छे ' एवं संजये 'त्यादि० दुष्प्रणिधाननुं सूत्र सामान्य सूत्रनी माफक जाणवुं. विशेष ए के दुष्प्रणिधान - असंयम माटे मन विगेरेनो व्यापार करवो ते. ( सू० २५४ ) हवे पुरुषना अधिकारथी बीजी रीते पुरुष संबंधी १४ सूत्रो कहे छे चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - आवातभद्दते णाममेगे णो संवासभद्दते १, संवासभद्दए णाममेगे णो आवातभहए २, एगे आवातभद्दतेवि संवासभद्दतेवि ३, एगे णो, आवायभद्दते नो वा संवासभद्दए ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - अप्पणो नाममेगे वज्जं पासति णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्जं पासति ४ (२) चन्तारि पुरिसजाया पं० तं० - अप्पणो णाममेगे वज्जं उदीरेइ णो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ आपात भद्र कादि सू०२५५ ॥ ३६३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie परस्स४ (३) अप्पणो नाममेगे वजं उवसामेति णो परस्स ४ (४) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०अब्भुढेइ नाममेगे णो अब्भुट्ठावेति (५) एवं वंदति णाममेगे णो वंदावेइ (६) एवं सक्कारेइ (७) सम्माणेति (८) पूएइ (९) वाएइ (१०) पडिपुच्छति (११) पुच्छइ (१२) वागरेति (१३) सुत्तधरे 8 णाममेगे णो अत्थधरे अत्थधरे नाममेगे णो सुत्तधरे (१४) सू० २५५ मूलार्थ:-चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष आपातभद्रक एटले प्रथम मिलापमां मधुर वचनादिवडे सुखकारी पण संवास-घणा कालना वसवाटमां सारो नहिं १, एक पुरुष संवास-घणा कालना वसबाटमा सारो पण आपात-प्रथम मिलापमा सारो नहिं अर्थात् मधुरभाषी नहिं २, एक पुरुष प्रथम मिलापमां पण सारो अने पछी संवासमां पण सारो ३ अने कोईएक पुरुष आपात-प्रथम मिलापमा पण सारो नहिं तथा पछी पण सारो नहिं ४ (१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष पोताना पापकर्म(दोष)ने जुए छे परंतु बीजाना पापकर्म(दोष)ने जोतो नथी १, कोई एक पुरुष बीजाना दोषने देखे छे परंतु पोताना दोषने जोतो नथी २, कोई एक पुरुष पोताना अने पारका दोषने जुए छे ३ अने कोई एक पुरुष पोताना के पारका दोषने जोतो नथी ४ (२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष पोताना पापने वीजा पासे कहे छे परंतु बीजाना पापने कहेतो नथी १, कोईएक पुरुष बीजाना पाप( दोष)ने कहे छे परंतु पोताना दोषने कहे तो नथी २, कोईएक पुरुष पोताना अने पारका दोषने कहे छे ३ अने कोईएक पुरुष पोताना के पारका दोषने Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy xxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था-1 नानसत्र सानुवाद ३६४॥ काध्ययने उद्देशः १ आपातमद्र कादि सू० २५५ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कहेतो नथी ४ (३) कोईएक पुरुष पोताना पापर्नु निवर्त्तन (दूर करवू ) करे छे परंतु बीजाना पापर्नु निवर्तन करतो नथी १, कोईएक पुरुष बीजाना पापर्नु निवर्तन करे छे परंतु पोताना पापर्नु करतो नथी २, कोईएक पुरुष पोताना अने पारका पापर्नु निवर्जन करे छे ३ अने कोईएक पुरुष पोताना के पारका पापर्नु निवर्चन करतो नथी ४ (४) चार प्रकारा पुरुषो कहला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष (संविज्ञपाक्षिकादि साधु) आसनथी ऊभो थाय छे पण अन्यने ऊठवा न आपे १, कोईएक पुरुष बीजाने ऊठवा दे छ पण पोते ऊभो थतो नथी ते गुरु २, स्वयं ऊभो थाय छे अने बीजाने पण ऊभो थवा दे छे ते स्थविर मुनि ३ अने कोईएक पुरुष स्वयं ऊभो थतो नथी अने वीजाने आसनथी ऊभो थवा देतो नथी ते जिनकल्पिक विगरे ४ (५) एवी जरीते कोईक पुरुष स्वयं वंदन करे छ पण बीजा पासे वंदावतो नथी, कोईक पुरुष बीजा पासे बंदावे छे पण पोते वंदन करतो नथी २, कोईक पुरुष पोते वंदन करे छे ने बीजा पासे वंदन करावे छे ३ तेमज कोईएक पुरुष स्वयं वंदन करे नहिं अने अन्य पासे करावे पण नहि ४ (६) एवीज रीते सत्कार करे पण करावे नहिं १, सत्कार करावे पण करे नहि २, स्वयं सत्कार करे अने करावे ३, स्वयं सत्कार करे नहि अने करावे पण नहिं (७) सन्मान करे पण करावे नहि १, सन्मान करावे पण करे नहि २, सन्मान करे अने करावे ३, सन्मान करे नहिं अने करावे पण नहिं ४ (८) स्वयं पूजे पण पूजावे नहिं १, पूजावे पण पूजे नहि २, पूजे अने पूजावे ३, पूजे नहिं अने पूजावे नहिं ४ (९) स्वयं भगावे छे पण भणतो नथी ते उपाध्याय १, मणे पण भणावतो नथी ते शिष्य २, बीजाने भणावे छे अने स्वयं न भणेल ग्रंथने भणे छे ते विद्वान् साधु ३ तेमज भणतो नथी अने भणावता नथी ४ (१०) स्वयं सत्र अने अर्थनुं ग्रहण करे छे पण बीजाने ग्रहण करावतो नथी शिष्य १, बीजाने ग्रहण करावे छे अने स्वयं ग्रहण XoxoxoxoxoxK:XXXXXXxxoxoxoxoxoxox -॥३६४॥ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करतो नथी ते उपाध्याय २, स्वयं ग्रहण करे छे अने बजाने ग्रहण करावे छे ते स्थावर ३ अने स्वयं ग्रहण करतो नथी तथा बीजाने ग्रहण करावतो नथी ४ (११) स्वयं प्रश्नने पूछे छे पण बीजावडे प्रश्न करावतो नथी ते लघु शिष्य १, बीजाओवडे पूछाय छे पण स्वयं पूछतो नथी ते गुरु. २, स्वयं पूछे छे अने पूछाय छे ते स्थविर साधु ३ तेमज स्त्रयं पूछ तो नथी अने बीजावडे पूछावातो नथी ते जिनकल्पिक. ४. आ प्रश्नसूत्र शास्त्रना विषयमां समज. (१२) पोते सूत्रादिने बोले छे पण बीजा पासे बोलावतो नथी १, बीजा पासे बोलावे छे पण पोते बोलतो नथी २, पोते बोले छे अने बीजा पासे बोलावे छे ३ तेमज पोते बोलतो नथी तथा बीजा पासे बोलावतो नथी ४ (१३) कोईएक पुरुष सूत्रने धरनार हे पण अर्थने घरनार नथी ते नवीन अभ्यासी १, कोई पुरुष अर्थने धरनार छे पण सूत्रने धरनार नथी जाणकार श्रावक विगेरे २, कोईक पुरुष सूत्र अने अर्थ बन्नेना धरनार छे ते गीतार्थ ३ अने कोईक पुरुष सूत्रधर तथा अर्थधर पण नथी ते जड मनुष्य ४ (१४) ( सू० २५५ ) टीकार्थ:-चौद सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के - आपतन - आपात, अर्थात् प्रथम मिलाप तेमां भद्रक - सुखकारक, केम के जो अने भाषणादि द्वारा सुखकर होवाथी. संवास-लांबा कालना सहवासमां कल्याणकारक नहिं केम के हिंसक होवाथी अथवा संसारना कारणमां जोडनार होवाथी. १, साथै वसनाराओने अत्यंत उपकारीपणाए संवासभद्रक, परंतु प्रथम मिलनमां भद्रक , म नबोल अने कठोर भाषण विगेरे होवाथी. २, एवी ज रीते त्रीजो अने चोथो भांगो जाणवो ४. (१) ' वज्जं 'ति त्याग कराय छे ते वर्ज्य, अथवा अवद्य - पाप (अकारनो लोप थवाथी अवज्जने बदले मूलमां वज्ज थयेल छे. ) अथवा वज्रनी माफक भारे होवाथी वज्र-हिंसा, असत्य विगेरे पापरूप कर्म, कोईएक पुरुष पोताना पापकर्मने कलह विगेरेमां जुवे छे, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३६५॥ www.kobatirth.org केमके पश्चात्ताप सहित होवाथी, परंतु परना पाप - अपराधने जोतो नथी, केम के तेथी तो उदासीन होवाथी. १, अन्य पुरुष तो परना दोषने जुवे छे परंतु पोताना दोषने जोतो नथी, केम के अहंकार सहित होवाथी. २, अन्य पुरुष स्व-परना दोषने जुवे छे, केम के पश्चात्ताप सिवाय यथार्थ वस्तुनो बोध थवाथी. ३, कोईक तो बने ( स्व - पर ) ना दोषने जोतो नथी, केम के विशेष मूढ होवाथी ४. (२) कोई एक पोताना पापने जोईने कहे छे अर्थात् एम कहे के 'में आ पाप कर्तुं छे' अथवा शांत थयेल[ क्लेशादि ]नी फरीथी प्रवृत्ति करे छे, अथवा वज्ररूप कर्मनी उदीरणा करे छे अर्थात् [ बीजाने ] पीडा उत्पन्न करवावडे उदयमां कर्मने प्रवेशावे छे. (३) एवी रीते उपशमावे छे अर्थात् पाप अथवा कर्मने दूर करे छे. (४) 'अन्भुट्ठेइ' ति० अभ्युत्थान करे छे एटले के गुरु विगरेने आवतां जोईने आसनथी ऊभो थाय छे, बीजा पासे अभ्युत्थान करावतो नथी ते कोण ? संविज्ञपाक्षिकX अथवा लघुपर्यायवाळो मुनि. १, फक्त अभ्युत्थान करावे ज छे ते कोण ? गुरु. २, अभ्युत्थान करनार अने कवनार ते कोण ? गीतार्थ स्थविरादि ३, अभ्युत्थान करे नहि अने करावे नहि ते कोण ? जिनकल्पिक अथवा अविनीत शिष्य. ४ (५) एम ज वंदनादि सूत्रोमां पण चार भांगा जाणवा. विशेष ए के द्वादश आवर्त्तनादिद्वारा वंदन करे छे. (६) वस्त्रादिना दानवडे सत्कार करे छे. (७) स्तुति विगेरेथी गुणोनी उन्नति करवावडे सन्मान करे छे. (८) योग्य पूजा* टीकाकारे बीजा भांगाओ ज्यां कहेल नथी ते स्थळे मूलना अनुवादधी जाणी लेवा. फक्त एक भांगो कहेल छे तेना अनुमारे बीजजोडवा. X शुद्ध रूपक परंतु शुद्ध क्रिया न करनार तेमज मुनिवेषने धरनार ते संविज्ञपाक्षिक, विशेष जिज्ञासुए श्री धर्मदासगणिविरचित उपदेशमाळा नामक ग्रंथमां जोवुं. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EXC ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ आपातभ द्रकादि पू० २५५ ।। ३६५ ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्योबडे पूजे छे. (९) वाचयति-भणावे छे, 'नो वायावेइ' बीजा पासेथी पोते जाणतो नथी ते कोण ? उपाध्यायादि. १. स्वयं भणे छ परंतु वीजाने भणावतो नथी, आ बीजा भांगामां अभ्यासी शिष्य. २, त्रीजा भांगामां बीजाने भणावे छे अने नहिं भणेल ग्रंथने स्वयं भणे छे ते कोण ? विद्वान् साधु ३, चोथा मांगामां जिनकल्पिक, [स्वयं भणे नहि अने अन्यने मणावे पण नहिं ] ४, एवी रीते स्वबुद्धिवडे सर्वत्र उदाहरणनी योजना करवी. (१०) स्त्र अने अर्थने ग्रहण करे छे. (११) प्रश्न करे छे. (१२) सूत्रादिने बोले छे तेवी ज रीते अन्य मांगा जाणवा. (१३) सूत्रधर-भणनार १, अर्थधर-जाणनार २, बीजो उभय( सूत्रार्थ )धर विद्वान् मुनि ३ अने बनेने नहिं धरनार ते जड ४ (१४) चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चत्तारि लोगपाला पं० सं०-सोमे जमे वरुणे वेसमणे, एवं बलिस्सवि सोमे जमे वेसमणे वरुणे, धरणस्स कालपाले कोलपाले सेलपाले संखपाले, एवं भयाणंदस्स चत्तारि कालपाले कोलपाले संखपाले सेलपाले. वेणुदेवस्स चित्ते विचित्ते चित्तपवखे विचित्तपक्खे. वेणुदालिस्स चित्ते विचित्ते विचित्तपक्खे चित्तपक्खे (१)हरिकंतस्स पभे सुप्पभे पभकते सुप्पभकते. हरिस्सहस्स पभे सुप्पभे सुप्पभकते पभकते, अग्गिसिहस्स तेऊ तेउसिहे तेउकते तेउप्पभे, अग्गिमाणवस्स तेऊ तेउसिहे तेउपमे तेउकंते, पुन्नस्स रूए रूयंसे रूदकते EKKKKKKKAKKxxxxxxxxxxxxx XKAKK For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान श्रीस्थानासत्र सानुवाद काध्ययने XXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx रूदप्पभे, एवं विसिट्ठस्स रूते रूतंसे रूतप्पभे रूयकते, जलकंतस्स जले जलइते जलकंते जलप्पभे, जलप्पहस्सजले जलरते जलप्पहे जलकंते (२) अमितगतिस्स तुरियगती खिप्पगती सीहगती सीहविक्कमगती, अमितवाहणस्स तुरियगती खिप्पगती सीहविक्कमगती सीहगती. वेलंबस्स काले महाकाले अंजणे रिटे, पभंजणस्स काले महाकाले रिट्रे अंजणे, घोसस्स आवत्ते वियावत्ते शंदियावत्ते महाणंदियावत्ते, महाघोसस्स आवत्ते वियावत्ते महाणंदियावचे शंदियावत्ते २०, सक्करस सोमे जमे वरुणे वेसमणे, ईसाणस्स सोमे जमे वेसमणे वरुणे, एवं एगंतरिता जावच्चुतस्स, चउव्विहा वाउकुमारा० पं० त०-काले महाकाले लंबे पभंजणे । सू० २५६, चउव्विहा देवा पं० २०भवणवासी वाणमंतरा जोडसिया विमाणवासी। स०२५७.चउबिहे पमाणे पं०२०-दव्वप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे । सू० २५८ . मूलार्थ:-असुरेंद्रना-असुरकुमारना राजा चमरेंद्रना चार लोकपालो कला छे, ते आ प्रमाणे-सोम, यम, वरुण अने वैश्रमण १, एवी रीते बलींद्रना पण चार लोकपाल छे-सोम, यम, वैश्रमण अने वरुण २, घरणेंद्रना कालवाल, कोलपाल, xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx उद्देशः १ लोकपाला, देवा प्रमाण सू०२५६ ५८ ३६६ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शैलपाल अने शंखपाल ए चार लोकपाल छे ३, एम भूतानेन्द्रना कालपाल, कोलपाल, शंखपाल अने शैलपाल ए चार लोकपाल छे ४, वेणुदेव इंद्रना चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष अने विचित्रपक्ष ए चार लोकपाल छे ५, वेणुद्दालि इंद्रना चित्र, विचित्र, विचित्रपक्ष अने चित्रपक्ष ए चार लोकपाल छे. ६, (१) हरिकान्त इंद्रना प्रभ, सुप्रभ, प्रभकांत अने सुप्रभकांत ए चार लोकपाल छे ७, हरिस्सह इंद्रना प्रभ, सुप्रभ, सुप्रभकांत अने प्रभकांत ८, अग्निशिख इंद्रना तेजः, तेजः शिख, तेजस्कांत अने तेजश्रम ९, अग्निमानव इंद्रना तेजः, तेजश्शिखर, तेजप्रभ अने तेजस्कांत १०, पूर्ण इंद्रना रूप, रूपांश, रूपकांत अने रूपप्रभ ११, विशिष्ट इंद्रना रूप, रूपांश, रूपप्रभ अने रूपकांत १२, जलकांत इंद्रना जल, जलरत, जलकांत अने जलप्रभ १३, जलनभ इंद्रना जल, जलरत, जलप्रभ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांत १४, नामत्राळा लोकपालो छे. (२) अमितगति इंद्रना त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहगति अने सिंहविक्रमगति १५, अमितवाहन इंद्रना त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहविक्रमगति अने सिंहगति १६, वेलंब इंद्रना काल, महाकाल, अंजन अने रिष्ट १७, प्रभंजन इंद्रनाकाल, महाकाल, रिष्ट अने अंजन १८, घोष इंद्रना आवर्त्त, न्यावर्त्त, नंदिकावर्त्त अने महानंदिकावर्त्त १९, महाघोष इंद्रना आवर्त्त न्यावर्त्त, महानंदिकावर्त्त अने नंदिकावर्च २०, आ नामवाळा लोकपालो छे. असुरकुमार निकायमां दक्षिण दिशानो स्वामी चमरेंद्र अने उत्तर दिशानो बलींद्र छे. आ प्रमाणे दरेक निकायना क्रमशः दक्षिण अने उत्तर दिशाना इंद्रो मली वीश इंद्रो छे. ( व्यंतर अने ज्योतिष्कना इंद्रोने लोकपालो नथी.) शक्रेंद्रना सोम, यम, वरुण अने वैश्रमण ४. ईशानेंद्रना सोम, यम, वैश्रमण अने वरुण-आ नामवाळा लोकपालो कहेल छे. एवी रीते एक एकने अंतरे नामो यावत् अच्युतेंद्र पर्यंत कहेवा. अर्थात् सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, महाशुक्र अने प्राणत इंद्रना लोकपालना नामी सौधर्मेंद्र ( शक्र )ना लोकालोनी जैम अने ६२ For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥३६७॥ माहेंद्र, लांतक, सहस्रार अने अच्युत इंद्रना लोकपालोना नामो ईशानेंद्र ना लोकपालोनी माफक जाणवा. चार प्रकारना वायुकुमारो पातालकलशाना अधिपति देवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-काल, महाकाल, वेलंब अने प्रभंजन. (सू० २५६) चार प्रकारना देवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-भवनपति, वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक. (सू० २५७) चार प्रकारे प्रमाण कहेला छे, ते | आ प्रमाणे-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण अने भावप्रमाण (सू० २५८) टीकार्थः-पुरुषना अधिकारथी ज देवविशेष पुरुषोनुं निरूपण करनार लोकपालादि सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-इंद्र एटले परम ऐश्वर्यना योगी प्रभु अथवा गजेंद्र नी जेम महान्. राजन-दीपतो होवाथी अर्थात् शोभावाळो होवाथी अथवा आराध्य होवाथी राजा, अथवा इंद्र अने राजा एकार्थवाचक छे. दक्षिण दिशाना लोकपालोमा नामथी जे त्रीजो लोकपाल छे ते उत्तर दिशाना लोकपालोमा नामथी चोथो छे अने चोथो छे ते त्रीजो छे. एवी रीते 'एकतरिय 'त्ति० जे नामवाळा शक इंद्रना लोकपालो छे ते नामवाळा ज सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, शुक्र अने प्राणतेंद्रना लोकपालो छे, तथा जे नामवाळा ईशानेंद्रना लोकपालो छे ते नामवाळा ज माहेंद्र, लांतक, सहस्रार अने अच्युतेंद्रना लोकपालो छे. कालादि वायुकुमार देवो पातालकलशाना स्वामी छे. (सू०६५६) चार प्रकारना देवो छ (सू०२५७) एम जे कहेल छे ते संख्याप्रमाण छे माटे प्रमाणनी प्ररूपणा करनार सूत्र कहे छे. जे प्रमाण करे छे अथवा जेनावडे पदार्थनिर्णय कराय छे ते प्रमाण, तेमां द्रव्य एज प्रमाण, दंड विगेरे द्रव्यथी अथवा धनुष्य विगेरेथी शरीर प्रमुखनुं प्रमाण अथवा दंड, हस्त अने अंगुल विगेरेथी निर्णय करवो ते द्रव्यप्रमाण, जीवादि द्रव्यर्नु अथवा जीव, धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय प्रमुख द्रव्योनुं प्रमाण अथवा परमाणु विगेरे द्रव्यमा पर्यायोनो ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ लोकपाला, देवा प्रमाणश्च सू०२५६ XXXXXXXXXXXXXAIKRAINIK KIKXXXXXXXXXXXXXXXX ॥३६७॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ******** www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा परमाणु आदि द्रव्याने विषे ज पर्यायांनो निर्णय करवो ते द्रव्यप्रमाण. एवी रीते क्षेत्रप्रमाणादिमां यथायोग्य समास करवो. त्यां द्रव्यप्रमाण वे प्रकारे छे-१ प्रदेशनिष्पन्न अने २ विभागनिष्पन्न. आ बन्नेमा पहेलुं परमाणुथी आरंभीने अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत अने बजु विभागनिष्पन्न मान प्रमुख पांच प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे- १ मान-धान्यनुं मान, ते सेतिका ( पसली प्रमाण) विगेरे, रसनुं मान, ते कर्ष (तोलो) विगेरे, २ उन्मान - बाजवाना तोला, शेर विगेरे, ३ अवमान-हाथ विगेरे, ४ गणित - एक बे विगेरे, ५ प्रतिमान- गुंजा ( चणोठी), वाल विगेरे, क्षेत्र - आकाश, तेनुं प्रमाण वे प्रकारे प्रदेशनिष्पन्नादि, मां प्रदेशनिष्पन्न - एक प्रदेश अवगाढथी लईने असंख्यात प्रदेश अवगाढ ( अवगाहीने रहेल ) पर्यंत अने विभागनिष्पन्न ते अंगुल प्रमुख. काल - समयनुं मान वे प्रकारे छे-१ प्रदेश निष्पन्न ते एक समयनी स्थितिथी आरंभीने असंख्यात समयनी स्थिति पर्यंत अने विभागनिष्पन्न ते समय, आवलिका विगेरे. क्षेत्र अने कालमां द्रव्यपणुं छते पण द्रव्यथी जे बेने जुदा कहेल छे ते जीवादि द्रव्योना विशेषकपणाए क्षेत्र अने काल विषे ते द्रव्योनुं पर्यायपणुं पण छे; माटे द्रव्यथी क्षेत्र अने कालनी विशिष्टता कवा माटे भेदनो निर्देश करेल छे. भाव ए ज प्रमाण, अथवा भावानुं प्रमाण ते भावप्रमाण, ते गुण, नय अने संख्याभेदथी त्रण प्रकारनुं छे, त्रणमां जीवना ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप गुणो छे, तेमां ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा अने आगमरूप गुणप्रमाण छे, नैगमादि नयो ते नयप्रमाण छे, एक वे विंगरे संख्या ते संख्याप्रमाण छे. (सू० २५८) देवना अधिकारथी ज विशेष जणावतां कहे छे के X आ प्रमाणनी व्याख्यामां तृतीया, षष्ठी अने सप्तमी विभक्तिओना एकवचन अने बहुवचन लोघेज छे. For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Se Kailassagarsur Gyarmande श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद | ॥ ३६८ XXXXXXXXXX oroxxxxxxxXKKXXXXXXXXXXXXXXXxxx चत्तारि दिसाकमारिमहत्तरियाओ पं००-रूया रूयंसा सुरूवा रूयावती, चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पं. २०-चित्ता चित्तकगगा सतेरा सोतानणी । सू० २५९, सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाते देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पं०, इसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पं०। सू० २६०, चउविहे संसारे पं० तं०-दव्वसंसारे खेत्तसंसारे कालसंसारे भावसंसारे । सू० २६१ ___ मूलार्थ:-दिशाकुमारीनी चार महत्तरिका देवीओ मध्यरुचकनी वसनारी कहेली छे, ते आ प्रमाणे-रूपा, रूपांशा, सुरूपा अने रूपावती. विद्युत्कुमारीनी चार महत्तरिका देवीओ रुचक पर्वतनी विदिशामां बसनारी कहेली छे, ते आ प्रमाण-चित्रा, चित्रकनका, शतेरा अने सौदामिनी. (सू० २५९) शक्र, देवेंद्र, देवना राजाना मध्यम परिषदना देवानी चार पल्योपमनी स्थिति कहेली छे. ईशान, देवेंद्र, देवना राजाना मध्यप परिसदनी देवोनी चार पल्पोपमनो स्थिाने कडेली छे. (सू०२६०) | चार प्रकारे संसार कहेल छ, ते आ प्रमाणे-द्रव्यसंपार, क्षेसंसार, कालसंसार अने भासंपार (सू० १६१) टीकार्थ:-‘चत्तांरि दिसा' इत्यादि० सूत्र मुगम छे. विशेष ए के-दिशाकुमारीओ एवी अत्यंत श्रेष्ठ देवीओ अथवा दिशाकुमारीओमां महत्तरिका ओ ते दिक्कुमारीमहत्तरिकाओ, रुचकनी मध्य मां रहेनारी आ देवीओ जन्म पामेल अरिहंत * बाबूवालो प्रतमा सेयसा छे, हस्तलिखित प्रतमा बन्ने पाठ छे. ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ महत्वारिका*देव्यः , देव → स्थिति संसारभेदश्च सू०२५९ तमा रिकामी ते दिवसाय सुगम छ.गाव काल X॥३१८॥ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) | परमात्मानी नालछेदनादि क्रियाने करे छे. विद्युत्कुमारी महत्तरिकाओ तो रुचकनी विदिशामां बसनारीओ छ, ते देवीओ चारे दिशाओमां ऊभी रहीने, हाथमा दीपक ग्रहण करीने जन्म पामेल अरिहंतना गीतो गाय छे. आ देवो संसारमा वसनारा छे, माटे संसारसूत्र कहेल छे. संसरण-अहिंतहिं परिभ्रमण करवू ते संसार, तत्र 'संसार' शब्दना अर्थने जाणनार पण वर्तमानकाले संसार शब्दमां जेनो उपयोग नथी ते द्रव्य संसार, अथवा जीव अने पुद्गललक्षण द्रव्योर्नु यथायोग्य भ्रमण ते द्रव्यसंसार, तेओर्नु ज चौद राजलोकरूप क्षेत्रमा जे परिभ्रमण ते क्षेत्रसंसार, अथवा जे क्षेत्रमा संसारनी व्याख्या कराय छे ते ज क्षेत्र, अभेद उपचार करवाथी क्षेत्रसंसार, जेम रसवाळी गुणनिका(गुगी) इत्यादि. कालस्य-दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर(वर्ष)लक्षण कालर्नु संसर-चक्रन्यायवडे भमg अथवा कोई पण जीवन नरकादिने विष पल्योपमादि कालविशेषवडे भमवू ते कालसंसार, अथवा पोरसी विगरे जे कालमा संसारनी व्याख्या कराय छे ते कालसंसार कहेवाय छे, अभेद उपचार करवाथी. जेम प्रत्युपेक्षण(पडिलहण) करवाथी काल पण प्रत्युपेक्षण कहेबाय छे. तथा संसार शब्दना अर्थनो जाणनार अने तेमां उपयोगवाळी ते भावसंसार अथवा जीव अने पुद्गल संबंधी द्रव्य संसरण मात्र गौण करायेल छ अथवा औदयिकादि भावोनो अथवा वर्णादिनो संसरणपरिणाम ते भावसंसार छे. (सू० २६१), आ द्रव्यादि संसार अनेक नयोबडे दृष्टिवादमां विचाराय छे तेथी दृष्टिवाद सूत्र कहे छ चउविहे दिट्ठिवाए पं० -परिकम्म सुत्ताई पुनगए अगुजोगे । सू० २६२, चउबिहे XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. . श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ दृष्टिवादः प्रायश्चिनश्च सू०२६२ पायरिछत्ते पं००-णाणपायश्चित्ते दंसणपायच्छित्ते चरित्तपायच्छित्ते चियत्तकिच्चपायच्छित्ते १. चउविहे पायरिछत्ते पं० २०-परिसवणापायरिछत्ते संजोयणापायच्छित्ते आरोअणापायच्छित्ते पलिउंचणापायच्छित्ते २ । सू० २६३ मृलार्थ:-चार प्रकार हा वाद वल छे, ते आ प्रमाणे-१ सूत्रादिना ग्रहण करवानी योग्यता लावनार ते परिकर्म, २ द्रव्य, | पर्याय अने नयादिव ना अर्थने इचयनार ते सूत्र, ३ पूर्व संबंधी श्रुत जेमा रहेढुं छे ते पूर्वगत अने ४ सूत्रनो कहेवा योग्य विषयनी साथे जे योग-संबंध ते अनुयोग. प्रथमानुयोगादि), (सू०२६२) चार प्रकारे प्रायश्चित्त कहेल छे, ते आप्रमाणे-१ ज्ञानना अतिचारोनी शुद्धि माटे जे प्रायचित ते ज्ञानप्रायश्चित्त, २ समकितना अतिचारोर्नु प्रायश्चित्त, ३ चारित्रना आंतचारोर्नु प्रायश्चित्त अने ४ व्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त-गतिानुं जे कार्य छे ते पापनो छेदक होवाथी प्रायश्चित्त, चार प्रकारे प्रायश्चित्त कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ नहिं करवा योग्य कृत्यर्नु करवू ते प्रतिसेवना, तेनुं प्रायश्चित्त ते, २ संयोजना-एक जातिना अतिचारोनुं मलवं, तेनु प्रायश्चित्त, ३ आरोषणा प्रायश्चित्त-एक अपराधना प्रायश्चित्तमा पुनः पुनः दोष सेववाथी चीजा विजातीय प्रायश्चित्तर्नु आरोपण करवू ते अने ४ परिवूचनाप्रायश्चित्त-पापर्नु छुपायवु अर्थात् एकनुं बीजूं कहे तेनुं प्रायश्चित्त (सू० २६३) टीकार्थ:-'चउबिहे विहिवाए' इत्यादि० जेनावडे दृष्टिओ-दर्शनो अर्थात् नयो कहेवाय छे ते दृष्टिवाद, अथवा पतंति-जेने विषे नयो अवतरे छे ते दृष्टिपात बारमुं अंग. तेमां सूत्रादिना ग्रहण करवा माटे योग्यतानुं संपादन करवामां Xxxxxxxxxxxxxxx ॥३६९॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx गणितना संस्कारनी माफक समर्थ ते परिकर्म, १, ते सिद्धसेनिकादि. ऋजुसूत्र विगेरे बावीश सूत्रो होय छे. अहिं सर्व द्रव्य, पर्याय अने नयना अर्थनुं सूचन करनार होवाथी सत्रो छे. २, समस्त श्रुतथी प्रथम रचायेला होवाथी पूर्वो, ते उत्पाद प्रमुख चौद पूर्वो छे. तेओना नाम अने प्रमाण आ प्रमाणे उप्पाय १ अग्गेणीयं २, वीरियं ३ अत्थिनस्थि उ पवायं ४ । णाणपवायं ५ सच्चं ६, आयपवायं च ७ कम्मं च ८॥४३॥ पुव्वं पञ्चवखाणं ९, विजणुवायं १० अवंझ ११ पाणाउं १२। किरियाविसालपुव्वं १३, चोद्दसमं बिंदुसारं तु १४ ॥४४॥ १ उत्पाद पूर्व, २ अग्रायणीय पूर्व, ३ वीर्यप्रवाद पूर्व, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, ५ ज्ञानप्रवाद पूर्व, ६ सत्यप्रवाद पूर्व, ७ आत्मप्रवाद पूर्व, ८ कर्मप्रवाद पूर्व, ९ प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व, १० विद्यानुवाद पूर्व, ११ *अवंध्य पूर्व, १२ प्राणायु पूर्व, १३ क्रियाविशाल पूर्व अने १४ लोकबिंदुसार पूर्व छे. उपाये पयकोडी १, अग्गेणीयंमि छन्नउइलक्खा २। * मतांतरे कल्याण पूर्व एवं पण नाम छे. (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥३७०॥ XxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXX) विरियम्मि सयरिलक्खा ३, सट्रिलक्खा उ अत्थिणस्थिम्मि ४॥४५॥ ४ स्थान . १ उत्पाद पूर्वमा एक क्रोड पद, २ अग्रायणीय पूर्वमा छन्नुं लाख, ३ वीर्यप्रवाद पूर्वमा सीचेर लाख, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद काध्ययने पूर्वमां साठ लाख पद छे. उद्देशः एगा पउणा कोडी, णाणपवायंमि होइ पुव्वम्मि ५। एगा पयाण कोडी, छच्च पयासच्चवायंमि ॥४६॥ दृष्टिवादर ५ ज्ञानप्रवादपूर्वमा एक पद न्यून एक क्रोड पद छे, ६ सत्यप्रवाद पूर्वमा एक क्रोड अने छ पद छे. प्रायश्चित छन्वीसं कोडीओ, आयपवायंमि होइ पयसंखा७ कम्मपवाए कोडी,असीती लक्खेहिं अब्भहिआद॥ ___७ आत्मप्रवाद पूर्वमा छन्वीश कोड पदनी संख्या छे, ८ कर्मप्रवाद पूर्वमा एक क्रोड ने एंशी लाख पद छे. ०२६२चुलसीइ सयसहस्सा पच्चक्खाणंमि वन्निया पुव्वे ९। एक्का पयाण कोडी, दससहसहिया य अगुवाए१०॥४x ९ प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्वमां चोराशी लाख पद छे, १० विद्यानुवाद पूर्वमा एक क्रोड अने दश हजार पद छे. छव्वीसं कोडीओ, पयाण पुवे अवझणामंमि१श पाणाउम्मिय कोडी.छप्पणलक्खेहि अब्भहिया१२४९॥ ११ अवंध्य नामना पूर्वमा छब्बीस क्रोड पद छे, १२ प्राणायु पूर्वमा एक क्रोड ने छप्पन्न लाख पद छे. नवकोडीओ संखा,किरियविसालमि वन्निया गुरुणा१३। अध्धत्तेरसलक्खा, पयसंखा बिंदुसारम्मि१४॥५० CXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३ क्रियाविशाल पूर्वमां नव क्रोड पद छे अने १४ बिंदुसार पूर्वमां साडावार लाख पदनी संख्या छे. ओने विषे गत- रहेलुं जे श्रुत ते पूर्वगत, अर्थात् पूर्वे ज जेम अंगप्रविष्ट ते अंगो कहेवाय छे तेम अहिं जाणवुं. जोडं ते योग, ते अनुरूप अथवा अनुकूल, सूत्रनो पोताना अभिधेय-विषय साधे योग ते अनुयोग. तीर्थंकरोने प्रथम समकितनी प्राप्ति पूर्वभव विगेरेनुं वर्णनरूप जे छे ते मूल प्रथमानुयोग कहेवाय छे. वळी जे कुलकर विगेरेनी वक्तव्यता जणावनार ते गंडिकानुयोग छे. ( सू० २६२ ) पूर्वगत श्रुत हमणा कां, तेमां प्रायश्चित्तनी प्ररूपणा हती माटे प्रायश्चित्तनां वे सूत्र कहेल छे. तेमां ज्ञान एज प्रायश्चित्त, कारण के ज्ञान ज पापने छेदे छे अथवा प्रायः चितने शुद्ध करे छे माटे निरुक्तिवशात् ज्ञानप्रायश्चित्त, एवी ते दर्शन अने चारित्रमां पण समज. 'वियत्त किचे' ति०व्यक्तस्य भावथी गीतार्थनुं जे कृत्य ते व्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त, गीतार्थ तो गुरु लघुना पर्यालोचन (विचार) बडे जे कंई पण करे छे ते बधुं पापनी विशुद्धि करनार ज होय छे, अथवा ज्ञान विगेरेना अतिचारोनी विशुद्धि माटे जे प्रायश्चित्तो एटले आलोचनादि विशेषथी कहेला छे, ते ज्ञानप्रायश्चित्तादि कहेवाय छे, अथवा 'वियत्ते' ति० विशेषवडे - अवस्था विगेरेनी उचितताए [ सूत्रमां] न कहेल छतां पण जे आप्युं - आज्ञा करी - हुकम कर्यो एवं जे कई पण मध्यस्थ गीतार्थवडे करायेलं अनुष्ठान ते विदत्तकृत्यप्रायश्चित ज छे. ' चि यत्तकिचे' ति० आ पाठांतरथी तो प्रीतिवडे करवा योग्य वैयावृत्य विगेरे अर्थ थाय छे. प्रतिषेवणम्-अकृत्यनुं सेवनुं ते प्रतिसेवना, ते परिणाममेदथी अथवा प्रतिसेवनीयना भेदथी बे प्रकारे छे. परिणामना भेदधी तो * पूर्वना पदनी संख्यामां मतांतर पण छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ३७१॥ Koxxxxxxx X पडिसेवणा उ भावो, सो पुण कुसलोव्व होज्जऽकुसलो वा। ४ स्थान कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामओ दप्पो ।। ५१ ।। काध्ययने प्रतिसेवना तो भाव-जीवना अध्यवसायरूप ज छे, ते भाव वळी कुशल अने अकुशळ एम चे प्रकारे छे. तेमां ज्ञानादिरूप उद्देशः १ कुशल भाववडे जे बाह्य वस्तुनी प्रतिसेवना ते Xकल्पप्रतिसेवना, अने अविरति विगेरे अकुशळ भाववडे जे प्रतिसेवना ते दर्प- दृष्टिवादः प्रतिसेवना कहेवाय छ. प्रतिसेवनीयना भेदो तो प्रायविमूलगणउत्तरगुणे. दुविहा पडिसेवणा समासेणं । मूलगुणे पंचविहा. पिंडविसोहाइगी इयरा ॥५२॥ प्रतिसेवना, मूलगुणना विषयवाळी अने उत्तरगुणना विषयवाळी एम संक्षेपथी चे प्रकारे छे. तेमा मूलगुणना विषयवाळी |४० २६२. प्राणातिपात विगैरे पांच प्रकारे छे अने उत्तरगुण विषयवाळी प्रतिसेवना अनेक प्रकारे छे. प्रतिसेवनामा प्रायश्चित्त ने आलोचना विगेरे आ प्रमाणे आलोयण १ पडिक्कमणे २, मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५। तव ६ ठेय ७ मूल ८ अणवढया य ९ पारंचिए १० चेव ॥ ५३ ॥ गुरुनी आगळ वचनवडे पापना प्रकाशवा मात्रथी जे पापनी शुद्धि थाय ते आलोचना प्रायश्चित्त १, फरीने न करवानी -विष्णु मार विगेरे मुनिओए नमुचि विगेरेने शिक्षा करेल ते कल्पप्रतिसेवना जाणवी. ॥३७१ ॥ KXXXXXXXXXXXXXXX KXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रतिज्ञापूर्वक स्वयं मिथ्या दुष्कृत आपवा मात्रथी जे पापनी शुद्धि थाय ते प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त २, आलोचना अने प्रतिक्रमण ए बोथी (गुरुनी समक्ष आलोचना करीने गुरुना आदेशपूर्वक प्रतिक्रमण करे अने पछी मिथ्यादुष्कृत आपवाथी) पापनी शद्धि थाय ते मिश्रप्रायश्चित्त ३, त्याग करवाथी जे पापनी शुद्धि थाय ते विवेकप्रायश्चित्त, दा. त. आधाकर्मादि आहारर्नु ग्रहण कर्ये छते तेनो त्याग करवाथी पापनी शुद्धि थाय छे. ४, कायानी चेष्टाना निरोधरूप उपयोग मात्रथी जे पापनी शुद्धि थाय ते व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त, जेम दुःस्वप्नथी थयेल पापनी कायोत्सर्ग मात्रथी शुद्धि थाय छे ५, जे पापनी शुद्धि नीवी विगेरे छ मास पर्यंत तप करवाथी थाय छे ते तप प्रायश्चित्त ६, जे प्रायश्चित्तमा संयमना पूर्व पर्यायनी रक्षा माटे दुष्ट व्याधिथी दूषित थयेल शरीरना अमुक भागना छेदननी जेम अमुक पर्यायनो छेद कराय छे ते छेद प्रायश्चित्त ७, जे प्रायश्चित्त प्राप्त थये छते समस्त संयमपर्यायनो छेद करीने फरीथी महाव्रतर्नु आरोपण कराय छे अर्थात् फरीथी दीक्षा अपाय छे ते मूलप्रायश्चित्त ८,जेणे फरीथी प्रतिसेवना करेल ते उत्थापना( फरीथी महाव्रतारोपण)मां अयोग्य छतो पण व्रतोमा किंचित काल स्थापन कराय छे ते अनवस्थाप्यता, ते ज्यां सुधी स्वीकारेलुं विशिष्ट तप पूर्ण नथी कर्यु त्यां सुधी होय छे, पछी तप पूर्ण करवाथी दोष रहित थयेल होवाथी व्रतोमां स्थापन कराय छे. कहेल तप ज्यां सुधी पूर्ण नथी कयु त्यां सुधी व्रत के लिंगमा स्थापन नथी करातुं माटे अनवस्थाप्यताप्रायश्चित्त ९, जे दोष सेववे छते लिंग, क्षेत्र, काल अने तपथी दोषना पारने पामे छे ते पागंचित. अहिं अच् धातु गतिना अर्थमां छे. ठेल्लामां छेल्लुं प्रायश्चित्त आछे अने ते उत्कृष्ट दोषमा जअपाय छे. १०. आ प्रतिसेवणा प्रायश्चित्त १. बीजुं संयोजन एटले एक जातिवाळा अतिचारनुं मिलन-एकत्र थर्बु ते संयोजना, जेम शय्यातरपिंड XXXXXXKOMMOKKKKKXXKKKKKKKKKXXXXX For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३७२ ॥ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ दृष्टिवादः प्रायकि लीधेल, ते पण पाणीथी भीजायेल इस्तादिवडे, वळी ते सामे लावेल, ते पण आधाकर्मिक, आ दोषोनुं मिलन जेमा छे तेनुं प्रायश्चित्त ते संयोजनाप्रायश्चित्त २. तथा एक अपराधना प्रायश्चित्तमा फरी फरी दोष सेववावडे विजातीय-अन्य प्रायश्चित्तर्नु आरोपण करवू ते आरोपणा, जेम पांच अहोरात्र प्रमाण प्रायश्चित्तने पामेल, फरीथी दोषने सेव्ये छते दश अहोरात्र प्रमाण, फरीथी सेववामां पंदर अहोरात्र प्रमाण, एवी रीते फरी फरी दोष लगाडवार्था यावत् छ मास पर्यत तप आपq. तेथी अधिक तप आववा योग्य नथी. शेष (छ मासथी अधिक) तप छ मास तपमा ज अंतर्भूत करवा योग्य छ, केमके आ वर्तमान तीर्थमा छ मासर्नु ज तप कहेल छे. कयु पण छे केपंचाईयारोवण नेयव्वा जाव होति छम्मासा । तेण पर मासियाणं, छण्हुवरिंजोसणं कुज्जा ॥५४॥ भावार्थ उपर जणाव्या मुजब छे. आरोपणावडे प्रायश्चित्त ते आरोपणाप्रायश्चित्त ३, परिकुंचन-द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव संबंधी अपराधनुं गोपवयु, अन्यथा-एक रीते होवा छतां बीजी रीते कहेवू ते परिकुंचना अथवा परिवंचना. कयुं छे केदव्वे खेत्ते काले,भावे पलिउंचणा चउवियप्पा।चोगकप्पारोवण, इहहिं भणिया पुरिसजाया ॥५५॥ *आ गाथा व्यवहारभाष्यनो छे, अहि टोकाकारे पूर्वाई भाग लीधेल छे. गाथावृत्तिमा उत्तराई भाग पण आपेल छे माटे अहि * संपूर्ण लखेल छे परंतु प्रस्तुत विषयमां तेनो संबंध नथी एटले उत्तराईनो अर्थ लखेल नथी. सू० २६२ KAXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX (KXIXKXKCK ३७२० For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ******** ******* **************** www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव विषयवाळी परिकुंचना चार विकल्पे छे, ते आ प्रमाणेसच्चित्ते अच्चितं १ जणत्रयपडिसेवियं च अद्धाणे २ । सुभिकखे यदुभिक्खे ३ हद्वेण तहा गिलाणेणं ॥ सचित [ के मिश्र ] द्रव्य लीधे छते अचित्त कड़े ते द्रव्यपरिकुंचना १, कोई पण अमुक गाममां दोष करेल ते मार्गमां दोष सेव्यो कहे ते क्षेत्रपरिकुंचना २, सुभिक्ष कालमां दोष सेवीने दुर्भिक्ष कालमां दोष सेव्यो कहे ते काल पारिकुंचना ३ अने निरोगपणामां दोष सेवीने में सरोगपणामां दोष सेव्यो छे एम कहे ते भावपरिकुंचना ४. परिकुंचनानुं प्रायश्चित्त ते परिकुंचनाप्रायश्चित्त ४. अहिं विशेष स्त्ररूप व्यवहारसूत्रनी पीठिकाथी जाणवु. ( सू० २६३ ) प्रायश्चित्त कालनी अपेक्षाए अपाय छे माटे कालनुं निरूपण करवा माटे सूत्र कहे छे के चउवि काले पं० [सं० - पमाणका ले अहाउयनिव्वत्तिकाले मरणकाले अद्धाकाले । सू० २६४, चव्वि पोग्गलपरिणामे पं० तं० - वन्नपरिणामे गंधपरिणामे रसपरिणामे फासपरिणामे । सू० २६५, भरवणं वासेपुरिमपच्छिमवज्जा मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंता चाडज्जामं धम्मं पण्णवेंति, तं०-सव्वातो पाणातित्रायाओ वेरमणं, एवं मुसात्रायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणा [ परिग्गहा ]ओ वेरमणं १, सव्वेसु णं महाविदेहेसु अरहंता ६३ For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद .३७३॥ XXXXXXXXXX काध्ययने AMMAAAAKAAAAAAAAAAAAMKAKKKxxxx भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति, तं०-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, जाव सव्वातो ४ स्थानबहिद्धादाणाओ वरमणं । सू० २६६ ।। मूलार्थ:-चार प्रकारे काल कहेल छ, ते आ प्रमाणे-१ प्रमाणकाल-दिवस अने गत्रि विगेरेना प्रमाणरूप, २ यथायु उद्देशः १ कनिर्वृत्तिकाल-जे प्रमाणे आयुष्य बांध्यु होय ते प्रमाणे पूर्ण करे ते, ३ मरणविशिष्टकाल-मरणकाल अने ४ समय, प्रमाणआवलिकादिरूप मनुष्य क्षेत्रमा वसेतो अद्धाकाल. (सू० २६४) चार प्रकारे पुद्गलना परिणाम-अवस्थांतर कहेल छे, ते आ कालादिः प्रमाणे-१ वर्णनो परिणाम, २ गंधनो परिणाम, ३ रसनो परिणाम अने ४ स्पर्शनो परिणाम. (स०२६५) भरत अने ऐर-x परिणामः क्तक्षेत्रने विषे पहेला अन हेल्ला तीर्थकरने वर्जी मध्यम (वचेना) बावीश अरिहंत भगवंतो चार याम( महाव्रत )रूप धर्मने यामाः मू० | प्ररूपे छे, ते आ प्रमाणे-सर्वथा प्राणातिपातथी विरमg, एमज सर्वथा मृषावादथी विरम, सर्वथा अदत्तादानथी विरमवू, एमज २६४-६६ मैथुन-परिग्रहथी विरम. १, सर्व महाविदेह क्षेत्रोने विषे अरिहंत भगवंतो चार यामरूप धर्मने प्ररूपे छे, ते आप्रमाणे-सर्वथा प्राणातिपातथी विरम, यावत् मैथुन-परिग्रहथी विरम. (सू० २६६) टीकार्थ:-जनावडे वर्षशत, पल्योपम विगेरेनो निर्णय कराय छे ते प्रमाण, ते ज काल ते प्रमाणकाल, ते दिवस विगेरे लक्षणवाळो अने मनुष्यक्षेत्रमा वर्तनार अद्धाकाल विशेष ज छे. कपुंछ के| दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होइ राई याचउपोरिसिओदिवसो, राई चउपोरिसीचेव ॥५७॥ ॥ ३७३ ॥ Xxxxx oxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie KOXKONKAKKARXXXXXXXXXXXXXXXXKAMKA) वे प्रकारे प्रमाणकाल हे-१ दिवसप्रमाण अने २ रात्रिप्रमाण. चार पोसिप्रिमाण दिवस अने चार पोरिसीप्रमाण रात्रि होय छे. १. जे जे प्रकारे नारकादिना भेदवडे आयु:-कर्मविशेष ते यथायुः, तेनुं रौद्रादि ध्यान विगेरेथी निवृत्ति-बांधवं, तेना संबंधथी जे काल एटले जीवोनी नारकादि स्वरूपे जे स्थिति ते यथाय:निवृत्तिकाल, अथवा जेवी रीते आयुष्यनी निर्वृत्ति छे तेवी रीते जे काल नारकादिना भवमा रहे छे ते यथायुःनिईत्तिकाल छे. आ काळ पण आयुप्यकर्मना अनुभवविशिष्ट सर्व संसारी जीवोना वर्तनादिरूप अद्धाकाल ज छे. कथु छ के| आउयमेतविसिट्ठो, स एव जीवाण वत्तणादिमओ।भन्नइ अहाउकालो, वत्तइजोजच्चिरंजेणं ॥५८॥ ____ अद्धाकाल ज यथायुष्ककाल कहेवाय छे. शुं समग्र अद्धाकाल यथायुष्क छ ? एम नहिं, परंतु जीवोनो नारकादि आयुविशिष्ट वर्तनादिमय यथायुष्ककाल कहेवाय छे, ते पोते बांधल आयुष्यवडे जेटला काल पर्यंत जीव वर्ते छे तेटला काल | सुधी रहे छे. २, मृत्युनो जे समय ते मरणकाल, आ पण अद्धासमय विशेष ज छे, अथवा मरणविशिष्ट काल ते मरणकाल अथवा मरण ज काल छ, केमके ते कालनो पर्यायवाचक शब्द छे. कर्जा छे केकालोति मयं मरणं जहेहमरणंगओत्ति कालगओ। तम्हासकालकालो, जोजस्स मओमरणकालो।५९।। 'काल' शब्द मरणवाचक छे, जेम अहीं मरणगत विने कालगत कहेवाय छे, तेथी प्राणीना जे मरणनो काल (समय) EXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानास्त्र सानुवाद ।। ३७४॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ते *काल-काल कहेल छे. अद्धा ज काल त अद्धाकाल. 'काल' शब्द तो xवर्ण अने प्रमाणकाल विगेरेमा वर्ने छे, तेथी अद्धा शब्दबडे विशेष करेल छे, आ अद्धाकाल सूर्यनी क्रिया(भ्रमण )विशिष्ट मनुष्य क्षेत्रनी अंदर वर्ततो समयादिरूप जाणवो. भाष्यमां कधु के केसुरकिरियाधिसिहो, गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो । अद्वाकालो भन्नइ, समयक्खेतमि समयाइ ।६० मेरुपर्वतनी चौतरफ सूर्यादिना भ्रमगरूप क्रियावडे प्रगट करातो, मनुष्यक्षेत्रमा वर्तनारो समयादिरूप काल ते अदाकाल कहेवाय छे. मनुष्पक्षेत्र सिवाय बीजे स्थले सूर्यादिनी गातक्रिया न होबाथी त्यां अदाकाल कईबातो नथी, केमके त्यां तो वर्तनारूप क्रिया परिणामवाळी होवाथी काल कहेवाय छे. उपरोक्त जे अद्धाकाल ते गायतुं दोहन विगरे क्रियानी अपेक्षा राखतो नथी, परंतु सूर्यादिनी गतिक्रियानी अपेक्षा राखे छ अर्थात् गतिमान् सूर्य पोताना किरणोबडे जेटला क्षेत्रने प्रकाश मान करे तेटला क्षेत्रने दिवस अने ते सिवायना क्षेत्रने रात्रि कहेवाय छे. आ रात्रि के दिवसनो अत्यंत सूक्ष्म अंश ते समय, तेषा असंख्याता समयनी आवलिका विंगरे काल, सूर्यनी गति सिवाय अन्य क्रियानी अपेक्षा राखतो नवी. समयावलियमुहत्ता, दिवसमहोरत्तपक्षमासा य । संवच्छरजुगरलिया, सागरोसपिपरिपहा ॥६॥ * एक काल शब्द मरणवाचक छे अने बीनो काल शब्द वखत-टाईमवाचक छे, ते काल-काल. x जेम कालो वर्ण. + आ आवश्यक नियुक्तिनी ६६३ मो गाथा छे. ४ स्थान काध्ययने उद्देशा प्रमाण कालादि परिणामः यामा:सू० २६४-६६ xxxxXIXXXXXXXXXXXXI X॥ ३७४।। For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EXXXXXXXXXXXXXXXX परम सूक्ष्म काल ते समय, असंख्यात समयनी एक आवलिका, वे घडीरूप काल ते मुहूर्त, सूर्यकिरणोथी प्रकाशित आकाशखंड(क्षेत्र )रूप अथवा चार प्रहरात्मक ते दिवस, सूर्यकिरणथी अप्रकाशित आकाशखंड अथवा चार प्रहरप्रमाण ते रात्रि, ते उभय मळीने अहोरात्र कहेवाय छे. पंदर अहोरात्र मळीने एक पक्ष, वे पक्षनो एक मास, बार मासनो एक वर्ष, पांच वर्षेनो एक युग, असंख्यात युगवडे एक पल्योपम, दश कोडाकोडी पल्योपमाडे एक सागरोपम, दश कोडाकोडी सागरोपमे एक उत्सर्पिणी अने तेटला ज प्रमाणवाळी एक अवसर्पिणी तेमज अनंती उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी मळीने एक पुद्गलपरावर्त थाय छे. (सू० २६४) द्रव्योना पर्यायभूत कालना चार स्थानक कहेल छे, हवे पर्यायना अधिकारथी पुद्गलाना पर्यायभृत परिणामना चार स्थानक कहे छे-'चउब्धिहे ' त्यादि० एक अवस्थाथी बीजी अवस्थाने पाम ते परिणाम कहेवाय छे. कयु छ के'बीजी अवस्थाने पामg ते परिणाम, सर्वथा मूल स्वरूपे पण न रहे, अने या नाशरूप पण नहि एवो जे परिणाम ते ज्ञानीओने इष्ट छ (१)' ते परिणाममा कालादि वर्णनो परिणाम-बीजी रीते थर्बु अयमा बीजा वर्णना त्यागपूर्वक कालादि वर्णवडे पुद्गलनो परिणाम ते वर्ण परिणाम.एवी जरीते गंध परिणाम विगेरेमा पण समजबु. (स०२६५) अजीव द्रव्यना परिणामो कया, हवे जीवद्रव्यना विचित्र परिणामो सूत्रना विस्तारवडे कत्राय छ-'भरते' इत्यादि.चे सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए केपहेला अने छेल्ला तीर्थकरने वर्जीने अर्थात् मध्यमना, ते आठ विगरे पण होय माटे बावीश कहेल छे. यम एज याम-महाव्रत, चार यामो हिंसादिनी निवृत्तिरूप छे जेमां ते चतुर्यामधर्म. 'वहिद्धादाणाओ'ति० बहिर्दा-मैथुन परिग्रहविशेष भेद KOKKKKKKKXIXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ४ ३७५ ।। www.kobatirth.org छे, आदान - परिग्रह, ते बनुं द्वंद्व समासथी एकत्व हे अथवा जे ग्रहण कराय छे ते आदान- ग्रहण करवा योग्य वस्तु ते धर्मोपकरण पण होय छे, तेथी कहे छे के बहिस्तात्-धर्मना उपकरण सिवाय जे परिग्रह, अहिं मैथुन परिग्रहमां अंतर्भाव था, कारण के ग्रहण न करायेली स्त्री भोगवाती नथी. प्रत्याख्यान करवा योग्य प्राणातिपातादिनुं चतुर्विधत्व होवाथी धर्मनी चतुर्यामता चार महाव्रतस्वरूप छे, अहिं आ भावना जाणवी के - - मध्यम बावशि अने महाविदहना तीर्थंकरांना चार महाव्रतरूप धर्मनी प्ररूपणा अने आदि तथा अंत्य तीर्थकरना पांच महाव्रतरूप धर्मनी प्ररूपणा शिष्योनी अपेक्षाए छे. परमार्थथी तो बन्नेनी पांच यामनी प्ररूपणा छे, केमके प्रथम अने पश्चिम (हेल्ला) तीर्थंकरना तीर्थमां साधुओ ऋजुज अने वक्रजड होय छे, ते कारणथी ज परिग्रह वर्जनीय छे एम उपदेश कर्ये छते मैथुनने तजी देवं जोईए एम जाणवाने अने पालवा समर्थता नथी. मध्यमना बावशि तीर्थंकरो अने महाविदेह ना तीर्थंकरोना तीर्थमां साधुओ ऋजु अने प्राज्ञ होवाथी मैथुनने जाणवा माटे तेमज तजवा माटे समर्थ थाय छे. अहिं आ संबंध वे श्लोक जणावे छे पुरिमा उज्जु ड्डा उ, वक्कजड्डा य पच्छिमा । माझमा उज्जुदन्नाउ, तेण धम्मे दुहा कए ॥ ६२ ॥ प्रथम तीर्थंकरना साधुओ सरल अने जड छे, छेला तीर्थंकरोना साधुओ वक्र अने जड छे, मध्यमना सरळ अने दक्ष छे. ते कारणथी वे रीते चतुर्याम अने पंचयामरूप धर्म कहेलो छे. पुरिमाणं दुव्विसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालए। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झे सुपालए ॥ ६३ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रमाणका लादिः परि णामः यामाः सू० | २६४-६६ ३७५ ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम तीर्थंकरना साधुओने धर्म दुर्बोध्य के, ऐल्ला तीर्थंकरना साधुओने धर्म दुःखपूर्वक पालन करी शकाय अने मध्यमना साधुओने धर्म सुबोध्य अने सुखे पाली शकाय तेम छे. ( सू० २६६ ) अनंतर कल प्राणातिपात विगरेथी विराम नहि पामेलने अने विराम पामेलने दुर्गति अने सुगति थाय छे, ते गतिवाळा जीवो दुर्गत अने सुगत होय छे माटे दुर्गति अने सुगत्यात्मक परिणामांना अने दुर्गत सुगतना भेदांने चार सूत्रवडे जणावे - चत्तारि दुग्गतीतो पं० तं० - णेरइयदुग्गती तिरिखखजोणिय दुग्गती मणुस्सदुग्गती देवदुग्गती १, चत्तारि सोग्गईओ पं० तं० - सिद्ध सोग्गती देवसोग्गती मणुयसोग्गती सुकुलपच्चायाति २, चत्तारि दुग्गता पं० तं० - नेरइयदुग्गता तिरिखखजोणियदुग्गता मणुयदुग्गता देवदुग्गता ३, चत्तारि सुग्गता पं० तं० - सिद्धसुगता जाव सुकुलपच्चायाया ४ । सू० २६७, पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा वीणा भवंति तं ० - णाणावरणिजं दंसणावरणिजं मोहणिज्जं अंतरातितं १, उप्पन्ननाणदंसणधरे णं अरहा जिणे केवल चत्तारि कम्मंसे वेदोत, तं०-वेदणिज्जं आउयं णामं गोतं २, पढमसमय सिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं०-वेयणिज्जं आउयं णामं गोतं ३ । सू० २६८ मूलार्थ:- चार दुर्गतिओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे- नैरयिक संबंधी दुर्गति, तिर्यंचयोनि संबंधी दुर्गति, मनुष्य संबंधी दुर्गति For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३७६ ॥ www.kobatirth.org (निंदित मनुष्यनी अपेक्षाए) अने देव संबंधी दुर्गति, (किल्लिपिक विगेरेनी अपेक्षाए) १, चार सद्गति कहेली छे, ते आ प्रमाणेसिद्ध संबंधी सद्गति, देव संबंधी सद्गति, मनुष्य संबंधी सद्गति अने स्वर्गमां जईने उत्तम कुलमां जन्मवारूप. २, चार दुर्गत (दुष्ट स्थितिमा रहेनार) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- नैरधिक दुर्गत, तिर्यंचयोनिकदुर्गत, मनुष्य दुर्गत अने देवदुर्गत. ३, चार सुगत (सारी स्थितिमा रहेनार) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-सिद्धसुगत, देवसुगत, मनुष्यसुगत अने सारा कुलमा अवतरेल ४ (०२६७) प्रथमसमयविशिष्ट जिनना चार कर्मना अंशो (भेदो) नाश पाम छे, ते आ प्रमाणे- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतराय. १, उत्पन्न थल केवलज्ञान अने केवलदर्शनना धरनार, अरह (सर्वज्ञ), जिनकेवली चार कर्माशने वेदे छे, ते आ प्रमाणेवेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र. २, प्रथमसमय सिद्धना कर्मांशो युगपत् (एकी साथ) क्षय थाय छे, ते आ प्रमाणे वेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र. ३. (सू० २६८) टीकार्थ:-' चत्तारी' त्यादि ० सूत्र कहेल अर्थवाळां छे. विशेष एके - निंदित मनुष्यनी अपेक्षाए मनुष्य दुर्गति अने किल्विषक विगेरेनी अपेक्षाए देवदुर्गति, 'सुकुलपच्चायाइ' ति० देवलोक विगेरेमां जईने इक्ष्वाकु गिरे सुकुलमां आव, अथवा प्रत्याजाति प्रतिजन्म-जन्मवुं. आ तीर्थंकर विगेरेने होय छे. युगलिक विगेरे मनुष्यत्वरूप मनुष्यनी सुगतिथी आ सुकुलमां जन्मत्रारूप मनुष्य सुगतिनो भेद बतावेल छे. दुर्गति छे जेओने ते दुर्गतो (आई अच्प्रत्यय कर्षे छते दुर्गतिनुं दुर्गता एवं रूप थाय छे) अथवा दुःस्था-दुष्ट स्थितिमां रहेला ते दुर्गतो, एमज सुगता एटले सारी स्थितिमां रहेला जाणा. (सू० २६७) अनंतर सिद्धभुगतो का, ते सिद्धो अष्ट कर्मना क्षयथी थाय छे, आ हेतुथी क्षयपरिणामनो क्रम कहे छे- 'पढमे 'त्यादि० त्रण सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के प्रथम समय के जेनो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः १ दुर्गति सुगती केवल्यादि कर्मक्षयो सू० २६७ -२६८ ।। ३७६ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mones XXXXXX Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ते प्रथमसमय एवा जिन-सयोगिकेवली, ते प्रथमसमय जिनना सामान्यरूप कर्मनां अंशो-ज्ञानावरणीय विगेरे भेदो क्षय थाय छे. आवरणनो क्षय थवाथी उत्पन्न थयेल विशेष अने सामान्य( पदार्थ )ना बोधरूप ज्ञान-दर्शनने धारण करनार ते उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर. आ वाक्यवडे अनादि सिद्ध केवळज्ञानवाळा सदाशिवना असद्भावने बतावे छे. नथी विद्यमान रहा-एकांतरूप गोप्य (छार्नु) जेने ते अरहः, केम के समीप, दूर, स्थूल अने सूक्ष्मरूप समस्त पदार्थसमूहना साक्षात्कार करनार होवाथी अथवा देवादिवडे पूजाने योग्य होवाथी अर्हन्. रागादिने जीतनार होबाथी जिन. केरल-परिपूर्ण ज्ञान विगेरे छे जेने ते केवली. सिद्धत्वनो अने कर्मना क्षयनो एक समयमां संभव होवाथी प्रथमसमय सिद्ध इत्यादि कथन कराय छे. (सू० २६८) असिद्ध जीवोने तो हास्य विगेरे विकारो होय छे माटे प्रथम हास्यनुं चार स्थानकमा अवतरण करतां सूत्रकार कहे छे चउहि ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता तं०-पासित्ता भासेता सुगेता संभरेत्ता। सू० २६९, चउबिहे | अंतरे पं०२०-कटुंतरे पम्हंतरे लोहतरे पत्थरंतरे, एवामेव इथिए वा पुरिसस्त वा चउबिहे अंतरे पं० २०-कटुंतरसमाणे पम्हंतरसमाणे लोहंतरसमाणे पत्थरंतरसमाणे । सू. २७०, चत्तारि भयगा | पं० सं०-दिवसभयते जत्ताभयते उच्चत्तभयते कब्बालभयते । सू० २७१, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-संपागडपडिसेवी णामेगे णो पच्छन्नडिसेवी पच्छन्नपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी एगे xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ३ ३७७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपागडप डिसेवीवि पच्छन्नप डिसेवीवि, एगे नो संपागडपडिसेवी णो पच्छन्न डिसेवी । सू० ६७२ मूलार्थ:- चार कारणे हास्यनी उत्पत्ति थाय, ते आ प्रमाणे- भांड विगेरेनी चेष्टा जोईने १, विकारवाळां वचनो बोलीने २, बजा विकृत वचनो सांभळीने ३ अने चेष्टा विगेरेना शब्दो मनमां सभारीने ४ इसे छे. (सू०२६९) चार प्रकारे अतरं (एक बीजानो भेद) कहेल छे, ते आ प्रमाणे काष्ठांतर - लाकडा लाकडामां अंतर १, पक्ष्मांतर - कपासनी पुणी पुणीमां अंतर २, लोढा लोढामां अंतर ते लोहांतर ३ अने पत्थर पत्थरमां अंतर ते पत्थशंतर ४. ए ज दृष्टांते स्त्री खीमां अंतर, पुरुष पुरुषमां अंतर चार प्रकारे कल छे, ते आ प्रमाणे - विशिष्ट पदवनी योग्यता विगेरेथी काष्टांतर समान १, वाणीनी कोमळतावडे पक्ष्मांतर समान २, स्नेहना छेद करवावडे लोहांतर समान ३ अने चिंतित मनोरथ पूरवावडे जगत्वंद्य जे थाय ते पत्थरांतर समान (०२७०) चार भृतक - नोकरो कहला छे, ते आ प्रमाणे- दररोजना मूल्यथी जे काम करे छे ते दिवसभृतक १, देशांतर गमनप्रसंगे अमुक मूल्य लईने मदद करनार सेवक ते यात्राभृतक २, मूल्य अने काल (अमुक समय )नो निर्णय करीने जे नियमित कार्य करनार नोकर ते उच्चताभृतक ३ अने अमुक हस्तप्रमाण भूमि तारे खोदवी अने अमुक मूल्य आपीश एम ठरावपूर्वक जे काम करनार ते कब्बाडभृतक. ४. (सू०२७१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष अगीतार्थनी समक्ष अकल्पनीय भात विगेरे सेवनार पण प्रच्छन्न (छानुं) सेवनार नहिं ते बकुस १, कोई एक पुरुष प्रच्छा दोषने सेवे छे पण प्रगट सेवतो नथी * अहि विशेष रूपथी व्याख्या करेज छे. For Private and Personal Use Only ४ स्थान• काध्ययने उद्देशः १ हास: अन्त रं भृतका: प्रतिसेविनः * सू० २६९ ७२ ॥ ३७७ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie RXOMMMIKKKXIXKKAKKXXXKKAKKOKAMKAKKKAKM ते कषायकुशील २, कोईएक पुरुष प्रगट दोषने सेवे छे अने प्रच्छन्न पण सेवे छे ते प्रतिसेवनाकुशील ३ अने कोईएक पुरुष प्रगट अने प्रच्छन्न दोषने सेवतो नथी ते स्नातक अथवा निग्रंथ. ४. (सू० २७२) टीकार्थ:-'चउही'त्यादि. हसवू ते हास्य, हास्यमोहनीय कर्मना उदयजन्य विकारनी उत्पत्ति ते हास्योत्पत्ति, 'पासित्त' ति० विदुषक विगेरेनी चेष्टाने चक्षुवडे जोईने १, वळी कईक विकार सहित वचनने बोलीने २, बीजाए कहेल तथाविध हास्यकारी वाक्यने कानवडे सांभळीने ३ अने हास्यकारी चेष्टा अने वाक्य विगेरेने याद करीने हसे छे. ४. एवी रीते जो विगरे हास्यना कारणो थाय छे. ( स० २६९) असिद्ध(संसारीओ)नां ज धर्मान्तरतुं निरूपण करवा माटे दृष्टांत अने दार्टीतिक अर्थवाळां वे सूत्र ने कहे छ-'चउबिहे! इत्यादि० काष्ठ काष्ठनो अतर एटले रूप, रचनादिवडे विशेष ते काष्ठांतर, एम पक्ष्म-कपास, रू विगग्नो अर्थात् पक्ष्म पक्ष्मनो (पूणी पणीनो) विशिष्ट सुकुमारतादिवडे अंतर ते पक्ष्मांतर २, अत्यंत छेद करनार होवाथी लोढार्नु अंतर ३, चितित वस्तुनी प्राप्ति विगेरेथी पाषाणनो अंतर ते प्रस्तरांतर. ४, एवी रीते काष्ठादि अंतरनी माफक अन्य स्त्रीओनी अपेक्षाए स्त्रीचें अंतर अथवा अन्य पुरुषोथी अपेक्षाए पुरुषतुं अंतर. अहिं वे 'वा' शब्द स्त्री अने पुरुषना चतुर्विधत्व प्रत्ये समानता जणाववा माटे छे. काष्ठांतर तुल्य, अंतरविशेष, अर्थात् विशिष्ट पदवीनी योग्यतादिवडे काष्ठांतर समान १, वचननी सुकोमलतावडे ज पक्ष्मांतर समान २, स्नेहनां छेदवडे अने परीषहादिने विषे अभंगत्व-धैर्य विगेरेधी लोहांतर समान ३, इच्छाथी अधिक मनोरथना पूर्ण करवावडे अने विशिष्ट गुणवान् पुरुषवडे वंदन करवा योग्य पदवीनी योग्यतादिवडे प्रस्तरांतर समान. ४ (सू० २७०) हमणा ज अंतर कयु, माटे KXIXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काम्ययने श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥३७८॥ उदेशा हास: अन्त पुरुषविशेषना अंतरतुं निरूपण करवा माटे भृक्तकमत्र कहे छे. 'नियते' पोषण करायो ते भृतः, अनुकंपा करापेल ते ज भृतक अर्थात् काम करनार. नकी करेल मूल्यद्वारा काम करवा माटे दररोज जे ग्रहण कराय छे (रखाप छ) ते दिवसभृतक १, यात्रा-देशांतरगमनमा सहाय माटे नियत मूल्यद्वारा जे पोषण कराय छे ते यात्राभृतक २, मूल्य अने कालनो निर्णय करीने नियत करेल समय प्रमाणे जेनी पासेथी कार्य करावाय छे ते उच्चताभृक्क ३ अने कबाडभृक्तक एटले पृथ्वी खोदनार | ओड विगेरे. ये हाथ अथवा त्रण हाथ भूमि तारे खोदवी अने तेना बदलामां आटलुं धन तने आपीश एम कहीने पोतार्नु कार्य जेने सोंपाय छ ते कबाडभृतक. अहिं आ संबंधी ने गाथा दर्शावे छे दिवसभयओ उ घेप्पइ, छिन्नेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होइ गमणं, उभयं वा [आगमनं चेत्यर्थः] एत्तियधणेणं ॥६॥ कब्बाल ओडमाई, हत्यमियं कम्म एत्तियधणणं । एच्चिरकालुच्चते, कायव्वं कम्म जं बेति ॥ ६५ ॥ xआ चार प्रकारना भूतकनो नोकरो के काम पूर्ण न घयेल होय तो तेने दीक्षा आपली कल्पे नहि पर निशीथभाष्य अने चूर्णिमां कहेलं छे, एम गाथावृत्तिकार जणावे छे. प्रतिसविना स. २६९ Dxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Min३७८।। For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रायः भावार्थ जणाच्या मुजब छे. लौकिक पुरुषविशेषनुं अंतर कधुं, हवे लोकोत्तर पुरुषविशेषना अंतरनुं प्रतिपादन करवा माटे प्रतिषेविसूत्र जगावे छे. तेमां संप्रकट-अगीतार्थोनी समक्ष अकल्पनीय आहारादि प्रतिसेववानो स्वभाव छे जेनो ते संप्रकट प्रतिसेवी १, एवी रीते सर्वत्र जाणवुं. विशेष ए के प्रच्छन्न - अगीतार्थ समक्ष नहिं, अहिं पहेला त्रण भांगामां पुष्ट आलंबन ( खास कारण प्रसंगे) बकुश विगेरे, अथवा खास कारण सिवाय पार्श्वस्था ( पास थो) विगेरे, चोथा भांगामां तो निग्रंथ अथवा स्नातक होय छे. ( सू० २७२ ) अंतरना अधिकारथी ज देवपुरुषोनो स्त्रीवडे करायेल अंतरने प्रतिपादन करता थका सूत्रकार कहे छे चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं० - कणगा कणगलता चित्तगुत्ता वसुंधरा, एवं जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स, बलिस्स णं वतिरोदिस्स वतिरोयणरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं० - मित्तगा सुभद्दा विज्जुत्ता असणी, एवं जमस्स वेसमणस्स वरुणस्स (१) धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो कालवास्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं०-असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा, एवं जाव संखवालस्स, भूतानंदस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो कालवालस्स महारन्नो ६५ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद । ३७९॥ KXXXXMARA चत्तारि अग्ग० पं० तं०-सुणंदा सुभद्दा सुजाता सुमणा, एवं जाव सेलवालस्स जहा धरणस्स एवं सव्वेसिं दाहिणिंदलोगपालाणं जाव घोसस्स,जहा भूताणंदस्स एवं जाव महाघोसस्स लोगपालाणं (२) कालस्स णं पिसाइंदस्स पिसायरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं०-कमला कमलप्पभा उप्पला सुदंसणा, एवं महाकालस्सवि, सुरुवस्स णं भूतिंदस्स भूतरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं०रूववती बहुरूवा सुरूवा सुभगा, एवं पडिरूवस्सवि,पुण्णभद्दस्स णं जक्खिदस्स जक्खरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० २०-पुत्ता बहुपुत्तिता उत्तमा तारगा, एवं माणिभद्दस्सवि (३) भीमस्स णं रक्खसिंदस्स रक्खसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं०२०-पउमा वसुमती कणगा रतणप्पभा, एवं महाभीमस्सवि, किंनरस्स णं किंनरिंदस्स चत्तारि अग्ग० पं०२०-वडेंसा केतुमती रतिसेणा रतिप्पभा, एवं किंपुरिसस्सवि,सप्पुरिसस्स णं किंपरिसिंदस्स० चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० त०-रोहिणी णवमिता हिरी पुप्फवती, एवं महापुरिसस्सवि (2) अतिकायस्स णं महोरगिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पं०२०-भुयगा भुयगवती महाकच्छा फुडा, एवं महाकायस्सवि, गीतरतिस्स णं गंधटिबदस्स ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अग्रमहिष्यः विकृतयः कूटागाराः सू०२७३ ७५ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx X॥३७९॥ For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalbirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyarmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx चत्तारि अग्ग०प०२०-सुघोसा विमलासुस्सरा सरस्सती, एवं गीयजसस्सवि (५) चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं०-चंदप्पमा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, एवं सूरस्सविणवरं सूरप्पभादोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, इंगालसणं महागहस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तं०-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया, एवं सव्वेसिं महग्गहाणं जाव भावकेउस्स (६) सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारत्नो चत्तारि अग्ग० पं० सं०-रोहिणी मयणा चित्ता सोमा, एवं जाव वेसमणस्स, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्ग० पं० २०-पुढवी राती रयणी विज्जू, एवं जाव वरुणम्स । सू० २७३, चत्तारि गोरसवि-* गतीओ पं० २०-खीरं दहि सप्पि णवणीतं चत्तारि सिणेहविगइतीओ पं० २०-तेल्लं घयं वसा णवणीतं, चत्तारि महाविगतीओ पं० तं०-महुं मंसं मजं णवणीतं । सू० २७४, चत्तारि कूडागारा पं० २०-गुत्ते णाम एगे गुत्ते, गुत्ते णामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते णाम एगे गुत्ते, अगुत्ते णामं एगे * बीनी प्रतमा 'सामा' एवो पाठ पण छे. XXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३८० ॥ ***** www.kobatirth.org अगुत्ते, एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०- गुत्ते णाममेगे गुत्ते ४, चत्तारि कूडागारसालाओ पं० तं०-गुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा, गुत्ताणाममेगा अगुत्तदुवारा अगुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा, अगुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा एवामेव चत्तारित्थीओ पं० तं०-गुत्ता नाममेगा गुनिंदिता गुत्ता मेगा अतिंदि ४ । सू० २७५, चउव्विहा ओगाहणा पं० तं० - दव्वोगाहणा खेत्तोगाहणा कालोगाहणा भात्रोगाहणा । सू० २७६, चनारि पन्नत्तीओ अंगवाहिरियातो पं० त० - चंदपन्नत्ती सूरपन्नत्ती जंबुद्दीपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती । सू० २७७ चाणस्स पढमो उद्देसओ ॥ १ ॥ मूलार्थ:- असुरेंद्र - असुरकुमारना राजा चमरेंद्रना सोम नामना लोकपाल महाराजानी चार अग्रमहिपीओ कहेली छ, ते आ प्रमाणे - कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता अने वसुंधरा. एम ज यमनी, वरुणनी अने वैश्रमण लोकपालनी चार चार अग्रमहिपीओ छे. बलि नामना वैरोचनेंद्र-वैरोचनना राजाना सोम नामना महाराजानी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे- मित्रका, सुभद्रा, विद्युता अने अशनी. एम ज यमनी, वैश्रमणनी अने वरुण लोकपालनी चार चार अग्रमहिषीओ छे. ( १ ) नागकुमारनो इंद्र- नागकुमारना राजा धरणेंद्रना कालवाल नामना महाराजानी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणेअशोका, विमला, सुप्रभा अने सुदर्शना, एवी रीते यावत् शंखपाल नामना लोकपालनी चार अग्रमहिपीओ कहेली छे. भूतानंद For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अग्र महिष्यः चिकृतयः कूटागारा! सू० २७३७५ ॥ ३८० ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXX KKKXXXXXXXXXXXXXX नामना नागकुमारना इंद्र-नागकुमारना राजाना कालवाल नामना महाराजानी चार अग्रमहिषीओ कहली छे, ते आ प्रमाणेसुनंदा, सुभद्रा, सुजाता अने सुमना, एवी रीते यावत् शैलपाल नामना लोकपाल महाराजानी चार अग्रमहिपीओ छे. जेम धरणंद्रना लोकपालनी अग्रमहिषीओ छे. ए प्रमाणे बधा य दक्षिण दिशाना इंद्रना लोकपालोनी यावत् घोप नामना स्तनितकुमार इंद्रना लोकपालोनी चार चार अग्रमहिपीओ छे. जेम भूतानंद (उत्तर दिशाधिपति )ना लोकपालोनी चार चार अग्रमहिषीओ छे ए प्रमाणे महाघोष नामना स्तनितकुमार इंद्रना लोकपालोनी चार चार अग्रमहिपीओ छ अर्थात् ते प्रमाणे नामवाळी छे. (२) काल नामना पिशाचना इंद्र-पिशाचराजानी चार अग्रमहिपीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-कमला, कमलप्रभा, उत्पला अने सुदर्शना. एवी रीते महाकाल नामना पिशाचेंद्रनी पग चार अग्रमहिपीओ छे. सुरूप नामना भूतना इंद्र-भूतना राजानी चार अग्रमाहिपीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा अने सुभगा एवी रीते प्रतिरूप नामना भूतेंद्रनी पण चार अग्रमहिषीओ छ. पूर्णभद्र नामना यक्षना इंद्र-यक्षना राजानी चार अग्रमाहाओ कहेली छे, ते आ प्रमाण-पुत्रा, बहुपुत्रिका, उत्तमा अने तारका.एवी रीते माणिभद्र नामना यक्षना इंद्रनी पग चार अग्रमाहपीओ छे. (३)भीम नामना राक्षसना इंद्र-राक्षसना राजानी चार अग्रमहिपीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पद्मा, वसुमती, कनका अने रत्नप्रभा. एवी रीते महाभीम नामना राक्षसेंद्रनी चार अग्रमहिपीओ छ. किन्नर नामना किन्नर देवना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-वडिंसा, केतुमती, रतिसेना अने रतिप्रभा. एवी रीते किंपुरुष नामना किन्नरना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे. सत्पुरुष नामना किंपुरुष देवना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आप्रमाणे-रोहिणी, नवमिका, ही अने पुष्पवती. एवी रीते महापुरुष नामना किंपुरुष XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ३८१॥ देवना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ छे. (४) अतिकाय नामना महोरगना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-भुजगा, भुजगवती, महाकच्छा अने स्फुटा. एवी रीते महाकाय नामना महोरगना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे. गीतरति नामना गंधर्बना इंद्रनी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-सुघोषा, विमला, सुस्वरा अने सरस्वती. एवी रीते गीतयश नामना गंधबेंद्रनी चार अग्रमाहीओ छे.आ दक्षिण अने उत्तर दिशाना मली सोल व्यंतरेंद्रनी अग्रमहिपाओगें वर्णन करेल छे. दक्षिण अने उत्तर दिशानी अग्रमहिपीओना नामो समान छे. (५) चंद्र नामना ज्योतिषना इंद्र-ज्योतिषना राजानी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-चंद्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अश्चिमाली अने प्रभंकरा. एवी रीते सूर्यनी पण चार अग्रमहिपीओ छे. विशेष ए के-सूर्यप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमाली अने प्रभंकरा नाम छे. अंगारक (मंगल) नामना महाग्रहनी चार अग्रमहिपीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता. एवी रीते वधा य महाग्रहोनी यावत् भावकेतु नामना छेल्ला ग्रहनी चार अग्रमहिषाओ छे. (६) शुक्र नामना देवना इंद्र-देवना राजाना सोम नामना महाराजा( लोकपाल )नी चार अग्रमहिपीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-रोहिणी, मदना, चित्रा अने सोमा. एवी रीते यावत् वैश्रमण नामना लोकपालनी चार अग्रमहिपीओ छे. ईशान नामना देवना इंद्र-देवना राजाना [लोकपाल] सोम नामना महाराजानी चार अग्रमहिषीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणेपृथ्वी, रात्री, रजनी अने विद्युत्, एवी रीते यावत् वरुण नामना लोकपालनी चार अग्रमहिषाओ छे. (स० २७३) चार गोरस (गाय प्रमुख) संबंधी रसरूप चार विकृतिओ-विगयो कहेली छे, ते आ प्रमाणे-दूध, दहि, धी अने माखण, चार स्निग्ध (चीकणी) विगयो कहेली छे, ते आ प्रमाणे-तेल, घृत, वसा (चरबी) अने माखण. चार महाविगयो कहेली छे, ते आ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अग्रमहिष्यः विकृतयः कूटागाराः सू०२७३ Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir rxxxxxxxxxxxx -प्रमाणे-मधु (मध), मांस, मदिरा अने माखण.(सू०२७४) चार प्रकारे कूट-शिखरना आकार जेवा घरो कहेला छे, ते आ प्रमाणे कोई एक गढ विगेरेथी वीटायेलं गुप्तघर अने बंध वारणावाळु छे १, कोईएक घर गुप्त पण बार[ खुल्लुं छे २, कोईक घर प्रगट छ पण बंध वारणावालं छे ३, अने कोईक घर प्रगट छे अने बार[ पण खुल्लुं छे ४.आ दृष्टांत प्रमाणे चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष गुप्त. (वस्त्रादिवडे ढांकेल) छे अने इंद्रियोबडे पण गुप्त छ-गुप्तेंद्रिय १, कोईएक वस्त्रादिवडे ढांकेल छे अने इंद्रियोबडे अगुप्त-अगुप्तेंद्रिय छे २, कोईएक वस्खादिवडे अगुप्त-खुल्लो छे पण गुप्तेंद्रिय छे ३ अने कोईएक वस्त्रादिवडे अगुप्त-प्रगट अने इंद्रियोवडे पण अगुप्तेंद्रिय छे ४. चार कूटागार-शिखरना जेवा आकारवाली शाळा (घर विशेष) कहेली छे, ते आ प्रमाणे-एक शाळा गुप्त अने गुप्त (बंध) दरवाजावाली छे, एक शाळा गुप्त पण दरवाजो अगुप्त (खुल्लो) छे, एक शाळा अगुप्त पण दरवाजो गुप्त (बंध) छे अने एक शाळा अगुप्त अने दरवाजो पण अगुप्त छे. ए दृष्टांते चार प्रकारनी स्वीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-कोईक स्त्री गुप्त-घरमा ज रहेनारी अने गुप्त-सुशीला छे १, कोईएक स्त्री गुप्त-घरमां ज रहेनारी पण अगुप्त-सुशीला नथी २, कोईक स्त्री अगुप्त-घरमां नहि रहेनारी पण सुशीला छे ३ अने कोईक अगुप्त-घरमां नहिं रहेनारी अने दुःशीला पण छे ४ (सू० २७५) चार प्रकारे अवगाहना-जेमां जीव रहे ते अर्थात् काया-कहेली छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यअवगाहना ते अनंत द्रव्यवाळी, क्षेत्रअवगाहना ते असंख्यात प्रदेशना अवगाह( आश्रय )वाळी, कालअवगाहना ते असंख्यात समयनी स्थितिवाळी अने भावअवगाहना ते वर्णादि अनंतगुणवाळी छे, (मू० २७६) चार प्रज्ञप्तीओ (अंगबाह्यसूत्ररूप) कहेली छे, ते आ प्रमाणे-चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति अने द्वीपसागरप्रज्ञप्ति. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxx) XXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Shri Kailasagarsur Gyarmandie श्रीस्था * IN नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३८२ ॥ XR XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX टीकार्थ:-'चमरस्से'त्यादिकम् अग्रमहिषी संबंधी सूत्रनो विस्तार सरळ छे. विशेष ए के-'महारन्नो'त्ति. ४ स्थानलोकपालनी मुख्य राणीओ-राजानी स्त्रीओ ते अग्रमहिपीओ,'वइरोयण'त्ति विविध प्रकारोबडे रोच्यते-दीपे छे ते विरोचनो, काध्ययने ते ज वैरोचनो-उत्तर दिशामा रहेनारा असुरो,तेओनो इंद्र ते वैरोचनेंद्र.धरणना सूत्रमा 'एव'मिति एम ज जाणवू. कालवाला उद्देशः १ | जेम कोलवाल,शैलपाल अने शंखपालनी एज नामवाळी चार चार अग्रमहिपीओ जाणवी.ए जजणावतां कहे छे'जावसंखवालस्स'- | अग्रमहिप्यः त्ति०(उत्तर दिशानो इंद्र) भूतानंदना सूत्रमा 'एव मिति० एम ज जाणवू. जेम कालवालनी तेम बीजाओनी पण चार चार | विकृतयः अग्रमहिषीओ जाणवी.विशेष ए के-लोकपालोना नाममा त्रीजाने ठेकाणे चोथो कहेबो अर्थात् वरुणना स्थानमां वैश्रमण कहेवो. | कूटागारा जेम दक्षिण दिशाना नागकुमारनिकायना इंद्र धरणना लोकपालोनी अग्रमहिषीओ जे नामवाळी छे तेम बधा दक्षिण दिशाना सू०२७३बाकीना-१ वेणुदेव, २ हरिकान्त, ३ अग्निशिख, ४ पूर्ण, ५ जलकान्त, ६ अमितगति, ७ वेलंच अने ८ घोष-आ आठ इंद्रोना जे लोकपालो सूत्रमा कहेला छे ते वधाओनी तेज नामवाळी अग्रमहिपीओ छे.जेम उत्तर दिशानो नागराज भूतानंद नामना इंद्रना लोकपालोनी अग्रमहिपीओना नामो कहेल छ तेम बाकीना-१ वेणुदाली, २ हरिस्स, ३ अग्निमानव,४ विशिष्ट, ५ जलप्रभ, ६ आमतवाहन,७ प्रभंजन अने ८ महाघोष नामना आठ इंद्रोना लोकपालोनी पण तेज नामवाळी अग्रमहिषीओ छ.एज कहे छ के'जहा धरणस्से'त्यादि० (सू० २७३) सचेतनोनुं अंतर कडं, हवे अंतरना अधिकारथी ज अचेतनविशेष विकृतिओनुं गोरस, स्नेह अने महत्त्वलक्षणरूप अंतरने त्रण सूत्रवडे सूत्रकार कहे छे-'चत्तारी'त्यादि०गायोनो रस ते गोरस, व्युत्पत्ति मात्र आ अर्थ समजवो. 'गोरस' शब्दनी प्रवृत्ति तो भेस विगेरेना दूध,दहिं आदि रसमां छे.शरीर अने मनने प्रायः विकारनो हेतु होवाथी विकृतिओ X॥३८२।। Kxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [KKKKKKKKKKKKKARXKXXKAKKKKKKKKK कहेवाय छे. बाकी स्पष्ट छे. विशेष ए के-सर्पि-घृत, नवनीत-माखण, स्नेहरूप विकृतिओ ते स्नेहविकृतियो (विगयो), वसा हाडकाना मध्यभागनो रस,महारसवडे महाविकारनी करनारी होवाथी अने महान् जीवोपघात(मोटी हिंसा)नु कारण होवाथी * महाविकृतिओ कहेबाय छे. अहिं विकृतिनो प्रसंग होवाथी वृद्ध (प्राचीन) गाथाओवडे विकृतिओन वर्णन करे छे खीरं ५ देहि ४ णवणीयं ४. घेयं ४ तहा तेल्लमेव ४ गुंड २ मजं २। मह ३ मंसं ३ चेव तहा, ओगाहिमगं च दसमी उ ॥६६॥ १ दूध, २ दहि, ३ माखण, ४ घृत, ५ तेल, ६ गोळ, ७ दारु, ८ मध, ९ मांस तथा १० अवगाहिम एटले घृत के तेलमा तळेल अर्थात् कडाविगय छे. गोमहिसुट्टिपसूणं. एलगखीराणि पंच चत्तारि। दहिमाइयाणंजम्हा, उट्टीणं ताणि णो इंति ॥६७॥ ___गाय, भैंस, उंटडी, बकरी अने गाडर संबंधी दूध ए क्षीरविकृति पांच भेदवाळी छे, ए सिवाय मनुष्य विगेरेना दूधने विगय कही नथी. दहि, माखण अने घीना चार भेद छ केमके उंटडीना धमाथी दहिं गिरे थता नथी, बाकी गाय विगेरे चारना थाय छे. चत्तारि होति तेल्ला. तिलअयसिकुसुंभसरिसवाणं च । विगईओ सेसाई.डोलाईणं न विगईओ॥६८ तिल, अलसी, कुसुंभ (करडी) अने सरसव संबंधी तेल, एम चार प्रकारे विकृतिओ छ. शेष-डोला-महुडाना फूलनु तेल KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था-18| अने नालीएर विगेरेना तेलने विगयमां गणेल नथी. ४ स्थान नागपत्र | दवगुलीपंडगुला दो, मजं पुण कट्टपिटुनिष्फन्नं। मच्छियकोत्तियभामर-भेयं च तिहामहं होइ॥१९॥ काभ्ययने सानुवाद द्रव्यगुड (नरम रसरूप) अने पिंडगुड (कटण) एम बे प्रकारे गोळ छे.मद्य-दारु बे प्रकारे छे १ एक काष्ठनिष्पन्न-शेलडी,ताडी उद्देश: १३८३॥ विगेरेथी थयेल अने २ पिष्टनिष्पन्न-चोखा विगेरेना पिष्टथी थयेल. मध त्रण प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ माक्षिक-माखी संबंधी, अग्रमहिष्यः २ कोंतिक-नानी माखी संबंधी अने ३ भमरी संबंधी. आ सर्व विगयस्वरूप छे. विकृतयः जलथलखहयरमंसं,चम्मं वस सोणियं तिहेयंपि।आइल्ल तिन्नि चलचल, ओगाहिमगं च विगईओ ॥७॥ कूटागारा: जलचर, स्थलचर अने पक्षी संबंधी एम मांस त्रण भेदे छे, अथवा मांस, चरबी अने शोणित (लोही) एम पण त्रण प्रकारे छे. बळी घृत के तेल भरेल कडाईमा चळचळाट शब्दने करती थकी पूरी विगरे ज्यारे तळाय छे त्यारे एक घाण कहेवाय | सू०२७३छे. एवी रीते पण बखत तळाय त्यां सुधी अवगाहिम-कडाविगय कहेवाय छे. चोथो घाण ते विगय कहेवाय नहिं, सेसान होति विगई अ, जोगवाहीण ते उ कप्पंती। परिभुज्जति न पायं,जं निच्छयओ न नजंति ॥७॥ शेष चोथा घाणमां तळेला पकवान विगेरे विगय कहेवाय नहिं पण नीवीयाता कहेवाय. ध विगेरे दरेक विगयना पांच पांच नीवीयातार छे ते योगने वहन करनार साधुओने कारणवशात् लेवा कल्पे छे, केमके प्रायः भोगवता नथी तेमज निश्चयथी * दूध विगेरे छ भक्ष्य विगय छे अने तेना उत्तरभेद २१ छे. मांस विगेरे चार अभक्ष्य विगय छ, तेना उत्तरभेद बार छे. x ए दरेक विगयना नीवीयातानुं स्वरूप पच्चक्वाणभाष्यथी जाणवू. ४॥३८३॥ FAN Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx.) ७५ xxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxXKAKKAKKAKK जणाता नथी के आ केवी रीते बनेला छ अर्थात् केटला घाणथी थयेला छे तो लेवा कल्पे नहिं परंतु निश्चय थाय के त्रण घाण उपरनां छे तो गाढ कारणे लेवा कल्पे... एगेण चेव तवओ, पूरिजति पूयएण जो ताओ।बीओवि स पुण कप्पड़, निबिगई लेवडो नवरं ॥७२॥ एक पूडलावडे जे तवो पुराय छ-भराय छ, तेथी बीजो पूडलो जे कराय छे ते विगयना त्याग करनार मुनिने कल्पे छ, * कम के ते विगय नथी परंतु लेपकृत कहेवाय छे. (सू० २७४) अचेतन संबंधी अंतरना अधिकारथी ज घरविशेषना अंतरने दृष्टांतवडे कहेवाने इच्छावाळा तथा पुरुष अने स्त्रीना अंतरने दार्टीतिकपणाए कहेवाने इच्छता सूत्रकार चार सूत्रने कहे छ-'चत्तारि कूडे 'त्यादि० कूट-शिखरवाळा घरो, अथवा कूट-जीवन बांधवाना स्थळ जेवा घरो ते कूटागारो, तेमां गुप्त-गढ विगेरेथी वींटायेखें अथवा भोयरुं विगैरे. वळी बंध बारणावडे गुप्त अथवा पूर्वकाळनी अने पछीना काळनी अपेक्षाए गुह्य छे. १, एम ज बीजा पण त्रण मांगा जाणवा. पुरुष तो वस्त्रादिद्वारा आच्छादित होवाथी गुप्त, वळी इंद्रियोने गुप्त-वश करवावडे गुप्त छ, अथवा पहेला पण गुप्त छे अने हमणां पण गुप्त छ १, अगुप्त पण एमज समजवू. तथा कूटना जेवो आकार छ जे शालानो अर्थात् गृहविशेषनो ते कूटागारशाळा. स्त्रीलक्षण दार्टी तिक अर्थना समानताना वशथी. आ स्त्रीलिंगमां दृष्टांत हे. तत्र गुप्ता-परिवारवडे वींटायेली, घरमा रहेली, वस्खादिवडे आच्छा*दित अंगवाळी, गूढ स्वभाववाळी अथवा गुप्त इंद्रियवाळी अथवा अनुचित प्रवृत्तिमा प्रवृत्त इंद्रियोने काबूमा राखनारी, एवी रीते XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३८४ ॥ (RatakKKAKKKK४४४४४४४ बाकीना भांगा जाणवा. (सू० २७५) हमणां ज गुप्तेंद्रियपणुं का, अने इंद्रियो अवगाहनाना आश्रयवाळी छ माटे अवगाहनानुं निरूपण करनारुं सूत्र कहे छे-अवगाहे छे-रहे छे जेणीने विषे, अथवा जीवो जेणीनो आश्रय करे छे ते अवगाहना, अर्थात् शरीर. द्रव्यथी अवगाहना ते द्रव्यावगाहना, एम ज सर्वत्र जाणवू. तत्र द्रव्यथी अनंत द्रव्यरूप छ, अर्थात् अनंत परमाणुमयी छ. क्षेत्रथी असंख्यात प्रदेशमा रहेनारी, कालथी असंख्यात समयनी स्थितिवाळी, भावथी वर्णादि अनंत गुणवाळी छे. अथवा विवक्षित द्रव्यना आधारभूत आकाशप्रदेशो ते अवगाहना; तेमां द्रव्योनी अवगाहना ते द्रव्यावगाहना, क्षेत्र ए ज अवगाहना ते क्षेत्रावगहना, कालनी अवगाहना एटले मनुष्यक्षेत्रमा वर्तती ते कालावगाहना अने भाव(पर्याय )वाळा द्रव्योनी अवगाहना ते भावावगाहना भावनी मुख्यताथी कहेली छे. अथवा आश्रय मात्र अवगाहना, तेमां पर्यायोबडे द्रव्यनो आश्रय ते द्रव्यावगाहना, एमज क्षेत्रनो अने कालनो पर्यायोबडे आश्रय करवो-पर्यायोनो द्रव्यवडे आश्रय करवो अथवा बीजी रीते योजना करीने व्याख्या करवी. (सू० २७६ ) अवगाहनानी प्ररूपणा प्रज्ञप्तिओने विषे करेली छे, माटे प्रज्ञप्तिनुं चतुःस्थानक सूत्र जणावे छे-विशेष! जणाय छे अर्थो जेणीने विषे ते प्रज्ञप्तिओ, आचारादि अंग सूत्रथी बाहिर ते अंगवाया, जे प्रमाणे नाम छे ते प्रमाणे तेमां वर्णनवाळी कालिकसूत्ररूप छे, तेमा सूर्यप्रज्ञप्ति, पंचम अंगना उपांगभूत छे अने जंबूद्वीपपज्ञप्ति छटा अंगना उपांगरूप छ, बाकीनी बे प्रज्ञप्ति प्रकीर्णकरूप छे. पांचमी व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) छे, परंतु ते अंगप्रविष्ट छ माटे अहीं आ चार ज कहेली छे. ॥ चतुःस्थानकना प्रथम उद्देशकनी दीकानो अनुवाद समाप्त ॥ xxxxxxxxxx EXKKKKKKXEXXXKAKKIXXXR ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः१ अग्रमाहभ्यः विकृतयः कूटागाराः सू० २७३-७५ ३८४॥ For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XEX KKXXXXXXXXXXXKKKAKKAKK अथ चतुःस्थानकाध्ययने द्वितीय उद्देशः चोथा स्थानकना प्रथम उद्देशकनुं व्याख्यान कयु, हवे बीजा उदेशकनो आरंभ करीए छीए. आनो पूर्व उद्देशकनी साथे | आ प्रमाणे संबंध छे-अनंतर उद्देशकमां जीवादि द्रव्य अने पर्यायोना चार स्थानको कह्यां, अहिं पण तेओनां ज चार स्थानको कहेवाय छे. आवी रीते संबंधविशिष्ट आ उद्देशकना पहेलां चार सूत्रो-- चत्तारि पडिसंलीणा पं० त०-कोहपडिसंलोणे माणपडिसंलीणे मायापडिसलीणे लोभपडिसंलीणे, चत्तारि अपडिसंलीणा पं० त०-कोहअपडिसंलीणे जाव लोभअपडिसंलोणे, चत्तारि पडिसंलीणा पं० तं०-मणपडिसंलीणे वतिरडिसंलीणे कायपडिसंली इंदियपडिसंलीगे, चत्तारि अपडिसंलीणा पं० २०-मणअपडिसंलीणे जाव इंदियअपडिसंलीगे ४। सू२७८, चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-दीणे णाममेगे दीणे, दीणे णाममेगे अदीणे, अदीणे णाममेगे दीणे, अदीणे णाममेगे अदीणे (१), चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-दीण णाममेगे दीणपरिणते, दीणे णाम एगे अदीणपरिणते, अदीणे णामं एगे दीणपरिणते, अदीणे णाममेगे अदीणारिणते (२), चत्तारि पुरिसजाया kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३८५ ॥ www.kobatirth.org पं० तं - दीणे णाममेगे दीणरुवे० ४ (३), एवं दणिमणे ४ (४), दीणसंकप्पे ४ (५), दीपने ४ (६), दणिदिट्ठी ४ (७), दीणसीलाचारे ४ (८), दीणववहारे ४ ( ९ ), चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - दीणे णाममेगे दीणपरक्कमे, दीणे णाममेगे अदीण० ४ (१०), एवं सव्वेसिं चउभंग भाणिव्वो, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०- दीणे णाममेगे दीणवित्ती ४ (११), एवं दीणजाती ४ (१२), दीणभासी (१३), दीणोभासी (१४), चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - दीणे णाममेगे दीणसेवी ०४ (१५), एवं दीणे णाममेगे दीणपरियाए ४ (१६), दाणे णाममेगे दीणपरियाले० 8 (१७) सव्वत्थ चउभंगो । सू० २७९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलार्थ:- चार प्रतिसंलीनो- क्रोधादिनो निरोध करनारा कहेला छे, ते आ प्रमाणे - क्रोधप्रतिसंलीन, मानप्रतिसंलीन, मायाप्रतिसंलीन अने लोभप्रतिसंलीन, चार अप्रतिसंलीनो-क्रोधादिनो निरोध न करनारा कहेला छे, ते आ प्रमाणे- क्रोधअप्रतिसंलीन यावत् लोभअप्रतिसंलीन. वळी चार प्रतिसंलीनो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- मनप्रतिसंलीन, वचनप्रति संलीन, काय प्रतिसंलीन अने इंद्रिय प्रतिसंलीन, चार अप्रतिसंलीन कहेला छे, ते आ प्रमाणे - मनअप्रतिसंलीन यावत् इंद्रियअप्रति संलीन (सू० २७८) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष पूर्वे उपार्जित लक्ष्मीथी क्षीण- दीन- गरीब अने For Private and Personal Use Only ******* ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ प्रतिसंलीन तादिः दीनादि - प्रकाराः सू० २७८ ७९ ' ।। ३८५ ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir oxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXK) पछीथी पण दनि १, एक बाह्यवृत्तिथी दीन पण अभ्यंतरवृत्तिथी अीन २, एक बाह्यवृत्तिथी अदीन अने अंतरवृत्तिथी दीन ३ तेमज एक बाह्यवृत्तिथी अदीन अने अंतरवृत्तिथी पण अदीन ४ (१), एक पुरुष शरीरथी रांकडा जवो. अने अंतरवृत्तिथी पण दीनपणाए परिणत अर्थात् दीनपणाने पामेल-कायर १, एक पुरुष बाह्यवृत्तिथी दीन पण अंतरंग परिणामथी अदीन-हिम्मतवाळो २, एक शरीरथी अदीन-पुष्ट अने अंतरंग परिणामथी दीन-कायर ३ तेमज एक शरीरथी पण अदीन-मजबूत अने अंतरंग परिणामथी पण अदीन-शूरवीर ४ (२), कोईएक पुरुष शरीरथी दीन अने मलिन वस्त्रादिनी अपेक्षाथी पण दीनरूप-रांकडा जेवो १, कोईएक शरीरथी दीन पण सुंदर वस्त्रादिवडे अदीन रूपवाळो २, कोईएक शरीरथी अदीन पण मलिन वस्त्रादिवडे दीन रूपवाळो ३ तेमज कोई एक पुरुष शरीरथी अदीन अने श्रेष्ठ वस्त्रादिवडे पण अदीन रूपवाळो ४ (३), एवी रीते एक पुरुष शरीरथी दीन अने दीन मनवाळो छ १,एक शरीरथी दीन पण मनथी अदीन छे २, एक शरीरथी अदीन पण मनथी दीन छे ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने मनथी पण अदीन छ ४ (४), एक शरीरथी दीन अने दीन संकल्पवाळो छ १, एक शरीरथी दीन पण अदीन संकल्पवाळो छ २, एक शरीरथी अदीन पण दीन संकल्पवाळो छ ३,तेमज एक शरीर अने संकल्प बन्नेथी अदीन छ ४ (५), एक शरीरथी दीन अने प्रज्ञाथी पण दीन छ १,एक शरीरथी दीन पण प्रज्ञाथी श्रेष्ठ छे २, एक शरीरथी अदीन पण प्रज्ञाथी दीन छे ३ तेमज एक शरीर अने प्रज्ञा बने थी अदीन (श्रेष्ठ) छे ४ (६),एक शरीरथी दीन अने चक्षुना तेजथी पण हीन छे १,एक शरीरथी दीन पण चक्षुना तेजवालोछे २, एक शरीरथी अदीन पण चक्षुना तेजथी हीन छे ३ तेमज एक शरीर अने चक्षुना तेज बन्नेथी अदीन (श्रेष्ठ) छे ४ (७),कोईएक शरीरथीदीन अने शीलाचारथी पण हीन छे १,एक शरीरथी दीन पण शीलाचारथी श्रेष्ठ छे २, एक शरीरथी अदीन अने Xxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . भीस्थानाङ्गपत्र सानुवाद ॥३८६॥ EXKXXKKKX तादिः XXXXXXXXXXXXXXXXXXX शीलाचारथी हीन छ ३,तेमज एक शरीरथी अदीन अने श्रेष्ठ शीलाचारवाळो छ ४ (८), एक शरीरथी दीन अने दानादि क्रियाथी ४ स्थान पण हीन-दीन व्यवहारवाळो छ १, एक शरीरथी दीन पग अदीन व्यवहार वाळो-दानादि क्रियाथी श्रेष्ठ छे २, एक शरीरथी अदीन काध्ययने पण हीन व्यवहारवाळो छ ३, तेमज एक शरीरथी अदीन अने श्रेष्ठ व्यवहारवाळो छ ४ (९), चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते उद्देशः २ आ प्रमाणे-एक शरीरथी दीन अने हीन पराक्रमवाळो छे १, एक शरीरथी दीन पण पराक्रम थी अदीन २, एक शरीरथी अदीन प्रतिसंलीनपण पराक्रमथी दीन ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने पराक्रमथी पण अदीन छ ४ (१०), एवीरीते दरेक सूत्रोमां चार भांगाओ कहेवा. चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-एक शरीरथी दीन अने दीन वृत्ति-दीननी माफक वर्तन(आजी दीनादिविका)वाळो छ १, एक शरीरथी दीन पण अदीन वर्तनवाळो छ २,एक शरीरथी अदीन पण दीन वर्तनवाळो छ ३ तेमज एक प्रकाराः शरीरथी अदीन अने अदीन वर्तनवाळो छ ४ (११), एक शरीरथी दीन अने हीन जातिवाळो छ १, एक शरीरथी दीन पण श्रेष्ठ जातिवाळो छ २, एक शरीरथी अदीन पण हीन जातिवाळो छ ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने श्रेष्ठ जातिधाको छे ४ सू०२७८ ७९ (१२), एक शरीरथी दीन अने दीनभाषी-दीन वचन बोलनार छ १, एक शरीरथी दीन पण अदीनभाषी छ २, एक शरीरथी अदीन पण दीनभाषी छे ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने अदीनभाषी छे ४ (१३),एक शरीरथी दीन अने दीननी माफक देखाय छ १, एक शरीरथी दीन पण अदीननी माफक देखाय छ २, एक शरीरथी अदीन पण दीननी माफक देखाय छे ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने अदीननी माफक देखाय छे ४(१४), चार प्रकारे पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक शरीरथी दीन अने दीन नायकनी सेवा करनार छे १, एक शरीरथी दीन पण अदीन नायकनी सेवा करनार के २, एक शरीरथी अदीन पण दीन EXI||३८६ ॥ xxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie नायकनी सेवा करनार छ ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने अदीन नायकनी सेवा करनार छे ४ (१५), एक शरीरथी दीन अने पर्यायथी दीन-हीन संयमवाळो छ १, एक शरीरथी दीन पण श्रेष्ठ संघमवाळो छ २, एक शरीरथी अदीन पण संयमथी हीन छ ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने संयमयी पण अदीन (श्रेष्ठ) छे ४ (१६),एक शरीरथी दीन अने दीन परिवारवाळो छ १, एक शरीरथी दीन पण अदीन परिवारवाळो छ २, एक शरीरथी अदीन पण दीन परिवारवाळो छ ३ तेमज एक शरीरथी अदीन अने अदीन परिवारवाळो छ ४ (१७). सर्वत्र चार-चार भांगा जाणवा (सू० २७९) टीकार्थः-'चत्तारि पडिसलीणे'त्यादि. आनो पूर्वना सूत्र साथे आ प्रमाणे संबंध छे-अनंतर पूत्रमा प्रज्ञप्तिो कही. ते प्रतिसलीन पुरुषोबडे ज समजाय छ, माटे प्रतिसं लीनो अने अप्रतिसलीनो आ सूत्रबडे कहेवाय छे. आ प्रमाणे संबंध जाणवो. आ सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-प्रत्येक वस्तुमा क्रोधादिकनो निरोध करनारा ते प्रतिसंलीनो. तेमां क्रोधना उदयने अटकावबावडे अने उदय थयेल क्रोधने निष्कळ करवावडे क्रोधने अटकावनारा ते क्रोधप्रतिसलीनो कहेवाय. कयु छ केउदयस्सेव निरोहो, उदयप्पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं एत्थ कसायाणं कसायलीणया एसा ॥७३॥ कषायोना उदयनो ज निरोध करवो अने उदयप्राप्त कषायो निष्फल करवा ते कषायसंलीनता जाणवी. कुशल मननी उदीरणा-प्रवृत्तिवडे अने अकुशल मननो निरोध करवावडे जेनुं मन काबूबाळ छे ते प्रतिसलीन, अथवा मनवडे निरोध करनार ते मनाप्रतिसलीन. एम ज वचन, काया अने इंद्रियने विष पण जाणवू. विशेष ए के-मनोज्ञ अने MOXOKOKOMOKXXXXXXXXXXXXXXKOKKKKKKKKKEX For Private and Personal use only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोस्था सानुवाद ॥२८॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ प्रतिसंलीन तादिः दी* नादिप्रका .KAR.R अमनोज्ञ शब्दादि विषयोने विषे राग-द्वेषने दूर करनार ते इंद्रियप्रतिसंलीन जाणवा. आ संबंधमां गाथा दर्शावे छ केअपसत्थाण निरोहो,जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं। कज्जमि य विहीगमणं,जोगे संलीणया भणिया।।७४ अप्रशस्त योगोनो निरोध करवो अने कुशल योगोनी प्रवृत्ति करवी, कार्यप्रसंगे विधिथी जqआयोग विषयक सलीनता जाणवी. सहेस य भयपावएसु, सोयविसमुवगएसु।तुट्टेण व रुटेण व, समणेण सया न होयव्वं ॥७५॥ श्रोत्रंद्रियना विषयने-सारा अने खराब शब्दो प्राप्त थये छते साधुए राग-द्वेष न करवो जोईए. एभ ज चक्षुःइंद्रिय विगरेमां पण कहेQ, एवी रीते विपरीतपणाथी मन विगेरेथी असलीन थाय छे. (मू०२७८) प्रकारांतरथी असंलीनने ज चतुर्भगीरूप सत्तर दीन सूत्रोबडे कहे छ दीन-गरीबाईवाळो, उपार्जित धनवडे क्षीण-गरीब, पहेला अने पछी पण दीन ज; अथवा बाह्यवृत्तिवडे दीन, अने अंततिथी पण दीन इत्यादि *चतुर्भगी जाणवी. १, तथा दीन-बाह्यवृत्तिथी अर्थात् निस्तेज मुख विगरे पण शरीरथी गुण युक्त, एवी रीते प्रज्ञासूत्र पर्यंत प्रथम दीनपदनी व्याख्या करवी. दीनपरिणत-दीन नथी छतां अंतत्तिवडे दीनपणाए परिणत अर्थात् दीन थयेल छे इत्यादि चतुर्भगी २, तथा दीनरूप-मेला, जूनां वस्त्रादि पहेरवानी अपेक्षाए ३, वळी दीनमनः-स्वभावथी ज तुच्छ मनवाळो ४, हीनसंकल्प-स्वाभाविक मन उदार छते पण कईक न्यून विचारवालो, ५, दीनप्रज्ञ- सूक्ष्म अर्थना * अहि टीकाकारे एक ज भंग बतावेल छे परन्तु मूलानुवादथी सत्तर सूत्रनी चतुर्भगी जाणवी.. रा सू०२७८ ७९ KXXXXXXXXXX ४।३८७॥ KXXXX XXX For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारमां हीनतावाळो ६, चित्त विगेरेथी दीन, एवी रीते आदि पदरूप दीन शब्दनी व्याख्या आगळना सूत्रमां करवी. दीनदृष्टि - ओछी नजरवाळो ७, दानशीलाचार-हीन धर्मानुष्ठानवाळो ८, दीनव्यवहार - परस्पर लेवादेवामां हीन क्रियावाळो अथवा विवादवाळ ९, दीन पराक्रम-हीन उद्यमवाळो १०, दीननी माफक वृत्ति-वर्तन अर्थात् आजीविका छे जेने ते दीनवृत्ति ११, दीनतावाळा पुरुष प्रत्ये याचे छे अथवा स्वयं दीन जेवो बनीने याचे छे एवा स्वभाववाळो ते दीनयाची, अथवा दीन पुरुष प्रत्येजायते दीयायी अथवा दीन जाति छे जेनी ते दीनजाति १२, तथा दीननी जेम दीन पुरुष प्रत्ये बोले छे ते दीनभाषी १३, दीनना जेवो देखाय छे ते दीनावभासी अथवा दीन जेवो थईने याचे छे एवा स्वभाववाळो ते दीनावभाषी १४, दीन नायक ने सेवे छे ते दीनसेवी १५, दीननी माफक पर्याय- प्रव्रज्या विगेरे लक्षणवाळी अवस्था हे जेने ते दीनपर्याय १६ 'दीनपरियाले 'त्ति० दीन परिवार छे जेनो ते दीनपरिवार १७, ' सव्वत्य चउभंगो' ति० बधाय सूत्रमां चार भांगा जाणवा ( सू० २७९ ) पुरुषना भेदना अधिकारवाळां अठार सूत्रो कह छे चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - अजे णाममेगे अजे (४) १, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० अजे णाममेगे अजपरिणए (४) २, एवं अज्जरुवे ३, अज्जमणे ४, अज्जसं कप्पे ५, अज्जपन्ने ६, अज्जदिट्ठी ७, अज्जसीलाचारे ८, अज्जववहारे ९, अज्जपरक्कमे १०, अज्जवित्ती ११, अज्जजाती १२, अज्जभासी १३, अजओभासी १४, अज्जसेवी १५, एवं अज्जपरियाए १६, अज्जपरियाले १७, एवं सत्तर [स] आलावगा जहा दीणेणं For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३८८ ॥ www.kobatirth.org भणिया तहा अज्जेणवि भाणियव्त्रा, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अजे णाम मेगे अजभावे अजे नाममेगे अणजभावे अणजे नाममेगे अज्जभावे अणज्जे नाममेगे अणज्जभावे १८ । सू०२८०, चत्तारि उसभा पं० ० - जातिसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूपसं गन्ने, एत्रामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जातिसंपन्ने जाव रूवसंपन्ने १, चत्तारि उसभा पं० तं० - जातिसंग्न्ने णामं एगे नो कुलसंपन्ने, कुलसंपन्ने नामं एंगे नोजा संपणे, एगे जातिसंपन्नेवि कुलसंपन्नेवि, एगे नो जातिसंपन्ने, नो कुलसंपन्ने एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जाइसंपन्ने नाममेगे ० ४ - २, चत्तारि उसभा पं० तं० - जाइसंपन्ने नामं एगे नो बलसंपन्ने० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जातिसंपन्ने [ नामंएगे नो बलसंपन्ने०] ४-३, चत्तारि उसमा पं० तं०-जातिसंपन्ने नामं एगे नो रूत्रसंपन्ने० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - जाइसंपन्ने नामं एगे नो रूत्रसंपन्ने, रूत्रसंपन्ने णाममेगे० ४-४, चारि उसभा पं० तं० - कुलसंपन्ने नामं एगे नो बलसंपन्ने ४, एत्रामेत्र चतारि पुरिसजाया पं० तं०कुलसंपन्ने नाममेगे नोबलसंपन्ने ४ - ५, चत्तारि उसभा पं० तं० - कुलसंपन्ने णामनेगे जो रूत्र For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ आर्यादि प्रकाराः वृषभहस्ति दृष्टान्ता सू० २८० ८१ ॥ ३८८ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org संपन्ने० ४ एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - कुलसंपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने० ४-६, चत्तारि उसभा पं० तं०- बलसंपन्ने नाममेगे नो रूवसंपणे० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- बलसंपन्ने नाममेगे नो रूत्रसंपन्ने० ४-७, चत्तारि इत्थी पं० तं०-भद्दे मंदे मिते किन्ने, एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- भद्दे मंदे मिते संकिन्ने, चत्तारि हत्थी पं० तं०- भद्दे णाममेगे भमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णाममेगे संकिन्न मणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०- भद्दे णाममेगे भद्दमणे, भद्दे णाम मेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णामगे संकिन्नमणे, चत्तारि हत्थी पं० तं० - मंदे णाममेगे भद्दमणे मंदे नाममेगे मंदमणे मंदे णाममेगे मियम मंदे णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिस जाया पं० तं० - मंदे णामेगे भद्दमणे तं चैव चत्तारि हत्थी पं० तं०-मिते णाममेगे मंदमणे मिते णाममेगे मंदमणे मिते मेगे मियम मिते णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाना पं० तं० - मिते णाममेगे भद्दमणे तं चैव चत्तारि हत्थी पं० तं० - संकिपणे नाममेगे भदमणे संकिन्ने नाममेगे मंदमणे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ३८९॥ संकिपणे नाममेगे मियमणे संकिपणे नाममेगे संकिण्णमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०२० ४ स्थान संकिण्णे नाममेगे भद्दमणे तं चेव जाव संकिन्ने नाममेगे संकिन्नमणे -मधगुलियपिंगलक्खो. काध्ययने अणुपुटवसुजायदोहणंगूलो । पुरओ उदग्गधीरो सव्वंगसमाधितो भद्दो॥१॥चलबहलविसमचंभो, उद्देशा २ थूलसिरो थूलएण पेएण। थूलणहदंतवालो, हरिपिंगललोयणो मंदो ॥ २॥ तणुओ तणुतग्गीवो. आर्यादितणुयततो तणुयदंतणवालो । भीरू तत्थुश्विग्गो,तासी य भवे मिते णामं ॥३॥ एतेसिं हत्थीणं. प्रकाराः वृषभहास्तिथोवं थोवं तु जो हरति हत्थी । रुवेण व सीलेण व, सो संकिन्नोति नायव्वो॥४॥ भद्दा मज्जह दृष्टान्ताः सरए, मंदो उण मज्जते वसंतंमि । मिउ मज्जति हेमंते, संकिन्नो सव्वकालंमि॥ ५॥ सू० २८१ सू०२८०मूलार्थ:-चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक क्षेत्रथी आर्य अने बली पापकर्मने न करवाथी आर्य १, एक क्षेत्रथी आर्य पण पापकर्मने करवाथी अनार्य २, एक क्षेत्रथी अनार्य पण पापकर्मने न करवाथी आर्य ३, तेमज एक क्षेत्रथी अनार्य अने पापकर्मने करवाथी पण अनार्य ४-१, चार प्रकारे पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक क्षेत्रथी आर्य अने आर्य परिणामवाळो १, एक आर्य अने अनार्यपरिणत २, एक अनार्य पण आर्यपरिणत ३ तेमज एक अनार्य अने अनार्यपरिणत ४-२, एवी रीते आर्य रूप३, आर्य मन ४, आर्य संकल्प ५, आर्य प्रज्ञ ६, आर्य दृष्टि ७, आर्य शीलाचार ८, आर्य व्य-|x x ३८९॥ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बहार ९, आर्य प्रराक्रम १०,आर्य वृत्ति ११, आर्य जाति १२, आर्य भाषी १३, आर्य अवभासी १४, आर्य सेवी १५, आर्यपर्याय १६ अने आर्य परिवार १७, जेबी रीते दीन शब्द साथै सत्तर आलापको कहेला छे तेवी रीते आर्य शब्द साधे पण सत्तर आलापको कहेवा अर्थात् सत्तर चोभंगाओ करवी फक्त 'दीन' शब्दने स्थाने आर्य शब्द जोडवो अने 'अदीन'ने स्थाने अनार्य शब्द जोडवो. चार प्रकारमा पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे - कोईएक क्षेत्रथी आर्य छे अने ज्ञानादिगुण युक्त होवाथी आर्यभाववाळो छे १, कोईक क्षेत्रथी आर्य पण क्रोधादिकथी अनार्यभाववाळो छे २, कोईक क्षेत्रथी अनार्य पण ज्ञानादिथी आर्यभाववाळो छे ३ तेमज कोईक क्षेत्री अनार्य अने क्रोधादिथी पण अनार्य भाववाळो छे. ( सू० २८० ) चार प्रकारना वृषभ-बळदो कहला छे, ते आ प्रमाणे- माताना पक्षवडे युक्त ते जातिसंपन्न, पिताना पक्षवडे युक्त ते कुलसंपन्न, भार वहन करवानी शक्ति युक्त ते बलसंपन्न तेमज शरीरना सौंदर्यवडे युक्त ते रूपसंपन्न, आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- जातिसंपन्न, यावत् पदथी कुलसंपन्न, बलसंपन्न अने रूपसंपन्न. १. चार प्रकारना बळदो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक बळद जातिसंपन्न पण कुलसंपन नथी १, कोई एक कुलसंपन्न के पण जातिसंपन्न नथी २, कोई एक जातिसंपन्न अने कुलसंपन्न पण छे ३ तेमज कोई एक जातिसंपन्न पण नथी अने कुलसंपन्न पण नथी. ४. आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे - कोईएक पुरुष जातिसंपन्न छे पण कुलसंपन्न नथी १, कोई एक कुलसंपन्न छे पण जातिसंपन्न नथी २ कोईक जाति अने कुल बन्नेथ संपन्न छे ३ तेमज कोईक जाति अने कुल बन्नेथी संपन्न नथी. ४ - २, चार प्रकारना बळदो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोई एक बळद जातिसंपन्न छे पण बलसंपन्न नथी, कोईक बलसंपन्न छे पण जातिसंपन्न नथी, कोईक जाति अने बल For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद 1.३९० xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx बन्नेथी संपन्न छ तेमज कोईक जाति अने बल बन्नेथी संपन्न नथी.४,आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे,ते आ प्रमाणे कोई एक पुरुष जातिसंपन्न छे पण बलसंपन्न नथी एवी रीते जाति अने वल शब्दथी चतुभंगी करवी ४-३, चार प्रकारना वृषभो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक वृषभ जातिसंपन्न छे पण रूपसंपन्न नथी, कोईएक रूपसंपन्न छ पण जातिसंपन्न नथी, कोईक जाति अने रूप बन्नेथी संपन्न छ तेमज कोईक बनेथी संपन्न नथी ४, आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाण-कोई एक पुरुष जातिसंपन्न छ पण रूपसंपन्न नथी, एवी रीते जाति अने रूप शन्दनी चतुर्भगी करवी ४-४, चार प्रकारना वृपभो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक वृषभ कुलसंपन्न छे पण बलसंपन्न नथी, कोईक कुलसंपन्न नथी पण बलसंपन्न छे, कोईक कुल अने बल बनेथी संपन्न छ तेमज कोईक ते बनेथी संपन्न नथी. आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे,ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष कुलसंपन्न छ पण बलसंपन्न नथी एवी रीते कुल अने बल शब्दनी चतुर्भगी करवी ४-५. चार प्रकारना वृषभो कहेला छे ते आ प्रमाणे-कोईक वृषभ कुलंसंपन्न छे पण रूपसंपन्न नथी, कोईक कुलसंपन्न नथी पण रूपसंपन्न छे,कोईक कुल अने रूप बनथी संपन्नतेमज कोईक ते बन्नेथी संपन्न नथी.ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे. ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष कुलसंपन्न छे पण रूप संपन्न नथी एवी रीते कुल अने रूप शब्दनी चोभंगी करवी ४-६ चार प्रकारना वृषभो कहेला छे ते आ प्रमाणे-कोईक वृषभ बलसंपन छे पण रूपसंपन्न नथी, कोईक बलसंपन्न नथी पण रूपसंपन्न छ, कोईक बल अने रूप बन्नेथी संपन्न छ तेमज बन्नथी संपन्न नथी. आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष बलसंपन्न छे पण रूपसंपन्न नथी. एवी रीते बल अने रूपशब्दवडे चतुर्भगी करवी. ४-७ उद्देशः २ आर्यादि प्रकारा: वृषभहस्ति दृष्टान्ताः सू०२८० ८१ KXXXXXX ॥ ३९०।। For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra *****:* www.kobatirth.org चार प्रकाशना हस्ती कहेल छे, ते आ प्रमाणे-भद्र, मंद, मृग अने संकीर्ण, आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कट्टेला छे, ते आ प्रमाणे- भद्र, मंद, मृग अने संकीर्ण. चार प्रकारना हस्ती कट्टेल छे, ते आ प्रमाणे - कोईएक हाथी जाति अने आकारथी भद्र (प्रशस्त) छे अने भद्रमनवाळो धैर्यवाळो छे, कोईक जाति विगेरेथी भद्र छे अने मंद मनवाळो छे-अतिधीर नहि, कोईक जाति विगेरेथी भद्र अने मृगमनवाळो बीकण छे तेमज कोईक जाति विगेरे थी भद्र अने संकीर्ण मनवाळो - विचित्र स्वभाववालो छे. आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष जाति विगेरेथी उत्तम छे अने धैर्य मनत्राको छे, कोईक जाति विगेरेथी भद्र छे पण मंद मनवाळो छे अर्थात् बहु धैर्यवाळो नथी, कोईक जाति विगेरेथी भद्र छे पण मृगमनवाळो भीरु छे तेमज कोईक जातिथी भद्र छे पण विचित्र मनवाळो छे. चार प्रकारना हस्ती कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक हस्ती जातिथी मंद पण भद्रमनवाळो छे, कोईएक जातिथी मंद अने मंद मनवाळो छे, कोईएक जातिथी मंद पण मृग (भीरु) मनवाळो छे तेमज कोईक हाथी जातिथी मंद पण संकीर्ण मनवाळो छे. आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कडेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष जातिथी मंद पण भद्र मनवाळो छे. हस्तीनी माफक पुरुषमां पण चार भांगा कहेवा. चार प्रकारना हाथी कहेला छे, ते आ प्रमाणेकोई एक हाथी जातिथी मृग पण भद्रमनवाळो छे-धीर छे, कोईक जातिथी मृग अने मंद मनवाळो छे, कोईक जातिथी मृग अने मृग मनवाळो (भीरु) छे तेमज कोईएक हाथी जातिथी मृग पण संकीर्ण (विचित्र) मनवाळो छे. आ दृष्टांते चार प्रकारता पुरुषो कला छे, ते आप्रमाणे - कोईएक पुरुष जातिथी मृग पण भद्र मनवाळो छे, एवी रीते हाथीनी माफक चार भांग पुरुषमां पण कहेवा. चार प्रकारना हाथी कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक हाथी जातिथी संकीर्ण पण भद्र मनवाळो छे, कोईएक ६६ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाङ्गास्त्र सानुवाद KX xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx जातिथी संकीर्ण पण मंद मनवाळो छे, कोईएक जातिथी संकीर्ण पण मृग( भारु) मनवाळो छ तेमज कोई एक हाथी जातिथी संकीर्ण अने संकीर्ण मनवाळो छे. मधनी गुटिका जेवी पिंगल-कईक राती अने कईक पीळी आंखोवाळो, योग्य काळे उत्पन्न थयेलो, लांबा पूंछडावाळो, आगळनो भाग-मस्तकनो भाग ऊंचो, धैर्यवालो अने प्रमाणोपेत सर्व अंगोपांगवाको भद्र जातिनो हाथी होय छे १, ढीली, जाडी अने विषम (लीलरी सहित) चामडविाळो, स्थूल मस्तकवाळो, स्थूल पूंछडाना मुलबाळो, स्थूल नख, दांत तथा वाळवाळो अने सिंहना जेवा पिंगल नेत्रवाळो मंद जातिनो हाथी होय छे २, कृश शरीर अने कृश (पातळी) ग्रीवावालो, कृश चामडी, कृश नख, दांत अने वाळवालो, भीरु, त्रास पामेलो, खेदवाळो, बीजाने त्रास उत्पन्न करनार मृग नामनो हाथी कहेवाय छे ३, आ उपर्युक्त त्रण जातिना हाथीना गुणोनुं रूपवडे अने स्वभाववडे थोडुं थोडं अनुसरण करनार ते संकर्णि जातिनो हाथी जाणवो ४. भद्र जातिना हाथीनो मद शरद् ऋतुमा झरे छे, मंद जातिना हाथीनो मद वसंत ऋतुमा झरे छ, मृग जातिना हाथीनो मद हेमंतऋतुमा झरे छे अने संकीर्ण जातिना हाथीनो मद हए ऋतुमा झरे छे. ५ (सू० २८१) टीकार्थः-आ सूत्रो गतार्थ छे. विशेष ए के-आर्य नव प्रकारना छे ते जणाववा माटे गाथा कहे छे के* खेत्ते जाई कुल कम्म, सिप्प भासाइ नाणचरणे या दंसणआरिय णवहा मिच्छा सगजवणखसमाइ ।७६॥ बे प्रकारना आर्य छ-१ ऋद्धिप्राप्त अने २ अऋद्धिप्राप्त. ऋद्धिप्राप्त छ प्रकारना छे-१ तीर्थकर, २ चक्रवर्ती, ३ बलदेव, ४ ॐ वासुदेव, ५ चारणमुनि अने ६ विद्याधर. अऋध्धिप्राप्त आर्य नव प्रकारना छे-१ आर्यक्षेत्रमा उत्पन्न ते क्षेत्रार्य, २ जातिआर्य ४ स्थानकाध्ययने उद्देशा २ आर्यादिप्रकाराः वृषभहस्तिदृष्टान्ताः सू०२८० XXXXXXXXX *:XXXXXXXXXX x॥३९१॥ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अंबष्ट विगेरे जातिमां उत्पन्न थयेल, ३ उग्र, भोग विगेरे कुलमां उत्पन्न थयेल ते कुलआर्य, ४ सूतर अने रू विगेरे अनिंदित कर्मकार्य करनार ते कर्म आर्य, ५ चित्र विगेरे कार्य करनार ते शिल्पआर्य, ६ अर्द्धमागधी भाषाने बोलनार ते भाषाआर्य, ७ मतिज्ञान विगेरे ज्ञानवाळो ते ज्ञानआर्य, ८ क्षायिक विगेरे समकितवाळो ते दर्शनआर्य अने ९ सामायिक विगेरे चारित्रवाळो ते चारित्रआर्य. पेयाय अने भक्ष्याभक्ष्य विगेरेना विवेक रहित अने शास्त्रादिमां अप्रसिद्ध वेषवाळा अने भाषाने बोलनारा ते म्लेच्छोअनार्यों शक, यवन अने खस विगेरे छे.. क्षेत्री आर्य, वळी पापकर्मी रहित होवाथी अपाप - निष्पाप एवो अर्थ छे. एवी रीते ज सत्तर सूत्र जाणवा, क्षायिकादि भाववाळा ज्ञानादिवडे युक्त ते आर्यभाव, क्रोधादिवाळो ते अनार्यभाव (सू० २८०) दृष्टांत अने दाष्टतिक अर्थ सहित पुरुषजात - प्रकरण विकथा सूत्रनी पहेला कहेवाय छे, ते पाठथी ज सिध्ध छे. विशेष ए के गुणवान माता पक्ष ते जाति, गुणवान पितानो पक्ष ते कुल, भारने वहन करवानुं सामर्थ्य ते बळ अने शरीरनुं सौंदर्य ते रूप. पुरुषो तो स्वयं विचारी लेवा २, उपर्युक्त दृष्टांतसूत्रो पुरुषना दातिक सूत्रो सहित तो जाति विगेरे चार पदोने पृथ्वी उपर स्थापीने छ द्विक्संयोगी 'जातिसंपन्न पण कुलसंपन्न नहि' इत्यादि स्थान ( भांगा ) ना क्रमवडे छ ज चतुर्भगीवडे जाणी लेवा, हाथीना सूत्रमां भद्र जाति विगेरे हाथीना भेदो, वनादिविशेषित अने कहेवाता लक्षणवाळा छे, ते कहे छे * जाति अने कुलवडे १, जाति ने बळवडे २, जाति ने रूपवडे ३, कुल अने बलबडे ४, कुल ने रूपवडे ५ तेमज बल ने रूपवडे ६ - आ प्रमाणे छ चोभंगीओ थाय छे, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३९२ ॥ "भद्र, मंद अने मृग-आ त्रण प्रकारना हाथीओ जाणवा. ते वनमा फरवाथी, आकारथी अने सच-पराक्रमना भेदथी जणाय छे." (१) तेमां भद्र हाथी धीरत्व विगेरे गुणोबडे युक्त होवाथी भद्रज छे, मंद हाथी धैर्य अने वेग विगेरे गुगोमां मंद होवाथी मंदज छे, मृग हाथी तनुत्व (पातळापगुं) अने बीकगपणुं विगेरे गुगोथी मृगज छे अने संकीग हाथी भद्र विगेरे हाथीओनां कईक गुणोवडे मिश्रित होवाथी संकीर्ण छ. पुरुष पण एवी रीते (हाथीनी माफक) विचारखो. दार्शतिक सहित चार उत्तरसूत्रो छे, तेनी स्थापना-भद्र विगेरे चार पदो प्रथम स्थापना, तेनी नीचे क्रमाडे भद्रमन विगेरे स्थापीने कोई एक भद्रजातिनो अने भद्रमनवाळो छ, तेनो क्रम नीचे प्रमाणे जाणवो काध्ययने उद्देशः २ | आर्यादि प्रकारा: * वृषभहस्ति दृष्टान्दा सू०२८० Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx भद्रः भद्रः भद्रः भद्रः मंदः मंद मंदः | मंद: मृगः मृगः मृगः मृगः संकीर्णः मंकोणः संकोणः | संकोर्णः भद्र मंदमृग | संकोण | भद्र | मंद| मृगसकीणे | भद्रामद मृग सकाण भद्रा मंद मग संकीर्ण मनाः मनाः मनाः मना:मनाः मना: मना:! मनाः मनामनामनामनाः । मनामनाःमनाः । मनाः । भद्र-जाति अने आकारवडे प्रशस्त तथा भद्र छे मन जेर्नु अथवा भद्रनी जेम छ मन जेनुं ते भद्रमनवाळो अर्थात् धीर. मंद छे मन जेनुं अथवा मंदनी जेम मन छ जेनुं ते ते मंदमनवाळो अर्थात् अत्यंत धीर नाहे. एवी रीते मगमना-भीरु. संकीर्णमनवाळो एटले भद्रादिना विचित्र लक्षणयुक्त-विचित्र चित्तवाळोपुरुषोतो कहेवाता भद्रादि लक्षणना अनुसारे प्रशस्त अने अप्रशस्त xxxxxxxxxxxxy X॥ ३९२॥ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्वरूपवाळा मानवा. भद्रादिना लक्षण आप्रमाणे- 'महु' गाथा - मवनी गोळीनी माफक पिंगळ नेत्र छे जेना ते मधुविंग नेत्रवाळ, अनुपूर्व वडे - परंपरावडे सारी रीते उत्पन्न शयेल ते अनुपूर्व सुजात, पोतानी जातिने उचित काळना क्रमयी थपेल बल अने रूपादि गुणयुक्त थाय छे ते लांबा पूंछडावाळो होय छे. अथवा अनुक्रमगडे-स्थूल सूक्ष्म अने अतिसूक्ष्म स्वरूपवडेसारी रीते थयेल लांबू पूंछड छे जेतुं ते दीर्घ पूंछडावाळो हाथी. मस्तकना अग्रभागमा उन्नत छे तथा धीर- डरनार नहीं, वळी वधा अंगो योग्य प्रमाणवाळा अने लक्षणयुक्तपणावडे व्यवस्थित छे जेना ते सर्वांगसमाहित भद्र नामवाळो हाथी विशेष छे ॥ १ ॥ 'चल' गाहा-चल-शिथिल, बहुल-स्थूल अने विषम-लीलरी सहित चर्म छे जेनुं ते चलबहुलविषमचर्म, स्थूल मस्तकवाळो स्थूल 'पेपण'ति० पूंछडाना मूलपडे युक्त, स्थूल नख, दांत अने केशवाळी, सिंहनी माफक पिंगल नेत्रवाळ, मंद नामवाळो हाथी विशेष होय छे ॥ २ ॥ 'गु' गाहा -कृश शरीरखाको अने कृश गरदन राळ, पातळी चामडी तथा नख, दांत अने पातळा केशवाळो, भीरु-ची कण (स्वभावथी त्रास पामेल), भवना कारणवशथी स्तब्ध--कानने स्थिर करवा विगेरे लक्षणयुक्त डरेलो, कष्टवाळो विहार चालवा विगेरेमां उगवाळो एवो, पोते त्रास पामेल अने बीजाने पण त्रास आपे छे ते त्रासी, मृग नामना भेदवाळो हाथी होय छे ॥ ३ ॥ चोथी अने पांचमी गाथा सुगम छे. तथा हइ भद्दो, मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी । गत्ताधरेहि य मिओ, संकिन्नो सव्यओ हणइ ॥७७॥ भद्र जातिनो हाथी के दांतवडे हणे छे, मंद जातिनो हाथी ढूंढवडे हणे छे, मृग जातिनो हाथी शरीर अने होठथी हणे छे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीस्थानास्त्र सानुवाद ॥ ३९३ ॥ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ कथा: सू०२८२ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अने संकीर्ण जातिनो हाथी सर्वांगथी हणे छे. (सू० २८१) ___हमणां ज संकीर्ण जातिनो अने संकीर्ण मनवाळो कहेल छ, एमां मननुं स्वरूप का छे, हवे वचननुं स्वरूप कहेवा माटे विकथा अने कथाना प्रकरणने कहे छे चत्तारि विकहातो पं० २०-इथिकहा भत्तकहा देसकहा रायकहा, इथिकहा चउब्विहा पं० तं०-इत्थीणं जाइकहा इत्थीणं कुलकहा इत्थीणं रूवकहा इत्थीणं णेवस्थकहा, भत्तकहा चउविहा पं० तं-भत्तस्स आवावकहा भत्तस्स निव्वावकहा भत्तस्स आरंभकहा भत्तस्स निढाणकहा, देसकहा चउव्विहा पं० तं०-देसविहिकहा देसविकप्पकहा देसच्छंदकहा देसनेवस्थकहा, रायकहा चउव्विहा पं० तं-रन्नो अतिताणकहा रन्नो निजाणकहा रन्नो बलवाहणकहा रन्नो कोसकोट्ठागारकहा, चउठिवहा धम्मकहा पं० २०-अवखेवणी विवखेवणी संवेयणी निव्वेगणी, अवखेवणी कहा चउव्विहा पं० तं०-आयारअवखेवणी, ववहारअवखवणी पन्नत्तिअवखेवणी दिट्टिवातअक्खेवणी, विवखवणी कहा चउब्विहा पं० तं०-ससमयं कहई, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ १, परसमयं कत्ता ससमयं ठावतित्ताभवति २,सम्मावातं कहेइ सम्मावातं कहेत्ता मिच्छावातं कहेइ ३, मिच्छा xxxxxx Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वातं कहता सम्मावतं ठावतित्ता भवति ४, संवेगणी कथा चउव्विहा पं० तं० - इहलोगसंवेगणी परलोग संवेगणी आतसरीरसंवेगणी परसरीरसंवेगणी, णिव्वेगणीकहा चउव्विहा पं० तं० - इहलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ९, इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा परलोगे दुइफलविवागसंजुत्ता भवति २, परलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुइफल विवागसंजुत्ता भवंति ३, परलोगे दुश्च्चिन्ना कम्मा परलोये दुहफल विवागसंजुत्ता भवंति ४, इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवति १, इद्दलोगे सुश्च्चिन्ना कम्मा परलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति २, एवं चउभंगो ४ । सू० २८२ मूलार्थ:- चार विकथाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे- स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा अने राजकथा. स्त्रीकथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- स्रीनी ब्राह्मणी विगेरे जाति संबंधी कथा, स्त्रीना कुल संबंधी कथा एटले आ उत्तम कुलनी छे इत्यादि, स्त्रीना रूप संबंधी कथा - आ त्रीनुं रूप सारुं छे विगेरे, स्त्रीना नेपथ्य (वेप) संबंधी कथा १, भक्त-भोजन संबंधी कथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे - आवापकथा-अमुक रसवतीमां अमुक शाक, घृत विगेरे चीजो जोईए, निर्वापकथा-आटला पक्वान्नना भेदो अने आटला व्यंजनना भेदो उपयोगमां आवे छे, भोजनना आरंभनी कथा - आ रसवतमां आटला द्रव्यो- पदार्थों जोईए, भोजनना निष्टाननी कथा - आटला पैसानो खर्च आ रसोईमां थाय छे २, देशकथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- देशविधि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३९४ ॥ www.kobatirth.org कथा - मगघादि देशनी रचना विगेरेनी कथा, देशविकल्पकथा-अमुक देशमां अमुक धान्य घणुं थाय छे विगेरे, देशच्छंदकथाअमुक देशमा अमुक गम्य अने अमुक अगम्य छे इत्यादि, देशनेपथ्यकथा-स्त्री-पुरुषोना वेशनी कथा ३, राजकथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आप्रमाणे - राजाना अतियान- नगरप्रवेशनी कथा, राजाना निर्याननी कथा - नगर बहार सवारी नीकळवानी कथा, राजाना बल अने वाहननी कथा अने राजाना भंडार तथा कोठार त्रिगेरेनी कथा. चार प्रकारनी धर्मकथा कहेली छे, ते आ प्रमाणेजेनावडे श्रोताने मोहथी खेंचीने तत्र प्रत्ये लई जवाय छे ते आक्षेपणी, श्रोताने कुमार्गमांथी सन्मार्गमां अथवा सन्मार्गमांथी कुमार्गमा लई जवाय छे ते विक्षेपणी, श्रोताने वैराग्य उत्पन्न करावनारी ते संवेदनी अने श्रोताने संसारमांधी उदासीनता करावनारी ते निर्वेदनी कथा. आक्षेपणी कथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- साधुना लोच विंगेरे आचारने प्रकाश करनारी कथा ते आचारआक्षेपणी, दोष टालवा माटे प्रायश्चित्तने प्रकाशनारी कथा ते व्यवहारआक्षेपणी, संशयवाळा श्रोताने मधुर वचनोवडे समजावनारी जे कथा ते प्रज्ञप्तिआक्षेपणी, श्रोतानी अपेक्षावडे नयने अनुसारे सूक्ष्म तच्चोनुं कथन करनारी कथा ते दृष्टिवादआक्षेपणी. १, विक्षेपणी कथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- स्वसमय (सिद्धांत) ना गुणोने कहींने पछी परसमयना दोषोने देखाडे छे, परसमयने कहीने स्वसमयनुं स्थापन करे छे, परसमयमां पण जे सम्यग्वाद छे तेने कहे छे, सम्यग्वादने कड़ने मां जे मिथ्यावाद छे तेना दोषने बतावे छे तेमज परसमयमा जे मिथ्यावाद छे तेने कहींने सम्यग्वादमां स्थापना थाय छे. २, संवेगनी कथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे-आ लोकसंवेदनी- मनुष्य जीवन विगेरेनुं असारपशुं बताने वैराग्य उत्पन्न करावनारी कथा, परलोकसंवेगनी - देवादिनुं असारवणुं चतावनारी कथा, अमारुं शरीर अशुचिमय छे इत्यादिस्वरूप बजावनारी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **************** ***** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ कथाः सू० २८२ ★ ।। ३९४ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कथा ते आत्मशरीरसंवेगनी, एवी रीते बीजाना शरीरनु असारपणुं बतावनारी कथा ते परशरीरसंवेगनी ३, निवेदनी कथा चार प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे-आ लोकमां आचरेल चोरी विगरे दुष्ट को आ लोकमां ज दुःखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छे, आ लोकमां आचरेल दुष्ट को परलोक-नरकादिमां दुःखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छ, परलोक (पूर्वजन्म)मां आचरेल दुष्ट कर्मो आ लोकमां दुःखरूप फलना विपाकने आपनार थाय छे तेमज परलोकमां आचरेल दुष्ट कर्मों परलोकमां दुःखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छे ४. आ लोकमां आचरल सारां को आ लोकमां सुखरूप फलना * विपाकने आपनारा थाय* छ १, आ लोकमां आचरेल सारां की परलोकमां सुखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छ २, | परलोकमां आचरेल सारां कमी आ लोकमा सुखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छ ३ तेमज परलोकमां आचरेल सारां कर्मों परलोकमां सुखरूप फलना विपाकने आपनारा थाय छे. (सू० २८२) टीकार्थ:-आ सूत्र सरळ छे, विशेष ए के-संयमने बाधक होबाथी विरुद्ध कथा-वचननी रीति ते विकथा, तेमां खीमोनी अथवा स्त्रीविषयक जे कथा ते स्त्रीकथा. आ कथा कहेली छ तथापि स्त्रीना विषयपणाए संयमथी विरुद्ध होवाथी विकथा छ एम समजवू, एवीरीते भोजननी, देशनी अने राजानी जे कथा ते विकथा छे. ब्राह्मणी विगरेमांथी कोईपण एकनी प्रशंसा अथवा निंदा जे जातिवडे अथवा जातिनी करवामां आवे छे ते जातिकथा, दा. त. “पतिना अभावे जे ब्राह्मगी मरेलानी जेम जीवे छे तेने धिकार छ, अमे मनुष्यमा शुद्र स्त्रीओने धन्य मानीए छीए के जे लाख पति कर्या छतां पण अनिंदित छे." एम उग्र कुल * आ चार भांगाना स्वामो टोकाना अनुवादमां कहेला छे, KXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थाबाजपत्र सानुवाद ॥ ३९५ ॥ www.kobatirth.org विगेरेमा उत्पन्न थयेली स्त्रीओमांथी कोईपण स्त्रीनी जे प्रशंसादि कराय छे ते कुलकथा. दा. त. "अहो जगतमां चौलुक्यवंशनी पुत्रओनुं साहस अधिक छे, पर्तिनुं मरण थये छते जे स्त्रीओ प्रेमरहित छे तो पण अग्निमां प्रवेश करे छे." तथा आंद्रदेश विगेरेमां उत्पन्न थयेल स्त्रओिमांथी कोईपण स्त्रीना रूपनी जे प्रशंसादि ते रूपकथा. दा. त. " चंद्र जेवा मुखवाळी, कमल जेवा नेत्रवाळी, सारा वचनवाळी, पीन अने कठण स्तनवाळी लाट देशनी स्त्री देवोने पण दुर्लभ छे तो एवी स्त्री शुं आ पुरुषने इष्ट नथी ? " ते स्त्रीओमांथी कोईपण एक खीना कच्छाबंध ( काडी ) विगेरे पहेरखाना बनी जे प्रशंसादि ते नेपथ्यकथा. दा. त. " उत्तर देशनी स्त्रीओने धिकार छे, केमके घणा वस्त्रवडे ढंकायेल शरीररूप लतिका होवाथी जेनुं यौवन (सौंदर्य) युवान पुरुषोनी आंखने हमेशां आनंद माटे थतुं नथी. " खीनी कथामां दोषो आ प्रमाणे होय छे आय परमोदरिणं, उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी । बंभवयस्स अगुत्ती, पसंगदोसा य गमणादी ॥७८॥ atri कथाना करनारने पोताना आत्माने विषे अने परना आत्माने विषे मोहनी उदीरणा थाय छे, लोकोमां उड्डाहहेलना थाय छे, सूत्र विगेरेनी हानि थाय छे, ब्रह्मचर्य व्रतनी अगुप्ति होय छे अने प्रसंगथी दोषो - जावुं आवकुं विगेरे थाय छे. तथा आ रसवतीमा आटला शाक अने घृत विगेरे उपयोगी थाय छे, आवी कथा ते आवापकथा. ते रसवतीमां आटला reat अने अपक्व अन्न ( मिष्टान्न, भात विगेरे )नो अथवा व्यंजन ( शाक, राइतुं विगेरे ) ना प्रकारोनो उपयोग थाय छे, आवी जे कथा ते निर्वापकथा. आ रसवतीमां आटला तितिरादिनो उपयोग, आवी जे कथा ते आरंभकथा तेमज आटलं द्रव्य अर्थात् सो के हजार रूपियानो खर्च आ रसवतीमां लागशे एवी जे कथा ते निष्ठान कथा. कधुं छे के For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ कथाः सू० २८२ ।।। ३९५ ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie DXOXOXOXOMOKOKOMOXOXOXOoxxxxxxxxXOKOKOKOKOOKxoxy सागघयादावादो [वो ? ], पक्कापको य होइ निव्वावो। आरंभ तित्तिराई, गिट्ठाणं जा सयसहस्सं ॥७९॥ भावार्थ उपर मुजब छे. भोजनकथामां आ प्रमाणे दोषो छआहारमंतरेणवि, गेहीओ जायए सइंगालं। अजिइंदिय ओदरिया-वाओ उ अणुन्नदोसा य ॥८॥ आहार कर्या विना पण आसक्तिवडे अंगारदोष थाय छे. आ साधु जीतेंद्रिय नथी, पेटभरा छे एम लोकमां अपवाद थाय छे अने दोषनी परंपरा थाय छे अर्थात् आहारनी गृद्धिथी एषणाना दोष न टाली शके. मगधादि देशमा विधि-भोजन, मणि अने भूमिका विगैरेनी रचना अथवा अमुक दशमां प्रथम अमुक भोजन खवाय छे. आवी जे कथा अर्थात् देश देशनी भोजन विगैरेनी विधिनी जे कथा करवी ते देशविधिकथा, एम ज बीजी कथाओमां पण जाणवं. विशेष ए के-अमुक देशमा धान्यनी उत्पत्ति, गढ, कूवा विगेरे देवकुल अने महेल विगेरेनी जे कथा ते देशविकल्पकथा, छंद-गम्य अने अगम्यनो विभाग, जेम लाट देशमां मामानी पुत्री गम्य-परणवा योग्य थाय छे, वीजा देशमा अगम्य-परणवा योग्य नथी, आवी जे कथा ते देशच्छंदकथा, नेपथ्य-स्त्री अने पुरुषने तो स्वाभाविक वेष अने शोभाना निमित्तरूप वेष, तेनी जे कथा ते देशनेपथ्यकथा. आ कथामा दोषो आ प्रमाणे होय छेरागद्दोसुप्पत्ती, सपक्खपरपवखओ य अहिगरणं । बहुगुण इमोत्ति देसो, सोउं गमणंच अन्नेसिं ॥८१॥ KXXXXXXXXXXXXXXXKKKKKIKKIKKKKAKKAL For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aai श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३९६ ॥ कथा: XXXXXXX xxxxxxxwKAKKKKXxxxxxxx) जे देशनुं वर्णन करे छे तेमा राग अने बीजा देशमा द्वेषनी उत्पत्ति थाय छे अने देशवर्णनमा पोतपोताना पक्षना ४ स्थानआग्रहथी कजीयो थाय छे. अमुक देश बहु ज सारो छ एम सांभळीने कोईक साधु विचारे छे के ते देश बहु सारो छे तेथी ते काध्ययने साधु त्यां जाय छे. उद्देशः २ __राजानो नगरादिकमां प्रवेश, तेनी जे कथा ते अतियानकथा, दा. त.सियसिंधुरखंधगओ, सियचमरो सेयछत्तछन्नणहो।जणणयणकिरणलेओ, एसोपविसइ पुरे राया ॥८॥ x०२८२ श्वेत हाथीना स्कंध उपर बेठेलो, धोळा चामरथी बींझायेलो, श्वेत छत्रवडे ढंकायेल आकाशवाळो अने मनुष्योना नयनकिरणोवडे उज्ज्वल थयेल एवो आ राजा नगरमा प्रवेश करे छे. एवी रीते सर्वत्र जाणवू. विशेष ए के-नगर बहार नीकळवारूप( स्वारी )नी जे कथा ते निर्वाणकथा, जेमवजंताउजममंद-बंदिसई मिलंतसामंतं । संखुद्धसेन्नमुद्धय-चिंधं नयरा निवो नियइ ॥८३॥ वाजींत्रो वगाडता सता, मोटे सादे भाट-चारणो विरुदावली बोलता सता, सामंतो सहित, क्षोभ पामेल सैन्य सहित अने धारण करेल छे राजचिह्न जेणे एवो राजा नगरथी बहार नीकळे छे बल-हाथी विगेरे, अश्व विगेरे वाहन, तेनी जे कथा ते बलवाहन कथा, जेमके X॥३९६॥ XXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हेसंतहयं गज्जंत-मयगलं घणघणंतरह लक्खं । कस्सऽन्नस्सवि सन्नं, णिन्नासियसन्तुसिन्नं भो ! ॥८४॥ हे मित्र ! लाखोगमे घोडाओना हणहणाट शब्दवाळं, लाखोगमे हाथीओना गर्जारववालं, लाखोगमे रथना घणघणाटवाळं अने शत्रुना लश्करनो नाश करनारुं आवुं सैन्य शुं कोईपण बीजा राजानुं छे ? कोश - भंडार, कोष्ठागार - धान्यनुं घर, तेनी जे कथा ते कोशकोष्ठागारकथा. जेम के पुरिसपरंपरपत्तेण, भरियविस्संभरेण कोसेणं । णिज्जियवेसमणेणं, तेण समो को निवो अन्नो ? ॥८५॥ पुरुषनी परंपरावडे प्राप्त करेल अर्थात् वडिलोपार्जित भंडारबडे समग्र विश्व जगतनुं पोषण करवाथी नै श्रमणने जीतवावडे ते राजा समान बीजो कयो छे ? राजकथामां आ प्रमाणे दोषो होय छे चारिय चोरा १ भिमरे २, हिय १ मारिय २ संक काउकामा वा । भुत्ताभुत्तोहाणे, करेज्ज वा आससपओगं ॥ ८६ ॥ राजकथाने करनार साधुओ जोईने राजपुरुषोने शंका थाय छे, ते आ प्रमाणे- वेष बदलावीने आ गुप्तचरो छे अथवा चोरो छे, अथवा छानी रीते घात करनारा छे. आ स्थले पहेलां पण राजाना अश्वरत्ननुं हरण करेल हतुं अने कोईके राजा के तेना स्वजनने मारल हतो तेमांथी ते ज कोईक छे. अथवा पूर्वोक्त कार्यने करवा माटे आवेल छे, आवा प्रकारनी शंका थाय. वळी राजकथाने सांभळनार भुक्तभोगी दीक्षित राजाने पूर्व सुखनी स्मृति थाय तथा अभुक्तभोगी अन्य साधुने नियाणुं करवानी ६७ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ३९७॥ AKAMAKXxxxxxxxxxxx इच्छा थाय, अथवा दीक्षानो त्याग करे. ४ स्थानजे कथावडे श्रोता मोहथी तच्च प्रत्ये आकर्षाय छे ते आक्षेपणी १, तथा जे कथावडे श्रोता सन्मार्गमाथी कुमार्गमा काध्ययने अथवा कुमार्गमांथी सन्मार्गमा लई जवाय छे ते विक्षेपणी २, जे कथा संवेग-वैराग्यने प्रगटावे अथवा जे कथावडे श्रोता सारी उद्देशः२ रीते बोध पामे छे, अथवा श्रोतान जे कथावडे संवेग थाय अथवा श्रोता संवेगने प्राप्त थाय ते संवेदनी अथवा संवेजनी ३ कथा: तेमज जे कथावडे संसार विगरथी श्रोता उदासीन कराय छे ते निवेदनी ४. लोच अने अस्नान विगेरे आचारना प्रकाशनवडे सू. २८२ आचारआक्षेपणी, एवी रीते बीजा भेदोमां पण जाणवू. विशेष ए के-कईक थयेल दोषना निवारण माटे प्रायश्चित्तलक्षण जे कथन ते व्यवहारआक्षेपणी, संशयने प्राप्त थयेल श्रोताने मधुर वचनोवडे समजावq ते प्रज्ञप्तिआक्षेपणी, श्रोतानी अपेक्षाथी नयने अनुसरीने जीवादि सूक्ष्मभावनुं जे कथन ते दृष्टिवादआक्षेपणी. आ संबंधमां बीजा आचार्यों एम कहे छे के-आचार, व्यवहार विगेरे नामथी आचार विगेरे ग्रंथो ग्रहण कराय छे. कथानो आ प्रमाणे सार छविजाचरणं च तवो, पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ। उवइस्सइखलुजं सो, कहाएँ अक्खेवणीइ रसो।८७18 ज्ञान, चारित्र, तप, पुरस्कार-वीर्योत्कर्षरूप अने समिति-गुप्तिनो श्रोतानी अपेक्षाए जे उपदेश कराय छे ते आक्षेपणीकथानो सार छे. प्रथम स्वसिद्धांत कहे छे अने तेना गुणोनुं विशेष स्वरूप प्रगट करे छे, ते कहीने त्यारवाद परसमयने कहे छे अने तेना ॥३९७॥ xxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra C www.kobatirth.org दोषोने देखाडे छे, आ विक्षेपणी कथानो प्रथम भेद. एम ज परसमयना कथनपूर्वक स्वसमयनो स्थापनार- स्वसमयना गुणोनुं स्थापन करनार होय छे, आ बीजो भेद. 'सम्माबाय 'मित्यादि० तेनो अर्थ एछे के परसमयोने विषे पण घुणाक्षरन्यायवडे जिनागमना तखने मळतापणाथी आवपरीततच्चोनो वाद-सम्यग्वाद छे, तेने कहे छे. तेटला प्रमाणना सम्यग्वाद ने कहीने परसमयाने विषे जिनप्रणीत तवोधी विरुद्ध होवाथी जे मिथ्यावाद छे तेना दोष देखाडवापूर्वक कथन करे छे, आ श्रीजी भेद. परसमयान विषे मिथ्यावादनुं कथन करीने सम्यगवादने स्थापनार होय छे, आ चोथो भेद अथवा सम्यग्वाद - अस्तिपणुं, मिथ्यावाद - नास्तिपणुं तेमां आस्तिकवादीनी दृष्टिओ ( दर्शनो ) ने कहीने नास्तिकवादीनी दृष्टिओने कहे छे ते प्रकारांतरे श्रीजो भेद छे अने नास्ति दृष्टिए कहने पछी आस्तिकवादीनी दृष्टिए कहे छे ते चोथो भेद छे. इहलोक - मनुष्यजन्मना स्वरूप कथन करवावडे संवेगनी ते इहलोकसंवेगनी, आ सर्व मनुष्यपणुं असार छे, अध्रुव छे, केळना स्तंभ जेबुं छे इत्यादि स्वरूपवाळी जाणवी, एमज देवादि भवना स्वरूपना कथनरूप परलोक संवेदनी, अर्थात् देवो पण ईर्ष्या, खेद, भय अने वियोग विगरे दुःखोबडे पराभव पामेला छे, तो तिर्यच विगेरेनुं कहेतुं शुं ? जे आ मारुं शरीर ते पण अशुचि-अपवित्र छे, अशुचिरूप कारणथी उत्पन्न थयेलुं छे, अशुचिद्वारथी जन्मेलुं छ; माटे शरीरमां प्रतिबंध करवा जेवुं कोई स्थान नथी इत्यादि कथनरूप आत्मशरीरसंवेगनी कथा, एमज परशरीरसंवेगनी अथवा मृतक शरीरना कथनरूप परशरीरसंवेगनी. आ लोकमां दुष्कृत्यो- चोरी विगेरे कर्मों आ लोकमां दुःख, ए ज कर्मरूप वृक्षथी उत्पन्न थयेल होवाथी फल अर्थात् दुःखफल, तेन विपाक - अनुभव ते दुःखफलविपाकवडे संयुक्त, ते दुःखफलविपाकसंयुक्त थाय छे. चोरो विगेरेनी माफक आ निर्वेदनी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था सानुवाद ॥ ३९८ ***** www.kobatirth.org कथानो पहेलो भेद. एवी रीते नारकोनी माफक, आ बीजो भेद. गर्भथी आरंभीने व्याधि, दारिद्र विगेरेथी पराभव पामेलानी जेम आ बीजो भेद, पूर्वे करेल अशुभ कर्मथी उत्पन्न थयेल अने नरकने योग्य कर्मन बांधतां थकां कागडा अने गीध विगेरेनी जेम आ चोथो भेद छे. ' इहलोए सुचिन्ने 'त्यादि० चतुर्भागी तीर्थकरने दान आपनार १ सुसाधु २, तीर्थंकर ३ अने देवना भव रहला तीर्थंकर विगेरेनी जेम विचारखा योग्य छे. (सू० २८२ ) वचनविशेष कह्यो, हवे पुरुषना प्रकारनी प्रधानतावडे कायविशेषने कहे छेतहेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - किसे णाममेगे किसे किसे णाममेगे दढे दढे णाममेगे किसे दढे णाममेगे दढे, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - किसे णाममेगे किससरीरे किसे णाममेगे दढसरीरे दढे णाममेगे किससरीरे दढे णाममेगे दढसरीरे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-किससरीरस्स नाममेगस्स णाणदंसणे समुप्पज्जति णो दढसरीरस्स दढसरीरस्स णाम एगस्स णाणदंसणे समुपज्जति णो किससरीरस्स एगस्स किससरीरस्सवि णाणदंसणे समुष्पज्जति दढसरीरस्सवि एगस्स नो किससरीरस्स णाणदंसणे समुप्पज्जति णो दढसरीरस्स । सू० २८३, चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अरिंस समयंसि अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पजिउकामेवि न समुप्प For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ पुरुषजात प्रधानतया कायविशेष : मू० २८३ ८४ ।।। ३९८ ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेजा, तं०-अभिक्खणं अभिक्खणमिस्थिकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं कहेत्ता भवति १, विवेगेण विउस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भाविता भवति २, पुठवरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरतिता भवइ ३, फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म गवेसिता भवति ४, इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा जाव नो समुप्पजेजा। चउहि ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पज्जेजा, तं०-इत्थीकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं नो कहेता भवति, विवेगेण विउस्सग्गेणं सम्ममप्पाणं भावेता भवति, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरतिता भवति, फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसिया भवति, इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं निगंथाण वा निग्गंथीण वा जाव समुप्पज्जेज्जा । सू० २८४ ___मूलार्थ:-तेमज चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष पहेला पण कृश-दुर्बळ शरीरवाळो अने पछी पण दुर्बल शरीरवाळो, कोईक पहेलां कुश शरीरवाळो अने पछी दृढ-मजबूत शरीरवाळो, कोईक पहेला दृढ शरीरवाळो अने पछी कृश शरीरवाळो तेमज कोईक पहेला दृढ शरीरवाळो अने पछी पण दृढ शरीरवाळो ४, चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३९९ ॥ www.kobatirth.org कोईक पुरुष भावथी कुश-दुर्बल मनवाको अने कृश शरीरवाळो कोईक भावथी कश पण दृढ शरीरवाळो कोईक भावथी मनवाळो पण शरीरथी कृश तेमज भावथी दृढ अने शरीरथी पण दृढ. ४. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक तपस्यादिवडे थयेल कुश शरीरवाळाने ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थाय छे, पण बहु मोहने लईने दृढ शरीरवाळाने उत्पन्न थता नथी १, कोईक अल्प मोहवाळा दृढ शरीरीने ज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न थाय छे पण रोगथी दुर्बल- कृश शरीरवाळाने अस्वस्थताथी उत्पन्न थता नथी २, कोईक विशिष्ट संहननादिना धणी कृश शरीरवाळाने पण ज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न थाय छे तेम दृढ शरीरवाळाने पण उत्पन्न थाय छे ३ तेमज कोईक बहु मोहना धणी कृश शरीरवाळाने ज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न थता नथी तेम दृढ शररिवाळाने पण उत्पन्न थता नथी ४ ( सू० २८३ ) चार कारणवडे निग्रंथो अथवा निग्रंथीओने अतिशेष - केवळज्ञान अने केवळदर्शननी उत्पत्तिनी इच्छा बाळाने पण आ समय ( काळ )मां उत्पन्न थाय नहिं, ते आ प्रमाणे - वारंवार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा अने राजकथाने कहेनार होय छे १, विवेक-अशुद्धादिना त्यागपूर्वक कायोत्सर्गवडे सम्यग् रीते आत्माने भावनार थता नथी २, रात्रिना पूर्वभाग अने पाछळना भागरूप काळ (समय) ने विषे धर्मजागरिकावडे जागे नहिं ३, प्रासुक, एषणीय, उंछ (थोडं थोडं) भक्तपानादि ग्रहणरूप सामुदानिकी भिक्षानी सारी रीते गवेषणा करे नहिं ४. उपर्युक्त चार कारणवडे साधुने अथवा साध्वीने यावत् केवळ ज्ञान- दर्शन उत्पन्न थाय नहि. चार कारणवडे निग्रंथोंने अथवा निग्रंथीओने अतिशेषकेवळ ज्ञान अने केवळदर्शननी इच्छावाळाने उत्पन्न थाय, ते आ प्रमाणे- स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा अने राजकथाने कहे नहिं १, विवेकपूर्वक कायोत्सर्गवडे सारी रीते आत्माने भावनार होय छे २, रात्रिना पूर्वभाग अने पश्चिमभागरूप काळ (समय) मां धर्म For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान. काध्ययने उद्देशः २ पुरुषजातप्रधानतया काय विशेषः सू० २८३ ८४ ॥ ३९९ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX जागरिकावडे जागता होय छे ३ तेमज प्रासुक, एषणीय, उंछ-थोडूं थोडुं भक्तपानादि ग्रहणरूप सामुदानिकी भिक्षानी सारी ते गवेषणा करनार होय छे ४. उपर्युक्त चार कारणवडे साधुने अथवा साध्वीओने यावत् केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न थाय छे.(सू०२८४) टीकार्थ:-'चत्तारि पुरिसे'त्यादि. सुगम छे. विशेष ए के-कृश-पातळं शरीर. ते पूर्व अने पछी पण कश ज अथवा भावथी हीन सत्व [बळ] विगेरेपणाथी कृश, वळी शरीरादिवडे कृश, एवी रीते दृढ-मजबूत पण कृशथी विपरीतपणे जाणवो १. पूर्व सूत्रना अर्थथी विशेष-शरीरवडे आश्रित ज आ वीजुं सूत्र छ, तेमां भावथी कृश विगैरे जाणवू, बीजुं सुगम छे २. चतुर्भगीवडे कृशना ज्ञानोत्पादने कहे छे-'चत्तारीत्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-विचित्र तपस्यावडे भावित कृश शरीरबालाने शुभ परिणामना संभववडे तद्-ज्ञानावरण विगेरेना क्षयोपशमादि भावथी ज्ञान अने दर्शन, अथवा ज्ञाननी साथे दर्शन ते ज्ञानदर्शन, ते छद्मस्थ संबंधी ज्ञान अथवा केवली संबंधी ज्ञान, ते उत्पन्न थाय छे. दृढ शरीरवाळाने नथी थतुं केम के अत्यंत मोहवडे तेने (शरीरने ) पुष्ट करेल होवाथी तथाविध शुभ परिणामना अभाववडे क्षयोपशमादिनो अभाव होय छे, आ प्रथम भंग. तथा संघयणविशिष्ट अल्प मोहवाला दृढ शरीरने ज ज्ञान-दर्शन उत्पन्न थाय छे, केम के स्वस्थ शरीर होवाथी मननी स्वस्थतावडे शुभ परिणामना क्षयोपशमादि भाव होय छे परंतु कृश शरीरवालाने चित्तनी अस्वस्थताथी उत्पन्न न थाय, ते बीजो भंग. कृश अथवा दृढ शरीरवालाने ज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न थाय छे, कारण के विशिष्ट संघयण सहित अल्प मोहवालाने शुभ परिणामपणाथी बने रीते थाय छे पण कृशत्व अने दृढत्व प्रत्ये अपेक्षा नथी, आ त्रीजो भंग, चोथो भांगो स्पष्ट छे. मद संघयणी अने बहु मोहवाला कृश के दृढ शरीरीने ज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न न थाय. (सू० २८३) हमणा ज्ञानदर्शननो उत्पाद कह्यो, हवे तेनो व्याघात कहेवाय छ For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४०० ॥ www.kobatirth.org 'चउही' त्यादि० सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के निग्रंथीओनुं ग्रहण करवाथी स्त्रीओने पण केवळ ज्ञान उत्पन्न थाय छे, एम सूत्रकार कहे छे. 'अस्मिन्निति० प्रत्यक्षनी जेम आ वर्तमान समयमा 'अइसे से' ति० शेष-मत्यादि चार ज्ञान अने चक्षुः विगेरे त्रण दर्शनने अतिक्रांत-अवबोधादि सर्व गुणोबडे उल्लंघी गयेलुं अर्थात् आगळ वधेलुं ने अतिशेष - अतिशयवालुं केवलज्ञान, केवलदर्शन. अहिं ज्ञाननी इच्छावाळाने पण उत्पन्न थतुं नथी एवेा अर्थ जाणवो. ज्ञानादिनी रुचिना अभावथी ( विकथाने ) कहेवाना स्वभाववाळो, शीलार्थिक दन् प्रत्यय थवाथी षष्ठीने बदले द्वितीया विभक्ति विरुद्ध नथी. ९, विवेकेनअशुध्धिना त्यागवडे 'विउस्सग्गेणं 'ति० कायाना व्युत्सर्गवडे २, पूर्वरात्र - रात्रिनो पूर्वभाग अने अपररात्र रात्रो पाछलो भाग, ते ज कालरूप अवसर जागरिकाना पूर्वरात्रापररात्रकालसमयमां. ते अहिं कुटुंबजागरिकाना निषेध करवावडे धर्मप्रधान जागरिका-निद्राना त्यागथी बोध ते धर्मजागरिका अर्थात् भावपूर्वक विचारणा. कहुँ छे के किं कयं किंवा सेसं, किं करणिजं तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले, जागरओ भाव पडिलेहा ॥८८॥ शुं कर्यु ? बाकी शुं छे ? शुं करवा योग्य छे ? हुं तप तो करतो नथी, एवी रीते पूर्वरात्र अने अपररात्रकालमां जागनारनी भावप्रतिलेखना ( विचारणा ) छे. अथवा - को मम कालो? किम्मे यस्स उचियं? असारा विसया । नियमगामिणो विरसावसाणा भीसणो मच्चू ॥ ८९ ॥ हमणा मारो शो अवसर छे ? आ अवसरने उचित शुं धर्मकृत्य करवा योग्य छे ? विषयो असार छे, आत्मानी साथै For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ पुरुषजात प्रधानतया काय विशेषः सू० २८३ ८४ ४०० ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx चालनारा नथी अने परिणामथी विरस (असुंदर) छे तथा मृत्यु भयंकर छे एम चितवे छे. अहिं विभक्तिना परिणामथी उपर्युक्त जागरिकावडे जागनारो होय छे. अथवा धर्मजागरिका प्रत्ये जागनारो-करनारो जाणवो ३. तथा प्रगत-गयेल छ असु-उच्छ्वासादि प्राणो जेमांथी ते प्रासुक-निर्जीव वस्तु, एष्यते--उद्गमादि दोषरहितपणाए गवेषण कराय छे ते एषणीय-कल्पनीय अने थोडं थोई ग्रहण करवामां आवे छे ते उंछ-भक्तपान विगेरेनुं समुदानरूप याचन थयेल ते सामुदानिक, अर्थात् ऊंच, नीच अने मध्यम कुल विगरेमा यथार्थ रीते गवेषक थतो नथी ४. उपर्युक्त चार प्रकारोवडे केवलज्ञानदर्शन उत्पन्न न थाय इत्यादि निगमन-निर्णय जाणवो. आनाथी विपरीत (ज्ञाननी प्राप्तिरूप ) सूत्र सुगम छे. (सू० २८४ ) निग्रंथना प्रस्तावथी ज तेने नहिं करवा योग्यना निषेध माटे वे सूत्रो कहे छ नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करेत्तए, तं०-आसाढपाडिवए इंदमहपाडिवए कत्तियपाडिवए सुगिम्हपाडिवए १, णो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गीण वा चउहिं संज्झाहि सज्झायं करेत्तए, तं०-पढमाते पच्छिमाते मज्झण्हे अड्डरते २. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं०-पुव्वण्हे, अवरण्हे पओसे पच्चूसे । सू० २८५, चउठिवहा लोगद्विती पं० तं०-आगासपतिट्रिए वाते, वातपतिट्टिए उदधी, उदधिपति * द्वितीयामां तृतीया विभक्ति करेली छे. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था XXXXXXX नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४०१॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ महाप्रति ०२८५ ट्रिया पुढवी, पुढविपइट्रिया तसा थावरा पाणा ४। सू० २८६, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-तहे नाममेगे, नोतहे नाममेगे, सोवत्थी नाममेगे, पधाणे नाममेगे ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आयंतकरे नाममेगे णो परंतकरे १ परंतकरे णाममेगे जो आतंतकरे २ एगे आतंतकरेवि परंतकरेवि ३ एगे णो आततकरे णो परंतकरे ४ (२) चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-आतंतमे नाममेगे नो परंतमे परंतमे नाममेगे नो आयंतमे ४ (३) चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-आयंदमे नाममेगे णो परंदमे ४ (४)। सू० २८७, चउविधा गरहा पं० २०-उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, जंकिंचिमिच्छामीत्तेगा गरहा, एवंपि पन्नत्तेगा गरहा। स० २८८ मूलार्थ:-साधुओने तथा साध्वीओने चार महापडवाने विषे स्वाध्याय करबो कल्पे नहिं. ते आ प्रमाणे -आषाढ सुदि पूनम पछीना पडवामां, कार्तिक सुदि पूनम पछीना पडयामा, इंद्रमह-आसो सुदि पूनम पछीना पडवामां तथा सुग्रीष्म-चैत्र सुदि पूनम पछीना पडवामां १, साधुओने तथा साध्वीओने चार संध्याने विषे स्वाध्याय करवो कल्पे नहिं, ते आ प्रमाणे-प्रथम संध्यासूर्योदय* वेलाथी एक घडी प्रथम अने एक घडी पछी, पश्चिम संध्या-सूर्यास्त समयथी एक घडी प्रथम ने एक घडी पछी, *केटलाकनो अभिप्राय एवो छे के प्रथम संध्या सूर्योदय वेलाथी बे घडी अगाउ लेवी केम के टीकामा "अनुदिते सूर्ये पाठ छे. बाकीनी त्रण संध्या एक घडी आगल पाछल लेवो परंतु अहिं तो टवाने अनुसारे हकीकत लखेल छे. ८८ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx YyxxxXXXX. For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मध्याह्ने अने मध्य रात्रे २, साधुओने तथा साध्वी ओने चार काले वखते स्वाध्याय करवो कल्पे छे, ते आ प्रमाणे- पूर्वाह्न - दिवसना प्रथम प्रहरमां, अपराह्ने दिवसना छल्ला प्रहरमां, प्रदोसे-रात्रिना पहेला प्रहरमां अने प्रत्युषे-रात्रिना छल्ला प्रहरमां (सू० २८५ ) चार प्रकारे लोकनी स्थिति कहेली छे, ते आ प्रमाणे- आकाशने आधारे घनवायु अने तनवायु प्रतिष्ठित रहेल छे' वायुने आधारे घनोदधि रहेल छे २, घनोदधिने आधारे रत्नप्रभा विगेरे नरकपृथ्वी रहेली छे ३ अने पृथ्वीने आधारे त्रस तथा स्थावर जीवो रहेला छे ४. ( सू० २८६ ) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-जे सेवक सतो ( होईने ) स्वामीना हुकम प्रमाणे वर्त्ते ते तथापुरुष १, जे स्वामीना हुकम प्रमाणे न वर्ते ते नोतथापुरुष २, स्वस्तिक विगेरे मांगलिक बोलनार भाट - चारणादि ते सौवस्तिकपुरुष ३, आ बधाने आराधवा योग्य शेठ विगेरे ते प्रधानपुरुष ४ (१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पोताना भवनो अंत करनार छे पण बीजाना भवनो अंत करनार नथी ते प्रत्येकबुद्धादि १, कोई एक बीजाना भवनो अंत करनार छे पण पोताना भवनो अंत करनार नथी ते अचरमशरीरी आचार्य विगेरे २, कोईएक पोताना भवनो अंत करनार छे अने बीजाना भवनो पण अंत करनार छे ते तीर्थकरादि ३ तेमज कोईएक पोताना भवनो अने परना भवनो अंत करनार नथी ते पांचमा आराना आचार्यादि ४. (२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक आत्मतम - पोते खेद करे छे पण बीजाने खेद करावता नथी १, कोईएक परतम-बीजाने खेद करावे छे पण पोते खेद करता नथी २, कोईएक पोते खेद करे छे अने बीजाने पण खेद करावे छे ३ अने कोईएक पोते खेद करता नथी तेम बीजाने पण खेद करावता नथी ४. (३) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक आत्माने दमे छे - शमवाळो करे छे पण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmande भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ४०२।। ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ | महाप्रति ० २८५ XXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx बीजाने दमावता नथी १, कोईएक बीजाने दमावे छ पण पोते दमता नथी २, कोईएक पोते दमे छे अने बीजाने पण दमावे छे ३ तेमज कोईएक पोते दमता नधी अने बीजाने पण दमावता नथी. ४. (४) (सू० २८७) चार प्रकारे गर्दा कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पोताना दोषना नाश माटे उचित प्रायश्चित्त लेवा सारु हुं गुरु पासे जाउं, आ एक गर्दा १, गर्दा करवा योग्य दोषोनुं विविध प्रकारवडे हुं निराकरण करु, आ बीजी गर्दा २, जे कांई अनुचित कर्यु होय तेनुं मिथ्या दुष्कृत हुं आपुं, आ त्रीजी गर्दा ३, एवी रीते 'स्वदोषनी गर्दा करवावडे दोषनी शुध्धि थाय छे एम जिनेश्वरोए कहेलुं छे' आ प्रमाणे स्वीकार, ते चौथी गर्दा ४ ( सू० २८८ ) टीकार्थ:-'नो कप्पईत्यादि० वे सूत्र सरल छे, परंतु महोत्सव पछी थनार उत्सवनी अनुवृत्तिवडे वीजा पडवाओथी विलक्षण स्वरूपवडे महाप्रतिपदा(पडवा)ओमां ( अहिं कोईक देशनी रूढिबडे 'पाडिवय' शब्दथी कथन कराएल छे) नंदी विगेरे सूत्र विषयक वाचनादिरूप स्वाध्याय करवो कल्पे नहिं, परंतु अनुप्रेक्षा(चिंतन)नो निषेध करायेल नथी. आषाढ मासनी पूर्णिमा पछीनी प्रतिपदा ते आषाढप्रतिपदा. एवीरीते वीजा पडवाओने विषे पण जाणवू. विशेष ए के-इंद्रमहर-आश्विन मासनी पूर्णिमा, सुग्रीष्म-चैत्रमासनी पूर्णिमा. अहिं जे देशमा जे दिवसथी महोत्सवो प्रवर्ते छे ते देशमां ते दिवसनी शरूआतथी *इंद्रमह शब्दनी टोकामां, दीपिकामां तथा प्राचीन टवामां आश्विन मास अर्थ करेल छे परंतु भाद्रपद मास एवो अर्थ नोवामां आवतो नथी. ४०२।। xxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shei Kailassagarsuri Gyarmandie महोत्सवनी समाप्ति पर्यंत स्वाध्याय न x करवो जोईए अने ते महोत्सव पूर्णिमा पर्यन्त ज समाप्त थाय छे. प्रतिपदाओ तो क्षणनी अनुवृत्तिवडे वर्जाय छ, अर्थात् पूर्णिमामा प्रतिपदानो स्वल्प कालनो संभव होवाथी प्रतिपदा वर्जवा योग्य छे. कयु छ केआसाढी इंदमहो, कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वो। एए महामहा खल, सव्वेसिं जाव पाडिवया ॥९०॥3 भावार्थ उपर मुजब छे. अकालमा स्वाध्याय कर्ये छते आ प्रमाणे दोषो थाय छेसुयणाणंमि अभती. लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य। विज्जासाहणवेगुन्न-धम्मया एव मा कुणसु ॥९॥ श्रुतज्ञाननी अभक्ति-विराधना थाय छे तथा लोकविरुद्ध थाय छे, केम के लौकिकमां पण रजस्वला प्रसंगमा अने गुमडा विगेरेना प्रसंगमा देवपूजन विगेरे कार्यों करता नथी तथा प्रमादी मुनिने समीप क्षेत्रवासी देवो छळे छे. जेम विद्याना साधनथी विरुद्ध सामग्रीवडे विद्या सफळ थती नथी तेम अकाळे स्वाध्याय करवाथी श्रुतज्ञान पण सफळ थतुं नथी; माटे हे शिष्य ! तुं अकालमां स्वाध्याय न कर, सूर्योदय न थये छते पहेली संध्या, सूर्य अस्त पामवाना समयमां ते पश्चिमा संध्या. हमणा कहेल सूत्रथी विरुद्ध सूत्र x आश्विन शुक्ल पंचमोना मध्याह्न पछीथी आरंभी गुजराती आश्विन वदि एकम पर्यंत स्वाध्याय न करवो, चैत्र मासमां पण ए प्रमाणे निषेध जाणवो, एम दीपिकाकार कहे छे, XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४०३ ॥ www.kobatirth.org ( स्वाध्याय करवाना समयनुं सूत्र ) स्पष्ट छे, विशेष ए के -' पुत्रवण्हे अवरण्हे 'ति० दिवसना पहेला अने छल्ला प्रहरमां पओसे पचसे ' ति० रात्रिना पहेला अने छेल्ला प्रहरमां. ( सू० २८५ ) स्वाध्यायमां प्रवर्त्तेलाने लोकनी स्थितिनुं परिज्ञान थाय छे, माटे लोकनी स्थितिनुं प्रतिपादन करतां थकां कहे छे के' चउव्विहे 'त्यादि० क्षेत्रलक्षण लोकनी स्थितिव्यवस्था ते लोकस्थिति, आकाशने आधारे घनवात अने तनुवातस्वरूप वायु रहेल छे. उदधि-घनोदधि, पृथिवी एटले रत्नप्रभा विगेरे. सा-द्वींद्रिय विगेरे त्रस जीवो. वळी रत्नप्रभादि पृथिवीने विषे जे नथी रहेला ते पण विमान अने पर्वतादि पृथिवीने विषे रहेला होवाथी पृथिवीमां ज रहेला छे. विमान संबंधी पृथिवीओनुं आकाश विगेरेमां रहेवापणुं जेम वटी शके तेम जाणवुं, अथवा अहिं विमान विगेरेमां रहेल देव प्रमुख सोनी विवक्षा नथी अने स्थावर जीवो तो अहिं बादर वनस्पति विगेरे ग्रहण करवा योग्य छे, कारण के सूक्ष्म जीवोनुं समग्र लोकमां रहेवापणुं छे. शेष सुगम छे ( सू० २८६ ) हमणां जत्रस प्राणीओ कला, हवे त्रस प्राणीविशेषना स्वरूपने चतुर्भगीरूप चार सूत्रोवडे बतावे छे-आ चार सूत्रो सरळ छे. विशेष ए के' तह ' ति०-सेवक छतो जेम आदेश कराय छे तेम जे प्रवर्ते छे ते तथा स्वीकारनार १, बीजो सेवक तो आदेश प्रमाणे करतो नथी परंतु बीजी रीते करे छे ते नोतथ २, वळी ' स्वस्ति ' एम कहेनार अथवा स्वस्ति कहीने आजीविका मेळवे छे ते सौवस्तिक ( प्राकृतपणाथी 'क' नो लोप अने दीर्घपणुं प्राप्त थवाथी ' सोबत्थी ' ) मांगलिकने बोलनार मागध विगेरे तृतीय ३, ए त्रणेने आराध्यपणाए प्रधान- स्वामी ते चतुर्थ भंग ४. ' आयंतकरे 'ति०- पोताना भवनो अंत करे छे ते आत्मांतकर परंतु बीजाना भवनो अंत करतो नथी ते धर्मदेशनाने नहिं कहेनार प्रत्येकबुद्ध विगेरे १, तथा मार्गने प्रवर्त्ताववावडे बीजा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************** ***** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ महाप्रति पदः सू० २८५-८८ ॥॥॥ ४०३ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ना भवनो अंत करे छे ते परांतकर परंतु पोताना भवनो अंत करतो नथी ते अचरमशरीरी आचार्य विगेरे २, श्रीजा भांगावाळा तीर्थंकर अथवा अन्य - चरमशरीरी आचार्य विगेरे ३ अने चोथा भांगावाला दुष्पम कालना आचार्य विगेरे ४. अथवा पोताना मरण करे छे ते आत्मांतकर. एवी रीते बीजानुं मरण करे छे ते परांतकर, अहिं प्रथम भांगावाळो आत्मवधक, बीजा भांगावाळो परवधक, त्रीजो उभयवधक अने चोथो तो बन्नेनो अवधक जाणवो. अथवा पोते स्वतंत्र थको जे कार्यों आतंक, एमज परतंत्र थको कार्यने करे ते परतंत्रकर. अहिं प्रथम भंगमां जिन, बीजा भंगमां भिक्षु, श्रीजा भंगमां आचार्यादि अने चोथा भंगमां कार्यविशेषनी अपेक्षाए शठ- ठगारो. अथवा धन अने गच्छादिने पोताने स्वाधीन करे छे ते आत्मतंत्रकर, एवी रीते बीजा मांगा पण स्वयं विचारी लेवा. आत्माने खेद करे छे ते आत्मतम - आचार्यादि, पर-शिष्यादिकने खेद करावे छे ते परतम (अहिं सर्वत्र प्राकृतशैलीथी अनुस्वार जाणवो. ) अथवा आत्माने विषे तम (अज्ञान अथवा क्रोध) जेने छे ते आत्मतम. एवी रीते बीजा+भांगामां पण जाणवुं तथा आत्माने दमे छे - समतावाळो करे छे अथवा शिक्षा आपे छे ते आत्मदम- आचार्य अथवा अश्वनो दमक - स्वार, एम बीजा भांगाओ पण जाणवा, पर-शिष्य अथवा घोडा विगेरेने जे दमे छे ते परदम ( सू० २८७) गर्दा करवा योग्य कार्यनी गर्हा करवाथी दम थाय छे माटे गर्दा सूत्र कहे छे. गुरुनी साक्षीपूर्वक आत्मानी निंदा ते गर्दा ' उपसंपद्ये' पोताना दोषनुं निवेदन करवा माटे गुरुनो आश्रय करूं, अथवा उचित - प्रायश्चित्तनो स्वीकार करूं आवा प्रकारना परिणामरूप एक गर्दा छे. गहना + अन्य आत्माना संबंधमां जेने अज्ञान के क्रोध छे ते परतम. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४०४ ॥ KXXX ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ | महाप्रति XXXXXX सू० २८५ kxxxxxxXXXXXXXXXX) कारणपणाने लईने कारणमां कार्यना उपचारथी अने गर्हाना जेवू ज फल होवाथी कहेल परिणामर्नु गहापणुं समजवु केमके श्री भगवती सूत्रमा कडं छे के-'निग्गंथे णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए, पविटेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि जाव पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोइस्सामि० से य संपहिए असंपत्ते अप्पणा य पुब्वमेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा! आराहए नो विराहए"त्ति निग्रंथ गृहपतिना कुलमा आहार लेवानी प्रतिज्ञावडे गृहमा प्रवेश्यो-आव्यो छतो (तेणे) कोई पण एक अकृत्य स्थान सेव्यु, पछी तेने आ प्रमाणे विचार थाय के-अहिं ज प्रथम हुं आ दोषनी आलोचना करु, प्रतिक्रमण करूं, निंदा करूं यावत् प्रायश्चित्तने स्वीकारुं. त्यारवाद स्थविरोनी समीपे आलोचना करीश यावत् प्रायश्चित्त करीश, ते साधुए प्रायश्चित्त लेवा माटे प्रयाण कयुं परंतु स्थविर पासे पहोंच्या अगाउ कदाच काल करे तो ते मुनि आराधक थाय के विराधक थाय ? (आवा प्रकारनो भगवंत महावीर प्रत्ये श्री गौतमस्वामीनो प्रश्न छ) उत्तर-हे गौतम ! आराधक थाय पण विराधक न थाय. 'वितिगिच्छामि सिविशेषबडे अथवा विविध प्रकारोथी 'चिकित्सामि'-" उपाय करूं-निंदनीय दोषोने हुँ दूर करूं, आ प्रकारनी विकल्पात्मक गर्दा होवाथी बीजी गर्दा २, तथा 'जंकिंचिमिच्छामीति' ति. जे काई अनुचित कयु होय ते दुष्कृत्यनुं फळ मने मिथ्या थाओ, आवा प्रकारनी वासनागर्मित वचनरूप त्रीजी गर्दा, गर्हाना स्वरूपपणाथी ज आ प्रमाणे छे. तथा 'एवमपी 'ति. स्वदोषनी गर्दाना प्रकारवडे पण 'प्रज्ञप्ता' जिनेश्वरोए दोषनी शुद्धि कहेली छे, आq कथन स्वीकारवारूप चोथी गर्दा छे; केम के आवा प्रकारना स्वी x॥४०४॥ RURARIRI For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalbirth.org Acharya Shei Katasagarsur Gyarmandie RRRR KAKAR. xxxxxxxx कारर्नु गर्दा कारण होय छे. 'एवंपि पन्नत्तेगा गरहे 'ति. आ पाठमा उक्त व्याख्यान छे. 'एवपि पन्नत्ते एगा' ए पाठमां तो जे कोई पाप कयु होय ते मिथ्या थाओ, आ प्रमाणे स्वीकारवा योग्य छे. एवी रीते पण प्ररूपणा कर्ये छते एक गर्दा थाय छे. आवा प्रकारे वक्तानी प्ररूपणाने गर्दा कारणभृत हे. अथवा 'उपसंपद्ये' हुँ अतिचारोनो निषेध करुं हुं एवी रीते पोताना दोषना स्वीकाररूप एक गर्दा, तथा 'विचिकित्सामि'-शंका नहिं करवा योग्य जिनेश्वरभाषित भावोन विषे अथवा गुरु विगेरेने विषे दोष देखवावडे हुं शंका करूं छु आवा प्रकारनी जे गर्दा (आत्मनिंदा) ते पोताना दोपने स्वीकारवारूप होवाथी ज बीजी गर्दा २, तथा जे काई साधुओने करवा योग्य नथी ते हुँ इच्छु छ अर्थात् साक्षात् न करवा छतां पण मनवडे अभिलाषा करूं छु ( अहिं 'मकारनो' आगम प्राकृतशैलीने अंगे ले ) अथवा जे काई साधुओना कार्यने आश्रयीने मिथ्या-विपरीत थाउं छु अथवा मिथ्या-खोटुं करूं छु, 'मिच्छामि' म्लेच्छनी जेम आचरण करु छ अथवा म्लेच्छ ( कर्मवडे ) मलिन थाउं छु.शेष पूर्ववत् ३, तथा अयथार्थ अनुष्ठानमा प्रवृत्त थयो सतो (थको) अथवा कोई बीजावडे प्रेरणा करायो सतो, एटले प्रश्न करायो थको पोताना चित्तना समाधान माटे अथवा अयथार्थ अनुष्ठानना समर्थन माटे क्लिष्ट ( दुष्ट ) चित्तवृत्तिवडे एवी रीते प्ररूपणा करु छ अथवा भावना करूं छु के-एवी पण प्रज्ञप्तिप्ररूपणा जिनागममा छे. पाठांतरमा तो एवी रीते पण आ भाव कहेल छे.ए प्रमाणे अस्थानमा अभिनिवेशी अर्थात् कदाग्रही अथवा उत्सूत्रनो प्ररूपक हुँ छु, आ प्रमाणे एक (चोथी) गर्दा. एवी रीते पोताना दोषना स्वीकाररूप गर्दा सर्वत्र छे. (सू० २८८) गहीं तो दोषना त्याग करनारने ज सम्यग्-यथार्थ होय छे परंतु बीजाने होती नथी माटे दोषने टाळनार जीवोना KXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४०५ ।। www.kobatirth.org स्वरूपनुं निरूपण करवा माटे सत्तर चौभंगी सूत्रो कहे छे T चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - अप्पणो नाममेगे अलमंथू भवति णो परस्स, परस्त नाममेगे अलमंथू भवति णो अप्पणो, एगे अप्पणोवि अलमंथू भवति परस्सवि, एगे नो अप्पणो अलमंथू भवति णो परस्स (१), चत्तारि मग्गा पं० तंत्र-उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेगे बँके, के नाममेगे उज्जू, वंके नाममेगे वंके (२), एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-उज्जू नाममेगे उज्जू ४ (३), चत्तारि मग्गा पं० तं० - खेमे नाममेगे खेमे, खेमे णाममेगे अखेमे हृ ४ (४), एवमेव पुरिसजाता पं० तं०- खेमे णाममेगे खेमे ह्न ४ (५), चत्तारि मग्गा पं० तं०- खेमे णाममेगे खेमरुवे, खे णाममेगे अखेमरूवे ४ (६), एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- खेमे नाममेगे खेमरूवे ४ (७), चत्तारि संबुक्का पं० तं० - वामे नाममेगे वामावत्ते, वामे नाममेगे दाहिणावत्ते, दाहिणे नाममेगे वामावन्ते, दाहिणे नाममेगे दाहिणावत्ते ८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - वामे नाममेगे वामावते हृ ४ (९), चत्तारि धूमसिहाओ पं० तं०-वामा नाममेगा वामावत्ता ४ (१०), एवामेव चत्तारित्थीओ पं० तं०-वामा णाममेगा वामावत्ता ४ (११), चत्तारि अग्गिसिहाओ पं० तं०-वामा णाममेगा वामा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ****** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ पुरुषाणा मलमस्त्वा दिचतुभंगीः सू० २८९ ।।। ४०५ ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx वत्ता ह४ (१२), एवामेव चत्तारित्थीओ पं० तं-वामा णाम ह ४ (१३), चत्तारि वायमंडलिया पं० तं०-वामा णाममेगा वामावत्ता ४ (१४), एवामेव चत्तारित्थीओ पं० त०-वामा णाममेगा वामावत्ता ४ (१५), चत्तारि वणसंडा पं० तं०-वामे नाममेगे वामावत्ते ४ (१६), एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-वामे णाममेगे वामावत्ते ४ (१७) । सू० २८९ __ मूलार्थः-चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पोताना आत्माने दुष्ट प्रवृत्तिथी अटकावे छे परंतु बीजाने | अटकावतो नथी, कोईक बीजाने दुष्ट प्रवृत्तिथी अटकावे छे पण पोताना आत्माने अटकावतो नथी, कोईक पोताना आत्माने अने बीजाने पण दुष्ट प्रवृत्तिथी अटकावे छे तेमज कोईक पोताने के परने दुष्ट प्रवृनिथी अटकावतो नथी (१), चार प्रकारना मार्ग कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक मार्ग शरूआतमा पण सरल अने अंतमां पण सरल छे, कोईएक मार्ग शरूआतमां सरल छे पण पछी चक्र छे, कोईएक मार्ग शरूआतमां वक्र पण पछी सरल छे तेमज कोई एक मार्ग शरूआतमां पण वक्र अने पछी पण वक्र छे (२), ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक पुरुष प्रथम-पूर्वकाळमां सरल छे अने पछी पण सरळ छे, कोईक प्रथम सरल अने पछी वक्र छे, कोईक प्रथम वक्र अने पछी सरल छ तथा कोईक प्रथम वक्र अने पछी पण वक्र छ (३), चार प्रकारना मार्ग कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कोईक मार्ग आदिमा क्षेम-उपद्रव रहित अने पछी पण क्षेम छे, कोईक मार्ग आदिमां क्षेम छ पण पछी अक्षेम छे, कोईक मार्ग आदिमां अक्षम पण पछी क्षेम छे xxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था नागपत्र सानुवाद ॥४०६॥ Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx तेमज कोईक मार्ग आदिमां पण अक्षम अने अंतमां पण अक्षेम छे (४), ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष प्रथम क्षेम-क्रोधादिथी रहित अने पछी पण क्षेम छे, कोईक प्रथम क्षेम पण पछी अक्षेम | छे, कोईक प्रथम अक्षेम पण पछी क्षेम छे तेमज कोईक प्रथम पण अक्षेम अने पछी पण अक्षम छे (५), चार प्रकारना मार्ग कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कोईक मार्ग क्षेम (उपद्रव रहित) अने क्षेमरूप-सुंदर आकारवाळो छे, कोईक मार्ग क्षेम पण अक्षमरूप-खराब आकारवाळो छे, कोईक मार्ग अक्षेम पण क्षेमरूप (सुंदराकार) छे तेमज कोईक मार्ग अक्षेम अने अक्षेमरूप छे (६), ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष क्षेम-भावथी साधुना गुण युक्त अने क्षेमरूप-द्रव्यथी साधुना वेष युक्त छे, कोईक साधुना गुण युक्त छे पण कारणवशात् साधुना वेप रहित छे, कोईक साधुना गुणथी रहित पण वेष युक्त छे अने कोईक गुण रहित अने वेष रहित पण छे (७), चार प्रकारना शंख कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक शंख वाम-प्रतिकूल गुणवाळो अने वामावर्त-उचरदिशा सन्मुख आवर्तवाळो छ, कोईक प्रतिकूल गुणवाळो पण दक्षिणावर्त छे, कोईक अनुकूळ गुणवाळो पण वाम आवर्तवाळो छे अने कोईक शंख अनुकूळ गुणवाळो अने दक्षिणावर्त छे (८), ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक वाम-प्रतिकूल स्वभाववाळो अने वामावर्तप्रतिकूल वर्तनवाळो छ, कोईक प्रतिकूल स्वभाववाळो छ पण अनुकूल वर्तनवाळो छे, कोईक अनुकूळ स्वभाववाळो छ पण प्रतिकूळ वर्तनवाळो छे तेमज कोईक अनुकूळ स्वभाव अने अनकूळ वर्तनवाळो छ (९), चार प्रकारनी धूम्रशिखाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-कोई एक धूमाडानी शिखा वामा--डावे पडखे जनारी अने वामावर्ता-डावा आवर्त(चकर)वाली छे, कोईक 1 ४ स्थानकाध्ययने उद्देश! २ पुरुषाणामलमस्त्वादिचतुर्भगी सू० २८९ ॥४०६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 長表表表黑素素墓赛表赛赛赛裁兼集来着。 धूम्रशिखा वाम भागमा जनारी छे पण दक्षिण-जमणा आवर्तवाली छे, कोईक धूम्रशिखा दक्षिण भागमा जनारी छे पण डावा आवर्तवाली तेमज कोईक धूम्रशिखा दक्षिण भागमा जनारी अने दक्षिण आवर्तवाळी छे (१०), ए दृष्टांत चार प्रकारनी स्त्रीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-कोईक स्त्री प्रतिकूल स्वभाववाली अने प्रतिकूल वर्तनवाली छे, कोईक स्त्री प्रतिकूल |x स्वभाववाली छे पण अनुकूल वर्तनवाली छे, कोईक स्त्री अनुकूल स्वभाववाली छे पण प्रतिकूल वर्तनवाली छे तेमज कोईक स्त्री अनुकूल स्वभाव अने अनुकूल वर्तनबाली छ (११), चार प्रकारनी अग्निशिखाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणेकोईएक अग्निशिखा वाम भागमा जनारी अने वाम आवत्तवाळी छे, कोईक अग्निशिखा वामभागमां जनारी अने दक्षिण आवर्तवाळी छे. एवी रीते धूम्रशिखानी माफक चोभंगी समजवी (१२), आ दृष्टांते चार प्रकारनी स्त्रीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-प्रतिकूल स्वभाववाळी अने प्रतिकूल वर्तनवाळी, एम चार भांगा अगियारमा सूत्र प्रमाणे समजवा (१३), चार प्रकारे वातमंडलिका कहेली छे, ते आ प्रमाण-कोईक वायुनी मंडलिका (घूमरीबडे वायु ऊंचो चडवो ते ) वामभागमा छे अने वाम आवर्तवाळी छे, एम पूर्वनी माफक चोभंगी जाणवी (१४), आ दृष्टांत चार प्रकारनी स्त्रीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-काईक स्त्री प्रतिकूल स्वभाव अने प्रतिकूल वर्तनवाली छे. एवी रीते पूर्वनी माफक चतुभंगी जाणवी (१५), चार प्रकारना वनखंडो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक वनखंड वाम (डाबा) भागमा छे अने वाम आवर्तवाळो-वायुथी उपर दिशा सन्मुख वळे छे. एंवी रीते पूर्वनी माफक चतुभंगी समजवी (१६), आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष प्रतिकूल स्वभाववाको अने प्रतिकूळ वर्तनवाळो छे, कोईक प्रतिकूल स्वभाववाळो छे पण अनुकूल वर्तनवाळो छ, कोईक अनुकूल KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानारपत्र सानुवाद ॥४०७॥ मxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXMAIL वर्तनवाळो छ पण प्रतिकूल स्वभाववाळो छे तेमज कोईक पुरुष अनुकूल स्वभाव अने अनुकूल वर्तनवालो छे (१७) सू०२८९). टीकार्थ:-आ सूत्रो स्पष्ट छे, मात्र ‘निषेध थाओ' एम जे कहे छे ते 'अलमस्तु' कहेवाय छे अर्थात् निषेधक, ते दुष्ट कार्योमा प्रवर्तमान आत्मानो-पोतानो निषेध करनार, अथवा 'अलमंथुत्ति० सिद्धांतनी भाषावडे ' समर्थ' कहेवाय छे. तेथी कोईएक पोतानो निग्रह करवाभां समर्थ १, एक मार्ग शरूआतमां पण सरळ अने अंतमां पण सरळ छे अथवा सरळ जणाय छ अने तत्वथी पण सरळ २, पुरुष तो पूर्व अने उत्तरकालनी अपेक्षाए सरळ छे अथवा अंतःकरणनी अने बाह्य स्वरूपनी अपेक्षाए सरळ छे. क्यांक तो 'उज्जूनामं एगे उज्जूमणे' त्ति० पाठ छे ते पण बाह्य स्वरूप अने अंतर स्वरूपनी अपेक्षाए व्याख्या करवा योग्य छ ३, कोईएक मार्ग शरूआतमा निरुपद्रव होवावडे क्षेम छे, बळी छेवटमां पण क्षेम छे अथवा प्रसिद्धि-जाहेर अने तत्त्वथी क्षेम छे ४. एम पुरुष पण क्रोध विगेरेना उपद्रवथी रहित होवाथी क्षेम छ ५, भावथी उपद्रवना अभाववडे क्षेम अने आकार-देखाववडे सुंदर मार्ग ६, प्रथम पुरुष तो भावलिंग-साधुना गुणयुक्त अने द्रव्यलिंग-साधुना वेषयुक्त, बीजो कारणथी द्रव्यलिंग रहित गुण युक्त साधु ज, बीजो निव, चोथो अन्यतीर्थिक अथवा गहस्थ ७, शंबुको-शंखो वाम पडखे व्यवस्थित (रहेल) होवाथी अथवा प्रतिकूळ गुणवाळो होवाथी वाम, वामावर्त प्रसिद्ध छे. एम दक्षिणावर्त पण जाणवो. दक्षिण-दक्षिण भागमा स्थापन करवाथी अथवा अनुकूळ गुणवालो होवाथी ८, पुरुष तो प्रतिकूल स्वभाववडे बाम, वाम ज जे वर्ते छे ते वामावर्त, केम के विपरीत प्रवृत्ति करवाथी एक, बीजो स्वभावथी विपरीत अने कारणवशात् दक्षिणावक-अनुकूल प्रवृत्ति करनार, श्रीजो तो अनुकूल स्वभाववडे दक्षिण परंतु कारणवशात् वामावर्त-प्रतिकूल प्रवृत्ति करनार, एम चोथो स्व xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४ स्थान काभ्ययने उद्देशः २ पुरुषाणामलमस्त्वादिचतुभंगी सू०२८९ ॥ ४०७॥ For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भावथी अने प्रवृत्तिधी पण अनुकूल जाणवो ९, धूमशिखा वामभागमां रहेवावडे अथवा प्रतिकूल स्वभाववडे बामा, अ वाम - डावा भागथी घूमरी फरे छे ते वामावर्ती १०, स्त्रीनी व्याख्या पुरुषनी माफक करवी, अहिं शंखनुं दृष्टांत होवा छतां पण धूमशिखा विगेरे दृष्टांतोनुं स्त्रीरूप दाष्टतिकोने विषे शब्दना समानपणाथी विशेष युक्त होवाथी भेदवडे स्वीकारेल छे ११, एम अग्निशिखानी व्याख्या पण जाणवी १२-१३, वातमंडलिका - घूमरीवडे ऊंचो जतो वायु, अहिं स्त्रीओ, मलिनता, उपताप अने चपलताना स्वभाववाली होय छे. आ अभिप्राय वडे स्त्रीओना विषयमां धूमशिखा विगेरे त्रण दृष्टांतो उपन्यास करेल छे. कधुं छे के चला मइलणसीला, सिणेह परिपूरियावि तावेई । दीवयसिहव्त्र महिला, लध्धप्पसरा भयं देइ ॥९२॥ दीपकनी शिखानी जेम स्त्री भयने आपे छे, ते स्त्री चपल स्वभाववाळी, मलिनताने करनारी, स्नेहथी पूरायेली - प्रेमपात्र करायली छतां पण संतापन कर छे तेमज अवसर मळवाथी स्वच्छंदचारिणी होय छे. १४-१५ वनखंड तो शिखानी माफक जाणवुं, विशेष ए के वाम वलणवडे उत्पन्न थवाथी अथवा वायुवडे वाम कंपमान थवाथी वामावर्त १६. पुरुषना विषयमां पूर्वनी माफक जाणवुं १७. ( सू० २८९ ). हमणां ज अनुकूल स्वभाव अने अनुकूल प्रवृत्तिवालो पुरुष कह्यो, एवा प्रकारनो निग्रंथ, सामान्यवडे अनुचित प्रवृत्तिमां पण पोताना आचारने उल्लंघतो नथी एम दर्शावतां थका सूत्रकार कहे छे के— For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Si Keilassagersuri Gyarmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४०८॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गाथं आलवमाणे वा संलवमाणे वा णातिकमति, तं०-पंथं पुच्छ- ४ स्थान माणे वा १ पंथं देसमाणे वा २ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलेमाणे वा ३ दलावे काध्ययने माणे वा ४। सू०२९०, तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामधेजा पं० २०-तमिति वा तमुक्कातेति वा उद्देशः२ निर्गन्थ्या अंधकारेति वा महंधकारेति वा । तमुक्कायस्स णं चत्तारि णामधेजा पं० तं०-लोगंधगारेति वा सहालापादि | लोगतमसेति वा देवंधगारेति वा देवतमसेति वा। तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामधेजा पं० तं० तमस्कायः वातफलिहेति वा वातफलिहखोभेति वा देवरन्नेति वा देववूढेति वा । तमुक्काते णं चत्तारि कप्पे ४० २९०आवरित्ता चिट्ठति तं०-सोधम्मीसाणं सणंकुमारमाहिंदं । सू० २९१ - मूलार्थ:- चार कारणबडे एकलो साधु, एकली साध्वी साथे आलाप-एक बखत बोलतो थको अथवा संलाप-वारंवार बोलतो थको आचारनु उल्लंघन करतो नथी, ते आ प्रमाणे-गृहस्थना अभावे साध्वीने मार्ग संबंधे पूछतो थको अर्थात् एम पूछे छे के-हे धर्मशीले! क्यो माग छ ?१, साध्वीने मार्ग (रस्तो) बतावतो थको २, अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम चार प्रकारना आहार, साध्वीने आपतो थको एम कहे के-हे धर्मशीले! आ आहार ग्रहण कर ३ तेमज हे आर्ये ! हुं तमने आहारादि अपावीश, तुं अहिं आवजे एम कहेतो थको ४. (सू० २९०) तमस्कायना चार नाम कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ तम, २ x॥४०८॥ For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमस्काय, ३ अंधकार अने ४ महांधकार तमस्कायना चार नाम कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ लोकांधकार, २ लोकतमस्, ३ देवांधकार अने ४ देवतमस् तमस्कायना चार नाम कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ वायुने रोकनार भुंगल समान ते वातपरिघ, २ वायुने भुंगलनी माफक क्षोभ पमाडे छे ते वातपरिघक्षोभ, ३ देवीने नाशवानुं स्थान ते देवारण्य अने ४ सैन्यना व्यूहनी जेम दुःखपूर्वक जेनो प्रवेशमार्ग जाणी शकाय ते देवव्यूह. तमस्काय, चार देवलोकने चोतरफ घेरी रहेलो छे, ते आ प्रमाणेसौधर्म, ईशान, सनत्कुमार अने माहेंद्र. ( सू० २९१ ) टीकार्थ :- 'उही ' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के आलापन- थोडं अथवा पहेली वखत बोलतो थको, संलपन- परस्पर वारंवार बोलतो थको, निग्रंथना आचारने उल्लंघन करतो नथी. “ एगो एगिथिए सद्धिं, नेव चिट्ठे न संलवे " एकलो साधु एकली खीनी साथै ऊभो रहे नहिं तेम बोले पण नहिं. विशेषथी साध्वीनी साथे आ प्रमाणे निषेध छे परंतु मार्ग संबंधी प्रश्न विगेरेमां पुष्ट आलंबनपणुं होवाथी आचारनुं उल्लंघन थतुं नथी. तेमां पूछवायोग्य साधर्मिक ( साधु ) अने गृहस्थ पुरुषना अभावमां ' हे आर्ये ! अहिंथी अमोने जवानो कयो मार्ग छे ?' इत्यादि क्रमवडे मार्गने पूछतो थको, अथवा 'हे धर्मशीले ! तमारे जवानो आ मार्ग छे' इत्यादि क्रमवडे साध्वीने मार्ग देखाडतो, अथवा 'दे धर्मशीले ! तुं आ अशनादिने ग्रहण कर ' एम कहीने आहारादि आपतो थको तथा 'हे आयें ! तुं अहिंया घर विगेरेमां आव, तारा माटे आहारादि अपावु' एम कहीने अपावतो थको आचारनुं उल्लंघन करतो नथी. ( सू० २९० ) तथा तमस्कायने ' तमः' इत्यादि शब्दवडे व्यवहार करतो थको साधु, यथार्थपणाने लई भाषाना आचारं उल्लंघन करतो नथी माटे तमस्कायना नामोने कहे छे' तमुक्काये 'त्यादि० ६९ For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भीस्थानानपत्र सानुवाद ॥४०९॥ Xxxxxxxxxx त्रण सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-तमसा-अप्कायना परिणामरूप अंधकारनो काय-समूह ते तमस्काय, जे असंख्याततम ४ स्थान अरुणवर नामना द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथी अरुणोद नामना समुद्रमां बेंतालीश हजार योजन पर्यंत अवगाहीने (जईने) काध्ययने पाणीना उपरना भागथी एक प्रदेशवाळी श्रेणीवडे तमस्काय नीकळीने, सत्तरसो एकवीश योजन सुधी ऊंचो जईने, त्यांथी तिच्छों-विशेष विस्तार पामतो थको, सौधर्मादि चार देवलोकने घेरीने ऊंचे पण ब्रह्मलोक कल्पना रिष्ट नामना विमान-प्रतर उद्देशः २ सुधी पहोंचेल छे. तेना नामो ए ज नामधेयो छे. 'तम' इति० तमोरूप होबाथी अथवा रूपने बताववामां तमः कहल छे. निर्गन्ध्या मात्र तमस्वरूपने कहेनारा पहेला चार नामो विकल्पमा छे अर्थात् 'तम' ना पर्यायवाचक छे. वळी वीजा ज चार नामो * सहालापादि अत्यंत तमस्वरूपने बतावनारा छे. लोकमां ए ज अंधकार छे, एवो बीजो नथी माटे 'लोकांधकार ' कहेल छे. देवोने पण तमस्कायः ए ज अंधकार छे केम के देवोना शरीरनी प्रभानो पण त्या प्रकाश पडतो नथी माटे देवांधकार कहेल छे. आ कारणथी ज -सू० २९०बलवान देवोना भयथी देवो तमस्कायमा नाशी जाय छे-संताई जाय छे एम संभळाय छे. वळी अन्य चार नामो कार्यने आश्रयीने कहेला छे. वायुने चोमेर हणवाथी परिघ-अर्गला, वायुनो परिघनी माफक परिघ ते वातपरिघ, तथा वायुने परिघनी : माफक क्षोभ करे छे-मार्गने रोके छे ते वातपरिपक्षोभ, अथवा वायुस्वरूप ज परिघने जे रोके छे ते वातपरिपक्षोम. पाठांतरबडे वातपरिक्षोभ छे. क्यांक देवपरिघ अने देवपरिक्षोभ आ नामो प्रथमना बे पदना स्थानमा कहेवाय छे. देवोने अरण्यनी माफक बलवान देवोना भयथी नाशवानुं स्थान होवाथी जे तमस्काय ते देवारण्य छे. सागर विगेरे संग्रामना व्यूह(रचना)नी जेम दुःखपूर्वक गमन करवा योग्य होवाथी जे देवोना व्यूह ते देवव्यूह. तमस्कायना वरूपर्नु प्रतिपादन करवा माटे KXXXXXXXXXXXXxxxxxxxx KOKXXXXXXX S४०१ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX 'तमुकाये ण' मित्यादि० सूत्र कहेवायेल अर्थवालं छे, परंतु सौधर्मादि देवलोकने आ तमस्काय आवरीने रहेल छे अने ते कूकडाना पांजराना आकारे रहल छे. तेना प्रतिपादन माटे कयुं छे के-" तमुक्काए णं भंते ! किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पि कुक्कुडपंजरसंठिए पन्नत्ते । "हे भगवन् ! तमस्काय केवा आकारे रहेल छे ? उत्तर-हे गौतम ! नीचे मल्लकमूल-सरावलाना मूलना आकारे अने उपर कूकडाना पांजराना आकारे रहेल छे. (सू० २९१) हमणां वचनना पर्यायवडे तमस्काय कह्यो, हवे अर्थपर्यायवडे पुरुष प्रत्ये निरूपण करनार पांच सूत्रो सूत्रकारवडे कहेवाय छ चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-संपागडपडिसेवी णाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे, पडुप्पन्ननंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे ४ (१), चत्तारि सेणाओ पं० सं०-जतित्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता णाममेगे णो जतित्ता, एगा जतित्तावि पराजिगित्तावि,एगा नो जतित्ता नो पराजिणित्ता ४ (२).एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-जतित्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता ४ (३). चत्तारि सेणाओ पं०२०-जतित्ता णामं एगा जयई.जइत्ताणाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता णाममेगा जयति, पराजिणित्ता नाममेगा पराजिणति ४ (४), एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं००जइत्ता नाममेगे जयति ४ (५) सु० २९२ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४१० ॥ ************* www.kobatirth.org मूलार्थ:- चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक गच्छमां रहेल साधु, अगीतार्थ समक्ष दोपने सेवे छे ते संप्रगटप्रतिसेवी, कोईएक प्रच्छन्न दोपने सेवे छे, कोईएक वस्त्र अने शिष्यादिना लाभवडे जे आनंदने पामे छे ते प्रत्युत्पन्न - नंदी, कोईएक गच्छमांथी पोतानो के शिष्यादिना नीकळवावडे जे आनंदित थाय छे निःसरणनंदी (१), चार प्रकारनी सेना कहेली छे, ते आ प्रमाणे एक सेना शत्रुने जीतनारी छे पण पराजय पामे नहि, एक सेना शत्रुथी पराजय पामनारी छे पण जीतनारी नथी, एक सेना जीतनारी पण छे अने पराजय पामनारी पण छे तेमज एक सेना जीतनारी पण नहि अने पराजय पामनारी पण नहि (२), आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे - कोईएक साधु परीपहनी सेनाने जीतनार छे परंतु तेथी श्रीमहावीरस्वामीनी जेम पराजय पामनार नथी, एक साधु परीपहथी पराभव पामनार छे पण कंडरीकवत् जीतनार नथी, एक साधु जीतनार पण छे अने शैलक राजर्षिवत् पराजय पामनार पण छे तेमज एक साधु जतिनार पण नथी अने पराजय पण पामनार नथी-जेने परीपह उत्पन्न थयेल नथी ते (३), चार प्रकारनी सेना कहेली छे, ते आ प्रमाणे- एक सेना एक वखत शत्रुने जीतीने फरीधी पण जीते छे, एक सेना प्रथम जीतीने फरीथी पराजय पामे छे, एक सेना प्रथम पराजय पामीने पछी जीते छे तेमज एक सेना प्रथम पण पराजय पामीने पछी पण पराजय पामे छे (४). आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक साधु प्रथम परीपहने जीतीने पछी पण परीपहने जीते छे, कोईक प्रथम जीतीने पछी हारे छे, कोईक प्रथम हारीने पछी जीते छे तेमज कोईक प्रथम पण हारे छे ने पछी पण हारे छे ( ५ ) ( सू० २९२ ) टीकार्थ :- आ सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के कोईएक-गच्छमा रहेल साधु, संप्रकट अगीतार्थनी आगळ मूलगुणो अ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ प्रकटसे व्यादि सू० २९२ ॥ ४१० ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरगुणोमा दोषने सेवे छे, अभिमानथी अथवा कल्पवडे ते संप्रकटप्रतिसेवी, एम बीजो प्रच्छन्न-छानी रीते दोषने सेवे छे ते प्रच्छन्नप्रतिसेवी, श्रीजो तो वस्त्र अने शिष्यादिनी प्राप्तिवडे अथवा शिष्य के आचार्यादि स्वरूपवडे थयो थको जे वृद्धि पामे छे ते प्रत्युत्पननंदी अथवा नंदनं नंदिः- आनंद, लाभवडे आनंद छे जेने ते प्रत्युत्पन्ननंदी, तथा प्राघूर्णक ( प्राहुणा ) साधुनो, शिष्य विगेरेनो अथवा पोतानो, गच्छ विगेरेमांथी नीकळवावडे जे आनंद पाने छे अथवा आनंद छे जेने ते निःसरणनंदी. पाठांतरवडे तो प्रत्युत्पन्न - जैम प्राप्त थयुं तेम सेवे छे, परंतु अनुचितने पृथक् - जुदो करतो नथी ते प्रत्युत्पन्नसेवी छे (१), 'जइत्त' ति० एक सेना शत्रुना बलने जीते छे ते जेत्री परंतु न पराजेत्री - शत्रुना बलथी हारती नथी, बीजी सेना पराजेत्री अर्थात् बीजाथी हार पामनारी छे आधी ज जीतनारी नथी, त्रीजी सेना कारणवशात् उभय स्वभाववाळी छे. चोथी सेना तो जीतवानी इच्छावाळी न होवाथी जीतनारी पण नथी तेम हारनारी पण नथी (२), पुरुष- साधु, परीपहोने जीतनार ते जेता, परंतु तेथी (महावीर परमात्मानी माफक ) पराजय पामनार नहि, आ एक. बीजो कंडरीकवत्, श्रीजो कदाचित् जीतनार अने कदाचित् कर्मवशात् हारनार शैलक राजर्षिवत् तेमज चोथो तो नहिं उत्पन्न थयेल परीपहवाळो ( ३ ), एक बखत शत्रुना बळने जीतीने फरीथी पण जीते छे ते पहेली सेना, बीजी सेना प्रथम जीतीने पछीथी हारे छे, श्रीजी प्रथम हारीने पछीथी जीते छे अने चोथी तो पहेला हारीने पछी पण हारे छे (४), पुरुषना संबंधमां तो परीषद विगेरेमां एवी रीते विचारवा योग्य छे. (सू०२९२) aavat तो कपायो ज जीतवा योग्य छे माटे तेना स्वरूपने देखाडवानी इच्छावाळा सूत्रकार, क्रोधने आगळ देखावामां आवार होवाथी मायादि त्रण कषायना प्रकरणने कहे छे For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) चत्तारि केतणा पं० सं०-सीमूलकेतणते, मेंढविसाणकेतणते, गोमुत्तिकेतणते, अवले ४ स्थान काध्ययने हणितकेतणते, एवामेव चउविधा माया पं० त०-वंसीमूलकेतणासमाणा, जाव अवलेहणितास-8 उद्देशः २ माणा, वंसीमूलकेतणासमाणं मायं अणुपविटे जीवे कालं करेति रइएसु उववज्जति, मेंढविसाण केतनादि केतणासमा मायमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेति तिरिक्खजोणितेसु उववज्जति, गोमुत्ति० जाव सू०२९३ कालं करेति मणुस्सेसु उववज्जति, अवलेहणिता जाव देवेसु उववज्जति । चत्तारि थंभा पं० २०-सेलथंभे अट्रियंभे दारुथंभे, तिणिसलताथंभे, एवामेव चउविधे माणे पं० २०-सेलथंभसमाणे जाव तिणिसलतार्थभसमाणे, सेलथंभसमाणं माणं अणुपविटे जीवे कालं करेति नेरतिएसु उववजति. एवं जाव तिणिसलताथंभसमाणं माणं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति देवेसु उववज्जति । चत्तारि वत्था पं० तं०-किमिरागरत्ते, कद्दमरागरत्ते, खंजणरागरत्ते, हलिद्दरागरत्ते, एवामेव चउविधे लोभे पं० तं०-किमिरागरत्तवत्थसमाणे, कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे, खंजणरागरत्तवत्थसमाणे. हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे,किमिरागरत्तवत्थसमाणंलोभमणुपविटे जीवे कालं करेइ नेरइएसु उववजइ, xn४११॥ XXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXKKOKXXXXXXXXXX xxxxxxxxxxxxxxx तहेव जाव हलिहरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उववजति । सू० २९३ मूलार्थ:-चार प्रकारना केतन-वस्तुनुं वक्रत्व कहेल छे, ते आ प्रमाणे-वासना मूलनु वक्रत्व, घेटाना शीगडानुं वक्रत्व, गायना मूत्रनुं वक्रत्व अने अवलेखनिका अर्थात् वांसनी झीणी छालन वक्रत्व ( वांकपणुं). ए दृष्टांते चार प्रकारनी माया कहेली छे, ते आ प्रमाणे-वांसना मूल समान अत्यंत वक्र (गूढ) माया ते अनंतानुबंधी,घेटाना शींगडा समान वक्र माया ते अप्रत्याख्यानी, | गोमत्रना समान वक्र माया ते प्रत्याख्यानावरणी अने वांसनी झीणी छाल समान वक्र माया ते संज्वलनी.वांसना मूल समान वक्र मायामा प्रविष्ट (प्रवेश करेल) जीव काल करे छे तो नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छे. घेटाना शींगडा समान वक्र मायामां प्रविष्ट जीव काल करे छे तो तियंचयोनिक जीवोमां उत्पन्न थाय छे. गोमूत्र समान वक्र मायामां प्रविष्ट जीव काल करे छे तो मनष्योमा उत्पन्न थाय छे. वांसनी झीणी छाल समान वक्र मायामां प्रविष्ट जीव काल करे छे तो देवोमा उत्पन्न थाय छे. चार प्रकारना स्थंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-शैल-पत्थरनो स्थंभ( थांभलो), अस्थि-हाडकानो थांभलो, दारु-लाकडानो थाभलो अने तिनिशलता-नेतरना थांभलो. ए दृष्टांते चार प्रकारनो मान कहेल छे, ते आ प्रमाणे-शैलस्थंभ समान मान-अत्यंत अक्कड स्वभाववाळो, अस्थिस्थंभ समान मान दुःखे नमावी शकाय एवो, काष्ठस्थंभ समान मान थोडा प्रयासे नमावी शकाय एवो अने नेतरना स्थंभ( छडी) समान मान सहज नमावी शकाय एवो अनुक्रमे अनंतानुबंधी विगेरे जाणी लेवो. शैलस्थंभ समान मानमां प्रविष्ट जीव काल करे छे तो नैरयिकोमा उपजे छे, एवी रीते यावत् नेतरना स्थंभ समान मानमा प्रविष्ट जीव काल करे छे तो देवोमां उपजे छे. चार प्रकारना वस्त्रो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-मनु xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥। ४१२ ॥ ******* www.kobatirth.org प्यना लोहीमां कृमि उपजे छे तेना रसथी मिश्रित रंगवडे जे वस्त्र रंगाय हे ते कृमिरागरक्त, कादवथी खरडायेल वस्त्र ते कर्द्दमरागरक्त, दीपक विगेरेना मेलथी खरडायेल वस्त्र ते खंजनरागरक्त अने हलदरना रंगथी रंगित वस्त्र ते हरिद्रारागरक्त. ए दृष्टांते चार प्रकारनो लोभ कहेल छे, ते आ प्रमाणे- कृमिरागरक्त वस्त्र समान ते अनंतानुबंधी, कई मरागरक्त वस्त्र समान ते अप्रत्याख्यानावरणी, खंजनरागरक्त वस्त्र समान ते प्रत्याख्यानावरणी अने हरिद्रारागरक्त वस्त्र समान ते संज्वलनी लोभ. कृमिरागरक्त वस्त्र समान लोभमां प्रविष्ट जीव काल करे तो नैरयिकोमां उत्पन्न थाय छे यावत् हरिद्रारागरक्त वस्त्र समान लोभमा प्रविष्ट जीव काल करे छे तो देवोमां उत्पन्न थाय छे. ( सू० २९३ ) टीकार्थ:-' चत्तारी 'त्यादि० प्रगट छे, विशेष ए के- केतन - सामान्यथी वक्र. वस्तु अथवा पुष्पना करंडीआ संबंधी मूठमां ग्रहण करवानुं स्थान वांस विगेरेना खंडवाळं ते पण वक्र होय छे, परंतु अहिं सामान्यथी वस्तुनुं वक्रत्व (वांकापर्णु) 'केतन' शब्दवडे ग्रहण कराय छे. तेमां वांसना मूलरूप जे केतन ते वंशीमूलकेतन, एवी रीते सर्वत्र समज. विशेष ए के मेंढविषाण-घेटानुं शींगडुं, गोमूत्रिका तो प्रसिद्ध छे. 'अवलेहणिय'त्ति० छोलायेली वांसनी सळी विगेरेनी जे पातळी छाल ते अवलेखनिका. वंशीमूल विगेरेना वक्रनी समान मायानुं वक्रपथुं तो मायावाळाना असरल - वक्रपणाना भेदथी छे, ते आ प्रमाणे- जेम वनुं मूल अत्यंत गुप्त वक्र छे एवी रीते कोईक जीवनी माया पण अत्यंत गुप्त वक्र छे, एवी रीते अल्प, अल्पतर ( तेथी थोडी ) अने अल्पतम ( तेथी पण थोडी ) असरलतावडे अन्य माया पण विचारवी आ चारे माया अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी अने संज्वलनीरूपे अनुक्रमे जाणवी. अन्य आचार्यो कहे छे के प्रत्येक अनंता For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ केतनादि सू० २९३ ॥ ४१२ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX नुबंधी विगेरे मायामां अत्यंत, अल्प, अल्पतर अने अल्पतम एम चार भेदो होय छे. ते कारणथी ज अनंतानुबंधी मायानो उदय छते पण देवपणुं विगेरे विरुद्ध थतुं नथी अर्थात् देवादिमा उत्पन्न थाय छे. एवी रीते मान विगरे पण जाणवा. वाचनातरमा तो प्रथम क्रोध अने मानना सूत्रो छे. त्यारबाद मायाना सूत्रो छे, तेमां क्रोध सूत्रो "चत्तारि राइओ पन्नत्ताओ तं०पब्वयराई पुढविराई रेणुराई जलराई, एवामेव चउविहे कोहे 'इत्यादि. चार प्रकारनी राइ-फाट कहेली छे, ते आ प्रमाण-पर्वतनी फाट, पृथ्वीनी फाट, रेणु(वालुका)नी फाट अने जलनी रेखा. ए दृष्टांते चार प्रकारनो क्रोध छे इत्यादि मायासूत्रोनी जेम कहेल छे. फलसूत्रोमां तो अनुप्रविष्ट-मायाना उदयमा वर्तनार. शिलाना विकाररूप शैल, ते ज स्थंभ अर्थात् शैलथंभ. एवी रीते बीजा स्तंभो पण जाणवा. विशेष ए के-एक अस्थि (हाड) अने दारु (लाकडं) प्रसिद्ध छे. तिनिश एटले वृक्षविशेषनी लता(कंवा) ते तिनिशलता अर्थात् नेतरनी छडी, ते अत्यंत कोमल होय छे.माननी पण शैलस्तंभ विगेरेथी समानता छे केम के मानवालाने नमनना अभावविशेषथी समानता जाणवी. मान पण अनंतानुबंधी विगेरे क्रमथी जाणवू. तेनुं फलसूत्र स्पष्ट छे. कृमि-रंगमा वृद्धसंप्रदाय आ प्रमाणे छ-मनुष्यादिनां रुधिरने लईने कोईपण योग(वस्तु)वडे संयुक्त करीने भाजनमा राखे छे, त्यारवाद तेमां कृमिओ उत्पन्न थाय छे, ते कीडाओ वायुनी इच्छावाळा थया थका छिद्रोद्वारा नीकळीने समीपमा भ्रमण करता थका मुखथी लाळ मृके छे ते कृमिसूत्र. कहेवाय छे, ते पोताना स्वाभाविक रंगवडे रंगित ज होय छे. बीजाओ कहे छे के-रुधिरमा जे कृमिओ उत्पन्न थाय छे तेओने रुधिरमा ज मसळीने, कचराना भागने दूर करीने, तेना रसमां * अनंतानुबंधी क्रोध विगेरे प्रत्येकना चार चार भेद करवाथी सोळ कषायना चोसठ भेद थाय छे. KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ॥४१३॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशा २ केतनादि र० २९३ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कंईक वस्तुने नाखीने पट्ट (रेशमी) सूत्रने रंगे छे ते नहिं उतारेल रस कृमिराग कहेवाय छे. तेमां कृमिओनो राग-रंगनार रस ते कृमिराग अने तेनावडे रंगायेलुं ते कृमिरागरक्त. एवी रीते सर्वत्र जाणवू. विशेष ए के-कम एटले गायना रस्ता विगेरेनो कादव, खंजन-दीवा विगेरेनो मेल अने हलदर तो प्रसिद्ध छे. लोभनी कृमिराग विगेरेथी रंगायेल वस्त्रनी समानता छे केम के अनंतानुबंधी विगेरे लोभना भेदवाळा जीवोर्नु क्रमवडे दृढ, हीन, हीनतर अने हीनतम अनुबंधपणुं होय छे, ते आ प्रमाणे-कृमिरागवडे रंगायेल वस्त्र बाळवा छतां पण रंगना अनुबंधने छोडे नहिं केम के तेनी भस्म रक्त होय छे. एम जे मरवा छतां पण लोभना अनुबंधने मूकतो नथी तेनो लोभ कृमिरागवडे रंगायेल वस्त्र समान अनंतानुबंधी कहेवाय छे. एम सर्वत्र भावना करवी. फलमत्र स्पष्ट छ, अहिं कषायनी प्ररूपणानी गाथाओ दर्शावे छजलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलयाकट्टिय-सेलत्थंभोवमोमाणो ॥ ९३॥ जलनी रेखा समान, रेतीनी रेखा समान, पृथ्वीनी (फाट ) समान अने पर्वतनी फाट समान संज्वलन विगेरे चार प्रकारनो क्रोध छ नेतरनी लता (छडी) समान, काष्ठना स्तंभ समान, हाडकाना स्तंभ समान अने पत्थरना स्तंभ समान संज्वलन विगेरे चार प्रकारको मान छे. मायाऽवलेहिगोमुत्ति-मेंढसिंगघणवंसिमूलसमा।लोभो हलिदखंजण-कद्दमकिमिरागसारिच्छो॥९॥ चांसनी झीणी छाल समान, गायना मूत्र समान, मेंढाना शींगडा समान अने वांसना मूल समान क्रमशः संज्वलन ॥४१३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx विगेरे चार प्रकारनी माया छे. हळदरना रंग समान, खंजनना गंग-समान, कादवना रंग समान अने कृमिरागना रंग समान क्रमशः संज्वलनादि चार प्रकारनो लोभ छे. पक्खचउमासवच्छर-जावज्जीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारय-गइसाहणहेयवो भणिया॥९५ संज्वलननो कषाय एक पक्ष* पर्यंत रहे छे अने देवनी गतिने साधवानो हेतु छे. प्रत्याख्यानावरण कषाय चार मास पर्यत रहे छे तथा मनुष्यगतिने साधवाना हेतुभृत छे. अप्रत्याख्यानावरण कषाय एक वर्ष पर्यंत रहे छे अने तिर्यचनी गतिने साधवाना हेतभत छे. अनंतानुबंधी कपाय यावत जीव पर्यंत रहे छे अने नरकगति साधवाना कारणभूत छे (मु०२९३) हमणा ज कपायो कह्या अने कषायोवडे संसार थाय छे माटे संसारनुं स्वरूप कहे छे चउविहे संसारे पं०२०-णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे । चउव्विहे आउते पं० तं०णेरतिआउते जाव देवाउते । चउव्विहे भवे पं० सं०-नेरतियभवे जाव देवभवे । सू० २९४, चउ- | विहे आहारे पं० २०-असणे पाणे खाइमे साइमे । चउविहे आहारे पं० २०-उवक्खरसंपन्ने उवक्खडसंपन्ने सभावसंपन्ने परिजुसियसंपन्ने । सू० २९५ * आ स्थितिनुं कथन सामान्यत: व्यवहारनयने आश्रयीने छे निश्चयथी तो बाहुबलि मुनिने संज्वलन मान एक वर्ष पर्यंत रहेक छे तथा प्रसन्नचंद्र राजर्षिने अनंतानुबंधीनो क्रोध अंतर्मुहूर्त मात्र रहेल छे. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४१४॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ संसारादि आहार: सू०२९४ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx मूलार्थ:-चार प्रकारे संसार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-नरकभूमिमां जq तद्प नैरयिकसंसार यावत् देवलोकमां जq ते देवसंसार. चार प्रकारे आयुष्य कहेल छे, ते आ प्रमाणे-नैरयिकर्नु आयुष्य यावत् देवतुं आयुष्य. चार प्रकारे भव कहेल छे, ते आ प्रमाणे-नैरयिकना भवमा उत्पन्न थर्बु ते नैरयिकभव यावत् देवना भवमा उत्पन्न थर्बु ते देवभव. (सू० २९४) चार प्रकारे आहार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अशन, पान, खादिम अने स्वादिम. चार प्रकारे आहार कहेल छे,ते आ प्रमाणे-उपस्करसंपन्न-हिंग विगरेथी संस्कार करायेलो आहार, उपस्कृतसंपन्न-अग्निवडे पकावेलो आहार, स्वभावसंपन्न-पचाव्या सिवाय स्वभावथी सिद्ध द्राक्ष विगरे तेमज परियुषितसंपन्न-रात्रिमा राखवावडे बनेला दहिवडा विगरे आहार. (सू०२९५) टीका:-'चउविहे ' इत्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-संसरवू ते संसार अर्थात् मनुष्यादि पर्यायथी नारकादि प. र्यायमा जवं. नैरयिकने योग्य आयु, नाम अने गोत्रकर्मनो उदय थये छते जीव नैरयिक कहेवाय छे. कर्वा छे के-" नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजइ अनेरइए नेरइएसु उववजह? गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजह नो अनेरइए नेरइएसु उववज इ" इति. हे भगवन् ! नैरयिक, नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छे के अनैरयिक नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छे ? उत्तर हे गौतम ! नैरयिक नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छे परंतु अनैरयिक नैरयिकोमा उत्पन्न थतो नथी. ते हेतुथी नैरयिकर्नु संसरण-उत्पत्तिस्थानमा जर्बु अथवा अन्य अन्य अवस्थाने पामवं ते नैरयिकसंसार. अथवा जीवो जेमां संसरे छे एटले भटके छे ते गतिचतुष्टयरूप संसार. तेमां नैयिकनो अनुभव करातो नरक गति लक्षण अथवा परंपरा वडे चार गतिरूप संसार ते नरयिकसंसार. एम तियंचसंसार विगेरे जाणवा. उक्त स्वरूप संसार आयुष्प छते होय छे, माटे आयुः xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४१४॥ For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailasagarsuri Gyarmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx सूत्र छे. तेमा जे आवे छे अने जाय छे ते आयु:-कर्मविशेष. जेनावडे नरकभवमा प्राणीने धारण कराय छे ते निरयायुः, एम भवसूत्र छे, ते स्पष्ट छे. मात्र भवनं भवः-थq ते भव-उत्पत्ति. नरकने विषे उत्पत्ति ते नरकभव. मनुष्योने विषे अथवा मनुष्योनो भव ते मनुष्यभव. एम तिर्यचभव विगेरेमा पण जाणवू. (सू० २९४) बधा भवाने विषे जीवो आहार करनारा होय छे माटे ये आहारसूत्र कहे छ-तत्र-आहारसूत्रमां, ग्रहण कराय छे ते आहार, खवाय छे ते अशन-चोखा विगेरे, पीवाय छे ते पान सौवीर-कांजी विगेरेनुं पाणी, खावु ए ज प्रयोजन छ जेनुं ते खादिम-विविध फळ विगेरे, स्वाद एज प्रयोजन छ जेनुं ते स्वादिम-तांबूल विगेरे. जेनावडे संस्कार कराय छे ते उपस्कर-हींग विगेरे, तेनाथी युक्त आहार ते उपस्करसंपन्न, संस्कार ते उपस्कृत-पाक, तेनावडे बनेल भात, पूडला विगेरे ते उपस्कृतसंपन्न. पाठांतरवडे नोउपस्करसंपन्न-हींग विगेरेथी संस्कार नहिं करायेल भात विगेरे. स्वाभाविक-पाक विना तैयार थयेल द्राक्ष विगेरे ते स्वभावसंपन्न, 'परिजुसिय'रात्रिमा राखीने बनावेलु ते पर्युषितसंपन्न इडरिकादि (दहिवडा विगरे), कारण के दहिमां रात्रिए पलाळी राखेला खाटा रसवाळा थाय छे अथवा पाला(पराल)मा राखेला आम्रफल विगेरे जाणवा. (सू. २९५) हमणां ज कहेला संसार विगेरे भावो जीवोने होय छे माटे " चउविहे बंधे” इत्यादि० कर्मप्रकरणने 'चत्तारि एका ए हवे पछी आवनारा सूत्रनी पहेलां कहे छ चउविहे बंधे पं० त०-पगतिबंधे ठितीबंधे अणुभावबंधे पदेसबंधे, चउबिहे उवक्कमे पं० त० KoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxKKKKKKKKKK For Private and Personal use only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir x श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४१५। ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ प्रकृतिब न्धादि सू० २९६ xxxx Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx बंधणोवक्कमे उदीरणोवक्कमे उवसमणोवक्कमे विप्परिणामणावकमे । वंधणोवकमे चउबिहे पं० तं०पगतिबंधणोवक्कमे ठितिबंधणोवक्कमे अणुभावबंधणोवक्कमे पदेसबंधणोवकमे। उदीरणोवक्कमे चउविहे पं० तं०-पगतीउदीरणोवक्कमे ठितीउदीरणोवक्कमे अणुभावउदीरणोवक्कमे पदेसउदीरणोवक्कमे । उवसमणीवक्कमे चउबिहे पं० २०-पगतिउवसामणोवक्कमे, ठिति. अणु० पदेसुवसामणोक्कमे । विप्परिणामणोरक्कमे चउबिहे पं० सं०-पगति० ठिती. अणु० पतेसविप्प० । चउविहे अप्पाबहुए पं० तं०-पगतिअप्पाबहुए ठिति० अणु० पतेसप्पाबहुते । चउव्विहे संकमे पं० तं०-पगतिसंकमे ठिती. अणु० पएससंकमे । चउठिवहे णिधत्ते पं० तं०-पगतिणिधत्ते ठिती० अणु० पएसणिधत्ते । चउबिहे णिकायते पं० तं०-पगतिणिकायिते ठिति. अणु० पएसणिकायिते । सू. २९६ मूलार्थ:-चार प्रकारे बंध कहेला छे, ते आ प्रमाणे-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध अने प्रदेशबंध. चार प्रकारे उपक्रम-बंधत्वादिवडे कर्मना परिणामना हेतुभूत जीवनी शक्तिविशेष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ बंधनोपक्रम-जीवना प्रदेशो साथे कर्मपुद्गलनो अन्योअन्य संबंध करवारूप, २ उदयकाळमां नहिं आवेल कर्मने उदयमा लाववारूप उदीरणोपक्रम, ३ उदय, उदीरणादि करणने अयोग्यपणे कर्मने स्थापवारूप उपशमनोपक्रम अने ४ द्रव्य. क्षेत्रादि साधनवडे विविध अवस्थाने पमाडवा KXXXXXXXXX ४॥४१५॥ Xxxxxx For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रूप- विपरिणामनोपक्रम. बंधनोपक्रम चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे- प्रकृतिबंधनोपक्रम, स्थितिबंधनोपक्रम, अनुभागबंधनोपक्रम अने प्रदेशबंधनोपक्रम. उदरिणोपक्रम चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे - प्रकृतिउदीरणोपक्रम, स्थितिउदरिणोपक्रम, अनुभागउदीरणोपक्रम अने प्रदेशउदीरणोपक्रम. उपशमनोपक्रम चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे- प्रकृतिउपशमनोपक्रम, स्थितिउपशमनोपक्रम, अनुभाग उपशमनोपक्रम अने प्रदेशउपशमनोपक्रम. विपरिणामनोपक्रम चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे- प्रकृतिविपरिणामनापक्रम स्थितिविपरिणामनोपक्रम, अनुभागविपरिणाम नोपक्रम अने प्रदेशविपरिणामनोपक्रम. चार प्रकारे अल्पबहुत्व कहेल छे, ते आ प्रमाणे- प्रकृतिविषयक अल्पबहुत्व, स्थितिविषयक अल्पबहुत्व, अनुभागविषयक अल्पबहुत्व अने प्रदेशविषयक अल्पबहुत्व. चार प्रकारे संक्रम कहेल छे, ते आ प्रमाणे- बंधाती स्वजातीय उत्तरप्रकृतिमां बीजी प्रकृतिनुं संक्रमनुं ते प्रकृतिसंक्रम, एम स्थितिनो संक्रम, अनुभाग (रस)नो संक्रम अने प्रदेशनो संक्रम. चार प्रकारे निधत्त ( निधान) नी माफक कर्मने स्थापj (अर्थात् उद्वर्त्तना तथा अपवर्त्तना सिवाय बीजा करण जेमां न प्रवृत्ति शके तेयुं कर) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- प्रकृतिनिधत्त, स्थितिनिधत्त, अनुभागनिधत्त अने प्रदेशनिधत्त. चार प्रकारे निकाचित (जे कर्म भोगव्या सिवाय छूटे ज नहि ) कहेल छे, ते आप्रमाणे- प्रकृतिनिकाचित, स्थितिनिकाचित, अनुभागनिकाचित अने प्रदेशनिकाचित. ( सू० २९६ ) टीकार्थ:- आ सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के जीवने सकपायपणाथी कर्मने योग्य पुद्गलोनुं बंधन-ग्रहण थनुं ते बंध. तेमां कर्मनी प्रकृतिओ (अंशो) ना ज्ञानावरणीय विगेरे आठ भेदो छे. प्रकृतिओनो अथवा सामान्यतः कर्मनो बंध ते प्रकृतिबंध, स्थिति-प्रकृतिओनुं ज अवस्थान - रहेवारूप जघन्यादि भेदवडे भिन्न रूप ते स्थितिनो बंध-उत्पन्न कर ते स्थितिबंध, अनुभाव For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************************** Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४१६॥ ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः२ प्रकृतिव न्धादि सू०२९६ KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx विपाक अर्थात् तीव्र विगेरे भेदविशिष्ट रसरूप, तेनो बंध ते अनुभावबंध, तथा जीवना प्रदेशोने विषे दरेक प्रकृति प्रत्ये चौकस परिमाणवाळा अनंतानंतकर्मप्रदेशोनो बंध-संबंध थवो ते परिमित परिमाणविशिष्ट गोळ विगेरेना मोदकना बंधनी जेम प्रदेशबंध. वृद्ध पुरुषो मोदकना दृष्टांतने आ प्रमाणे वर्णवे छ-जेम चोकस मोदक, लोट, गोळ, घृत अने *कटुभांड(शूठ विगेरे )थी बांध्यो थको कोईक मोदक वायुने हरनार, कोईक पित्तने हरनार अने कोईक कफने हरनार, कोईक मारनार, कोईक बुद्धिनी वृद्धि करनार अने कोईक व्यामोह-भ्रमित करनार होय छे. एवी रीते कोईक कर्मप्रकृति ज्ञानने आवरनार छ, कोईक दर्शनने आवरण करे छे, कोईक सुख दुःख विगरे वेदन( अनुभव )ने उत्पन्न करे छे. वळी जेम ते ज मोदकना नाश न थवारूप स्वभाववडे काळनी मर्यादारूप स्थिति होय छे एवी रीते कर्मनो पण ते स्वभाववडे नियतकाळ पर्यत रहे ते स्थितिबंध छे. जेम ते ज मोदकनो स्निग्ध, मधुर विगेरे एकगुण, द्विगुणादि भाववडे रस होय छे तेम ज कर्मनो पण देशघाति, सर्वघाति, शुभ-अशुभ अने तीव्र-मंदादि अनुभागबंध होय छे तथा जेम ते ज मोदकने लोट विगेरे द्रव्योर्नु परिमाणपणुं छे एवी रीते कर्मना पुद्गलोर्नु पण चोकस प्रमाणरूप प्रदेशबंधपणुं छे.जेनावडे कराय छे ते उपक्रम-बंधनपणुं, उदीरणपणुं विगेरेथी कर्मना परिणमवाना हेतुभूत जीवनी शक्तिविशेषरूप. अन्य स्थले 'उपक्रम ए करण शब्दथी रूढ थयेल छ अथवा उपक्रमण-बंधन विगेरेनो आरंभ ते उपक्रम. कयुं छे के-'स्यादारंभ उपक्रम'.तत्र बंधन-कर्मपुद्गलोना अने जीवना प्रदेशोना परस्पर संबंधरूप छे. आ * शूठथी मिश्रित मोदक वायु हरनार, द्राक्षादिथी पित्त हरनार,पोपर विगेरेथो कफ हरनार,सोमल विगेरेथो मारनार, ब्राह्मी, वज विगेरेथी बुद्धि वधारनार अने धतुराना बोन विगेरेथो मिश्रित भ्रमित करनार बने छे. KKKKKXXKKKKKKKKKKKK ४१६॥ For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ********* ****** www.kobatirth.org संबंध, सूत्रमात्र थी बांधल लोहनी शलाका ( शली )ना संबंधरूप उपमात्राळं जाणवुं तेनो जे उक्तार्थरूप उपाय ते बंधनोपक्रम. अथवा भिन्न भिन्न अवस्थामा रहल कर्म( कार्य )नुं बंधनरूप करवु ते ज उपक्रम अर्थात् वस्तुना संस्काररूप बंधनोपक्रमः केम के वस्तुना संस्कार अने विनाशरूप उपक्रम पण कट्टेल छे, एम ज बीजा उपक्रम संबंधी जाणवुं विशेष ए के कर्मना फलानो काळ नहिं प्राप्त थया छतां [ तेने ] उदयमां लाववो ते उदीरणा कहेवाय. कां छे के जं करणेणोकड्डिय, उदर दिजइ उदीरणा एसा । पगईटिइअनुभाग-प्पएसमूलुत्तरविभागा ॥९६॥ योगसंज्ञक वीर्यवडे कपाय सहित अथवा कपाय रहित जीव, जे परमाणुओबाळु दलिक, उदद्यावलिकानी उपरनी स्थितिथी आपने, उदयावलिकामां प्रवेश करावे ते उदीरणा कहवाय छे. ते प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अने प्रदेश एम चार प्रकारे छे. वळी ते प्रत्येक मूळ अने उत्तरभेदना विभागवाळा छे. तथा उदय, उदीरणाकरण, निधत्तकरण अने निकाचना करणना अयोग्यपणाए कर्मनुं अवस्थापन ते उपशमना कहेवाय. कं छेके - " ओवणवण, संकमणाई च तिन्नि करणाई " उद्वर्त्तन ( स्थिति अने रसनी वृद्धि करवा रूप), अपवर्तन( स्थिति अने रसनी हानि करवारूप ) अने संक्रमण ( परप्रकृतिमां प्रक्षेपवारूप ) आ त्रण करणो (देश) उपशमनामां होय . तथा विविधप्रकार-सता, उदय, क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तन अने अपवर्तन विगेरे स्वरूपवडे कर्मोनुं, पर्वत उपरथी पडती * देशउपशमनानो विशेष विस्तार अत्यारे उपलब्ध नथी, सर्वउपशमनानो विस्तार कम्मपयडोमां प्रसिद्ध छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भीस्थानागपत्र सानुबाद ॥४१७॥ ४स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ प्रकृतिव न्धादि सू० २९६ नदी संबंधी पत्थरना न्याये अथवा द्रब्यक्षेत्रादिके करण(जीवनी शक्तिविशेष)बडे बीजी अवस्थाचे पमाडवं ते विपरिणामना. |x अहिं विपरिणामना बंधनादिने विषे अने तेथी अन्य उदयादिने विषे होय छे ते सामान्यरूप होवाथी विपरिणामना जुदी कही है. बंधनोपक्रम-बंधनकरण चार प्रकारे छे. तेमां प्रकृतिबंधननो उपक्रम जीवनो योगरूप परिणाम छे, केम के योग ए प्रकृतिबंधना हेतु होय छे. स्थितिबंधननो उपक्रम ते ज अर्थात् जीवनो परिणाम छे, परंतु ते कपायरूप परिणाम छ केम के | स्थितिनो कपाय हेत होय छे. अनुभागबंधनना उपक्रम पण परिणाम ज छे परंतु ते कपायरूप छ. प्रदेशबंधनन। उपक्रम तो तेज योगरूप परिणाम छ. का छे के--"जोगा पयडिपएस,ठिइअणुभागं कसायओ कुणई" इति जीव योगथी प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध करे छ तथा कषायथी स्थितिबंध अने अनुभागबंध करे छे." अथवा प्रकृति विगरे बंधनोना [ अंतमहतन्यन अंतःकोटीकोटी सागरोपमरूप] आरंभो ते उपक्रमो.एवी रीते बीजा उपक्रमोमां पण जाणवू. जे मूलप्रकृति अथवा प्रतिमा दलिया प्रत्ये, जीवना बीयविशेषवडे आकपी ने उदयमां प्राप्त कराय छे ते प्रकृतिउदीरणा, जे उदयमां आवेल स्थितिनी साथै वीर्यथी ज उदयमां नहिं आवेल स्थितिने अनुभवाय छे ते स्थितिउदीरणा, उदयमां आवेल रसनी साथे अप्राप्त ( उदयमां नहिं आवेल ) रसने ( वीर्यबडे आकपीने ) जे भोगवाय छे ते अनुभागउदीरणा. तथा उदयमा आवेल नियत परिमाणवाळा कर्मप्रदशांनी साथे अप्राप्त-उदयमां नहिं आवेल नियत परिमाणवाळा कमप्रदेशोनुं जे भोगव ते प्रदेशउदीरणा. " आन्तमहिनौनान्तः कोटीकोटीरूपा। " एबो पाठ आगमोदय ममितिवाळी प्रतमा नयो, बाबुवाको प्रतमा छे, माटे तेटलो भाग काटखूणा कौंसमा लखेल छे. ॥४१७॥ KXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RRRRRRRRRR XxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXX अहिं पण कषाय अने योगरूप परिणाम अथवा आरंभ ए उपक्रम छे. प्रकृति, उपशमन अने उपक्रम विगेरे चारे उपक्रमो. * सामान्य उपशमनरूप उपक्रमना अनुसार जाणवा. प्रकृति विपरिणामना उपक्रम विगेरे पण सामान्य विपरिणामनारूप उपक्रम ना लक्षण अनुसारे समजवा योग्य छे. प्रकृतिपणादिवडे पुद्गलोने परिणामवावडे समर्थ जीवनुं वीर्य ते उपक्रम. 'अप्पावहात्तिक अल्प-थोडं अने बह-घणुते अल्पबहुति बन्नेना भाव ते अल्पबहुत्व छे.अहिं दीर्घपणुं अने असंयुक्तपणुं प्राकृतशैलीने अंग छे.प्रकृतिना विषयवालं अल्पबहत्व,बंधादिनी अपेक्षाए छ. जेम सवेथी थोडी प्रकृतिनो बंधक उपशांतमोहादिक छ,कम के ते एकविध बंधक छे. (एक सातावदनीय बांधे छ) बहुतर-अधिक प्रकृतिबंधक, उपशमक विगेरे सूक्ष्मसंपरायवालो छे केम के ते छ प्रकारना बंधक छे. ( आयष्य अने मोहनीय सिवाय छ ) तेथी अधिक बंधक सप्तविधबंधक अने तेथी अधिक बंधक आटे प्रकृतिने बांधनार छ. स्थितिना विषयवा अल्पब हुत्व आ प्रमाणे-" सवत्थावो संजयस्स जहन्नओ ठिइबंधो, पगंदियवापरपज्जत्तगरम जहन्नओ ठिबंधो असंखेज्जगुणी । " इत्यादि संयत- *नवमा गुणठाणावाला मुनि विगैरनो सर्वथी थोडी जघन्यथी कर्मनी स्थितिनो बंध होय छे तेथी बादरपर्याप्त Xएकेद्रियने जघन्यथी असंख्यातगुणों कर्मनी स्थितिना बंध होय हे इत्यादि." अनुभागर्नु अल्पबहुत्व आ प्रमाण-" सबस्थोवाई अणंतगुणवुड्डिठाणाणि, असंखाजगुणवुडिठाणाणि अ* साधुने पण आठना गुणठाणा सुधी अंत:कोटाकोटी सागरेपमधी ओछे। कर्मबंध नथी. x कमनी स्थिति,ध विगेरेनु स्वरूप पंचम कर्मग्रंथाविधी जाणत्रा येोग्य छे. For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४१८॥ ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ प्रकृतिब न्वादि सू०२९६ Kxxxxxxxxxxxxxxxxoxoxoxoxoxx संखजगुणाणि, जाव अगंतभागवुडिठाणाणि असंखेजगणाणि।" अनंतगुणवृद्धि अनुभागना स्थानो सर्वथी थोडा छ, तेथी असंख्यातगुण वृद्धिना स्थानी असंख्यातगुणा छ यावत् अनंत भाग वृद्धिना स्थानी असंख्यातगुगा छे. " . प्रदेशानु अल्पबहुत्व आप्रमाणे-"अट्ठविहबंधगस्स आउयभागो योवो नामगोयाणं तुल्लो विसंसाहिओ नाणदं. सणावरणंतरायाणं तुल्लो विसेसाहिओ,मोहस्स विसेसाहिओ,वेयणीयस्त विसेसाहिओं" इति आठ मूल प्रकतिना बांधनारने आयुष्यकर्मना प्रदेशनो भाग सर्वथी थोडी होय छे, तेथी नाम अने गोत्र कर्मना प्रदेशनो भाग परस्पर तुल्य अन आयुष्यथी विशेषाधिक होय छे, तेथी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय कर्मना प्रदेशनो भाग परस्पर तुल्य अन नाम, गोत्रथी विशेषाधिक छे. तेथी मोहनीय कर्मना प्रदेशनो भाग विशेषाधिक छ अने तेथी बदनीय कर्मना प्रदेशनो भाग विशेषाधिक छे." जीव जे प्रकृतिने बांधे छ तैना अनुभव ( रस )बडे अन्य प्रकृतिमा रहेल दलिकने बीयविशेषवडे परिणमाबे छे-तद्रूप करे छे ते संक्रम कहवाय छ. कयु छ केसो संकमोत्ति भन्नइ, जब्बंधणपरिणओ पओगेणं। पययंतरत्थदलियं, परिणामइ तदणभावे जं॥९७॥ * कर्मना प्रदेशोनो भाग कमनी स्थितिना अनुसारे छे तो पण वेदनोय कर्मनो स्थिति ओछो हावा छतां सहुथी वधु भाग होवार्नु कारण ए छे के जो वेदनीय कर्म थोडा दलीआवाळ हाय ते। ते विपाक आपी शके नहि. KXXXXXXXXXxxxx XXXXXXXXX Xxxxxx x॥४१८॥ For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie KOXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX कर्मबंधनने करनार जीव, प्रयोगवडे अन्य प्रकृतिना दलिकने बंधाती प्रकृतिमां तेना अनुभावबडे परिणमा छे ते संक्रम कहेवाय छ अर्थात् वर्तमानमां बंधाती प्रकृतिओमा न बंधाती (सतागत) प्रकृतिो, संक्रमती-भळती छती बंधाती प्रकृतिना स्वरूपथी परिणमे छे, जेम बंधाती सातावेदनीयमा नबंधाती असातावेदनीय, तेम बध्यमान ऊंच गोत्रमा अबध्यमान नीच गोत्र परिणमे छे एवी रीते सर्वत्र पतत्ग्रह-पात्रस्वरूप स्वजातीय उत्तरप्रकृतिमां स्वजातीय उत्तरप्रकृति संक्रमे छे-तद्रूप थाय छे. तेमा प्रकृतिनो संक्रम, सामान्य लक्षणथी ज जाणवा योग्य छे. मलप्रकृतिनी अथवा उत्तरप्रकृतिनी स्थितिनुं जे उत्कर्षण- | वृद्धि अथवा अपकर्षण एटले हानि अथवा बीजी प्रकृतिनी स्थितिमा लई जq एम त्रण प्रकारे स्थितिसंक्रम छे. कडुं छे केठिइसंकमोत्ति वुच्चइ, मूलत्तरपगईओ उजाहि ठिई। उव्वट्टिया व ओवट्टियाव, पगई णिया वऽन्नं ॥९॥ भावार्थ उपर मुजब छे. अनुभाग रसनो संक्रम पण एम ज-स्थितिसंक्रमनी जेम छे. कयुं छे केतत्थट्रपयं उव्व-ट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा।अणभागसंकमो एस,अन्नपगइंणिया वावि ॥९९॥ ___ अनुभागर्नु संक्रमना स्वरूपर्नु निर्धारण कहे छे-अनुभागो-उद्वर्तन करायेला रसना अंशो अर्थात् थोडा रसवालाने घणा रसबाला करायेला, अपवर्तन करायेला-घणा रसवालाने थोडा रसवाला करायेला, अथवा बीजी प्रकृतिमां रसना अंशोने लई जई तदूरूपे करायेला, एम ऋण प्रकारे अनुभागसंक्रम छे. Cxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४१९ ॥ www.kobatirth.org जे कर्मद्रव्य ( दलआ ) अन्य प्रकृतिना स्वभाववडे परिणमन कराय छे अर्थात् तद्रूप कराय छे ते प्रदेशसंक्रम छे. कं छे के–“ जं दलियमन्नपराई, णिज्जइ सो संकमो पएसस्स " उक्तार्थ छे. निपातथी भावमां के कर्ममां क्त' प्रत्यय की छते निघत्त पदनुं निधान अने निहित एवं रूप थाय छे. उद्वर्त्तन अने अपवर्तनरूप के करण सिवाय शेप ( उदीरणादि) करणीना अयोग्यपणा कर्म स्थापत्रं अर्थात् उदीरणादि थई शके नहि ते निघत्त कहेवाय छे. नि-अत्यंत काचनं बांध ि अर्थात् बधाय करणना अयोग्यपणाए स्थापवं ते निकाचित कर्म कहेवाय छे बन्नेना समर्थनरूपे कं छे के “ संकमणंपि निहत्तीऍ, णत्थि सेसाणि वत्ति इयरस्स " नित्तपणामां संक्रमण अने उदीरणादिकरण प्रवर्त्तता नथी परंतु उद्वर्त्तन अने अपवर्त्तनकरण होय छे, परन्तु निकाचितमां कोई पण करण होतुं नथी. अथवा पूर्वे बांधल कर्मने अग्निवडे तपाववाथी मळेली लोहनी शलाका ( शळी ) ना संबंधी जेम निधत्त छे अने तपाववाथी मळेली अने घणथी कूटेली लोहनी शलाकाना संबंधना जेवुं जे कर्म ते निकाचित छे अर्थात् निकाचित कर्म भोगच्या सिवाय छूटी शकतुं नथी. निधत्त अने निकाचितने विषे प्रकृति, स्थिति विगेरेनुं विशेष स्वरूप, सामान्य लक्षणने अनुसारे जाणत्रुं. विशेषथी बंधादिना स्वरूपना जिज्ञासुए कर्मप्रकृति ग्रंथ (कम्मपयडी )नी संग्रहणी अनुसरण करवा योग्य छे अर्थात् ते वांचवी. ( सू० २९६ ) अहिं हमण ज अल्पत्वक, तेमां अत्यंत अल्प, एक छे शेष ते अपेक्षाए बहु छे. आवी रीते अल्पबहुत्वने कहेनार एक, कति, सर्व, रूप शब्दोंने चोथा स्थानमा अवतारता थका ' चत्तारि ' इत्यादि० त्रण सूत्रोने कहे छे * तवसा निकाइयंपि तीव्र तपवडे निकाचितकर्मनी पण स्थितिरसनों हानि प्रायः थाय छे, एम अन्यत्र कहेल छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ प्रकृतिब न्वादि ०२९६ ॥४१९ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चत्तारि एका पं० तं० - दविए एकते माउ उक्कते पज्जते इकते संगहे इकते । सू० २९७, चतर कती पं० तं० - दवितकती माउयकती पज्जवकती संगहकती । सू० २९८, चत्तारि सव्वा पं तं० - नामसव्वए ठवणसव्वए आएससव्वते निरवसेससव्वते । सू २९९ मूलार्थ:- चार, एक संख्यावाळा कहेला छे. ते आ प्रमाणे द्रव्य एक, ते सचित्तादि त्रण भेदे छे. उत्पादादि पदरूप मातृकापद एक छे, पर्याय एक ते वर्णादिने आश्रयीने छे अने समुदायने आश्रयीने एक वचनरूप संग्रह एक छे. (०२९७) चार प्रकारे कती - केटला १ एम प्रश्नगर्भित संख्यावाची कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ द्रव्य कंटला छे ? २ मातृकापद केटला छे ? ३ पर्याय केटला छे ? अने ४ संग्रहकती-शाली केटला छे ? इत्यादि. ( सू० २९८ ) चार सर्वपद कहेला ले, ते आ प्रमाणे - १ जे वस्तुनुं ' सर्व ' एवं नाम होय ते नामसर्व, २ आ ' सर्व ' छे एम कल्पना करीने अक्ष विंगरे द्रव्यने स्थाप स्थापनास, ३ अधिक वस्तुने विषे अथवा मुख्य वस्तुने विषे 'सर्व' नो व्यवहार करवो ते आदेशसर्व अने ४ समस्तपण जे कथन कर अर्थात् कोई पण बाकी न रहे, जेम सर्व देवो अनिमेष छे एम कहेनुं ते निरवशेषसर्व. ( सू० २९९ ) टीकार्थ :- स्वार्थिक' क ' प्रत्ययनुं ग्रहण करवाथी एक संख्यावाळा द्रव्य विगेरे एकेक कहेवाय छे, तेमां द्रव्य ज एक ते द्रव्य एक सचित्त विगेरे भेदथी त्रण* प्रकारे छे. ' माउपएक्कए ' ति० मातृकापद एक एटले एक मातृकापद, ते आ * सचित्तादि भेदी द्रव्य त्रण प्रकारे छतां पण द्रव्यत्वरूपे एक न कहेवाय छे. अर्थात् सचित्त द्रव्य कहेवाय छे परंतु सचित्त द्रव्यो एम बहुवचनवडे हेवाता नथी एम दीपिकाकार कहे छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था- प्रमाणे-'उप्पन्ने इ वा' इत्यादि, अहिं दृष्टिवादरूप प्रवचनने विषे समस्त नयना वादने विषे बीजभूत मातृकापदो होय छे, नाङ्गसूत्र ते आ प्रमाणे-" उप्पन्ने इ वा विगए इ वा धुवे इ वा ।" अथवा 'आ' मातृकापदोनी जेम अ, आ विगेरे अक्षरो, समग्र सानुवाद शब्दशास्त्रना अर्थना व्यापारवडे व्यापक होवाथी मातृकापदो छे. पर्याय एकक ते एकपर्याय. पर्याय, विशेष अने धर्म आ ॥४२०॥४ शब्दो एकार्थवाचक छे. ते अनादिष्ट-सामान्यथी वर्णादि अने आदिष्ट-विशेषथी कृष्णादि. संग्रह एकक ते शालि. भावार्थ आ प्रमाणे जाणवो-संग्रह-समुदायने आश्रयीने जेम एकवचनपूर्वक शब्दनी प्रवृत्ति होय छे तेम एक पण शालि(चोखा)नो कण शालि कहेवाय छे अने घणा शालिना दाणा पण शालि कहेवाय छ, केम के लोकमां तेम जोवाय छे. 'दविए एक्कए' क्यांक आ पाठ छे त्या विषयभूत द्रव्यने विषे एकक इत्यादि व्याख्यान करवु. (सू० २९७)' कतीति'-केटला ? अर्थात् प्रश्नपूर्वक * अचोकसनी जेम संख्यावाचक बहवचनांत छे. तेमां द्रव्यो केटला ? ते द्रव्य कति अर्थात केटला द्रव्यो छे ? अथवा द्रव्यना विषयवाळो 'कति' शब्द ते द्रव्यकति, एम ज मातृकापद विगेरेने विषे पण जाणवू. विशेष ए के-संग्रह-शालि, यव अने घउं विगरे. (सू०२९८) नामरूप जे सर्व ते नामसर्व अथवा सचित्त विगेरे बस्तुनो +सर्व एवं जे नाम ते नामसवे अथवा नामवडे सर्व अथवा सर्व एबुं नाम छ जेनुं एव। समासथी नाम शन्दनो पूर्व निपात करेल छ अर्थात् सर्वनामने बदले नाम सर्वे कहेल छ, तथा स्थापनया-आ सर्व छे एवी कल्पनावडे अक्ष विगेरे द्रव्य सर्वे ते स्थापनासर्व छे. अथवा स्थापना ज अक्षादि द्रव्यरूप सर्व ते स्थापनासर्व छे. आदेशनमादेशः-उपचाररूप व्यवहार ते अति घणी वस्तुना विभागमां अथवा x सर्व शब्दनो अक्षर उच्चार करवारूप. + व्यक्किना अपेक्षाए जेम कोई पुरुषर्नु सर्व एबुं नाम होय तेने सर्व शब्दथी बोलाय छे. ४ स्थान. काध्ययने उद्देशः २ एक-ऋति सर्वशब्दस्वरूपम् ० २९७ २९९ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxx ॥४२०॥ For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie oroxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx मुख्य देशविभागमां पण आदेश-उपचार कराय छे. दा. त. विवक्षित (अमुक प्रमाणवाळु ) घृतने जोईने घणु खाधे छते अने थोई शेष होते छते पण बधु घृत खाधुं एम उपचार कराय छे. मुख्यमां पण तेवो उपचार कराय छे. दा. त. गामना मुख्य माणसो बहारगाम गये छते बधा गाम गया एम कहेवाय छे. आ कारणधी आदेशथी सर्व ते आदेशसर्व अर्थात् उपचारसर्व छे. निरवशेषपणाए समस्त ब्यक्तिना आश्रयबडे जे सर्व ते निरवशेषसर्व. दा. त. सर्व देवो अनिमेष छ-मटकुं मारता नथी. कोई पण देव एवा नथी के जे मटकुं मारे. आ सूत्रमा सर्वत्र 'क'कार स्वार्थमां थयेल छे. (सू० २९९) हमणां ज सर्व शब्दनी प्ररूपणा करी तेना प्रस्तावथी सर्व मनुष्यक्षेत्र पर्यत रहेनार पर्वतनी बधी तिरछी दिशाओमां कूटशिखरोने कहे छ माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउदिसिं चत्तारि कूडा पं. तं०-रयणे रतणुच्चते सव्वरयणे रतणसंचये । सू०३००, जंबुद्दीवे २ भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था, जंबद्दीवे २ भरहेरवते इमीसे ओसप्पिणीए दृसमसुसमाए समाए जहण्णपए णं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था, जंबुद्दीवे २ भरहेरवएसु वासेसु आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए चत्तारि सागरोवमकोडा comxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ७ For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥४२१॥ (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx | मसुषमाव कोडीओ कालो भविस्सइ । सृ० ३०१, जंबुद्दीवे २ देवकुरु उत्तरकुरुवजाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ ४ स्थान काध्ययने पं० तं०-हेमवते हेरन्नवते हरिवस्से रम्मगवासे, चत्तारि ववेयडपवता पं० २०-सद्दावई उद्दशः २ वियडावई गंधावई मालवंतपरिताते, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डितीया जाव पलिओवमट्रितीता मानुषोत्तरपरिवसंति तं०-साती पभासे अरुणे पउमे, जंबूद्दीवे २ महाविदेहे वासे चउबिहे पं० तं० कूटाः दुष्पपुव्वविदेहे अवरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा, सव्वेऽवि णं णिसढणीलवंतवासहरपव्वता चत्तारि जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाइं उबेहेणं पं०, जंबूद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं सीताए महानदीए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपव्वया पं० तं०-चित्तकूडे पम्हकूडे सू०३००णलिणकूडे एगसेले, जंबू० मंदर० पुर० सीताए महानदीए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पं० २०-तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मातंजणे, जंबू० मंदर० पञ्चत्थिमेणं सीओदाए महानतीए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपवता पं०२०-अंकावती पम्हावती आसीविसे सुहावहे, जंबू० मंदर. पच्च० सीओदाए महाणतीते उत्तरकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पं० तं०-चंदपव्वते सूरपव्यते X४२१ ॥ XXXKOKKXXXXXXXXXXXXXXXXX दि For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx देवपवते णागपव्वते, जंबू० मंदरस्स पव्वयस्स चउसु विदिसासु चत्तारि वक्वारपव्वया पं० तं०-सोमणसे विज्जुप्पभे गंधमायणे मालवंते, जंबूद्दीवे २ महाविदेहे वासे जहन्नपते चत्तारि अरहंता चत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा, जंबुद्दीवे २ मंदरपव्वते चत्तारि वणा पं० तं०-भद्दसालवणे नंदणवणे सोमणसवणे पंडगवणे, जंबू० मंदरे पव्वए पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पं० तं०-पंडुकंबलसिला अइपंडुकंबलसिला रत्तकंबलसिला अतिरत्तकंबलसिला, मंदरचूलिया णं उवरिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं पन्नत्ता, एवं धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धेवि कालं आदि करेत्ता जाव मंदरचूलियत्ति, एवं जाव पुक्खरवरदीवपञ्चच्छिमद्धे जाव मंदरचूलियत्ति-जंबूद्दीवगआवस्समं तु कालाओ चूलिया जाव । धायइसंडे पुक्खरवरे य पुवावरे पासे ॥१॥ सू० ३०२ मूलार्थ:-मानुषोत्तर पर्वतनी चारे विदिशाओने विषे चार कूट-शिखरो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-रत्नकूट, रत्नोचयकूट, | सर्वरत्नकूट अने रत्नसंचयकूट. (सू० ३००) जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐरवतक्षेत्रने विष अतीत (गई) उत्सार्पिणी * मूल सूत्रमा दिशा शब्न जणावेल छे परंतु पण दश दिशानी अपेक्षाए विदिशाने दिशा कहेवाय छे. Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie Kr भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥४२२॥ काभ्ययने xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx मां सुषमसुषम नामना छठा आरामां चार कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण काळ हतो. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ४ स्थानऐरवतक्षेत्रने विषे आ अवसप्पिणीमा सुषमसुषम नामना पहेला आराने विष चार कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण काळ हतो. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐरवतक्षेत्रने विष आगामी उत्सपिणीमा सुषमसुषम नामना छठा आराने विष चार उद्देशः २ कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण काल थशे. (मू० ३०१) जंबूद्वीप नामना द्वीपमा देवकुरु अने उत्तरकुरुने छोडीने चार अ मानुषोत्तरकर्मभूमिओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष अने रम्यक्वर्ष. चार वृत्त( वाटला )वैताठ्यपर्वत कहेला छे, ते आ प्रमाणे-शब्दापाती, विकटापाती, गंधापाती अने माल्यवंतपर्याय. तेमां चार महद्धिक देवो यावत् पल्योपमनी स्थिति कूटाः दुष्पवाळा वसे छे, ते आ प्रमाणे-स्वाती, प्रभास, अरुण अने पन. जंबूद्वीप नामना द्वीपमां महाविदेह क्षेत्र चार प्रकारनो कहेल मसुषमावछे, ते आ प्रमाणे-पूर्वविदेह, अपर( पश्चिम )विदेह, देवकुरु अने उत्तरकुरु, बधा निषध अने नीलवंत नामे वर्षधर पर्वतो चार पादि सो योजन ऊंचा अने चार सो गाउना ऊंडा कहेला छे. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मेरुपर्वतनी पूर्व दिशाए सीता नामनी महानदीना ४०३००उत्तर किनारे चार वक्षस्कार पर्वतो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-चित्रकूट, पक्ष्मकूट, नलिनकूट अने एकशैल. जंबूद्वीप नामना ३०२ द्वीपमां मेरुपर्वतनी पूर्व दिशाए सीता महानदीना दक्षिण किनारे चार वक्षस्कार पर्वतो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-त्रिकूट, वैश्रमणकूट, अंजन अने मातंजन. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मेरुपर्वतनी पश्चिम दिशाए सीतोदा महानदीना दक्षिण किनारे चार वक्षस्कार पर्वतो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अंकावती, पक्ष्मावती, आशीविष अने सुखावह. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मेरुपर्वतनी * पद्मकूट पण कहेवाय छे. 2॥४रसा RXXUXXXXXXXXX) XXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie EXXXXXXXXXXXXXXXXX) पश्चिम दिशाए सीतोदा महानदीना उत्तर किनारे चार वक्षस्कार पर्वतो कहेला छ, ते आ प्रमाणे-चंद्रपर्वत, सूर्यपर्वत, देवपर्वत अने नागपर्वत. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मेरुपर्वतनी चार विदिशाओने विषे चार वक्षस्कार पर्वतो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन अने माल्यवंत(आने गजदंता पण कहे छे) जंबूद्वीप नामना द्वीपमां महाविदेह क्षेत्रने विष जघन्यपणे चार अहतो, चार चक्रवतीओ, चार बलदेवो अंने चार वासुदेवो उत्पन्न थया छे, उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्न थशे. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मरुपर्वतने विष चार बन कहला छ, ते आ प्रमाण-भद्रशालवन, नंदनवन, सौमनसवन अने पांडकवन, जंबूद्वीपमा मेरुपर्वतने विष पांडकवनमा चार अभिपकशिला ओ (तीर्थकरना जन्मनो अभिषेक करवानी) कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पांडुकंबलX शिला, अतिपाइकंबलशिला, रक्तकंबलशिला अने अतिरक्तकंबलशिला. मेरुपर्वतनी चूलिका उपरना भागमा पहोळाईवडे चार योजननी कहली छ. एवीरीते धातकीखंड द्वीपना पूर्वाद्धने विपे अने पश्चिमाद्वैने विपे पण काळसूत्र बिगरथी आरंभीने अर्थात अतीतकाळ विगरे सूत्रनी शरूआतथी लईने यावत् मेरुपर्वतनी चूलिकाना वर्णन सुधी जंबूद्वीपनी माफक जाणवू. एवी ज रीते यावत् पुष्करवरद्वीपना पूर्वार्द्व अने पश्चिमा मां पण यावत् मेरुपर्वतनी चूलिकाना वर्णन पर्यंत जाणवू. जंबुद्वीपमा अवश्य रहेल वस्तु ' कालसूत्र' थी आरंभीने मेरुपर्वतनी चूलिका पर्यंत जेम कहेल छ तेमज यावत् धातकीखंड द्वीप अने पुष्करवर द्वीपमा पूर्व अने पश्चिम बन्ने पडखाने विष जाणवू. (मू० ३०२) टीकार्थ:-'माणुसुनरस्से' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-' चउदिसि' न्ति. चार दिवाओनो समूह ते चतु| दिश. ते चार दिशाओमां ( अहिं 'दिशिं' आ शब्दमा अनुस्वार प्राकृतशैलीथी थयेल छे.) कूटो-शिखरो, अहिं सूत्रमा XXXXOXOXKOKKKOKXXXXXKOKKOKOKKKOKXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४२३ ॥ www.kobatirth.org दिशानुं ग्रहण कर्ये छते पण विदिशाओमां शिखरो छे एम समजवुं. तेमां अग्निकोण ( खूणा ) मां रत्नकूट छे ते गरुड- सुवर्णकुमार जातीय वेणुदेवनुं निवासस्थान छे. नैऋत्यकोणमां रत्नोचयकूट वेलंब नामना वायुकुमारेंद्र संबंधी निवासस्थान छे, वे लंबसुखद एवं ते इंद्रनुं बीजुं नाम छे. ईशानकोणमां वेणुदालि नामना सुपर्णकुमारेंद्रनुं सर्वरत्नकूट छे तथा वायव्यकोणमां प्रभंजन नामना वायुकुमारेंद्रनुं रत्नसंचयकूट, अपरनाम प्रभंजन छे. एवी रीते आ व्याख्या द्वीपसागरप्रज्ञप्ति सूत्रनी संग्रहणी अनुसार जणावेल छे. तेमां क छे के दक्खिणपुत्रेण रयण-कूडं गरुलस्स वेणुदेवस्स । सव्वरयणं च पुव्वु-तरेण तं वेणुदालिस्स ॥१००॥ उक्तार्थ है. रयणस्स अवरपासे, तिन्निवि समइच्छिऊण कूडाई । कूडं वेलंबस्स उ, विलंब सुहयं सया होइ ॥ १०१ ॥ रत्नकूटना पश्चिम भागमां दक्षिण दिशामा रहेला त्रण कूटोने उल्लंघीने वेलंब नामना दक्षिण दिशाना स्वामी वायुकुमारेंद्रनुं वेलंबसुखद नामनुं कूट छे, त्यां तेनी राजधानी छे. सव्वरयणस्स अवरेण, तिन्नि समइच्छिऊण कूडाई । कूडं पभंजणस्स उ, पभंजणं आढियं होइ ॥ १०२ ॥ सर्वरत्नकूटना पश्चिम भागवडे उत्तर दिशाना त्रण कूटने उल्लंघीने उत्तर दिशाना स्वामी प्रभंजन नामना वायुकुमारेंद्रनुं प्रभंजन नामनुं कूट ऋद्धिवाळु छे, त्यां तेनी राजधानी छे. अहिं चार स्थानना अनुरोधथी मात्र चार कूटो कहेला छे, नहिंतर For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ मानुषोत्तर कूटाः दुष्ष मसुषमात्र र्षादि सू० ३०० ३०२ ।।। ४२३ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx बीजा पण बार कूटो छे. पूर्व, दक्षिण. पश्चिम अने उत्तर दिशामा त्रण त्रण कूटो छे अने ते बारे कूटो एकेक देववडे अधिष्ठित छे. कडुं छे के-- पुवेण तिन्नि कुडा, दाहिणओ तिन्नि तिन्नि अवरेणं। उत्तरओ तिन्नि भवे. चउद्दिसिं माणुसनगस्स ॥१०॥ उक्तार्थ छे (मू० ३००) अनंतर मानुषोत्तर पर्वतमा शिखररूप द्रव्यो कह्या, हवे तेनावडे अबरायेला क्षेत्ररूप द्रव्योर्नु चतुःस्थानकना अवतारने 'जंबूद्दीवेत्यादिना 'जंबूद्वीपमां भरत ऐरवत क्षेत्रने विषे इत्यादिथी आरंभीने 'चत्तारि मंदरचूलियाओ' (धातकीखंडना बे अने पुष्करद्वीपना बे मकी कुल चार ) मेरुपर्वत उपर चार चूलिकाओ छे ते अंत्य (छेवटना) ग्रंथवडे कहे छे. आ वर्णन स्पष्ट छे. विशेष ए के-चित्रकूट विगैरे सोळ वक्षस्कार पर्वतोनुं स्वरूप आ प्रमाणे छ| पंचसए बाणउए, सोलस यसहस्सदोकलाओ या विजया१वक्खारं २तर-नईण ३ तह वणमुहायामो १ विजयो, २ वक्षस्कार पर्वतो, ३ अंतरनदीओ अने ४ सीता तथा सीतोदा नदीना बन्न पडख रहेला बनमुखोनो आयाम (लंबाई ) सोळ हजार पांचसो वाणु योजन अने ये कला १६५९२६२ छे. जत्तो वासहरगिरी, तत्तो जोयणसयं समवगाढा। चत्तारि जोयणसए, उविद्धा सव्वरयणमया ॥१०५॥ जत्तो पुण सलिलाओ, तत्तो पंचसयगाउउव्वेहो। पंचेव जोयणसए, उविद्धा आसखंधणिमा ॥१०६॥ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx (KXxxxxx For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था बधा वक्षस्कार पर्वतो रत्नमय छे अने ते जे दिशाए निषध अने नीलवंत नामना वर्षधर पर्वत छे ते दिशाए-तेनी पासे नाङ्गसूत्र एक सो योजन भूमिमां ऊंटा अन चार सो योजन ऊंचा छे. त्यांथी मात्रायडे वृद्धि पामता जे दिशाए सीता अने सीतोदा नदी सानुवाद छे ते दिशाए-तनी पासे पांच सो गाउ (सवासो योजन) भूमिमां ऊंड। अने पांच सो योजन ऊंचा छे. आ हेतुथी ज अश्वना स्कंध सरखा आकारबडे रहेल छे. ए विजयादिनी पहोळाई नीचे प्रमाणे छे॥ ४२४॥ विजयाणं विक्खंभो, बावीससयाई तेरसहियाई पंचसए वक्खारा, पणुवीससयं च सलिलाओ । १०७।। बधा विजयामा प्रत्यकनो विष्कम (पहोळाई) बे हजार बसो अन किंचित् न्यून तेर योजन छे. वक्षस्कार पर्वतोनी पहोळाई पांच सो योजन छ अन अंतरनदीओनी पहोळाई सवा सो योजन छे. 'पचंते -जे जणाय छे ते पद-संख्यास्थान, ते अनेक प्रकारे छ माटे जघन्य-सर्वथी हीनपद ते जघन्यपद. तेमा विचार कये छते अवश्य भाववडे अहंत विगेरे चार होय छे अर्थात् ओछामा ओछा चार होय ज. मेरुपर्वतनी भूमिमां-सपाटीमां भद्रशाल वन छे. तेनी प्रथम मखलामां नंदनवन अने बीजी मेखलामा सौमनसबन छ अन शिखर उपर पंड कवन छे. अहिं आ संबंधी गाथा जणावे छे* बावीससहस्साइं, पुव्वावरमेरुभद्दसालवणं। अड्डाइजसया उण, दाहिणपासे य उत्तरओ ॥ १०८॥ | मेरुपर्वतने वलयाकारे वीटी रहेल भद्रशालवन, पूर्व अने पश्चिम दिशाए (प्रत्येक दिशामां) बावीश हजार योजन लांबो छे अने दक्षिण तथा उत्तरदिशाए. (प्रत्येक दिशामा ) अढीसो योजन पहोळो छे. Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ मानुषोत्तरकूटाः दुष्ष| मसुषमाव दि सू० ३००___३०२ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥ ४२४॥ For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पंच जोयणसए, उ तूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरुं, परिक्खिवित्ता ठियं रम्मं ॥ १०९ ॥ मेरुना समभूतलथी पांच सौ योजन ऊंचे जईए, त्यां दरेक दिशाए पांच सो योजननी पहोळाईवाळं नंदनवन, सुमेरुने चोतरफ वींटीने रमणीकपणाए रहेल छे अर्थात् त्यां अनेक मणिमयकूट, बावडी, मंडप विगेरे छे. वाससिहरसाई, पंचेव सयाइं नंदणवणाओ । उड्डुं गंतूण वणं, सोमणसं नंदणसरिच्छं ॥ ११० ॥ नंदनवनथी साडीबासठ हजार योजन जईए त्यां नंदनवनना जेवं सौमनस नामनुं वन छे, ते पण मेरुने चोतरफ वींटीने दरेक पडखे पांच सो योजननी पहोळाइवालं अने मनोहर छे. सोमणसाओ तीसं, छच्च सहस्से विलग्गिऊण गिरिं । विमलजलकुंडगहणं, हवइ वणं पंडगं सिहरे । १११। सौमनस नामना बनथी उपर छत्रीस हजार योजन जईए त्यां मेरुपर्वतना शिखर पर पंडकवन छे, तेमां निर्मळ अने अगाध जळथी भरेला घणा कुंडो छे. चत्तारि जोयणसया, चउणउया चक्कवालओ रुंं । इगतीस जोयणसया, बावट्ठी परिरओ तस्स ॥ १९२॥ मेरुना शिखरनी चौतरफ वींटायेलं पंडकवन, प्रत्येक दिशाए चार सो चोराणुं योजन विस्तारवाळं छे अने तेनी एकत्रीससो बासठ योजननी परिध है. तीर्थकरोना अभिषेक माटेनी शिलाओ ते अभिषेकशिलाओ, चूलिकानी पूर्व, दक्षिण, पश्चिम अने उत्तर दिशामां क्रमशः जाणवी. ' उवरिं ' ति० अग्रभागमां विक्खंभेणं' ति० विस्तारखडे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४२५॥४ अन्तर xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अर्थात् ते शिलाओ आगळना भागमा विष्कंभ( लंबाई )वाळी छे. जेम 'जंबुद्दीव दीव भरहरवएसु वाससु' ४ स्थानइत्यादि सूत्रोवंडे कालमान विगरेथी आरंभीने चूलिका पर्यंत कहेल छे, एवी जरीते धातकीखंडना पूर्वाद्ध अने पश्चिमा मां पण काध्ययने कहेवा योग्य छे, एक मेरुना संबंधवाळी वक्तव्यतानुं अन्य चार मेरुने विषे समानपणुं छे ते ज हकीकतने सूत्रकार कहे छे. उद्देशः २ 'एव 'मित्यादि. आ वर्णनरूप अतिदेशने संग्रहगाथावडे कहे छे 'जंबृद्दीवे' त्यादि. जंबूद्वीपर्नु आ वर्णन ते द्वीपद्वाराणि जंबुद्वीपक, अथवा जंबूद्वीप प्रत्ये प्राप्त थाय छे ते जंबूद्वीपग, क्यांक एवो पाठ छ के जंबुद्वीपे यत्'-जंबूद्वीपमा जे वर्णन, अवश्यभावीपणाथी अथवा कहेवा योग्य होवाथी आवश्यक, ते जंबूद्वीपकावश्यक अथवा जंबुद्वीपगावश्यक. द्वीपाः पावस्तुजातं-वस्तुनो प्रकार ( अहिं 'तु' शब्द पूरण अर्थमां छे.) कयुं आदि सूत्र अने अंत्य सूत्र कयुं ? माटे सूत्रकार कहे छे-सुपमसुपमा लक्षण काळ ' मूत्र' थी आरंभीने यावत् मेरुनी चूलिका पर्यंत जे वर्णन (जंबूद्वीप संबंधी ) कयु छ ते तालकवर्णन धातकखिंडमां अने पुष्करवरद्वीपमा जे पूर्व अने पश्चिम बे विभाग छे ते बन्ने द्वीपना प्रत्येक पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमां लशाः घातअथवा पूर्वार्ध अने पश्चिमार्ध खंडना क्षेत्रोमा अन्यूनाधिक अर्थात् समान जाणवू. (सू० ३०२) कीविष्कजंब्रद्वीवस्स णं दीवस्स चत्तारि दारा पं०२०-विजये वेजयंते जयंते अपराजिते, ते णं दारा भादि सू० चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतितं चेव पवसेणं पं०-तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलि ३०३ओवमट्रितीता परिवसंति विजते वेजयंते जयंते जपराजिते । सू०३०३, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्व X४२५॥ XXXXXXX KXXXxx For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि २ जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं० - एगूरूयदीवे आभासियदीवे वेसाणितदीवे मंगोलियदीवे, तेसु णंदीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं०- एगूरूता आभासिता वेसाणिता गंगोलिया, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं चत्तारि २ जोयणसयाद्दं ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं० - हयकन्नदीवे गयकन्नदीवे गोकन्नदीवे संकुलिकन्नदीवे, तेसु णं दी सु चविधा मणुस्सा परिवसंति तं० - हयकन्ना गयकन्ना गोकन्ना संकुलिकन्ना, तेसिणं दीवाणं चउ विदिसासु लवणसमुद्द पंत्र २ जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं०-आयंसमुहदीवे मेंढमुहदीवे अओमुहदीवे गोमुहदीवे, तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा भाणियव्त्रा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्दे छ छ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं०-आसमुहदीवे हत्थिमुहदीवे सीहमुहदीवे वग्घमुहदीवे, तेसु णं दीवेसु मणुया भाणियव्वा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाता For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Nadhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४२६॥ एत्थणं चत्तारि अंतरदीवा पं० त०-आसकन्नदीवे हथिकन्नदीवे अकन्नदीवे कनपाउरणदीवे, तेसु णं दीवेसु मणुया भाणियव्वा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमदं अटूटू जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-उक्कामुहदीवे मेहमुहदीवे विज्जुमूहदीवे विज्जुदंतदीवे, तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई णव णव जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-घणदंतदीवे लट्ठदंतदीवे गूढदंतरीवे सुद्धदंतदीवे, तेसु णं दीवेसु चउठिवहा मणुस्सा परिवसंति तं०-घणदंता लट्ठदंता गृढदंता सुद्धदंता, जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि तिन्नि जोयणसयाइंओगाहेत्ता एत्थणं चत्तारि अंतरदीवा पं० २०-एगूरूयदीवे सेसं तदेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सुद्धदंता । सू०३०४. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेतितंताओ चउदिसिं लवणसमुह पंचाणउइ जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ णं महतिमहालता महालंजरसंठाणसंठिता चत्तारि महापायाला पं०२०-चलतामुहे केउते जूवए ईसरे, एत्थणं चत्तारि देवा Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरदीपाः पा तालकलशा धात कीविष्कं| भादि सू० 10 OXxxxxxxxxxxxxxx ४॥४२६॥ For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx महिड्डिया जाव पलिओवमतिद्विता परिवसंति, तं०-काले महाकाले वेलंबे पभंजणे, जंब्रीवस्स कं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेतितंताओ चउद्दिसिं लवणसमुदं बायालीसं २ जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चउण्हं वेलंधर नागराईणं चत्तारि आवासपव्वता पं० तं०-गोधूमे उदयभासे संखे दगसीमे, तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति तं०-गोथभे सिवए संखे मणोसिलाते, जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स वाहिरिल्लाओ वेइयंताओ चउसु विदिसासु लवणसमुदं बायालीसं २ जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चउण्हं अणुवेलंधरणागरातीणं चत्तारि आवासपव्वता पं० तं०-कक्कोडए विजुप्पभे केलासे अरुणप्पभे, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति, तं०-कक्कोडए कद्दमए केलासे अरुणप्पभे, लवणे णं समुद्दे णं चत्तारि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, चत्तार सूरिता तर्विसु वा तवंति वा तविस्संति वा, चत्तारि कत्तियाओ जाव चत्तारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि अंगारा Xxxxxxxxxxxxxxxxxxx) * प्रत्यंतरमाणागरायाणं ' एबो पण पाठ छे. For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था- X| जाव चत्तारि भावकेऊ, लवणस्स णं समुदस्स चत्तारि दारा पं० त०-विजए। विजयंते जयंते अप ४ स्थाननाङ्गसूत्र राजिते, ते णं दारा णं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतितं चेव पवेसेणं पं0-तत्थ णं चत्तारि काध्ययने सानुवाद देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति त०-विजए वेजयंते जयंते अपराजिए । सू. उद्देशः २ ॥ ४२७॥ द्वीपद्वाराणि ३०५, धायइसंडे दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पं०, जंबुद्दीवस्स णं अन्तरदीवस्स बहिया चत्तारि भरहाई चत्तारि एरवयाई, एवं जहा सद्दद्देसते तहेव निरवसेसं भाणि ४द्वीपाः पायव्वं जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मंदरचूलिआओ । सू० ३०६ तालकमूलार्थ:-जंबूद्वीप नामना द्वीपना चार द्वारो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित. ते |लशाःधातदरवाजा चार योजनना पहोळा छ अने प्रवेशमार्ग पण चार योजननो छे (आठ योजन ऊंचा छे), त्यां चार महर्दिक कीविष्कयावत् एक पल्योपमनी स्थितिवाळा देवो वसे छे, ते विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित नामना छे. (सू. ३०३ ) भादि सू० जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए चुल्लहिमवंत नामना वर्षधर पर्वतनी चारे विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमां ३०३त्रण सो त्रण सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वपिो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एकोरुकद्वीप, आभाषिकद्वीप, वैषाणिकद्वीप अने लांगुलिकद्वीप. ते द्वीपोमा चार प्रकारना मनुष्यो वसे छे, ते आ प्रमाणे-एकोरुको, आभाषिको, वैषाणिको अने | ॥४२७॥ KKKKKKROXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) XX XxxxxxxXXXXXXXXXXKOKKKKK For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OoxoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxoKOMOK) | लांगुलिको. ते पूर्वोक्त द्वीपोथी चार विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमा चार सो चार सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपोछे, ते आ प्रमाणे-हयकर्णद्वीप, गजकर्णद्वीप, गोकर्णद्वीप अने शकुलीकणद्वीप. ते द्वीपोमा चार प्रकारना मनुष्यो वसे छे, ते आ प्रमाणे-हयकों, गजकर्णो, गोकों अने शष्कुलीको. ते द्वीपोथी आगळ चार विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमां पांच सो पांच सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपो छे, ते आ प्रमाणे-आदर्शमुखद्वीप, मेंढकमुखद्वीप, अयोमुखद्वीप अने गोमुखद्वीप. ते द्वीपोने विषे चार प्रकारना मनुष्यो द्वीपना नाम प्रमाणे कहेवा. ते द्वीपोथी आगळ चार विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमा छ सो छ सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपो छे, ते आ प्रमाणे-अश्वमुखद्वीप, हस्तिमुखद्वीप, सिंहमुखद्वीप अने व्याघ्र(वाघ)एखद्वीप. ते द्वीपोने विषे चार प्रकारना मनुष्यो द्वीपना नाम प्रमाणे कहेवा. ते द्वीपोथी आगळ चार विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमा सात सो सात सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अश्वकर्णद्वीप, हस्तिकर्णद्वीप, अक द्वीप अने कर्णप्रावरणद्वीप. ते द्वीपोने विषे ते द्वीपोना नाम प्रमाणे मनुष्यो कहेवा. ते द्वीपोथी आगळ चार विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमा आठ सो आठ सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-उल्कामुखद्वीप, मेघमुखद्वीप. विद्युन्मुखद्वीप अने विद्युइंतद्वीप. ते द्वीपोने विषे द्वीपोना नाम प्रमाणे मनुष्यो कहेवा. ते द्वीपोथी आगळ चार विदिशाओने विष लवणसमुद्रमा नव सो नब सो योजन अंदर जईए त्यां चार अंतरद्वीपो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-घनदंतद्वीप, लष्टदंतद्वीप, गूढदंतद्वीप अने शुद्धदंतद्वीप. ते द्वीपोने विषे चार प्रकारना मनुष्यो बसे छे, ते आ प्रमाणे-घनदंतो, लष्टदंतो, गूढदंतो अने शुद्धदंतो. जंबूद्वीप नामना द्वीपमां मेरुपर्वतनी उत्तर दिशाए शिखरी नामना वर्षधर पर्वतनी चारे विदिशाओने OXXXOXOKKOKOKOKOKXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४२८॥ ४ स्थान काध्ययने उदेशः २ xद्वीपद्वाराणि अन्तरद्वीपाः पा विषे लवणसमुद्रमा त्रण सो त्रण सो योजन अंदर जईए त्यां अंतरद्वीपो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एकोषकद्वीप, बाकी बधुं तेमज कहेवु यावत् शुद्धदंत नामना मनुष्यो वसे छ अर्थात् पेलाना अठ्यावीश अंतरद्वीपोना नामो कद्या ते ज नामो अने वर्णन पण ते प्रमाणे ज जाणवू. (सू० ३०४) जंबूद्वीप नामना द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथी चार दिशाओने विषे लवणसमुद्रमा पंचाणु हजार योजन उल्लंघी जईए त्यां अत्यंत मोटा अलंजर-उदकना कुंभ जेबा आकारखडे रहेला चार महापातालकलशो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पूर्व दिशामा वडवामुख, दक्षिण दिशामां केतुक, पश्चिम दिशामां यूपक अने उत्तर दिशामां ईश्वर छे, त्यां महर्दिक यावत् पल्पोपमनी स्थितिवाळा चार देवो वसे छे, ते आ प्रमाणे-काल, महाकाल, वेलंब अने प्रभंजन. जंबूद्वीप नामना द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथी चारे दिशाओने विषे लपणसमुद्रमा बेतालीश बेतालीश हजार योजन उल्लंबीने जईए त्यां चार वेलंधर-समुदनी वेल(शिखा )ने धरनारा नागकुमार जातीय प्रधान देवोना चार आवासपर्वती कहेला छे, ते आ प्रमाणे-गोस्तूप, उदकभास, शंख अने उदकसीम. त्यां चार देवो महर्द्धिक यावत् पल्योपमनी स्थितियाळा वसे छे, ते आ प्रमाणे-गोस्तूप, शिवक, शंख अने मनःशिल. जंबूद्वीप नामना द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथ। ईशानादि चारे विदिशाओने विषे लवणसमुद्रमां बेतालीश बेतालीश हजार योजन उल्लंघीने जईए त्यां चार अनुवेलंधर नागकुमार देवोना आवासपर्वतो छ, ते आ प्रमाणे-कर्कोटक, विद्युत्प्रभ, कैलास अने अरुगप्रभ. त्यां चार महदिक देवो यावत् पल्पोपमनी स्थितिवाळा वसे छे, ते आ प्रमाणे-कर्कोटक, कईम, कैलास अने अरुणप्रभ. लवणसमुद्रने विपे चार चंद्रो भूतकाले प्रकाश्या, वर्तमानमा प्रकाशे छे अने भविष्यमा प्रकाश करशे. चार सूर्यो तप्या छ, तपे छे अने तपशे. कृतिका नक्षत्रो चार छ यावत् अख्यावीशमो नक्षत्र तालक लशा धात कीविष्क|भादि सू० XXXXXX KKKXXXXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ३०३ ॥४२८॥ For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXKK) भरणी पर्यंत दरेक चार चार नक्षत्रो छे. कृतिका नक्षत्रनो देव अग्नि छ यावत् भरणी नक्षत्रनो देव यम छ, एम दरेक नक्षत्रना चार चार देवो छे. चार अंगारक (मंगल) ग्रहो छे यावत् चार भावकेतु छ अर्थात् अध्यासी ग्रहो दरेक चार चार छे. लवणसमुद्रना चार दरवाजा कहला छे, ते आ प्रमाणे-विजय, वैजयंत, जंयत अने अपराजित. ते दरवाजाओ चार योजन पहोळाईवडे अने चार योजन प्रवेशवडे छे. त्यां चार महर्द्धिक देवो यावत् पल्योपमना स्थितिवाळा बसे छे, ते आ प्रमाणे-विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित. ( स०३०५) धातकीखंडद्वीप, चक्रवाल विष्कम गोळाईना विस्तार)वडे चार लाख योजननो कहेलो छ. जंबूद्वीप नामना द्वीपनी बहार चार भरत अने चार ऐश्वत क्षेत्रो छे. एवी रीते जेम शब्दोदेशक वीजा स्थानकना त्रीजा उदेशकमां कह्यु छे तेम अहिं पण बधुं वर्णन कहे यावत् चार मेरुपर्वतनी चार चूलिका छे. (सू०३०६) टीकार्थः-पूर्वादि चारे दिशाओमा क्रमशः विजयादि द्वारो छे. द्वारनी बे तरफनी शाखनो जे अंतर ते विष्फंभ-बन्ने शाखनी बच्चेनी पहोळाई चार योजननी छे. प्रवेश-जगतीना कोटनी बारशाख-बन्ने बाजुनी भीतनी एकेक कोशनी जाडाई अने आठ योजननी ऊंचाई हे. कथु छ केचउजायणविच्छिन्ना,अट्रेवय जोयगाणि उविद्धा।उभओवि कोसकोसं, कुड्डा बाहल्लओतेसिं॥११३॥ ___ भावार्थ उपर मुजब छे. पलिओवमट्टिईया, सुरगणपरिवारिया सदेवीया। एएस दारनामा, वसंति देवा महिड्डीया ॥११४ ॥ EKXXXXKKKKKKKXXXXXXXXXXXXXXXKKK) For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानासूत्र खानुवाद ॥ ४२९ ॥ www.kobatirth.org आ चार द्वारोमां द्वारना नामवाळा, एक पल्योपमनी स्थितिवाळा, घणा देवोना परिवारवाळा अने देवीओ सहित महर्द्धिक देवो वसे छे. 'चूल्लहिमवंतस्स ' ति० महाहिमवाननी अपेक्षाए नानो हिमवान, पूर्व अने पश्चिमना भागने विषे तेनी दरेकनी वे वे शाखा छे माटे कहे छे-' चउसु विदिसासु ' ईशानकोण विगेरे विदिशाओ मां लवणसमुद्रने त्रण सो त्रण सो योजन उल्लंघीने* जे शाखा (दाढा) रूप विभागो वर्षे हे 'एत्थ'त्ति० आ शाखाविभागाने विषे अंतरे समुद्रना मध्यमां द्वीपो अथवा अंतर - परस्पर विभागप्रधान द्वीपो ते अंतरद्वीपो तेमां ईशानकोणमां एकोरुक नामनो द्वीप त्रण सो योजननो लांबो अने पहाळो छे. एम ज अग्निकोणमां आभाषिक, नैऋतकोणमां वैषाणिक अने वायव्यकोणमां लांगलिक द्वीप छे. समुदायनी अपेक्षाए चार छे, परंतु एक एक विभागमां चार चार नथी. अतः क्रमवडे द्वीपो यांजवा योग्य छे. द्वीपना नामथी पुरुषोना नामो छे. ते पुरुषो तो सर्व अंगोपांगवडे सुंदर अने जोवामां स्वरूपथी मनोहर छे, परंतु एकोरुक विगेरे नथी अर्थात् एक उरुवाळा विगेरे नथी. आ द्वीपोथी ज चारसो योजन उल्लंघीने प्रत्येक विदिशाए चार सो योजनना लांबा पहोळा चार द्वीपो छे. एम ज जे द्वीपोनुं ( बीजा चार द्वीपोनुं ) जेटलं अंतर छे तेटलं तेओनुं लंबाई-पहोळाईनं प्रमाण छे. यावत् चारे विदिशाओना सातमा अंतरद्वीपोनुं नव सो योजन अंतर छे, अने तेटलं ज तेओनुं लंबाई - पोळाईनुं प्रमाण छे. धा मळीने अंतरद्वीपो अख्यावशि छे. आ द्वीपोना मनुष्यो जोडले जन्मे छे. पल्योपमना असंख्यात भागविशिष्ट आयुष्यवाळा ** अवगाह्य' आ पदनुं द्विकर्मकत्व होवाथी कमेमां सप्तमीना अर्थमां द्वितीया छे. अहिं द्विकर्मक धातुगणमां जो के 'शाहू' धातु नथी परंतु द्विकर्मकगण पठित धातुना अर्थना निबंधनथी द्विकर्मक छे. आ चिह्नवाको पाठ बाबुवाळी प्रतिमां छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरद्वीपाः पातालकलशाः धात कीविष्कं भादिः सू० ३०३ ३०६ ।।। ४२९ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxx अने आठ सो धनुष्यना ऊंचा शरीवाळा छे. एरवत क्षेत्रनो विभाग करनार शिखरी नामना पर्वतना पण एमज ईशानकोण विगेरे विदिशाओमा क्रमवडे ए ज पूर्वोक्त नामवाळा अठ्यावीश अंतरद्वीपो छे. अंतरद्वीपना प्रकरण माटे संग्रहगाथाओ जणावे छचुल्लहिमवंत पुवा-वरेण विदिसासु सागरं तिसए। गंतूणंतरदीवा, तिन्नि सए होंति विच्छिन्ना ॥११५॥ भावार्थ उपर जणाव्या प्रमाणे छे. | अउणावन्ननवसए, किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । एगूरुगआभासिय, वेसाणी चेव नंगली ।। ११६ ॥ आ अंतरद्वीपोनी परिधि नव सो ने ओगणपच्चास योजन किंचित् न्यून अने एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक अने लांगूलिक | नामना छे. एएसिंदीवाणं, परओ चत्तारि जोयणसयाई ओगाहिऊण लवणं,सपडिदिसिं च उसयपमाणा ॥११७॥ चत्तारंतरदीवा, हयगयगोकन्नसंकुलीकन्ना । एवं पंचसयाई, छसत्तअट्टे व नव चेव ॥११॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया।चउरो चउरो दीवा, इमेहिंणामेहिणेयव्वा ॥११९॥ आयंसगमेंढमहा, अओमुहा गोमुहा य चउरेते। अस्समुहा हत्थिमुहा,सीहमुहाचेव वग्घमुहा ॥१२०।। तत्तो अअस्सकन्ना,हत्थियकन्ना अकन्न कन्नपाउरणा। उक्कामुहमेहमुहा,विज्जुमुहा विज्जुदंता य॥१२१॥ For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३० ।। www.kobatirth.org घणदंत लट्ठदंता, निगूढदंताय सुद्धदंता य । वासहरे सिहरंमिवि एवं चिप अट्ठवीसावि ।। १२२ ।। आ छ गाथाओ स्पष्ट छे. मूलना अनुवादमां आ वर्णन आवी गयेल छे. अंतरदीवेसु नरा, धणुस अट्ठसिया सया मुइया । पालिंति मिहुणधम्मं, पलस्स असंख भागाऊ ॥ १२३ ॥ अंतरद्वीपमा वसनाग मनुष्यो आठ सो धनुष्यना ऊंचा, सदा आनंदवाळा अर्थात् रोग, शोक विगेरे उपाधिथी रहित, पल्योपमना असंख्यात भागना आयुष्यवाळा तथा युगलिक धर्मने पाळनारा होय छे. चट्ट परिंड - याणि मगुयाणऽवच्चपालणया । अउणासीइं तु दिणा च उत्थ भत्तेण आहारो ॥ १२४॥ ते मनुष्याने पृष्ठकरंडको अर्थात् पांसळीओ चौसठ होय छे. अपत्य- पुत्रपुत्रीना युगलनी पालना ७९ दिवस पर्यंत करे छे अने चतुर्थभक्ते एकांतरे आहार करे छे. (सू० ३०४ ) ' एत्य णं ' ति० मध्यना दश हजार योजनमां महामहांत' एम कहेवाने बदले सिद्धांतनी भाषावडे 'महइमहालया' एम कथं छे. महान् अलिंजर पाणीना कळश वे महालिंजर, तेना जेवा आकारवडे रहेला ते महालिंजरसंस्थानसंस्थिता अर्थात् तेना जेवा आकारवाळा. तेनाथी बीजा नाना कळशनो निषेध करवावडे महांत शब्द कहेल छे. पातालनी जेम अगाध गंभीर होवाथी पाताळो अथवा पाताळनी अंदर रहेल होवाथी पाताळ, महान् एवा पाताळ ते महापाताको, १ वडवामुख, २ केतुक, ३ यूपक अने ४ ईश्वर क्रमशः पूर्वादि चार दिशाओमां छे. आ चार कळशाओ मुखमा अने मूलमां दश हजार योजनना अने मध्यमां तथा ऊंचाईवडे एक लाख योजनना छे. आ कळशाओना For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************* ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरद्वपा: पातालकलशाः धात कीविष्कं भादि सू० ३०३३०६ ॥ ४३० ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ***** www.kobatirth.org उपरना वीजा भागमा मात्र पाणी छे, मध्यना श्रीजा भागमां वायु अने जळ छे तथा मूळ ( तळीआ )ना त्रीजा भागमां फक्त वायु छे. तेमां बसनारा काल विगेरे वायुकुमार जातीय देवो छे. अहिं आ संबंधी गाथाओं दर्शावे छेपणनउइ सहस्साई ओगाहित्ताण चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलंजरसंठाण-संठिया होंति पायाला ॥ लवणसमुद्रमां चारे दिशाओने विषे पंचाणुं हजार योजन उल्लंघीने कलशना आकारे रहेला चार महापातालकलशो हे. वलयामुह केऊए, जूयग तह इस्सरे य बोद्धव्वे । सव्ववइरामयाणं, कुड्डा एएसिं दससइया ॥ १२६ ॥ चलयमुख, केतुक, यूपक अने ईश्वर आ चारे कलशो वधाय वज्रमय के अने तेनी टीकरीओ जाडाईबडे एक हजार योजननी छे. जोयणसहस्सदसगं, मूले उवरिं च होंति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं, तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥१२७॥ मूलमां अने उपर दश हजार योजनना पहोळा छे, मध्यमां लाख योजनना छे अने लाख योजन भूमिमां ऊंडा छे. लिओ मठिया, एए अहिवई सुरा इणमो । कालेय महाकाले, वेलंब पभंजणे चेत्र ॥ १२८ ॥ उक्तार्थ छे. ने पायाला, खुड्डालंजरगसंठिया लवणे। अट्ठसया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्वेवि ॥१२९॥ लवणसमुद्रमां बीजा पण लघुकळशना आकार जेवा नाना पाताळकळशो बधाय मळीने सात हजार आठसो ने चौरासी छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *********************************** Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३१ ॥ www.kobatirth.org जोयणसयविच्छिन्ना, मूलुवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं, दस जोयणिया य सिं कुड्डा ॥ पाताळकलशाओ, मूले- तलियामां अने उपरना भागमां एक सो योजनना पहोळा अने मध्यभाग-पेटाळमां एक हजार योजना पहोळा तथा एक हजार योजन भूमिमां रहेल छे अने तेनी ठीकरी दश योजननी जाडी छे. पायाला विभाग, सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि बोद्धव्वा । हेट्ठिमभागे वाऊ, मज्झे वाऊ य उदयं च ॥ १३१ ॥ उवरिं उदगं भणियं, पढमगबीएसु वाऊसंखुभिओ । वामे उद्गं तेण य, परिवड्डइ जलनिही खुहिओ || परिसंठियंमि पवणे, पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वच्चेइ तेण उदही, परिहायइणुकमेणेवं ॥ १३३ ॥ बधाय पातालकलशांना त्रण त्रण विभाग जाणवा, नीचेना भागमां वायु, मध्यना भागमां वायु तथा पाणी अने उपरना भागमां पाणी, एम जिनेश्वरोए कहेलुं छे. प्रत्येक कलशोना पहेला अने बीजा भागमां बीजा घणा महान् पर्वनो, आमतेम चाले छे, खळभळे छे तथा परिणमे छे. ते पवनोवडे पाणी उडळे छे. तेथी पहेला अने बीजा विभागमां वा खळभळतो थको पाणीने ऊंचे काढे छे, तथा क्षोभायमान थयुं थकुं पाणी वृद्धि पामे छे अने ते वायु शांत थये छते फरीथी पाणी ते ज स्थानमां आवे छे अर्थात् फरीथी पाणी पातालकलशमां प्रवेश करे छे. ते कारणथी क्रमशः समुद्रनी वेल वधे छे अने घटे छे. अहोरात्रमां ने बखत पवन खळभळे छे तेने लईने अहोरात्रमां वे वखत वेल वधे घंटे छे, विशेषथी पूर्णिमादि तिथिओमां वायुनो अतिक्षोभ थवाथी अतिशय बेल बधे छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरद्वीपाः पातालकलशाः धात की विष्कं भादि [सू०३०३३०६ ४३१ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वेला - लवणसमुद्रनी शिखाने अथवा अंतरमां प्रवेश करती अने बहार नीकळती अग्रशिखाने वेलंधर ने अनुवेलंधर देवो धारण करे छे अटकाने छे माटे आ संज्ञा होवाथी ते वेलंधरो, नागराजो - नागकुमारमां प्रधान देवो, ते वेलंधर नागराजाओना आवास- बसवाना पर्वतो पूर्वादि दिशाओमां अनुक्रमे गोस्तूप विगेरे छे. ईशान कोण विगेरे विदिशाओमां वेलंधरोनी पाळ वर्त्तनारा अनु (नाना ) नायकपणावडे नागराजो ते अनुवेलंधर नागराजो. वेलंघरोनी वक्तव्यता आ प्रमाणे छेदसजोयणसहस्सा, लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलसहस्स उच्चा, सहस्समेगं तु ओगाढा ॥ १३४ ॥ लवणसमुद्रनी शिखा, चक्रवाल ( गोळाई ) वडे दश हजार योजननी पहोळी, सोळ हजार योजन ऊंची अने एक हजार योजननी लवणसमुद्रनी उपरनी सपाटीथी भूमिमां ऊंडी छे. देसूणमद्धजोयण, लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । अइरेगं अइरेगं, परिवड्इ हायए वावि ॥ १३५ ॥ आभिंतरियं वेलं, धरेंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीसस इस्सा, दुसत्तरिसइस्स बाहिरियं ॥ १३६ ॥ सट्ठि नागसहस्सा, धरिंति अग्गोदगं समुद्दस्स । वेलंधर आवासा, लवणे य चउद्दिसिं चउरो ॥१३७॥ उपर्युक्त शिखा उपरना भागमां किंचित् न्यून अर्ध्वयोजन अहोरात्रमां बे वखत कमशः विशेष विशेष वधे छे अने घटे छे. लवणसमुद्री अंदरनी वेला अर्थात् जंबूद्वीपनी सन्मुख जती वेलाने नागकुमारना बेंतालीश हजार देवो अटकावे छेने बारी वेलाने अर्थात् धातकीखंड द्वीपनी सन्मुख जती बेलाने बहोंतेर हजार देवो अटकावे छे. साठ हजार For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था सानुवाद ॥ ४३२ ॥ www.kobatirth.org नागकुमार देवो समुद्रनी शिखाना अग्रभागना पाणीने धारण करे हे अर्थात् तेथी उपर वृद्धि पामता जलने अटकावे छे. लवणसमुद्रमां चारे दिशाए बेलंधर देवोनां रहेवाना चार आवासो छे. yoवाइ अणुक्कमसो, गोधुभदगभास संखद्गसीमा । गोथुभ सिवए संखे मणोसिले नागरायाणो ॥१३८॥ अणुवेलंधरवासा, लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडे विज्जुप्पभे, केलासऽरुणप्पभे चैव ॥१३९॥ कक्कोडय कदमए, केलासऽरुणप्पभे य रायाणो । बायालीससहस्से, गंतुं उदहिंमि सव्वेवि ॥ १४०॥ उक्तार्थ छे, मूलानुवादमा अर्थ आवी गयेल छे. चत्तारि जोयणसए, तीसे कोसं च उग्गया भूमिं । सत्तरस जोयणसए, इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥१४९॥ धा गोस्तूप विगेरे आठ पर्वतो, चार सो श्रीश योजन अने एक कोश भूमिमां ऊंडा के अने प्रत्येक सतर सो एकवीश योजन ऊंचा छे. 'पभासिंस 'ति० सौम्यपणुं होवाथी चंद्रोनुं प्रभासन - प्रकाश कधुं अने तीक्ष्ण किरण होवाथी सूर्योनुं तो 'तवइंस - ति० तापन (तप) कां. चंद्रोनी चार संख्या होवाथी तेना परिवारभूत नक्षत्र विगेरेनी चार संख्या ज छे माटे कहे छे केचार कृतिका छे ते नक्षत्रनी अपेक्षाए छे, परंतु तारानी अपेक्षाए चार नथी. एम ज अठ्यावीश नक्षत्रो पण चार चार जाणवा. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *********XXXXXXXXXXXXXXXXXX******** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरद्वीपा पातालक लशाः धातकी विष्कंभादि ० ३०३ ३०६ ॥ ४३२ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OXXXXXXXXXXXXXX कृतिका नक्षत्रनो अग्नि नामनो देव छे यावत् भरणी नक्षत्रनो यम नामनो देव छे (ते दरेक चार चार छे). मंगळ प्रथम ग्रह छे अने भावकेतु अठ्यासीमो ग्रह छे. बाकीचें वर्णन बीजा स्थानकमां जंबूद्वीपना द्वारादि विगैरेनी जेम समुद्रना द्वार विगेरे जाणवा. (सू० ३०५) चक्रवाल-वलयनो विस्तार, जंबूद्वीपथी फरता रहेल धातडीखंड अने पुष्करा द्वीपमां चार भरत अने चार ऐवत क्षेत्र छे. शब्दवडे जणातो उद्देशक ते शब्दोद्देशक अर्थात् बीजा स्थाननो त्रीजो उद्देशो तेनी माफक कहेचु, परंतु बे स्थानना अनुरोधथी त्यां 'दो भरहाई' बे भरत इत्यादि कहेलुं छे, अहिं तो चार भरत विगेरे कहेल छे. (सू० ३०६) __ मनुष्य संबंधी वस्तुओर्नु चतुःस्थानक कह्यु. हवे क्षेत्रना साधर्म्यथी नंदीश्वर द्वीप संबंधी वस्तुओनुं समीपना सूत्रथी चार स्थानकने ' नंदीसरस्स' इत्यादि सूत्रबडे कहे छे. [अथ नन्दीश्वरविचारः] गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वता पं० तं०-पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजणगपव्वए, पञ्चत्थिमिल्ले अंजणगपठवते, उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते ४, ते णं अंजणगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उर्दू उच्चत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उबेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खभेणं तदणंतरं च णं मायाए २ परिहातेमाणा २ उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पण्णत्ता, मूले XXXXXXXXXXXXX* XXXXX For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३३ ॥ www.kobatirth.org इकतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं उपरिं तिन्नि २ जोयणसहस्साइं एगं च छाव जोयणसतं परिवखेत्रेणं, मूले विच्छिन्ना, मज्झे संखेत्ता, उपितणुया गोपुन्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निष्यंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणीया अभिरुवा पडिरूवा, तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरिं बहुसमरमणिज्जभूमिभागा पं० तेसि णं बहुसमरमणिज्जभूमिभागाणं बहुमज्झदेस भागे चारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, ते णं सिध्धाययणा एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णत्ता पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं बावन्तरि जोयणाई उड्डुं उच्चतेणं, तेसिं सिध्धाययणाणं चउदिसिं चत्तारि द्वारा पं० तं - देवदारे असुरदारे णागदारे सुवन्नदारे, तेसु णं दारेसु चउत्रिहा देवा परिवसंति, तं०-देवा असुरा सुवण्णा, सिणं दाराणं पुरतो चत्तारि मुहमंडवा पं२, तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ नत्तारि पेच्छाघर मंडवा पं०, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झदेसभागे चत्ता वइरामया अक्खाडगा पं०, सिणं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणिपेढियातो पं०, तासि णं मणि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देश २ नन्दीश्वरा धिकारः मू० ३०७ ॥ ४३३ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx पेढिताणं उवरिं चत्तारि सीहासणा पन्नत्ता, तेसि णं सीहासणाणं उवरिं चत्तारि विजयसा पन्नता, तेसि णं विजयदूसगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामता अंकुसा पं०-तेसु णं वतिरामतेसु अंकुसेसु चत्तारि कुंभिका मुत्तादामा पं०-ते णं कुंभिका मुत्तादामा पत्तेयं २ अन्नेहिं तदधउच्चत्तपमाणमित्तेहिं चउहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहि, सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपोढताओ पण्णत्ताओ, तासि णं मणिपेढियाणं उरि चत्तारि २ चेतितथूभा पण्णत्ता, तासि णं चेतितथूभाणं पत्तेयं २ चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेढियातो पं०. तासि णं मणिपेढिताणं उवरि चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईतो संपलियंकणिसन्नाओ थूभाभिमुहाओ चिटुंति, तं०-रिसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा, तेसिणं चेतितथूभा णं पुरतो चत्तारि मणिपेढिताओ पं०तासि णंमणिपेदिताणं उवरिं चत्तारि चेतितरुक्खा पं० तेसिणं चेतितरुक्खाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पं०, तासि णं मणिपेढियाणं उरिं चत्तारि महिंदज्झया पं०,तेसिणं महिंदज्झताणं पुरओ चत्तारि गंदातो पुवखरणीओ पं०, तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं २ चउदिसिं xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वरा धिकार मू० ३०७ श्रोस्था- चत्तारि वणसंडा पं० तं०-पुरच्छिमेणं दाहिजेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं-पुवेणं असोगवणं, दाहि xणओ होइ सत्तवण्णवणं । अवरेणं चंपगवणं चूतवणं उत्तरे पासे ॥१॥ तत्थ णं जे से पुरच्छिसानुवाद मिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीतो पं० त०-णंदुत्तरा णंदा ॥ ४३४॥ आणंदा नंदिवद्धणा, ताओ णंदाओ पुक्खरिणीओ एगं जोयणसयसहस्सं आयामेणं पन्नासं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं दस जोयणसताइं उव्वेहेणं, तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेय २ चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो चत्तारि तोरणा पं० तं०पुरच्छिमेणं दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं,तासि णं पुक्खरणीण पत्तेयं २ चउदिसिं चत्तारि वणसंडा पं० तं०-पुरतो दाहिण० पच्च० उत्तरेणं, पुवेणं असोगवणं जाव चूयवणं उत्तरे पासे, तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि दधिमुहगपव्वया पं०, तेणं दधिमुहगपव्वया चउसहूिँ जोयणसहस्साइं उ8 उच्चत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिता दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वर RAKR XXXXXXXXXXXXX KXxxxxxxOKXXXXXXXXXKKKK ॥ ४३४॥ For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx यणामता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं दधिमुहगपव्वताणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भृमिभागा पं०,18 सेसं जहेव अंजणगपब्बताणं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं, जाव चूतवणं उत्तरे पासे, तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणगपवते तस्स णं चउदिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरणीओ पण्णत्ताओ तं०भद्दा विसाला कुमुदा पोंडरिंगिणी, तातो गंदातो पुक्खरणीतो एग जोयणसयसहस्सं सेसं तं चेव जाव दधिमुहगपवता जाव वणसंडा, तत्थ णं जे से पच्चस्थिमिल्ले अंजणगपवते तस्स णं चउहिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीओ पं० तं०-णंदिसेणा अमोहा गोथूभा सुदंसणा. सेसं तं चेव, तहेव दधिमुहगपवता तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा, तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीओ पं० त०-विजया वेजयंती जयंती अपराजिता, तातो णं पुक्खरिणीओ एगं जोयणसयसहस्सं तं चेव पमाणं तहेव दधिमुहगपव्वता तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा, णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चकवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपव्वता पं० २०-उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपठवते दाहिण KKKKKKKKXXXXXXXKKKKKKxx For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३५ ।। www.kobatirth.org पुरच्छिमिले रइकरगपत्रए दाहिणपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते उत्तरपञ्चत्थिमिले रतिकरगपठाए, णं रतिकरगपश्वता दस जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं दस गाउतसताई उव्वेहेणं सव्वत्थ समा झल्लरिसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वरयणामता, अच्छा जाव पडिरूवा, तत्थ णं जे से उत्तरपुरच्छिमिल्लेति तस्स णं चउदिसिं ईसाणस्स देविंदस्त देवरन्नो चउपहमग्गमहिसीणं जंबूद्दीवपाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०-णंदुत्तरा णंदा उत्तरकुरा देवकुरा, कण्हाते कण्हरातीते रामाए राम रक्खियाते, तत्थ णं जे से दाहिणपुरच्छिमिले रतिकरगपव्वते, तस्स णं चउद्दिसिं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो चउपहमग्गमहिसीणं जंबूद्दीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०समणा सोमणसा अच्चिमाली मणोरमा पउमाते सिवाते सतीते अंजू, तत्थ णं जे से दाहिणपञ्च्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तत्थ णं च उद्दिसिं सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबूद्दीपमाणमेत्तातो चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०-भूता भूतवडिँसा गोथूभा सुदंसणा, अमलाते अच्छराते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वराधिकारः सू० ३०७ ।। ४३५ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त्रमिताते रोहिणीते, तत्थ णं जे से उत्तरपञ्च्चत्थिमिले रतिकरगपव्वते तत्थ णं चउदिसिमिसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउपहमग्गमद्दिसीणं जंबूद्दीवप्पमाणमित्तातो चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०रयणा रतणुच्चत्ता सव्वरतणा रतणसंचया, वसूते वसुगुत्ताते वसुमित्ताते वसुंधराए । सू० ३०७ मूलार्थ:-नंदीश्वरवर नामना आठमा द्वीपना चक्रवाल विष्कंभना बहुमध्यदेशभागमां चारे दिशाए चार अंजनक पर्वतो कहेला छे, ते आप्रमाणे- पूर्व दिशानो अंजनक पर्वत, दक्षिण दिशानो अंजनक पर्वत, पश्चिम दिशानो अंजनक पर्वत अने उत्तर दिशानो अंजनक पर्वत. ते चारे अंजनक पर्वतो चोरासी हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन जमीनमां ऊंडा अने मूलमां दश हजार योजन पहोळा छे. त्यारबाद थोडा थोडा प्रमाणथी हीन थता थता उपरना भागमां पहोळाईथी एक हजार योजन कहेला छे. ते चारे पर्वतो मूल( तळिया ) मां एकत्रीश हजार, छ सो वीश योजननी परिधिवाळा छे उपर (शिखर) ना भागमां त्रण हजार, एक सो छास योजननी परिधिवाळा छे. मूलमां विस्तारवाळा, मध्यमां सांकडा अने उपर ओछी पहोळाईवाळा छे. गायना पूंछडाना आकारवडे रहेला छे. बघा अंजन ( श्याम ) रत्नमय छे, स्फटिक जेवा स्वच्छ छे, कोमळ वस्त्र जेवा छे, घूंटेला वस्त्र जेवा छे, घसेल पत्थरनी प्रतिमा जेवा छे, पालीश करायेल पत्थरनी प्रतिमा जेवा छे, रज रहित छे, कठण मल रहित छे, कादव रहित छे, निरावरण शोभावाळा छे, स्वप्रभावाळा छे, किरणो सहित छे, उद्योत सहित छे, मनने आनंद करनारा छे, जोवालायक छे, मनोहर छे, दरेक जोनारने रमणीय लागे तेवा छे. ते अंजनक पर्वतोनी उपर अत्यंत सम अने रमणीय For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४३६॥ oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx भृमिना भागो छे, ते अत्यंत सम अने रमणीय भूमिभागना मध्यदेशभागमा चार सिद्धायतनो कहेला छे. ते सिवायतनो | ४ स्थान एक सो योजन लांबा, पचास योजन पहोळा अने बोतेर योजन ऊर्ध्व (ऊंचपणे) छे. ते सिद्धायतनोनी चारे दिशाए काध्ययने चार दरवाजाओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पूर्वादि दिशाना क्रमथी १ देवद्वार, २ असुरद्वार, ३ नागद्वार अने ४ उद्देशः २ सुपर्णद्वार छे. ते दरवाजाओने विषे चार प्रकारना देवो वसे छे. ते आ प्रमाणे-देवो. असुरो, नागकुमारो अने सुपर्णकुमारो. ४ नन्दीश्वराते दरवाजाओनी आगळ चार मुखमंडप कहेला छे. ते मुखमंडपोनी आगळ चार प्रेक्षाघरमंडप (रंगमंडप) कहेला छे. ते प्रेक्षा ४ा धिकारः घरमंडपोना बहुमध्यदेशभागमा चार, वत्र( हीरा )मय, जोनार लोकोना आसनभूत अखाडाओ कहेला छे. ते वजरत्न ४० ३०७ मय अखाडाओना बहुमध्यदेशभागमा चार मणिमय पीठिकाओ कहेली छे. ते मणिमय पीठिकाओनी उपर चार सिंहासनो कहेला छे. ते सिंहासनोनी उपर चार विजयदृष्य ( वस्त्रो) कहेला छे, ते विजयदृष्योना बहुमध्यदेशभागमा चार वनमय अंकुशो ( आंकडाओ) कहेला छे, ते वजमय अंकुशोमा चार कुंभिकाप्रमाण मोतीनी माळाओ कहेली छे, ते दरेक कुंभिकाप्रमाण मोतीनी माळाओ अर्द्ध प्रमाण ऊंचाईवाळी, बीजी चार अर्द्धकुंभिका प्रमाण मोतीनी माळाओथी चोतरकथी वाटायेली छे. ते प्रेक्षाघरमंडपोनी आगळ चार मणिमय पीठिकाओ कहेली छे, ते मणिमय पीठिकाओनी उपर चार चैत्यस्तूपो कहेला छे, ते प्रत्येक चैत्यस्तूपोनी चारे दिशाओमा चार मणिमय पीठिकाओ कहेली छे, ते मणिमय पीठिकाओनी उपर चार जिनप्रतिमाओ छे, ते सर्व रत्नमय, पर्यकासन एटले पद्मासने बेठेली, स्तूपोनी सन्मुख रहेली छे, ते आ प्रमाणे-ऋषभ, चंद्रानन, वर्द्धमान अने वारिषेण एवा नामवाळी छे. ते चैत्यस्तूपोनी आगळ चार मणिपीठिकाओ छे, ते मणिपीठिकाओ उपर चार चैत्य For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarthang Acharya Shri Kailasagarsuri Gyarmandie DXXXX oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) वृक्षो कहेला छे. ते चैत्यवृक्षोनी आगळ चार मणिपीठिकाओ कहेली छे. ने मणिपीठिकाओनी उपर चार महेंद्र( मोटा इंद्र )ध्वजो कहेला छे. ते महेंद्रध्वजोनी आगळ चार नंदा पुष्करणी (वावडी विशेष ) कहेली छे. ते दरेक पुष्करणीओनी चारे दिशाओने विषे चार बनखंडो कहेला छे. ते आ प्रमाणे-पूर्वनो वनखंड, दक्षिणनो वनखंड, पश्चिमनो वनखंड अने उत्तरनो वनखंड, पूर्वमा अशोकवन, दक्षिणमा सप्तच्छदवन, पश्चिममा चंपकवन अने उत्तरमा आम्रवन छे. तेमा जे पूर्वदिशानो अंजनक पर्वत छे तेनी चारे दिशामा चार नंदा पुष्करणी कहेली छे, ते आ प्रमाणे-नंदोत्तरा, नंदा, आनंदा अने नंदिवर्द्धना. ते नंदा पुष्करणीओ एक लाख योजन लांबी, पचास हजार योजन पहोळी अने एक हजार योजन ऊंडी छे. ते प्रत्येक पुष्करणी ओनी चार दिशाओमा त्रण सोपान प्रतिरूपको छे अर्थात् एक द्वार प्रत्ये नीकळवा अने आववा माटे त्रण दिशानी सन्मुख पगथियानी त्रण पंक्तिओ छे. ते त्रण सोपान प्रतिरूपकोनी आगळ चार तोरणो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पूर्वमा, दक्षिणमां, पश्चिममा अने उत्तरमां. ते प्रत्येक पुष्करणीनी चार दिशाए चार वनखंडो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पूर्वमा, दक्षिणमा, पश्चिममा अने उत्तरमा पूर्वमा अशोकवन यावत् उत्तरमा आम्रवन छे. ते पुष्करणीओना बहुमध्यदेशभागमा चार दधिमुख पर्वतो कहेला छे. ते दधिमुख पर्वतो चारे दिशामा चोसठ हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन जमीनमा ऊडा, सर्वत्र समान, पालाने आकार रहेला, दश हजार योजन पहोळा, एकत्रीश हजार, छ सो नेत्रेवीश योजननी परिधिवाळा छे. वळी सर्व रत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप छे. ते दधिमुख पर्वतोनी उपर बहुसम रमणीयभूमिभागो कहेला छे. बाकीनुं वर्णन जेम अंजनक पर्वतोनुं कयु छे तेमज सघल्लं वर्णन आ दधिमुख पर्वतोनुं पण कहेवू, यावत् आम्रवन उत्तर दिशामां छे. त्यां जे दक्षिण दिशानो अंजनक पर्वत छे तेनी चारे दिशामा चार For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वरा धिकारः सू० ३०७ MAMAKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX नंदापुष्करणीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-भद्रा, विशाला, कुमुदा अने पोंडरकिणी. ते नंदा पुष्करणीओ एक लाख योजन लांबी छे. बाकीचें वर्णन पूर्ववत् जाणवु यावत् दधिमुखपर्वतो यावत् वनखंडो छे. त्यां जे पश्चिम दिशानो अंजनक पर्वत छ तेनी चार दिशामा चार नंदा पुष्करणीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-नंदिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा अने सुदर्शना. बीजं पूर्वनी जेम जाणवू. तेज प्रमाणे दधिमुख पर्वतो, ते ज प्रमाणे सिद्धायतनो अने यावत् वनखंडो छे. त्यां जे उत्तर दिशामां अंजनक पर्वत छे तेनी चार दिशामा चार नंदा पुष्करणी कहेली छे, ते आ प्रमाणे-विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता. ते पुष्करणीओ एक लाख योजन लांबी छ, पहोळाई विगेरे पूर्वोक्त प्रमाणे छे, तेमज दधिमुख पर्वतो, सिद्धायतनो यावत् वनखंडो कहेला छे. नंदीश्वरवर द्वीपना चक्रवाल विष्कंभना बहुमध्यदेशभागमां चार विदिशाओने विषे चार रतिकर पर्वतो कहेला छे, ते आ प्रमाणे| ईशानकोणमां रतिकर पर्वत, अग्निकोणमा रतिकर पर्वत, नैऋतकोणमा रतिकर पर्वत अने वायव्य कोणमा रतिकर पर्वत छे. ते रतिकर पर्वतो एक हजार योजन ऊंचा, एक हजार गाउ जमीनमां ऊंडा, सर्वत्र समान, झालरने आकारे रहेला छे. दश हजार योजनना पहोळा अने एकत्रीश हजार, छ सो त्रेवीश योजननी परिधिवाळा छे. सर्वरत्नमय स्वच्छ यावत् दरेकने जोवालायक छे. त्यांजे ईशानकोणमां रतिकर पर्वत छे तेनी चारे दिशाए ईशानेंद्र, देवना राजानी चार अग्रमहिषीओनी जंबूद्वीप प्रमाण (एक लाख योजननी) चार राजधानीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-नंदुत्तरा, नंदा, उत्तरकुरा अने देवकुरा नामनी छे. ते अनुक्रमे कृष्णा, कृष्णराजी, रामा अने रापरक्षिता नामनी इंद्राणीओ संबंधी छे. त्यां जे अग्निकोणमां रतिकर पर्वत छे तेनी चारे दिशामां शक्र नामना देवेंद्र, देवना राजानी चार अग्रमहिषीओनी जंबूद्वीपना प्रमाण जेवडी चार राजधानीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे kxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXX ॥४३७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie XxKKEKXMOKOMXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx सुमना, सौमनसा, अचिमाली अने मनोरमा नामनी छे. ते अनुक्रमे पद्मा, शिवा, शची अने अंजु नामनी इंद्राणीओ संबंधी छे, त्यां जे नैऋत्य कोणमां रतिकर पर्वत छे तेनी चारे दिशाओमां शक्र नामना देवेंद्र, देवना राजानी चार अग्रमहिषीओनी जंबूद्वीपना प्रमाण जेवडी चार राजधानीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-भृता, भूतावतंसा, गोस्तूपा अने सुदर्शना नामनी छे. ते अनुक्रमे अमला, अप्सरा, नवमिका अने रोहिणी नामनी इंद्राणीओ संबंधी छे. त्यां जे वायव्य कोणमा रतिकर पर्वत छे त्यां। चारे दिशाए ईशानेंद्र, देवना राजानी चार अग्रमहिषीओनी जंबृद्वीपना प्रमाण जेवडी चार राजधानीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणेरत्ना, रत्नोचया, सर्वरत्ना अने रत्नसंचया. ते अनुक्रमे वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्रा अने वसुंधरा नामनी इंद्राणीओनी छे. (सू०३०७) टीकार्थ:-आ सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के जंबू १ लवणे धायइ २, कालोए पुक्खराइ ३ जुयलाई। वारुणि ४ खीर ५ घय ६ इक्खू ७, नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही ॥ १४२॥ १ जंबूद्वीप अने लवणसमुद्र, २ धातकीखंड द्वीप अने कालोदधि, ३ पुष्करवरद्वीपथी आरंभीने ४ वारुणी, ५क्षीर, ६ घृत, ७ इक्षु, ८ नंदीश्वर अने ९ अरुण नामना द्वीप अने समुद्रो छे यावत् स्वयंभूरमण पर्यंत द्वीपना नाम प्रमाणे समुद्रना नाम छे. आ गणना प्रमाणे नंदीश्वर द्वीप आठमो छे. ते ज प्रधान छे, केमके मनुष्यद्वीप सिवाय बीजा द्वीपोनी अपेक्षाए अहिं घणा जिनभवन विगरेना सद्भावने लईने तेनुं प्रधानपणुं छे. तेना चक्रवाल विष्कम( पहोळाई )नुं प्रमाण १६३८४००००० योजन छे. कयुं छे के xxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie श्रीस्थानास्त्र सानुवाद ॥४३८॥४ तेवढे कोडिसयं, चउरासीइं च सयसहस्साइं । नंदीसरवरदीवे, विक्खंभो चक्कवालेणं ॥ १४३॥ ४ स्थानएक अबज, सठ क्रोड अने चोराशी लाख योजन नंदीश्वर द्वीपर्नु चक्रवाल विष्कम छे. काभ्ययने मध्यरूपदेशभाग-देशनो अवयव ते मध्यदेशभाग. ते खास मध्यभाग नहि, प्रदेश विगरेनी चोकस गणनावडे नक्की उद्देशः २ करेल नथी, परंतु प्रायः बहुमध्यदेशभाग छे. अथवा अत्यंतमध्यदेशभाग ते बहुमध्यदेशभाग जाणवो. अहि अंजनक नन्दीश्वरापर्वतो मूल(भूतळ)मा दश हजार योजन पहोला छे एम कड्यु, अने द्वीपसागरप्रज्ञप्तिनी संग्रहणीमां तो कहलुं छे के धिकारः चुलसीति सहस्साई, उविद्धा ओगया सहस्समहे।धरणितले विच्छिन्ना यऊणगाते दससहस्सा॥१४४० ३०७ चोराशी हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन भूमिमां ऊंडा अने कंईक न्यून दश हजार योजनना भूमितलमा पहोळा छे. नव चेव सहस्साइं,पंचेव य होंति जोयणसयाई। अंजणगपव्वयाणं मूलम्मि उ होइ विक्खंभो॥१४५४ ___ अंजनक पर्वतोनुं मूल-जमीनना अंदरना भागरूप कंदमां साडानव हजार योजननी पहीलाई छे. नव चेव सहस्साई,चत्तारि य होंति जोयणसयाई। अंजणगपव्वयाणं धरणियले होइ विक्खंभो॥१४६॥ अंजनक पर्वतोनी भूमितल-सपाटीमां नव हजार ने चार सो योजननी पहोळाई छे. आ मतांतर जाणवो. एवी रीते बीजे स्थले पण छे. ते मतांतरोना कारणो केवलीगम्य छे ‘गोपुच्छसंठाण' त्ति० ॥ ४३८॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxx KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx है| गायनुं पूंछडु, आदिमा स्थूल (जाई) अने अंतमा सूक्ष्म (झीणु) छे तेना जेवा अंजनक पर्वतो पण छे. 'सवंजणमय'त्ति. अंजन-कृष्णरत्न विशेष तन्मय छे. बधा य अनन्यपणावडे अथवा सर्वथा अंजनमय एटले परम कृष्ण(काळा) छे. कयु छे केभिंगंगरुइलकजल-अंजणधाउसरिसा विरायंति।गगणतलमणुलिहंता, अंजणगा पव्वया रम्मा॥१४७॥ ___ काळो भमरो, भेसनुं शींगहुँ, काळो सुरमो तेना जेवा काळा सुंदर अंजनक पर्वतो, गगनतलने जाणे स्पर्श करता होय नहि ? तेम शोभे छे. आकाश अने स्फटिकनी जेम स्वच्छ, 'सण्हा'-कोमळ तंतुथी बनेला वस्त्रनी जेम कोमळ परमाणुना स्कंधथी बनेला, 'लण्हा' घुटेला वस्त्रनी जेम श्लक्ष्ण (लीसा ), तथा तीक्ष्ण शाण( शराण )वडे घसेल पाषाणनी प्रतिमानी जेम घसायेला, सुकुमाल शाणवडे पाषाणनी प्रतिमानी जेम पालीस करायेला अथवा प्रमानिकावडे जेम शुद्ध कराय तेम शुद्ध करायेला, आ कारणथी ज रज रहित होवाथी नीरज (रज वगरना), कठण मलना अभावधी अथवा धोयेला वस्त्रनी जेम निर्मल (मेल वगरना), आर्द्र मल( कादव )ना अभावथी अथवा कलंक रहित होवाथी निष्पंक, 'निकंकडच्छाया' निष्कंकट-निष्कवच अर्थात् आवरण रहित छाया-शोभा छ जे पर्वतोनी ते निष्कंकटछाया अथवा अकलंक शोभावाला, सप्रभा-देवाने आनंद करनार विगेरे प्रभावबाळा अथवा स्वप्रभा-पोताना स्वरूपवडे दीपे छ परंतु बीजाथी नहि एवा, जेथी समिरीया-किरणो सहित, आने लईने ज‘सउज्जोया' उद्योत सहित एटले वस्तुना प्रकाशवडे वर्त्तता, 'पासाईय'त्ति० मनने आह्लाद करनारा, Koxxxxxoxoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३९ ॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वराधिकार (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx दर्शनीय-कोईक नेत्रबडे जोतो थको पम श्रम पामतो नथी, अभिरूप-मनोहर, प्रतिरूप-दरेक जोनारने रमणीय लागे एवा छे. आ (वर्णन ) यावत् शब्दथी संग्रह करेल छ. ते अंजनगिरि पर्वत पर बहुसम-अत्यंत समान रमणीय भूमिभागो छे. तेनी मध्यमां 'सिद्धानि'-शाश्वता अथवा शाश्वती अहेतप्रतिमाओना आयतन-स्थानो ते सिद्धायतनो छे. का छे के| अंजणगपव्वयाणं, सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । अरहंताययणाई, सीहणिसायाइं तुंगाइं ॥१४८ ॥ दरेक अंजनक पर्वतोना शिखरनी उपर बेठेला सिंहनी जेवा आकारवाळा अने ऊंचा अहंतना आयतनो होय छे... मुख-अग्रद्वारने विष आयतनना मंडपो ते मुखमंडपो-पट्टशालो ( पडशाळरूप), प्रेक्षणक-नाटक माटे घररूप मंडपो ते प्रेक्षागृहमंडपो प्रसिद्ध स्वरूपवाळा अर्थात् रंगमंडपो, 'वैरं वज्ररत्नमय अखाडाओ, जोनार मनुष्यना बैठकभृत प्रसिद्ध छे. विजयष्य-चंदरवारूप वस्त्रो, तेना मध्य भागमा ज अवलंबन माटे अंकुशो अर्थात् आंकडाओ छे. मोतीओना परिमाणवडे कुंभ छे विद्यमान जे दामोने ते कुंभिकारूप मोतीओनी माळाओ. कुंभर्नु प्रमाण आ प्रमाणे जाणवु-दो असतीओ पसती, दो पसतीओसेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुडवो, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढयं, चत्तारि आढया दोणो सट्ठी आढयाई जहन्नो कुंभो, असीइ मज्झिमो सयमुक्कोसो"बे असतीथी एक पसली (खोबो), बे पसलीथी एक सेतिका (धोबो), चार सेतिकाथी कुडव ( मापविशेष ), चार कुडवे एक प्रस्थ, चार प्रस्थथी एक आढक, चार आढकथी एक द्रोण, साठ आढकथी एक *जघन्यकुंभ, एंशी आढकथी एक मध्यमकुंभ अने एक सो आढकथी एक उत्कृष्ट * मागध परिभाषामां धान्य भरत्रानुं मापविशेष छे. xxxxxxxxxxxxxx ४॥ ४३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कुंभ थाय छे. 'तदद्वे' ति० ते मातीनी माळाओनुं ज अर्द्ध ऊंचपणानुं प्रमाण छे. पूर्वोक्तथी जे माळाओ अर्द्ध उच्चत्व प्रमाणवाळी अने अर्द्धकुंभवाळा मुक्ताफळवाळी छे तेवी माळाओवडे सर्वतः सर्व दिशाओमां वींटायेली छे. चैत्य-सिद्धायतननी नजीक रहेला स्तूपो ते चैत्यस्तूपो अथवा चित्तने आह्लादक होवाथी चैत्योवाळा स्तूपो ते चैत्यस्तूपो "संपर्यङ्कनिषण्णाः" पद्मासने बेठेली जिनप्रतिमावाळा, एवी रीते चैत्यवृक्षो पण जाणवा. तेनी पछी 'महेन्द्रा '-सिद्धांतनी भाषावडे अतिशय मोटा एवा ध्वजो ते महेंद्रध्वजो अथवा शक्रादि मोटा इंद्रना ध्वजोनी जेवा ध्वजो ते महेंद्रध्वजो. तेना पछी बधी य शाश्वती पुष्करिणीओ सामान्यथी नंदा कहेवाय छे. ते पुष्करणीओनी फरतुं 'सत्तपन्नवणं' ति० सप्तच्छदवन जाणवुं. 'तिसोवाणपडिरूवर्ग' ति० ते वावोमां नीकळवा अने प्रवेश करवा माटे दिशाओमां त्रण-त्रण पगथियानी पंक्तिओ छे. ते वावोनी अंदर रूपा(चांदी) मय होवाथी दहींनी जेम श्वेत मुख-शिखर छे जेओना ते दधिमुख पर्वता जाणवा. कधुं छे के संखदलविमलनिम्मल - दद्दिघणगोखीरहार संकासा । गगणतलमलिहंता, सोहंते दहिमुद्दा रम्मा ॥ १४९ ॥ मलरहित शंखदल, निर्मळ दहीं, गायनुं घाहुं दूध अने मोतीना हार जेवा ऊजळा अने जाणे गगनतलने स्पशींने रहेला होय तेवा मनोहर दधिमुख पर्वतो शोभे छे. अंजनगिरिना बहुमध्यदेश भागमां ईशान विगेरे कोणमां रतिने करनारा होवाथी चार चार रतिकर पर्वतो कहेवाय छे. ते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥। ४४० ॥ www.kobatirth.org पर्वतो पासे कृष्णादि इंद्राणीओनी क्रमशः राजधानीओ छे, तेमां दक्षिण विभागरूप लोकार्द्धनो नायक शकेंद्र होवाथी अनि अने नैऋतकोणमा रहेल में रतिकर पर्वतो पासे शक्रेंद्रनी इंद्राणीओनी राजधानीओ छे. उत्तर विभागरूप लोकार्द्धनो स्वामी ईशानेंद्र होवाथी वायव्य अने ईशानकोणमां रहेल ते पर्वतांनी पासे ईशानेंद्रनी इंद्राणीओनी राजधानीओ छे. एमज नंदीश्वर द्वीपमां अंजनक पर्वत पर चार अने दधिमुख पर्वतो पर सोळ मळीने चीश जिनालयो छे. आ जिनालयोमां चातुर्मासिक प्रतिपदाओने विषे, सांवत्सरिकोने विषे अने बीजा घणा तीर्थकरना जन्म ( कल्याणक ) विगेरेना प्रसंगरूप देवकार्योंमां समुदाय सहित देवो अष्टाह्निका (अट्ठाई) महोत्सवो करता थका सुखपूर्वक विचरे छे, एम जीवाभिगम सूत्रमां कयुं छे. बीजा पण तथाप्रकारना सिद्धायतनो होय तो विरोध जेतुं नथी. विजयनगरीमां जेम सिद्धायतनो छे तेम कहेल राजधानीओमां पण सिद्धायतनो संभवे छे. वळी पंचदशस्थानोद्धार नामना ग्रंथमां कहां छे के-सोलसदहिमुहसेला, कुंदा मलसंख चंदसंकासा । कणयनिभा बत्तीसं, रइकरगिरि बाहिरा तेसिं ॥ १५० ॥ सोळ दधिमुख पर्वतो श्वेत मचकुंद पुष्प, निर्मळ शंख अने चंद्र सदृश घोळा छे. तेनी बहार वे बे वावडीओनी वचमां बहारना वे कोणनी नजीकमां सुवर्णनी कांति जेवा वे बे रतिकर पर्वतो छे. सर्व मळीने बत्रीश रतिकर पर्वतो छे. अंजणगाइगिरीणं, णाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावन्नं जिणणिलया, मणिरयणसहस्स कूडवरा ॥१५९॥ अंजनक विगेरे पर्वतोना विविध मणिओवडे कांतिवाळा शिखरोने विषे बावन जिनगृहो छे, ते मणिरत्नमय हजार योजन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वरा धिकारः सू० ३०७ ॥ ४४० ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (xxxxxxxxxxxxxxxxxx ऊंचा शिखरोवाळा छे. तच तो बहुश्रुत जाणे. (सू०३०७) आ बधु य जणावेल वर्णन जिनेश्वरोए कहेलं होबाथी सत्य छे माटे सत्यना संबंधने लईने सत्यनु सूत्र दर्शावतां कहे छ के चउबिहे सच्चे पं० त०-णामसच्चे ठवणसच्चे दव्वसच्चे भावसच्चे । सू०३०८, आजीवियाणं चउविहे तवे पं० २०-उग्गतवे घोरतवे रसणिहणता जिभिदियपडिसंलीणता । सू. ३०९. चउब्विहे संजमे पं० २०-मणसंजमे वतिसंजमे कायसंजमे उवगरणसंजमे । चउविधे चिताते पं० तं०-मणचिताये वतिचिताये कायचिताये उवगरणचिताये । चउबिहा अकिंचणता पं० तं०मणअकिंचणता वतिआकिंचणता कायअकिंचणता उवगरणअकिंचणता । सू० ३१०। इति द्वितीयोद्देशकः सम्पूर्णः॥ मूलार्यः--चार प्रकारनुं सत्य कहेलं छे, ते आ प्रमाणे-१ नामसत्य-कोईकनुं 'सत्य' एवं नाम होय ते, २ स्थापनासत्य-सत्य नामवाळानी अक्षादिमां स्थापना कराय ते, ३ द्रव्यसत्य-उपयोग रहित सत्य बोलबारूप अने ४ भावसत्यउपयोगपूर्वक सत्य बोलवारूप छे. (सू०३०८) आजीविक-गोशालाना मतवालाओगें तप चार प्रकारचें कहेलं छे, ते आ प्रमाणे-उग्रतप-ते अष्टम भक्त विगेरे, घोरतप-देहनी पण दरकार कर्या सिवाय जे तप करवू ते, घृत विगेरे रसनो त्याग (OXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४४१॥ करवारूप तप अने मनोज्ञ अमनोज्ञ आहारादिमां रागद्वेषना त्यागरूप तप (सू०३०९) चार प्रकारनो संयम कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अकुशल मननो निरोध करवो ते मनसंयम, अकुशल वाणीनो निरोध करवो ते वचनसंयम, शरीरनी अकुशल प्रवृत्तिनो त्याग करवो ते कायसंयम अने बहुमूल्यवाळा वस्त्रादिनो परिहार करवो ते उपकरणसंयम. चार प्रकारनो त्याग (दान) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-मनवडे साधुने दान देवारूप मनत्याग, एम ज वाणीवडे आपवारूप वचनत्याग, कायावडे प्रतिलाभवारूप कायत्याग अने पात्रादि उपकरणर्नु दान आपवारूप उपकरणत्याग छे. चार प्रकारनी अकिंचनतानिष्परिग्रहता कहेली छे, ते आ प्रमाणे-मनथी अकिंचनता. वचनथी अकिंचनता, कायाथी अकिंचनता अने उपकरणथी अकिंचनता. (सू० ३१०) टीकार्थः-नामसत्य अने स्थापनासत्य सुगम छे. उपयोग रहित वक्तार्नु सत्य पण द्रव्यसत्य छे. स्व के परना उपरोध | सिवाय उपयोग युक्त वक्तार्नु जे सत्य ते भावसत्य छे. (मू० ३०८) सत्य ते चारित्रविशेष छे, माटे चारित्रना विशेषोने | यावत् उद्देशकना अंत पर्यन्त कहे छे-'आजीविए' त्यादि० आजीविक-गोशालकना शिष्योनो अहम विगेरे तप ते उग्रतप, कयांक 'उदारं' एवो पाठ छे. त्यां उदार-आ लोक विगैरेनी आशंसा(वांछा) रहितपणाने लईने शोभन तप, घोर-पोतानी अपेक्षा विना अर्थात् पोताना शरीरनी पण दरकार कर्या सिवायनो तप, “रसनिज्जूहणया" घृतादि रसना त्यागरूप तप अने जिवेंद्रियप्रतिसंलीनता-मनोज्ञ के अमनोज्ञ आहारोने विषे रागद्वेषनो त्याग. आ चार प्रकारनो तप छे. अर्हत्ना शिष्योनो तो बार प्रकारनो तप छे. (सू०३०९) मन, वचन अने कायानो अकुशलपणाए निरोधरूप अने कुशलपणाए उदीरणा ४ स्थान| काभ्ययने उद्देशः २ नामसत्यादिआजीविकतपासंयमः सू० |३०८-१० x॥४४१॥ For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx (प्रवृत्ति ) करवारूप मन विगेरे संयमो छे. उपकरणसंयम तो बहुमूल्यवाळा वस्त्र विगेरेनो त्याग करवारूप छे. अथवा पुस्तकपंचक, वस्त्रपंचक, तृणपंचक अने चर्मपंचकना त्यागरूप छे. हवे पुस्तकपंचक जणावे छगंडी कच्छवि मट्टी, संपुडफलए तहा छिवाडीय । एयं पोत्ययपणगं. पन्नत्तं वीयरागेहिं ।। १५२ ॥ गंडी पुस्तक, कच्छपी पुस्तक, मुष्टि पुस्तक, संपुटफलक पुस्तक अने सृपाटिका (छेदपाटी)-आ पांच प्रकारना पुस्तको वीतराग परमात्माए कहेला छे. बाहल्लपुहुत्तेहि,गंडी पोत्थो उतुल्लओ दीहो। कच्छवि अंते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो ॥१५३॥ जाडाई, पहोळाई अने लंबाईबडे समान जे छे ते गंडी पुस्तक, बन्ने पडखाना भागमां-छेडामा झीगुं, मध्य भागमा पहोळु अने जाडाईमां थोडं होय ते कच्छपी पुस्तक जाणवू. चउरंगुलदीहो वा, वहागिति मुट्ठिपोत्थओ अहवा। चउरंगुलदीहोच्चिय, चउरंसो होइ विन्नेओ ॥१५॥ चार आंगळ लांबु अथवा वृत्त ( गोळाकार ) अथवा चार अंगुल लांबु अने पहाल्लु एटले चतुष्कोण ( चोखूणावालु) ते मुष्टि पुस्तक. संपुडगो दुगमाइ.फलगा वोच्छं छिवाडिताहे । तणुपत्तूसियरूवा, होइ छिवाडी बुहा बेंति ॥ १५५॥ बे फलक विगेरे जे पुस्तकमां होय ते संपुटफलक पुस्तक. हवे सृपाटिकानुं स्वरूप जणावे छे-थोडा पत्र(कागळ)वडे काईक Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ४४२ ।। **X*X*X www.kobatirth.org ऊंचं होय छे तेने पंडितो सृपाटिका ( छेदपाटि ) पुस्तक कहे छे. दी हो वा हसो वा, जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणतीह । १५६ । पहोकाईमां मोड होय के नानुं होय पण जे पुस्तक जाडाईमां थोडं होय तेने सिद्धांतना सारने जाणनार पुरुषो छिवाडी (छेदपाटि) पुस्तक कहे छे. पंचक, अप्रत्युपेक्षित अने दुष्प्रत्युपेक्षितना भेदधी वे प्रकारे हे- अप्पड लेहिय से, तूलि उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणालिंगिणि, मसूरए चेत्र पोत्तमए ॥ १५७ ॥ जेनुं सर्वथा पडिलेहण न करी शकाय ते अप्रत्युपेक्षित वस्त्र कहेवाय, ते पांच प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे- १ रुथी अथवा आकडाना तुल विगेरेथी भरेली तळाई शय्या विशेष, २ हंसना वाटा विगेरेथी भरेल ओशी, ३ ओशीका उपर राखवानुं गालमसुरियुं, ४ ढींचण तथा कोणीनी नीचे राखवा माटे आलिंगिनि अने ५ लुगडामा अथवा चामडामां चींथरां भरीने मोढुं शीलं होय ते गोळ आसन-चाकळो. हवे दुष्प्रत्युपेक्षित-जेनुं मुश्केलीथी पडिलेहण करी शकाय, ते पांच प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-पल्हव कोयव पावार, नवयए तह य दाढिगालीओ । दुप्पाडलेहियदूसे, एयं बीयं भवे पणगं ॥ १५८ ॥ पल्हवि, कुतुप, प्रावरक, नवत्वक् अने दृढगाली-आ पांच प्रकारना वस्त्रो दुष्प्रत्युप्रेक्षित छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान• काध्ययने उद्देशः २ नामसत्या दिआजीविकतप: संयमः सू० | ३०८-१० ।। ४४२ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ******* www.kobatirth.org पल्हवि हत्थूत्थरणं, तु कोयवो रूयपूरिओ पडओ । दढिगालि धोयपात्ती, सेस पसिद्धा भवे भेया ॥ १५९ ॥ १ हाथीनी पीठ उपर नाखवानुं आस्तरण विशेष उपलक्षणथी थोडा रोमधी अथवा घणा रोमधी भरेल, उंट विगेरेनी पीठ उपर रखवानुं वस्त्रविशेष ते पल्हवी. २ रुए भरेलुं वस्त्र ते कुतुप, उपलक्षणथी शाल, दुशाल अने कंबल विगेरे. ३ दशीओ सहित ब्राह्मणने पहेरवा योग्य अघोटियारूप घोतपोतिका ते दृढगाली. बाकीना वे भेद प्रावरक अने नवत्वक् प्रसिद्ध छे, ते आ प्रमाणे- ४ प्रावारक- रुंडाळवा ओढवानुं वस्त्र, तेने कोईक मोर्ड कंबल पण कहे छे अने ५ नवत्वक्-बहु जीर्ण वख. हवे तृणपंचक कहे छे तणपण पुण भणियं, जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं । साली वीही कोदव, रालग रन्ने तणाई च ॥ १६० ॥ अष्ट कर्मरूप ग्रंथिनुं मंथन करनार जिनेश्वरोए पांच प्रकारना तृणो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ शाली - कलमशाली प्रमुखनो पराळ, २ ब्रीहि-साठी चोख। विगेरेनो पराल, ३ कोद्रवानो पराळ, ४ कांगनो पराळ अने५ जंगलनो श्यामाक विगेरे घास. हवे चर्मपंचक कहे छे अलगाव महिसी, मिगाण अजिणं तु पंचमं होइ । तलिया खलगवज्झो, कोसग कत्ती य बीयं तु ।१६१। करानुं चामडं घेटानुं चामडं, गायनुं चामडं, भेंसनुं चामडुं अने हरणनुं चामई-एम पांच प्रकारनुं चामडुं छे. बीजी ते पण चर्मपंचक कहे छे १ तलिका (चंपल) ते एक तळवाळी अथवा चे तळवाळी, २ पगरखां, ३ वाघ्र - सामान्य चामई, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गपत्र xxxxxxxxxxx) सानुवाद ॥४४३॥ ४ कोशकविशेष-अंगुलि विगेरेमा पहेरवानुं चामडार्नु उपकरण अने ५ कृतिका-दव प्रसंगे आई देवामां अथवा पाथरवा विगेरेमा उपयोगी चामडूं. चियाए 'त्ति० अशुभ मन विगेरेनो त्याग(रोध) अथवा मन विगेरेथी आहारादिनुं साधुओ माटे जे दान ते त्याग. एवी रीते पात्रादि उपकरणवडे अन्न विगेरेनु दान ते उपकरणत्याग. कंई पण विद्यमान नथी किंचन-सुवर्ण विगरे द्रव्यनो प्रकार जेने ते अकिंचन, तेनो भाव ते अकिंचनता अर्थात् निष्परिग्रहपणुं. ते मन विगेरेथी अने उपकरणनी अपेक्षाए होय छे माटे चार प्रकारे अकिंचनता कहेली छे. (सू० ३१०) ॥ चतुःस्थानकना द्वितीय उद्देशानी टीकानो अनुवाद समाप्त ।। ४ स्थान. काध्ययने उद्देशः २ नामसत्यादिआजीविकतपा संयमः सू० *३०८-१० KXXXXXXXXXXXXXX xxxxxxxxxxxxxxxx ॥४४३॥ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अथ चतुःस्थानकाध्ययनके तृतीय उद्देशः । बीज उद्देश कवायो, वे त्रीजो उद्देशक शरू कराय छे. आ उद्देशकनो पूर्वना उद्देशकनी साथे आ प्रमाणे संबंध छे. पूर्वना उद्देशकमा जीव अने क्षेत्रना पर्यायो कया, अहिं तो जीवना पर्यायो कहेवाय छे. आ संबंधवडे प्राप्त थयेल आ उद्देशकना प्रथम वे सूत्र कहे छे चत्तारि रातीओ पं० तं० - पव्वयराती पुढविराति वालुयराती उदगराती, एवामेव चव्वि कोहे पं० तं० - पव्वयरातिसमाणे पुढविरातिसमाणे वालुयरातिसमाणे उदगरातिसमाणे, पव्त्रयरातिसमाणं कोहं अणुपविट्ठे जीवे कालं करेइ णेरइतेसु उववज्जति, पुढविरातिसमाणं कोहमणुप्पविट्टे तिरिक्खजोणितेसु उववज्जति, वालुयरातिसमाणं कोहं अणुपविट्ठे समाणे मणुस्सेसु उववज्जति, उदगरातिसमाणं कोहमणुपविट्टे समाणे देवेसु उववज्जति १ । चत्तारि उदगा पं० तं०कद मोदए खंजणोदय वालुओदए सेलोदए, एवामेव चउव्विहे भावे पं० तं० - कद्द मोदगसमाणे खंजणोदगसमाणे वालुओदगसमाणे सेलोद्गसमाणे, कदमोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानानपत्र सानुवाद ॥४४४॥ णेरइएसु उववज्जति, एवं जाव सेलोदगसमाणं भावमणुपविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ । सू० ३११, चत्तारि पक्खी पं०२०-रुयसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने, रूबसंपन्ने नाममेगे नो रुतसंपन्ने, एगे रूवसंपन्नेवि रुतसंपन्नेवि, एगे नो रुतसंपन्ने णो रूवसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-रुयसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेड़ पत्तियं करेमीतेगे अपत्तितं करेति. अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तितं करेइ, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तितं करेति, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-अप्पणो णाममेगे पत्तितं करेति णो परस्स, परस्स नाममेगे पत्तिय करेति णो अपणो (४) चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तितं पवेसेइ, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तितं पवेसेति ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अप्पणो नाममेगे पत्तितं पवेसेइ णो परस्स परस्स०४ । सू० ३१२ मूलार्थः-चार प्रकारनी रेखाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पर्वतनी रेखा, पृथिवीनी रेखा, वालुका( रेती )नी रेखा अने उदकनी रेखा. ए दृष्टांते चार प्रकारनो क्रोध कहेलो छ, ते आ प्रमाणे-पर्वतनी रेखा (फाट) समान क्रोध-यावत् जीव ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ क्रोधः पक्षिरष्टान्तः सू०३११ ३१२ kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx X ४४४॥ For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पर्यंत रहे, पृथिवीनी रेखा समान क्रोध-बार मास पर्यंत रहे, वालुकानी रेखा समान क्रोध-चार मास पर्यंत रहे अने उदकनी रेखा समान क्रोध - एक पक्षपर्यंत रहे. पर्वतनी रेखा समान अनंतानुबंधी क्रोधमां प्रविष्ट थयेल जे जीव काळ करे छे ते नारकोमां उत्पन्न थाय छे, पृथिवीनी रेखा समान अप्रत्याख्यानी क्रोधमां प्रविष्ट थयेल जे जीव काळ करे छे ते तिर्यंचयोनिकोमां उत्पन्न थाय छे, वालुकानी रेखा समान प्रत्याख्यानी क्रोधमां प्रविष्ट थयेल जे जीव काळ करे हे ते मनुष्योमां उत्पन्न थाय छे अने उदकनी रेखा समान संज्वलन क्रोधमां प्रविष्ट थयेल जे जीव काळ करे छे ते देवोमां उत्पन्न थाय छे. चार प्रकारे उदक-पाणी कहेल छे, ते आ प्रमाणे - कादववाळं पाणी, खंजन- मेश जेतुं पाणी, धूळवाडं पाणी अने कांकरावाळं पाणी. आ दृष्टांते चार प्रकारना भाव (जीवना परिणाम) कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कर्दम उदक समान, खंजन उदक समान, वालुका उदक समान अने शैल उदक समान. कर्दम उदक समान भाव (परिणाम) ने प्राप्त थयेल जे जीव काळ करे छे ते नैरयिकोने विषे उत्पन्न थाय छे, खंजन उदक समान भावने प्राप्त थयेल जे जीव काळ करे छे ते तिर्यचयोनिको मां उत्पन्न थाय छे, वालुका उदक समान भावने प्राप्त थयेल जे जीव काळ करे छे ते मनुष्योने विषे उत्पन्न थाय छे अने शैल उदक समान भावने प्राप्त थयेल जे जीव काळ करे छे देवाने विषे उत्पन्न थाय छे. ( सू० ३११ ) चार प्रकारना पक्षी कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोई एक पक्षी शब्दसंपन्न - मनोहर स्ववाळो छे पण रूपसंपन्न नथी- कोकिलनी जेम, कोईक रूपसंपन छे पण शब्दसंपत्र नथी ( मनोहर शब्द नथी ) - अभण पोपटनी जेम, कोईक पक्षी शब्दसंपन्न छे अने रूपसंपन्न पण छे-मोरनी जेम, कोईक शब्दसंपन्न पण नथी अने रूपसंपन्न पण नथी - कागडानी जेम, आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष मिष्ट वचनसंपन्न के पण ७५ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४४५ ।। www.kobatirth.org रूपसंपन्न, नथी अर्थात् काळों के कूबडो छे, कोईक रूपसंपन्न हे पण मनोज़ शब्दसंपन्न नथी, कोईक उभय संपन्न छे अने कोईक उभयसंपन्न नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष एम चिंतवे के हुं अमुकनी साथे प्रीति करूँ अने प्रीति पण करे छे, २ कोईक प्रथम एम चितवे के हुं आनी साथै प्रीति करूं पण पछी करे नहिं, ३ कोईक प्रथम एम चिंतवे के हुं अमुक साथे अप्रीति करूं पण पछी प्रीति करे छे, ४ कोईक एम चितवे के हुं आनी साथे अप्रति करुं अने अप्रीतिने करे छे. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष भोजन विगेरेथी पोताना आत्माने आनंद उपजावे छे, पण बीजाने नहिं, २ कोईक बीजाने उपकार करे छे पण पोताने नहि केम के बीजा पर उपकार करवामां रसिक होय छे, ३ कोईक पोताने अने बजाने पण आनंद उपजावे छे अने ४ कोईक पोताने के परने पण आनंद उपजावतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-६ कोईक पुरुष एम चिंतवे के हुं परना चित्तमां प्रीति के विश्वास उपजावु अने तेमज विश्वास उपजावे छे, २ कोईक एम चिंतवे के हुं बजाने विश्वास उपजावं पण विश्वास उत्पन्न करी शके नहि, ३ कोईक एम चितवे के हुं विश्वास उपजावी शकीश नहि पण विश्वास उत्पन्न करे, अने ४ कोईक एम चितवे के हुं विश्वास उपजावी शकीश नहि अने उपजावे पण नहि. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष पोताना आत्मामां विश्वास उपजावे छे, परंतु बीजाने विषे विश्वास उपजावतो नथी, २ कोईक, बीजाने विषे विश्वास उपजावे छे पण पोताना आत्मामां विश्वास उपजावतो नथी, ३ कोईक पुरुष पोताना तथा बीजाना आत्मामां पण विश्वास उपजावे छे अने ४ कोईक पोताना के परना आत्मामां विश्वास उपजावतो नथी. ( सू० ३१२ ) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ क्रोधः पक्षिदृष्टा न्तः सू० ३११-१२ ॥ ४४५ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx टीकार्थः-'चत्तारी'त्यादि. आ सूत्रनो आ प्रमाणे संबंध छे. पूर्वे चारित्र कडं, तेनो प्रतिबंध करनार क्रोधादि भाव छ, माटे क्रोधना स्वरूपनुं निरूपण करवा माटे आ सूत्र कहेवाय छे. आ प्रमाणे संबंधवाळा आ दृष्टांतभूत विगेरे सूत्रनी व्याख्या कराय छ-'राजी' रेखा. क्रोधनुं बाकीनुं व्याख्यान माया* विगेरेनी जेम जाणवू. मायादिना प्रकरण( विषय )थी अन्यत्र क्रोधनो विचार करवामां आवेल छे कारण के सूत्रनी गति विचित्र होय छे. बीजुं सूत्र पण सुगम छे. आक्रोध भावविशेष ज छ माटे भावनी प्ररूपणा करवा माटे दृष्टांत विगरे वे सूत्रने कहे छे-'चत्तारी त्यादि० प्रसिद्ध छे. विशेष ए के-जेमां खंचेल पग विगेरे खेंची न शकाय अथवा कष्टवडे खेंची शकाय ( काढी शकाय) ते कर्दम (कादव ). दीपक विगैरेनी मेशना जेवो पग विगेरेमा लेप करनार-चोटी जाय तेवो ते खंजन, कईम विशेष ज छे. वालुका(रेती) प्रसिद्ध छे, ते भींजेली पग विगेरेने लागी होय तो पण पाणी सूकाई जवाथी अल्प प्रयासे दूर थाय छे माटे अल्प लेप करनारी छे. शैल एटले कोमळ पाषाणो. ते पग विगेरेने स्पर्शवडे ज कंईक दुःख उपजावे छे, परंतु तथाविध लेपने उत्पन्न करता नथी. कादव विगेरेनी प्रधानताबाळा उदको ते कईमोदक विगेरे कहेवाय छे. जीवनो जे रागादि परिणाम ते भाव, तेनुं कईमोदक विगेरेनी साथे समानपणुं तेना स्वरूपने अनुसारे कर्मना लेपने अंगीकार करीने मान. (सू० ३११) हमणा ज भावनुं स्वरूप का, हवे भाववाळा दृष्टांत सहित पुरुषने 'चत्तारि पक्खी 'त्यादि. सूत्रथी लईने 'अत्यमियत्यमिये' ति. छेवटना सूत्रबडे कहे छे-तेनो भाव | स्पष्ट छे. विशेष ए के-शब्द अने रूप बधा पक्षीओने होय छे, अतः विशिष्ट शब्द अने रूप ग्रहण करवा योग्य छे. १रुत * चोथा ठाणाना बीजा उद्देशकमा माया विगेरे त्रण कषायर्नु स्वरूप कहेल छे. KOXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानानपत्र सानुबाद ॥४४६॥ ४ स्थानकाध्ययने उदेशः३ | क्रोधः + क्षिष्टान्तः ०३११ मनोज्ञ शब्दवडे संपन्न एक पक्षी छे परंतु मनोज्ञ रूपवडे संपन्न नथी-कोकिलनी जेम, २ रूपसंपन्न छे पण शन्दसंपन्न नथी-सामान्य शुक पोपट वत्, ३ उभयसंपन्न-मयूरवत् . ४ अनुभयसंपन्न-शब्दसंपन्न अने रूपसंपन्न पण नहिं-कागडानी जेम. अहिं पुरुष यथायोग्य योजबो, ते आ प्रमाणे-प्रिय बोलवावडे मनोज्ञ शब्द अने सुंदर वेषवडे रूपसंपन्न अथवा साधु, चोकस करल सिद्धांतमां प्रसिद्ध, शुद्ध धर्मदेशनादि खाध्यायना प्रबंधवाळो (शब्दसंपन्न), लोचवडे अल्प केशवाळू उत्तमांगपणुं अर्थात मस्तकनी सुंदरता, तपवडे कायानी कृशता, मेलबडे मलिन काया अने अल्प उपकरणपणुं विगेरे लक्षणबडे सुविहित साधुना रूपने धरनार ते रूपसंपन्न छे. 'पत्तियं' ति० स्वार्थिक 'क' प्रत्ययनुं ग्रहण करवामां पण प्रीति एज प्रीतिक, रूढिथी नपुंसकपणुं जाण. १ ९ प्रीति करुं अथवा हुं विश्वास करुं एवा परिणामवाळो थयो थको प्रीतिने अथवा विधासने करे छे, केम के स्थिर परिणामवाळो अथवा उचित प्रवृत्ति करवामां चतुर | के सौभाग्यवाळो होय छे. २ बीजो तो प्रीति करवामां परिणत थयो थको पण अग्रीतिने ज करे छ, केम के स्थिरपरिणामादि गुणथी विपरीत होय छे. ३ त्रीजो अप्रीतिमा परिणत थयो थको प्रीतिने ज करे छे, केम के उत्पन्न थयेला पूर्वना परिणामथी निवृत्त थवाथी अथवा बीजानी अप्रीतिनो हेतु छतां पण प्रीतिनी उत्पत्तिना स्वभाववाळो होबाथी प्रीतिने करे छे. ४ चोथो पुरुष तो सुगम छे. १ कोईक पुरुष भोजन, वस्त्रादिवडे पोताना आत्माने प्रीति-आनंद उत्पन्न करे छे, केमके स्वार्थमां तत्पर होवाथी | बीजाने आनंद उत्पन्न करतो नथी, २ बीजो परमार्थमां तत्पर होवाथी बीजाने आनंद आपे छे पण पोताने नहिं, ३ त्रीजो बन्ने(स्वपर)ने आनंद आपे छे, केम के स्वार्थ अने परमार्थ बन्नेमा तत्पर होय छे, तेमज ४ चोथो-खपरने आनंद उपजावतो ॥४४६॥ For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नथी, केम के स्वार्थ परमार्थमां शून्य होय छे. कोईक पुरुष पोतानो विश्वास करे छे पण बीजानो करतो नथी इत्यादि चतुर्भगीनी व्याख्या करवी. 'पतियं पवेसेमि' ति० आ पुरुष मारा उपर प्रीति अथवा विश्वास करे छे, आ प्रमाणे बीजाना चितमां हुं ठसा खात्री करावं. एवी रीते परिणामवाळो थयो थको तेज प्रमाणे बीजाना चित्तमां प्रीति के विश्वासने करावे छे. araj (त्रण भंग ) सूत्र अने अनंतर सूत्र पूर्वनी जेम जाणवुं. ( सू० ३१२ ) चत्तारि रुक्खा पं० तं०-पतोत्रए पुष्कोव फलोत्रए छायोत्रए, एवामेव चतारि पुरिसजाया पं० नं० - पत्तो वाक्समाणे पुप्फोत्रा रुक्ख समाणे फलोवारुत्रख समागे छातोवारुकख समागे । सू० ३१३, भारपणं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पं० तं० - जत्थ णं असातो अंसं साहरइ तत्थविय से एगे आसासे पगते १, जत्थविय णं उच्चारं वा पासवणं वा परिद्वावेति तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय णं णागकुमारात्रासंसि वा सुत्रन्नकुमारावासंसि वा वासं उवेति तत्थविय से एगे आसासे पन्नत्ते ३, जत्थत्रिय णं आवकधाते चिट्ठति तत्थविय से एगे आसासे पन्नते ४, एवामेव समणोवास गस्स चत्तारि आसासा पं० तंत्र - जत्थ णं सीलव्वतगुणव्व तवेरमणपच्चक्खाणपोस होववासाइं पडिवज्जेति तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थत्रिय णं सामाइयं For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir X Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नासूत्र सानुवाद ॥ ४४७ ॥ www.kobatirth.org देसावगासिय सम्ममणुपालेइ तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय णं चाउदसमुद्दिट्ठपुन्नमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्मं अणुपालेइ तत्थवि य से एगे आसासे पन्नत्ते ३, जत्थवि य णं अपच्छिममारणंतित संलेह्णाजूसणाजूसिते भत्तपाणपडितातिक्खित्ते पाओवगते कालमणवकखमाणे विहरति तत्थविय से एगे आसासे पन्नत्ते ४ । सू० ३१४ मूलार्थ:- चार प्रकारना वृक्ष कहेल छे, ते आ प्रमाणे- घणा पत्र ( पांदडां ) बाळं, घणा पुष्पवाळं, घणा फळवाळं अने छायावा. ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला हे, ते आ प्रमाणे- १ तथाविध उपकारने नहिं करनार पत्र सहित वृक्ष समान २ सूत्रदान विगेरेथी उपकार करनार ते पुष्प सहित वृक्ष समान, ३ अर्थदान विगेरेथी महान उपकार ते फल सहित वृक्ष समान अने ४ अनर्थथी रक्षण करनार ते छाया सहित वृक्ष समान. ( सू० ३१३ ) भार प्रत्ये वहन करनार पुरुषने चार विश्राम (वीसामा ) का छे, ते आ प्रमाणे- १ जे समये एक खभाथी लईने बीजा खभा उपर भारने मूके छे ते अवसरे तेने एक विश्राम कट्टेल छे, २ जे अवसरे भार उतारीने वडीनीत के लघुनीत करे छे ते अवसरे तेने एक विश्राम कहेल छे, ३ जे अवसरे नागकुमारना आवास (देवळ) मां अथवा सुपर्णकुमारना मंदिरमां रात्रिए वसे छे ते अवसरे तेने एक विश्राम कट्टेल छे अने ४ जे अवसरे भार उतारीने पोताने घेर यावज्जीव पर्यंत रहे छे ते अवसरे तेने एक विश्राम कहेल छे. ए दृष्टांत श्रमणोपासकने - सावद्यव्यापाररूप भारथी दबायेलाने चार विश्राम कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ जे अवसरे शील-सदाचार, अणुव्रत, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *******-**** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ पत्राद्युपगचतुर्भागिका आश्वास चतुष्कं सू० ३१३ १४ ।।। ४४७ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxOKOXOXOKOKOKOKXXXX गुणव्रत, अनर्थदंडादिथी निवर्त्तनरूप विरमण, नवकारसी प्रमुख प्रत्याख्यान, पोषध सहित उपवासने ग्रहण करे छे त्यारे तेने एक विश्राम कहेल छे, २ जे अबसरे सामायिक अने देशावगासिकने सारी रीते पाळे छे त्यारे तेने एक विश्राम कहेल है, ३ जे अवसरे चौदश, आठम, अमावास्या अने पूर्णिमारूप तिथिओने विषे परिपूर्ण पौषधने सारी रीते पाळे छे त्यारे तेने एक विश्राम कहेल हे. ४ जे अवसरे अपश्चिम( हेल्ली) मारणांतिकरूप संलेखनाने स्वीकारीने अने भक्तपाननं प्रत्याख्यान करीने पादप-छेदली वृक्षनी डाळनी माफक स्थिर थईने काळ(मरण)नी वांडाने नहिं करतो थको विचरे छे त्यारे तेने एक विश्राम कहेल छे. (१० ३१४) टीकार्थः-पत्र-पांदडान प्राप्त थाय छे ते पत्रोपग अर्थात् घणा पत्रवाळो, एम ज पुष्पोपग विगेरे जाणवा. लोकोत्तर अने लौकिक पुरुषोनी पत्रवाळा विगैरे वृक्षनी साथे समानता तो क्रमशः जाणवी, ते आ प्रमाणे-१ अभिलाषीओने विष तथाविध उपकार नहिं करवावडे पोताना स्वभावमा ज समाप्त थवाथी, २ सूत्र भणावq विगेरेथी उपकारक होवाथी, ३ सूत्रना अर्थने आपवा विगेरेवडे महान् उपकारक होवाथी अने ४ ज्ञानादि कार्यमा प्रवर्ताव अने दोषथी बचावq विगेरेथी निरंतर सेवा करवा योग्य होवाथी. (मू० ३१३) भार-धान्य भरवाना आधारभूत( कोठी विगेरे )ने एक स्थानथी बीजा स्थान प्रत्ये वहन करनार-लई जनार पुरुषने आश्वासो-विश्रामो कहला छे, तेओना अबसरना भेदवडे विश्रामना भेदो छ.१ जे अबसरमां अंश-एक स्कंधथी बीजा स्कंध प्रत्ये भारने सहरे छे-लई जाय हे ते अवसरमां, 'से' ते वहन करनारने एक विश्राम कहेल छे, २ 'परिष्ठापयति' भार तजी दईने मृत्रपुरुषांदि त्याग करे छे ते बीजो विश्राम, ३ नाग xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir XX भीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ॥४४८॥ (xxxxxx ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः ३ पत्राद्युपगचतुर्भगिका आश्वास Koxxxxxxxxxxxxxxxxxx कुमारना आवासो विगेरे उपलक्षणमात्र छ एथी बीजा आयतन(स्थान ने विषे पण वासने प्राप्त थाय छे अर्थात् रात्रिए वास करे छे ते ४ यावती-ज्यां सुधी आ मनुष्य अथवा देवदत्तादि छे एम कथनरूप यावत् कथावडे अर्थात् यावज्जीव सुधी ते रहे छे-बसे छे ते ' एवमेवे 'त्यादि० एमज दार्टातिक सूत्र छे. श्रमणान्-साधुओनी जे सेवा करे छे ते श्रमणोपासक-श्रावक तेने (सावध व्यापाररूप भारथी दबायलाने) आश्वासो-सावध कार्यने छोडवावडे चित्तने आश्वासन-स्वास्थ्यरूप विश्रामो छे, परलोकथी भय पामेल मने आत्राण-शरण छे एवा आ विश्रामो छे. ते श्रावक जिनागमना परिचयथी स्वच्छ बुद्धिवडे आरंभ अने परिग्रह ए बने दुःखनी परंपराने करनार अने संसाररूप कांतारना कारणभूत होवाथी छोडवा योग्य छ एम जाणतो थको इंद्रियरूप सुभटना वशथी आरंभ अने परिग्रहने विषे प्रवर्ततो छतो महान् खेद, संताप अने भयन वहन करे छे अने नीचे प्रमाणे भावना भावे छे-- हियए जिणाण आणा. चरियं मह एरिसं अउन्नस्स । एयं आलप्पालं,अब्बो दूरं विसंवयइ ॥१६२।। हयमम्हाणं नाणं, हयमम्हागं मास्तमाहप्पं । जे किल लद्धविवेया, विचेट्ठिमो बालबालब्ध ॥१६३॥ ___ मारा हृदयमां जिनेश्वरनी आज्ञा छतां पण पुण्य रहित मारुं चरित्र-वर्तन तो आवु छ अर्थात् संसार संबंधी वस्तु मने प्रिय लागे छ तो हवे शुं विशेष कहुं ? आ आश्चर्य छ, अत्यंत विरोध छे. अमारु सद् असना विवेकरूप ज्ञान हणायुं ! * अमारं मनुष्य संबंधी माहात्म्य हणायुं ! निश्चय विवेकने प्राप्त थया छतां पण नाना बाळकोनी जेम अमे प्रवृत्तिने करीए छीए. KXXXXXXX चतुष्कं XXXXxxx ०३१३ १४ KXxxxx ॥४४८॥ For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx १ जे अवसरमां शील-सदाचार विशेष अथवा ब्रह्मचर्य विशेष, व्रत-स्थूल प्राणातिपातनुं विरमण विगेरे, बीजे स्थळे तो शील एटले पांच अणुव्रत अने व्रत-सात शिक्षाव्रत कहेल छे, परंतु गुणव्रता वगेरेनुं सूत्रमा साक्षात् ग्रहण जुएं करवाथी अहिं ते व्याख्या करी नथी.गुणव्रत-दिशाव्रत अने उपभोगपरिभोगव्रतस्वरूप छे तथा विरमण-अनर्थदंडनी विरतिना प्रकारो अथवा रागादिनी विरतिओ जाणवी. प्रत्याख्यान नवकारसी विगेरे, पौषध-अष्टमी विगेरे पर्वना दिवसामां उपवसन-आहारना त्याग ते पौषधोपवास. (शीलादि बधाय पदोनो द्वंद्व समास छे) शील विगरेने अंगीकार करे छे ते अवसरने विषे तेने एक विश्राम कहल छे. २ जे अवसरमां सावद्ययोगना त्यागपूर्वक निरवद्य योगना सेवनरूप सामायिकमा जे व्यवस्थित श्रावक होय छे ते श्रमणभूत थाय छे. वळी देशे-दिशा परिमाणव्रत ग्रहण करेल श्रावकने दिशाना परिमाणना विभागमा अवकाश-अवतार विषयक अवस्थान छे जे व्रतने विषे ते देशावकाश ते ज देशावकाशिक अर्थात् दिशाव्रतमां ग्रहण करेल दिशाना परिमाणने दररोज संक्षेपवारूप अथवा बधा य व्रतोतुं संक्षेप करवारूप व्रतर्नु अनुपालन करे छे अर्थात् व्रत ग्रहण कर्या पछी अखंड रीते पाळे छे ते अवसरे पण तेने एक विश्राम कहेल छे. ३ उद्दिष्टा-अमावास्या परिपूर्ण-अहोरात्र पर्यंत १ आहारनो त्याग, २ शरीरना सत्कारनो त्याग, ३ ब्रह्मचर्यनुं पालन अने ४ अव्यापार-सावद्य प्रवृत्तिना त्यागरूप चार भेदयुक्त पौषधने करे छे त्यारे एक विश्राम छे, ४ जे अवसरे वळी पश्चिम ज-छेल्ली परंतु अमंगलना परिहारने माटे अपश्चिमा एवी, मरण ज अंत ते मरणांत, तेमां जे थयेली ते मारणांतिकी-ते अपश्चिममारणांतिक एवी, जेनावडे शरीर अने कषायादि कृश कराय छे ते संलेखना-तपविशेष * पश्चिम शब्द अमंगलरूप छे माटे अपश्चिम शब्द कहेल छे. KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . मीस्थाबापत्र मानुवाद ॥४४९॥ Cxxxxxxxx KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) ते अपश्चिममारणांतिक संलेखनानी 'जूसण' ति० जोषणा-सेवारूप धर्मवडे 'जूसिय' त्ति०-सेवा करनार अथवा देहने ४ स्थानखपावनार-शोषनार ते जोषणा-जुष्ट, तथा भक्तपाननुं प्रत्याख्यान करेल छे जेणे ते भक्तपानप्रत्याख्यात, पादप-वृक्षनी काध्ययने माफक उपगत-निश्चेष्टपणाए रहेल ते पादपोपगत अर्थात् अनशन विशेषने स्वीकारेल, काळ-मरणना समयने न इच्छतो उद्देशः ३ थको-तेमा उत्सुक नहिं थयो थको विचरे छे-रहे छे. (सू० ३१४ ) उदितोदिचत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-उदितोदिते णाममेगे उदितत्थमिते णाममेगे अत्थमितोदिते तादिचतुर्भणाममेगे अत्थमियत्थमिते णाममेगे, भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी णं उदितोदिते. बंभदत्ते णं राया |गिका युग्मचाउरंतचक्कवट्टी उदिअत्थमिते. हरितेसबले णमणगारे णमथमिओदिते, काले णं सोयरिये अत्य- x शूरचतुष्कं मितत्थमिते । सू०३१५. चत्तारि जुम्मा पं० तं०-कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए. नेरतिताणं * उच्चादिचतु चत्तारि जुम्मा पं० तं०-कडजुम्मे तेओए दावरजुम्मे कलितोए एवं असुरकुमाराणं जाव थणिय- एक लेश्याकमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउ० तेउ. वाउ० वणस्थति. बेंदिताणं तेंदियाणं चउरिंदियाणं * चतुष्क० पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणियाणं सव्वेसिं जहाणेरड x०३१५याणं । सू०३१६.चत्तरि सूरा पं० तं०-खंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे जुद्धसरे. खंतिसूरा अरहंता तवसरा x॥४४९॥ For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अणगारा दाणसूरे वेसमणे जुद्धसूरे वासुदेवे । सू. ३१७, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-उच्चे णाममेगे उच्चच्छंदे उच्चे णाममेगे णीतच्छंदे णीते णाममेगे उच्चच्छंदे नीए णाममेगे णीयच्छंदे । स० ३१८ । असरकुमाराणं चत्तारि लेसातो पं० त०-कण्हलेसाणीललेसा काउलेसा तेउलेसा एवं जाव थणियकुमाराणं एवं पुढविकाइयाणं आउवणस्सइकाइयाणं वाणमंतराणं सव्वेसिं जहाअसुरकुमाराण। सू०३१९४ मूलार्थ:-चार प्रकारना पुरुष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कुल, बळ, ऋद्धि विगेरेथी प्रथम उदयने पामेला अने पछी परम सुखने पामेला ते उदितोदित, २ कुल विगेरेथी प्रथम उदयने पामेला अने पछी दुर्गतिमां जवाथी अस्तने पामेला ते उदितअस्तमित, ३ नीच कुल विगेरेथी प्रथम अस्तने पामेला अने पछी सद्गतिमा जवाथी उदयने पामेला ते अस्तमितोदित अने ४ नाच कलादिथी प्रथम अस्त पामेल अने दुर्गतिमा जवाथी पछी पण अस्त पामेल ते अस्तमितअस्वमित. हवे उक्त चार भांगाना स्वामीने कहे छे-१ चातुरंग चक्रवर्ती भरतमहाराजा प्रथम पण उदयने पामेला अने पछी पण उदयने पामेला, २ चातुरंत चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त राजा प्रथम उदयने पामीने पछी अस्तने पामेला, ३ हरिकेशीवल मुनि प्रथम नीच कुलमा अवतार लईने अस्त पामेला अने पछीथी उदयने पामेला अने ४ कालसौकरिक( कसाई ) प्रथम पण अस्त पामीने पछी पण नरकगमनवडे अस्तने पाम्यो. (सू० ३१५) चार प्रकारना युग्म-राशिविशेष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-जे संख्याने चारथी भागतां शेष चार रहे ते कृतयुग्म, शेष त्रण रहे ते व्योज, शेष बे रहे ते द्वापर अने शेष एक रहे ते कल्योज. नैरयिकोना चार युग्म कहेला छे, ते KXXXXXXMOKOKXXXXXXXxxxxxxXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ४५० ।। www.kobatirth.org आ प्रमाणे -- कृतयुग्म, ज्योज, द्वापर अने कल्योज, एवी रीते असुरकुमारोना यावत् स्तनितकुमारोना, एम ज पृथ्वीकायिकोना अपूकायिकोना, तेजस्कायिकोना, वायुकायिकोना, वनस्पतिकायोना, द्वींद्रियोना, त्रींद्रियोना, चतुरिंद्रियना, पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकोना, मनुष्योना, व्यंतर अने ज्योतिष्कोना तथा वैमानिकोना एम बधायना जेम नैरथिकोना चार युग्म कहेला छे तेम जाणवा. (सू० ३१६) चार प्रकारना शूरा कहेला छे, ते आ प्रमाणे- क्षमामां शूर, तपने विषे शूर, दानमां शूर अने युद्धने विषे शूर. क्षमामां शूरा अर्हतो, तपमां शूरा मुनिओ, दानमां शूरा वैश्रमण अने युद्धमां शूर वासुदेव छे. ( सू० ३१७ ) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे - १ एक पुरुष शरीर, कुल अने धन विगेरेथी ऊंच अने ऊंचच्छंद-श्रेष्ठ अभिप्रायवाळो उदार छे, २ एक शरीर विगेरेथी ऊंच पण नीचच्छंद-नीच अभिप्रायवाळो छे, ३ एक शरीर विगेरेथी नीच पण ऊंचच्छंद-श्रेष्ठ अभिप्रायवाळो छे अने ४ एक शरीर, कुल विगेरेथी नीच अने नीचच्छंद-नीच अभिप्रायवाळो छे. ( सू० ३१८ ) असुरकुमारोने चार लेश्याओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे - कृष्णलश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या अने तेजोलेश्या. एवी रीते यावत् स्तनितकुमारोने एमज पृथिवीकायिकोने, अपूकायिकोने, वनस्पतिकायिको अने व्यंतरोने, आ बधायने असुरकुमारोनी माफक चार लेश्याओ छे. (सू. ३१९) टीकार्थ :- उच्च कुल, बल, समृद्धि अने निर्दोष कार्योवडे उदित-अभ्युदयवाळो, अने परम सुखना समूहना उदयवडे उदितउदय पामेल माटे उदितोदित, जेम भरत महाराजा अने एनुं उदितोदितपणुं प्रसिद्ध हे १, तथा प्रथम उदय पामेल, अने पछी अस्त पामेल- सूर्यनी जेम; केम के सर्व समृद्धिवडे भ्रष्ट थवाथी अने दुर्गतिमां जवाथी उदितअस्तमित- उदय पामीने अस्त पामेल ब्रह्मदत्त चक्रवतींनी माफक, ते उत्तम कुळमां उत्पन्न थवा विगेरेथी अने स्वभ्रुजानां बळथी मेळवेल साम्राज्यवडे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ उदितोदितादिचतुर्भ गिकों युग्म शूरचतुष्कं उच्चादिचतु कं लेश्याचतुष्कं ० सू० ३१५३१९ ।।। ४५० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX प्रथम उदय पामेल अने पाछळथी खास कारण सिवाय क्रोधित ब्राह्मणद्वारा प्रेरणा करायेल गोवाळवडे छोडायेल धनुष्यनी गोळीथी फूटी गयेल आंखनी कीकीवडे अने मरण पछी अप्रतिष्ठान नामना महानरकावास संबंधी वेदनानी प्राप्तिवडे अस्त पामेल २, हीन कुलमा उत्पत्ति, दुर्भाग्य अने दारिद्रय विगेरेथी प्रथम अस्तमित अने पछीथी समृद्धि, कीर्ति अने सद्गतिनी प्राप्ति विगेरेथी उदित-उदय पामेल ते अस्तमितोदित-जेम हरिकेशबल नामना मुनि, ते जन्मांतरमां बांधेल नीच गोत्रकर्मना वशथी प्राप्त करेल हरिकेश नामना चांडालकुलपणाथी, दुर्भाग्यपणाथी अने दरिद्रपणाथी प्रथम अस्त पामेल, परन्तु पाछळथी तो दीक्षित थयो थको निश्चल चारित्रना गुणोवडे, मेळवेल देवकृत सहायवडे, प्रसिद्धि मेळवबावडे अने सद्गतिमा जवावडे उदित ३. तथा सूर्यनी जेम प्रथम अस्त पामेल केमके नीचकुलपणुं अने दुष्ट कर्म करवापणाथी कीर्ति, समृद्धिलक्षण तेजथी वर्जित होय छे अने पछीथी दुर्गतिमा जवाथी अस्त पामेल ते अस्तमितास्तमित-जेम काळ नामनो सौकरिक. 'सूकरैः' सुवरोबडे चरति मृगया-शिकारने करे छे माटे सौकरिक नाम यथार्थ छे. दुष्ट कुलमां उत्पन्न थयेल अने दररोज पांच सो पाडाने मारनार माटे प्रथम अस्त पामेल, अने पछीथी पण सातमी नरकपृथिवीने विषे गयेल माटे अस्त पामेल. ४. 'भरहे 'त्यादि. उदाहरणसूत्र तो भावितार्थ छे. (सू०३१५) जे जीवो आ प्रमाणे विचित्र भावोवडे चिंतन कराय छ ते बधा य चार राशिओमा अवतरे छे, माटे तेओने दर्शावतां थका सूत्रकार कहे छ-'चत्तारि जुम्मे 'त्यादि० युग्मराशिविशेष. जे राशिने चारनी संख्यावडे अपहरण करवाथी (भांगवावडे ) शेष चार रहे ते कृतयुग्म कहेवाय छे. जे राशिना छेवटमा शेप त्रण रहे ते व्योज, बे शेष रहे तो द्वापरयुग्म अने एक शेष रहे ते कल्योज कहेवाय. अहिं गणितनी परिभाषामां XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४५१॥ उदितोदि OXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX समराशि( २-४ )युग्म कहेवाय छे अने विषमराशि (१-३) ते ओज कहेवाय छे. आ जैनसिद्धांतनी मर्यादा छे. लोकमां ४ स्थानतो कृतयुग्म विगेरे आ प्रमाणे कहेवाय छे-"कलियुगमा चार लाख ने बत्रीश हजार वर्ष होय छे. द्वापरयुगमा आठ लाख काध्ययने ने चौसठ हजार, त्रेतायुगमां बार लाख ने छन्नु हजार अने कृतयुगमा ससर लाख अठ्यावीश हजार वर्ष होय छे." पूर्वोक्त उद्देश: ३ राशियोनुं नारकादिने विष निरूपण करता थका सूत्रकार कहे छे-'नेरइए'त्यादि० सुगम छे. नारक विगैरे चार प्रकारनी राशिवाळा पण होय केम के जन्म अने मरणवडे हीन या अधिकपणानो संभव होय छे. (सू० ३१६) वळी जीवोने ज तादिचतुर्भभावोवडे निरूपता थका सूत्रकार कहे छे-' चत्तारि सूरे 'त्यादि वे सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-शूर-वीरपुरुषो. क्षमामां शूरा अहंतो-श्रीमहावीर परमात्मानी माफक, तपमा शूरा अनगारो-दृढप्रहारी मुनिवत्, दानमा शूर वैश्रमण-उत्तर दिशानो गिका युग्मलोकपाल( कुबेर ) ते तीर्थकर विगेरेना जन्मना समयमां अने धारणा विगेरेना समयमां रत्न विगेरेनी वृष्टि करवावडे दानमां | शूरचतुष्कं शूर छे. कडुं छे के * उच्चादिचतुवेसमणवयणसंचो-इया उ ते तिरियजंभगा देवा। कोडिग्गसो हिरन्ना,रयणाणिय तत्थ उवणेति ॥१६॥ कं लेश्या । चतुष्कं० वैश्रमणना वचनथी प्रेराया थका ते तियग्नुंभकदेवो, क्रोडोगमे सुवर्णाने अने रत्नोने तत्र-तीर्थकरगृहने विषे लई जाय छे. 13 युद्धमां शूर वासुदेव-कृष्णवत् केम के तेने त्रण सो साठ संग्राममां जय मेळववानो होय छे. (मू० ३१७) *शरीर, कुल सू० ३१५ ३१९ * मूल अनुवादमां चार भांगा स्पष्ट लखेल छे. x॥४५१॥ (XXX For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अने वैभव विगैरेथी उच्च पुरुष, तथा औदार्यादि गुणयुक्त होवाथी उन अभिप्रायवालो ते उच्चच्छंद, नीचच्छंद तो पूर्वोक्तथी विपरीत अर्थात् नीच अभिप्रायवाळो, नीच पण उच्च कुलादिथी विपरीत छे. (सू० ३१८) हमणा ज ऊंच अने नीच आभिप्राय कह्यो ते लेश्याविशेषथी थाय छे माटे लेश्यामूत्रो कहेल छे, ते सुगम छे. विशेष ए के-असुरादिने द्रव्यना + आश्रयवडे चार लेश्याओ होय छे अने भावथी तो बधा य देवोने छ लेश्या होय छे, मनुष्य अने पंचेंद्रियतियंचोने तो द्रव्यथी अने भावथी पण छ लेश्या होय छे. पृथिवी, अप अने वनस्पतिना जीवोने ज तेजोलेश्या होय छे केम के तेओमां देवोनी उत्पत्ति होवाथी ते जीवोने चार लेश्या होय छे. (सू०३१९) कहेल लेश्याविशेषथी विचित्र परिणामवाळो मनुष्य थाय माटे वाहन विगेरे दृष्टांतरूप चतुर्भगीओवडे अने बीजी रीते पुरुषनी चतुर्भगी यानसूत्रादिना आरंभथी श्रावक सूत्रपर्यंत ग्रंथवडे बतावता थका सूत्रकार कहे छ के चत्तारि जाणा पं० २०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे + देव अने नारकोने द्रव्यले श्या तेना आयुष्य पर्यंत अवस्थित होय छे ते द्रव्यो साथे बोना द्रव्योनो संपर्क थवाथी भावलेश्या छए होय छे, परंतु मूल द्रव्यो बदलाता नथी. तदाकार मात्र भजे छे अने मनुष्य तियंचानी द्रव्यले श्याओ अंतर्मुहर्स अवस्थित रहे छे, पछीथी बदलाय छे, केवलीने अवस्थित रहे छे. KXXXXXXXXXXXXXXX oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ४५२ ।। www.kobatirth.org अजुत्ते० ४, चत्तारि जाणा पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते ० ४, एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं - जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते० ४, चत्तारि जाणा पं० ०जामगे जुत्तरू, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, अजुत्त णाममेगे जुत्तरूवे० ४, एवामेव चारि पुरिसजाया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे०४, चत्तारि जाणा पं० तं०-जुते णाममेगे जुत्तसोभे० ४, एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्तलोभे० ४ । चत्तारि जुग्गा पं० तं०जुत्ते णाममेगे जुत्ते ० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवं जहा जाणेण चत्तारि आलावगा तहा जुग्गेण वि, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाता जाव सोभेत्ति । चत्तारि सारही पं० तं० - जोयावइत्ता णामं एगे नो विजोयावइत्ता, विजोयावइत्ता नामं एगे नो जोयावत्ता, एगे जोयावइत्ता वि विजोयावइत्ता वि, एगे नो जोयावइत्ता नो विजोयावइत्ता, एवामेव चत्तारि हया पं० तं - जुत्ते णामं एगे जुत्ते जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया * चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आ पाठ प्रत्यंतरां छे, आगमोदय समितिवाळी प्रतिमां नथी. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ********* ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ ध्यान-युग्यसारथिप्रभृतिचतु भंगिका सू० ३२० ४५२ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Si Kailasagarsur Gyarmandie = पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवं जुत्तपरिणते जुत्तरूवे जुत्तसोभे सव्वेसि पडिवक्खो पुरिसजाता। - चत्तारि गया पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवामेव चत्तारि युरिसजाया पं० २०-जुत्ते | णाममेगे जुत्ते ४. एवं जहा हयाणं तहा गयाण विभाणियव्वं. पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया। xचत्तारि जग्गारिता पं००-पंथजाती णाममेगे नो उप्पहजाती उप्पथजाती णाममेगे णो पंथजाती. [-] एगे पंथजाती वि उप्पहजाती वि, एगे णो पंथजाती णो उप्पहजाती, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया। चत्तारि पुप्फा पं००-रूवसंपन्ने नाममेगे नो गंधसंपन्ने, गंधसंपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने, एगे रूवसंपन्ने वि गंधसंपन्ने वि, एगे णो रूवसंपन्ने णो गंधसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिस जाया पं० तं-रूवसंपन्ने णाममेगे णो सीलसंपन्ने ४. चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जातिसंपन्ने नाम8 मेगे नो कुलसंपन्ने ४ (१), चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जातिसंपन्ने नामं एगेणो वलसंपन्ने, बल- | संपन्ने नामं एगे णो जातिसंपन्ने ४ (२), एवं जातीते रूवेण ४ चत्तारि आलावगा (३), एवं जातीते | सुएण ४ (४), एवं जातीते सीलेण ४ (५), एवं जातीते चरित्तेण ४ (६), एवं कुलेण बलेण ४ XXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxx (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXx) For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir KXXXX भीस्थानाङ्गपत्र बानुवाद ॥१५३॥ Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) (७) एवं कलेण स्वेण ४ (८), कलेण सतेण ४ (९), कलेण सीलेण ४ (१०) कलेण चरित्तेण ४ X४ स्थान(११), चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-वलसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने ४ (१२), एवं बलेण सुत्तेण 13 काम्ययने ४ (१३), एवं बलेण सीलेण? (१४), एवं बलेण चरित्तेण ४ (१५), चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- उद्देशः ३ रूवसंपन्ने नाममेगे णो सुयसंपण्णे ४ (१६), एवं रूवेण सीलेण ४ (१७), रूवेण चरित्तेण ४ (१८), xयान-युग्यचत्तारि परिसजाता पं० तं०-सुयसंपन्ने नाममेगे णो सीलसंपन्ने ४ (१९). एवं सुतेण चरित्तेण य सारथिप्र४ (२०). चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-सीलसंपन्ने नाममेगे नो चरित्तसंपन्ने ४ (२१), एते एक भृतिचतु भंगिका वीसं भंगा भाणितव्वा, चत्तारि फला पं० २०-आमलगमहुरे मुद्दितामहरे खीरमहरे खंडमहरे. सू० ३२० एवामेव चत्तारि आयरिया पं० सं०-आमलगमहुरफलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे, चत्तारि परिसजाया पं० २०-आतवेतावच्चकरे नाममेगे नो परवेतावच्चकरे ४. चत्तारि पुरिसजाता पं० तंकरेति नाममेगे वेयावच्चं णो पडिच्छइ, पडिच्छइ नाममेगे वेयावच्चं नो करेइ ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-अट्रकरे णाममेगे णो माणकरे. माणकरे णाममेगे णो अटुकरे, एगे अट्र करेवि ४॥४५३॥ For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx:XXXXXXXXXX माणकरे वि, एगे णो अटुकरे णो माणकरे, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-गणटकरे नाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-गणसंग्गहकरे णाममेगे णो माणकरे ४. चत्तारि परिसजाया पं० तं०-गणसोभकरे णामं एगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०गणसोहिकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-रूवं नाममेगे जहति नो धम्मं धम्मं नाममेगे जहति नो रूवं, एगे रूवं पि जहति धम्म पि जहति, एगे नो रूवं जहति नो धम्मं चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० धम्मं नाममेगे जहति जो गणसंठिति ४. चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-पियधम्मे नाममेगे नो दढधम्मे, दढधम्मे नाममेगे नो पितधम्मे, एगे पियधम्मे वि दढधम्मे वि, एगे नो पियधम्मे नो दढधम्मे, चत्तारि आयरिया पं. तं०-पवायणायरिते नाममेगे णो उवट्ठावणायरिते, उवट्ठावणायरिए णाममेगे णो पवायणायरिए, एगे पव्वायणातरितेवि उवट्टावणातरिते वि, एगे नो पव्वायणातरिते नो उढावणातरिते धम्मायरिए, चत्तारि आयरिया पं० तं०-उद्देसणायरिए णाममेगे णो वायणायरिए ४ धम्मायरिए, चत्तारि XXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गपत्र सानुवाद ॥ ४५४ ।।। www.kobatirth.org अंतेवासी पं० तं०-पव्त्रायणंतेवासी नामं एगे णो उबट्टावणंतेवासी ४, धम्मंतेवासी, चत्तारि अंतेवासी पं० तं०- उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी १ [वायणंतेवासी ] ४ धम्मं - वासी, चत्तारि निग्गंथा पं० तं०-रातिणिये समणे निग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराधते भवति १, राइणिते समणे निग्गंथे अप्पकम्मे अत्यकिरिते आतावी समिए धम्मस्स आहते भवति २, ओमरातिणिते समणे निग्गंथे महाकम्मे महाकिरिते अणातावी असमते धम्मस्स अणाराहते भवति ३, ओमरातिणिते समणे निग्गंधे अप्पकम्मे अप्पकरिते आतावी समिते धम्मस आराहते भवति ४, चत्तारि णिग्गंथीओ पं० तं० - रातिणिया समणी निग्गंधी एवं चैत्र ४, चत्तारि समणोवासगा पं० तं०-रायणिते समणोवासए महाकम् मे तव ५, चत्तारि समणोवासियाओ पं० नं० - रायणिता समणोवासिता महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा । सू० ३२० मूलार्थ:-चार प्रकारना यान- शकटादि कहेला छे, ते आ प्रमाणे - १ एक गाई विगेरे यान बळद जोडेल छे अने सर्व सामग्री युक्त छे, २ एक यान बळद विगेरेथी युक्त (जोडेल) पण सर्व सामग्रीथी अयुक्त छे, ३ एक यान For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ यान-युग्यसारथिप्र भृतिचतु भैगिका सू० ३२० ।। ४५४ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx बळद विगरेथी अयुक्त छ पण सबै सामग्रीथी युक्त छ तम ज४एक यान चळद विगेरे थी अयुक अने सामग्रीथी. पण अयुक्त छ. ए दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक पुरुप धनादिबडे युक्त छे अने बळी उचित अनुष्ठानबडे युक्त छ, २ एक पुरुष धनादिवडे युक्त छ पण उचित अनुष्ठानवडे युक्त नथी, ३ एक पुरुष धनादिवडे अयुक्त छ पण उचित अनुष्ठानवडे यक्त छ तेमज ४ एक पुरुप धनादिवडे अयुक्त छ अन उचित अनुष्ठानवडे पण अयुक्त छे. चार प्रकारना यान कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१एक यान बळद विगरथी युक्त छ अने युक्तपरिणत छ-प्रथम सामग्रीवडे अयुक्त छतो यक्तपणाए परिणत छ,२एक यान बळद विगेरेथी युक्त छे पण सामग्रीवडे युक्तपरिणत थयेल नथी ३, एक यान बळद विगैरेवडे अयक्त (नहि जोडायेल) छे पण सामग्रीवडे परिणत छे तेमज ४ एक यान बळद विगेरेथी अयुक्त अने सामग्रीवडे पण अपरिणत छे. ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे१ पुरुष धनादिवडे युक्त अने उचित प्रवृत्तिवडे परिणत छ, २ एक पुरुष धनादिवडे युक्त छे पण उचित प्रवृत्तिबर्ड परिणत नथी, ३ एक पुरुष धनादिवडे अयुक्त छ पण उचित प्रवृत्तिवडे परिणत छे अने ४ एक पुरुष धनादिवडे अयुक्त अने उचित प्रवृत्तिवडे पण अपरिणत छे. चार प्रकारना यान-गाडा विगरे कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक यान बेळदावडे युक्त छे अन युक्तरूप-सुंदर आकारवाछं छे, २ एक यान-गाडा विगेरे वळदोबडे युक्त छ पण सुंदर आकारवाळु नथी,३ एक यान बळदावड अयुक्त छ पण सुंदर आकारवाळु छ तेमज ४ एक यान बळदोबडे अयुक्त छ अने सुंदर आकारवाळू पण नथी. आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोई एक पुरुष धनादिवडे युक्त छे अने सुंदर आकृतिवाळो छ, २ काई Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्कपत्र सानुवाद ॥४५५॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx एक पुरुष धनादिवडे युक्त छ पण सुंदर आकृतिवाको नथी. ३ कोईक धनादिवडे अयुक्त छ पण सुंदर आकुतिवाळो छ |x ४ स्थानतेमज ४ कोईक धनादिवडे युक्त नथी अने सुंदर आकृतिवाळो पण नथी. चार प्रकारना गाडा विगेरे यान कहेला छे, ते आ | काध्ययने प्रमाणे-१ एक यान बळदोवडे युक्त छे, वळी युक्तशोभ-उचित शोभावालं छे, २ एक यान बळदोवडे युक्त छे पण उचित शोभावाल्छु नथी, ३ एक यान बळदोवडे अयुक्त (जोडेलु नथी) पण उचित शोभावाल्छं छे तेमज ४ एक यान बळदोबडे जोडेलु उद्देशः ३ नथी अने उचित शोभावाल्लं पण नथी. आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोई एक पुरुष उचित यान-युग्यगुणवडे युक्त छे, वळी उचित शोभायुक्त छे, २ कोईक उचित गुणवडे युक्त छे पण उचित शोभावडे युक्त नथी, ३ कोईक * सारथिप्रउचित गुणवडे अयुक्त छे पण उचित शोभावडे युक्त छे अने ४ कोईक उचित गुणवडे अयुक्त अने उचित शोभावडे पण भृतिचतुअयुक्त छे. चार प्रकारना युग्य-अश्वादि वाहनो कहेला छे. ते आ प्रमाणे-१ कोईक अश्व युक्त-पलाण संयुक्त छ, अने भंगिका युक्त वेगवाळो छे, २ पलाण युक्त छे पण वेगवाळो नथी, ३ पलाण युक्त नथी पण वेगवाळो छ तेमज ४ पलाण युक्त सू० ३२० नथी अने वेग युक्त पण नथी. आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष धनधान्यादिवडे युक्त, वळी उत्साह गुणवडे युक्त छे, २ कोईक धनादिवडे युक्त पण उत्साह गुणवडे युक्त नथी, ३ कोईक धनादिबडे अयुक्त पण उत्साह गुण युक्त छे तेमज ४ कोईक धनादिवडे अयुक्त अने उत्साह गुणवडे पण युक्त नथी. एवी रीते जेम यान शब्द साथे चार आलापको कहेला छे तेम युग्य शब्द साथे पण चार आलापको कहेवा. प्रतिपक्षदार्टीतिक सूत्रोना पण चार प्रकारना पुरुषो यावत् एक पुरुष, उचित गुणवडे युक्त अने युक्त शोभावाळो छे इत्यादि चार ॥ ४५५॥ XXXX For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx भांगा सुधी चार आलापको कहेवा. चार प्रकारना सारथी कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक सारथी गाडामां बळद विगेरेने जोडनार छ पण छोडनार नथी, २ एक छोडनार छ पण जोडनार नथी, ३ एक जोडनार छ अने छोडनार पण छे तेमज ४ एक जोडनार पण नथी अने छोडनार पण नथी अर्थात् खेडनार छे. साधु आश्रयीने १ एक संयमयोगमा प्रवर्तावनार छ, २ अनुचितथी निवारनार छ, ३ प्रबर्तावनार अने निवारनार पण छे अने ४ बन्नेथी रहित छ. चार प्रकारना घोडाओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक घोडो पलाण विगेरेथी युक्त, तेमज वेग विगरेधी युक्त छे, २ एक पलाण विगेरेथी युक्त छे पण वेगवाळो नथी, ३ पलाण विगेरेथी युक्त नथी पण वेगवाळो छे तेमज ४ पलाण युक्त नथी अने वेग युक्त पण नथी. ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष धनादिवडे युक्त अने वळी उत्साह विगेरे गुण युक्त छ, २ कोईक धनादिवडे युक्त छे पण उत्साहादि गुण युक्त नथी, ३ कोईक धनादि युक्त अने उत्साहादि युक्त पण छे तेमज ४ कोईक उभय युक्त नथी. एवी रीते युक्तपरिणत, युक्तरूप अने युक्तशोभा साथे चार भांगा युक्त शब्दपूर्वक 'हय' ना पण करखा. बधा सूचना प्रतिपक्ष-दार्टीतिक सूत्रमा पुरुष सूत्रोना चार आलापको कहेवा. चार प्रकारना हाथी कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक हाथी अंबाडी रहित छे पण वेग सहित छे, २ कोईक अंबाडी सहित छे पण वेग सहित नथी, ३ कोईक बन्ने सहित छे अने ४ कोईक बन्ने सहित नथी. ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे१ कोईक पुरुष धनादि युक्त छे अने उत्साहादि युक्त नथी, २ कोईक धनादि युक्त नथी पण उत्साहादि युक्त छे, ३ कोईक उभय युक्त छे तेमज ४ कोईक उभय युक्त नथी. एवी रीते जेम घोडाओना चार आलापको कह्या तेम हाथीओना XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ४५६ ।। www.kobatirth.org पण चार आलापको कहेवा. प्रतिपक्ष - दाष्टतिकमां पुरुषोना चार आलापको कहेवा. चार प्रकारनी युग्य ( अश्वादि वाहन ) नी गति कहेली छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक अश्वादि मार्गमां चाले छे पण उन्मार्गमां चालतो नथी, २ कोईक उन्मार्गमां चाले छे पण मार्गमां चालतो नथी, ३ कोईक मार्गमां अने उन्मार्गमां पण चाले हे अने ४ कोईक मार्गमां के उन्मार्गमां पण चालतो नथी. आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईएक युग्य-संयमना भारने वहन करनार साधु संयममार्गने विषे चाले हे पण उन्मार्गमां चालतो नथी ते अप्रमत्त मुनि, २ कोईक साधु असंयममार्गमां चाले छे पण संयममार्गमा चालतो - वर्त्ततो नथी ते द्रव्यलिंगी साधु, ३ कोईक साधु मार्गमा अने उन्मार्गमां पण चाले हे ते प्रमत्त साधु तेमज ४ कोईक मार्गमां के उन्मार्गमां पण चालतो नथी ते सिद्ध. चार प्रकारना पुष्पो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ एक पुष्प रूपसंपन्न - सुंद राकार छे पण गंधसंपन्न ( सुगंधी ) नथी - आवळना फूलनी जेम, २ एक पुष्प गंधसंपन छे पण रूपसंपन्न नथीचंपाना फूलनी जेम, ३ एक पुष्प रूपसंपन्न छे अने गंधसंपन्न पण छे-जाईना फूलनी जेम अने ४ एक पुष्प रूप के गंध बन्नेथी संपन्न नथी-बोरडीना कूलनी जेम. ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे - १ एक पुरुष सुंदर रूपवाळो छे पण शील-सदाचारवाळो नथी, २ एक पुरुष शीलसंपन्न हे पण रूपसंपन्न नथी, ३ एक बने गुणयुक्त छे अने ४ एक बनेथी रहित छे. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ एक जातिसंपन्न - उत्तम जातिवाळो छे पण कुलसंपन्न नथी, २ एक कुलसंपन्न छे पण जातिसंपन्न नथी, ३ एक उभयसंपन्न छे अने ४ एक उभयसंपन्न नथी. (१), चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ एक जातिसंपन छे पण बलसंपन्न नथी, २ एक बल For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************ ४ स्थान काध्ययने | उद्देशः ३ यान-युग्यसारथिप्र भृतिचतु भंगिका सू० ३२० ।।। ४५६ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx संपन छे पण जातिसंपन्न नथी, ३ एक उभयसंपन्न छे अने ४ एक उभयसंपन्न नथी. (२), एवी रीते जातिथी रूपनी साथे चतुभंगी करवी (३), एमज जातिथी श्रुतनी साथे चतुर्भगी (४), एमज जातिथी शीलनी साथे चतुभंगी (५), एम जातिथी चारित्रनी साथे चतुर्भगी (६), एम कुलथी बलनी साथे चतुभंगी (७), कुल अने रूपनी साथे चतुभंगी (८), कुल अने श्रुतनी साथे चतुर्भगी (९), कुल अने शीलनी साथे चतुभंगी (१०), कुल अने चारित्रनी साथे चतुभंगी (११), चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक पुरुष बलसंपन्न छे पण रूपसंपन्न नथी, एम बल अने रूपनी चतुर्भगी जाणवी. (१२), एम बल अने श्रुतनी साथे चतुर्भगी (१३), एम बल अने शीलनी साथे (१४), एमज बल अने चारित्रनी साथे चतुभंगी कहेवी. (१५) चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक पुरुष रूपसंपन्न छे पण श्रुत(ज्ञान)संपन्न नथी, एम रूप अने श्रुतनी चतुभंगी (१६), एम रूप अने शीलनी साथे चतुभंगी (१७), रूप अने चारित्रनी साथे चतुभंगी (१८), चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक पुरुष श्रुतसंपन्न छे पण शीलसंपन्न नथी, एम श्रुत अने शीलनी चतुभंगी (१९), एम श्रुत अने चारित्रनी चतुर्भगी (२०), चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-एक पुरुष शीलसंपन्न छ पण चारित्रसंपन्न नथी, एम शील अने चारित्रनी चतुभंगी करवी (२१). आ बधा मळीने २१ भांगाओ (चतुर्भगीरूप ) कहेवा. चार प्रकारना फळो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोई एक फळ आमळाना जेवू मधुर छे, २ कोईक द्राक्षना जेवु मधुर छे, ३ कोईक दूधना जेवू मधुर छे अने ४ कोईक खांडना जेवू मधुर छे. आ दृष्टांते चार प्रकारना आचार्यों कहेला छे, ते आ प्रमाणे१ कोईक आचार्य आमळाना फळ समान मधुर अर्थात् कंईक मधुर वचन अने उपशमादि गुणवान छे, २ कोईक द्राक्ष समान Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४५७॥ KOKKKKKoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx मधुर अर्थात् अधिक मिष्टवचन अने उपशमादि गुणवान छे, ३ कोईक आचार्य दूध समान मधुर अर्थात् अधिकतर मिष्ट वचन ४स्थानअने उपशमादि गुणवान छे अने ४ कोईक आचार्य खांड समान मधुर अर्थात् अधिकतम मिष्ट वचन अने उपशमादि गुणसंपन्न काध्ययने छे. चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष-साधु, आहारादिवडे पोतानी वैयावच्च करे छ पण बीजानी x उद्देशः३ करतो नथी-ते आळसु अथवा असंभोगी साधु, २ कोईक साधु बीजानी वैयावच्च करे छे पण पोतानी करतो नथी-ते परोपकारी यान-युग्यसाधु, ३ कोईक पोतानी अने परनी वैयावच्च करे छे-ते स्थविरकल्पी साधु अने ४ कोईक पोतानी के परनी वैयावच्च सारथिप्रकरतो नथी-ते अनशन विशेष करनार साधु, चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष-साधु अन्य मुनिनी भृतिचतुवैयावच्च करे छ पण पोते निःस्पृह होवाथी पोतानी इच्छतो नथी, २ कोईक साधु पोते वैयावच्च इच्छे छे परंतु अन्यनी भगिका वैयावच्च करतो नथी-ते ग्लान साधु अथवा आचार्य, ३ कोईक अन्यनी वैयावच्च करे छे अने पोते पण इच्छे छे-ते सू० ३२० ते स्थविरकल्पी मुनि तेमज ४ कोईक अन्यनी वैयावच्च करतो नथी अने पोतानी इच्छतो पण नथी-ने जिनकल्पी मुनि. चार प्रकारना पुरुष कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष अर्थकर-राजादिने दिग्यात्रादिना प्रसंगमा हितनी प्राप्ति अने अहितनो परिहार विगेरे करे छ पण मान करतो नथी ते मंत्री अथवा नैमित्तिक, २ कोईक मानने करे छे पण अर्थकर नथी, ३ कोईक अर्थने पण करे छे अने मानने पण करे छे तेमज ४ कोईक अर्थकर पण नथी अने मानकर पण नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष-साधु गण-साधुसमुदायना अर्थ-कार्यने करे छे ते गणार्थकर छे, परंतु मान करतो नथी, २ कोईक मान करे छे पण साधुसमुदायना कार्यने करतो नथी, ३ कोईक साधुसमुदायना कार्यने ४॥४५७॥ xxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXX अने मानने पण करे छे अने ४ कोईक साधु बने करतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक | साधु गणसंग्रहकर-गच्छने माटे आहारादि अने ज्ञानादिवडे संग्रह करे छे एण मानने करतो नथी, २ कोईक मान करे हे | पण गन्छने माटे संग्रह करतो नथी, ३ कोईक संग्रह पण करे छे अने मान पण करे छे अने ४ कोईक गणसंग्रह के मान बन्ने करतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे. ते आ प्रमाणे-१ कोईक साधु निदोष साधुसामाचारी विगेरेथी गच्छनी शोभा करे छे पण मान करतो नथी, २ कोईक मान करे छ पण गच्छनी शोभा करतो नथी, ३ कोईक गच्छनी शोभा अने मान बन्ने करे छे अने ४ कोईक बन्ने करतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक साधु गणशोधिकर अर्थात् यथायोग्य प्रायश्चित्त आपq विगेरेथी गच्छनी शुद्धि करे छे, पण मान करतो नथी, २ कोईक मान कर छे | पण गच्छनी शुद्धि करतो नथी, ३ कोईक उभय करे छे अने ४ कोईक उभय करतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छ, ते आ प्रमाणे-१ कोईक साधु कारणवशात् रूप-साधुना वेषने छोडे छे पण चारित्रलक्षण धर्मने छोडतो नथी-वेष छोडीने भणवा माटे बौद्धमतमां गयेल हरिभद्रमूरिना शिष्यनी जेम, २ कोईक चारित्ररूप धर्मने छोडे छ पण वेपने छोडतो नथी, जमाली प्रमुख निवववत्, ३ कोईक साधु वेपने पण छोडे छे अने धर्मने पण छोडे छे-ते दीक्षा छोडीने घेर गयेल कंडरीक विगेरेनी जेम तेमज ४ कोईक बन्नेने छोडतो नथी ते सुसाधुनी जेम. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आप्रमाणे-१ कोईक साधु जिनाज्ञालक्षण धर्मने छोडे छे पण गणस्थिति-स्वगच्छनी मर्यादाने छोडतो नथी, २ कोईक गच्छनी मर्यादाने छोडे छे पण धर्मने छोडतो नथी, ३ कोईक बन्नेने छोडे छे अने ४ कोईक बन्नेने छोडतो नथी. चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ KoxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXMMMMMM For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नासूत्र चानुवाद ॥ ४५८ ॥ www.kobatirth.org प्रमाणे - १ कोईक पुरुष प्रियधर्मी हे पण दृढधर्मी नथी-कष्ट पडवाथी धर्मन छोडी दे छे, २ कोईक दृढधर्मी छे पण प्रियधर्मी नथी, केमके कष्ट पडवाथी धर्मने स्वीकारे छे, ३ कोईक प्रियधर्मी छे अने दृढधमी पण छे अने ४ कोईक प्रियधमी नथी तेमज दृढधर्मी पण नथी. चार प्रकारना आचार्यो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक प्रयाजनाचार्य दीक्षा आपनार छे पण उपस्थापनाचार्य थीम के स्वयं सर्व सिद्धांतना योगने वहन करेल न होवाथी महाव्रतोनुं आरोपण करावता नथी, २ कोईक उपस्थापनाचार्य हे पण प्रवाजनाचार्य नथी, ३ कोईक प्रवाजनाचार्य छे अने उपस्थानापचार्य पण छे तेमज ४ कोईक प्रवाजनाचार्य पण नथी अने उपस्थापनाचार्य पण नथी परंतु धर्माचार्य हे अर्थात् जेमनी पासेथी बोध प्राप्त थयो होय ते साधु अथवा श्रावक. चार प्रकारमा आचार्यों कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक आचार्य अंग विगेरे सूत्रने भणवामां शिष्यने अधिकारी करनार छे ते उद्देशनाचार्य छे पण वाचनाचार्य नथी अर्थात् वाचना आपता नथी, २ कोईक वाचनाचार्य छे-भणावे हे पण उद्देशनाचार्य नथी, ३ कोईक बने ते आचार्य हे अने ४ कोईक बन्ने रीते आचार्य नथी परंतु धर्माचार्य छे. चार प्रकारना अंतेवासी (शिष्य) कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक प्रव्राजना शिष्य-जेने दीक्षा आपेल होय ते, परंतु उपस्थापना शिष्य नथी अर्थात् वडीदीक्षा आपेल नथी, २ एक उपस्थापनावडे शिष्य हे पण प्रव्राजनावडे शिष्य नथी, ३ एक उभयप्रकारे शिष्य छे अने ४ कोईक उभयप्रकारे शिष्य नथी पण धर्मशिष्य छे अर्थात् तेने प्रतिबोधेल छे. १ एक उद्देशनवडे शिष्य छे अर्थात् तेने सूत्र भणाववामां अधिकारी करेल छे पण वाचना शिष्य नथी-तेने वाचना आपी नथी, २ एक वाचनावडे शिष्य हे पण उद्देशनवडे शिष्य नथी, ३ कोईक उभय प्रकारे शिष्य छे अने ४ कोईक उभय प्रकारे शिष्य नथी, धर्मशिष्य हे प्रतिबोधेल हे चार प्रकारना For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ यान-युग्य सारथिप्र भृतिचतु भंगिका सू० ३२० ।।। ४५८ ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX निग्रंथो कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ एक रात्निक [दीक्षापर्यायथी ज्येष्ठ] श्रमण-निग्रंथ, महाकर्मवाळा, कायिकी विगेरे महाक्रियावाळो, आतापनाने नहिं लेनारो अने समिति रहित ते धर्मनो आराधक थतो नथी.२ एक रात्निक श्रमण-निग्रंथ, लघुकर्मी, कायिकी विगेरे अल्प क्रियावाळो, आतापनाने लेनारो अने समितियुक्त छे ते धर्मनो आराधक थाय छे. ३ एक लघुरात्निक (दीक्षापर्यायमा लघु ) श्रमण-निग्रंथ, महाकर्मवाळो, महान् क्रियावाळो, आतापनाने नहिं लेनारो अने समिति रहित छे ते धर्मनो आराधक थतो नथी अने ४ एक लघुरात्निक श्रमण-निग्रंथ, लघुकर्मी, अल्प क्रियावाळो, आतापनाने लेनारो अने समिति सहित छे ते धर्मनो आराधक थाय छे. चार प्रकारनी साध्वीओ कहेली छ, ते आ प्रमाणे-रात्निका (दीक्षापर्याये मोटी) श्रमणी-निग्रंथीओ साधुओनी जेम चार प्रकारे कहेवी. चार प्रकारना श्रमणोपासको कहेला छे, ते आ प्रमाणे-रानिक ( मोटो) श्रमणोपासक, महाकमवाळो इत्यादि चार प्रकारे चार भांगा कहेवा. चार प्रकारनी श्रमणोपासिका कहेली छे, ते आ प्रमाणे-रात्निका ( मोटी) श्रमणोपासिका, महाकर्मवाळी इत्यादि पूर्वोक्त प्रकारे चार गमा (भांगा) कहेवा. (मू० ३२०) टीकार्थः-'चत्तारी' त्यादि० आ सरळ छ. विशेष ए के-यान(गाडा)विगेरे, ते बळद विगेरेथी जोडेलु. वळी युक्तसमग्र सामग्रीवडे सहित अथवा प्रथम पण जोडेलु अने पछी पण जोडेलु आ एक, बीजुं बळदवडे जोडेलुं परंतु सामग्रीवडे रहित होवाथी अयुक्त, एम बीजो अने चोथो भांगो पण जाणवो. पुरुष तो धनादिवडे युक्त, वळी योग्य अनुष्ठानवडे युक्त अथवा सज्जनोवडे युक्त अथवा प्रथम पण धन अने धर्मना अनुष्ठान विगेरेथी युक्त अने पछी पण युक्त १, एम चार भांगा करवा. अथवा द्रव्यलिंगवडे युक्त अने भावलिंग( चारित्र )वडे युक्त ते प्रथम साधु, द्रव्यलिंगवडे युक्त पण भावलिंगवडे XKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX:) For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXXKXXX ४ स्थानकाभ्ययने उद्देश:३ यान-युग्यसारथिन भृतिचतु भीस्था- युक्त नहिं ते बीजो निह्ववादि, द्रव्यलिंगवडे रहित परंतु भावलिंगवडे युक्त ते त्रीजो प्रत्येकबुद्ध विगेरे अने बन्ने लिंगथी रहित नानपत्र ते चोथो गृहस्थादि. एवी रीते बीजा सूत्रो पण जाणी लेवा. विशेष ए के-बळदोवडे युक्त (जोडेलु ) अने युक्तपरिणत सानुवाद सामग्रीवडे प्रथम रहित थको युक्तपणाए परिणत (तैयार ) पुरुष पूर्ववत् जाणवो. युक्तरूप-संगत स्वभाववाल्लु अथवा ॥४५९॥x प्रशस्त( सुंदर ) युक्त ते युक्तरूप हे. पुरुषपक्षमां धनादिवडे युक्त अथवा ज्ञानादि गुणवडे युक्त, अने युक्तरूप-उचित वेष अथवा सुविहित साधुना वेषवडे युक्त. तथा युक्त पूर्ववत् तेमज जोडेलुं छतुं शोभे छे अथवा जोडेलानी शोभा छ जेने ते युक्तशोभ. पुरुष तो गुणोवडे युक्त अने उचित छे शोभा जेने ते युक्तशोभ. युग्य-अश्वादिवाहन अथवा गौडदेशमां चोग्स बे हाथना प्रमाणवाळं अने वेदिका सहित शोभतुं ते युग्यक कहेवाय छे. ते वडे युक्त बेसवानी सामग्रीवडे पर्याण( पलाण )वडे सहित, वळी वेग विगेरेथी युक्त, एवी रीते यान( गाडा विगेरे नी जेम व्याख्या करवा योग्य छे. ए ज कहे छ ' एवं जहे 'त्यादि. प्रतिपक्ष-दार्टीतिक तेमज जाणवो. कोण ? ते कहे छे-'पुरिसजाय ' त्ति० पुरुषना प्रकारो परिणत, रूप अने शोभाना सूत्रवडे दार्टीतिक सहित चतुभंगी कहेवी. यावत् शोभासूत्रनी चतुभंगी आ प्रमाणे-'अजुत्ते नामं एगे अजुत्तसोभे ति. आ चतुर्भगीनो चतुर्थ भंग छे. सारथी-खेडनार, गाडामां बळद विगैरेने योजयिता-जोडनार पण वियोजयिता-छोडनार नहिं ते प्रथम, बीजो तो छोडनार छ पण जोडनार नथी, एवी रीते शेष वे भांगा पण जाणवा. विशेष ए के-चोथो खेडे छ, अथवा | गाडा विगेरेने जोतरवानी तैयारी करनार प्रत्ये जोडावनार-प्रेरणा करनार ते योत्क्रापयिता अने छोडनाराओने जे प्रेरणा कर| नार ते वियोत्क्रापयिता. लोकोत्तरपुरुषनी विवक्षामा तो सारथीनी जेम सारथी-साधुओने संयमयोगोने विष प्रवर्तावनार ते भैगिका सू. ३२० KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx EXXXXXXX x||४५९॥ For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org योजयिता अने वियोजयिता तो अनुचित प्रवृत्ति करनार मुनिओने अटकावनार छे. यानसूत्रनी जेम अश्व अने गज (हाथी) ना सूत्रोपण जाणवा. 'जुग्गारिय ' ति० युग्य ( अश्वादि ) नी चर्या - गति. क्वचित् 'जुग्गायरिय' ति० एवो पण पाठ छे त्यां युग्यचर्या एटले अवादिनी गति जाणवी. एक वाहन ( अश्वादि) मार्गमां जनार होय छे परंतु उन्मार्गमां जबावालं होतुं नथी, इत्यादि चतुर्भगी जाणवी. अहिं वाहननी गतिवडे ज निर्देश-कथन चार प्रकारवडे कहेल होवाथी तेनी चर्या (गति) ने ज उद्देश डे कहेतुं चार प्रकारपणुं जाणवुं भावयुग्य पक्षमां तो वाहननी माफक युग्य-संयमयोगना भारने वहन करनार साधु, मार्गमा जनार ते अप्रमत्त मुनि, उन्मार्गमां जनार द्रव्यलिंगी, बनेमां जनार ते प्रमत्त यति अने चोथा भंगमां सिद्ध छे, क्रमशः १ सत्, २ असत् ३ उभय-सत् तथा असत् अने ४ बनेथी रहित अनुष्ठानवाळा होवाथी अथवा पथ अने उत्पथनुं स्वसमय अने परसमयस्वरूप होवाथी अने 'यायि' शब्दनो गतिरूप अर्थवडे बोधपर्याय होवाथी स्वसमय अने पर समयबोधनी अपेक्षाए आ चतुर्भगी जाणवी. अर्थात् एक स्वसमयने जाणे हे पण परसमयने जाणतो नथी, एक परसमयने जाणे छे पण स्वसमयने जाणतो नथी, एक उभय समय ( शास्त्र ) ने जाणे छे अने एक बन्नेने जाणतो नथी. एक पुष्प रूपसंपन्न - सुंदराकार छे पण गंधसंपन्न ( सुगंधी ) नथी - आवळना फूलनी जेम, बीजुं फूल बकुलना फूलनी जेम, त्रीजुं जाईना फूलनी जेम अने चोथुं बोरडी विगेरेना फूलनी जेम. पुरुष रूपसंपन्न - रूपाळो अथवा सुविहित साधुना रूपवाको १ जाति, २ कुल, ३ बल, ४ रूप ५ श्रुत, ६ शील अने ७ चारित्रलक्षण आ सात पदोने विषे द्विकसंयोगी एकवीश चोभंगी करवी सुगम छे. [ते आ प्रमाणेजाति पद साथे कुलादिथी चारित्रपद पर्यंत छ चोभंगी, कुल पद साथे बलादिपदथी पांच चोभंगी, बलपद साथे रूपादि पदथी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४६० ॥ www.kobatirth.org चार चोभंगी, रूप पद साथे श्रुतादिथी त्रण चोभंगी, श्रुतपद साधे शील अने चारित्रथी बे चोभंगी अने शीलपद साथे चारित्रपदथी एक चोभंगी थाय छे. ] आमळानी जेम मधुर अथवा जे आमळो ज मधुर ते आमलकमधुर, मुद्दिय ति० द्राक्षनी माफक मधुर अथवा द्राक्षज मधुर ते मृद्दिकामधुर, क्षीरनी जेम मधुर फळ ते क्षीरमधुर अने खांडनी जेम मधुर फळ ते खांडमधुर. जेम आमळा विगेरे फळो क्रमशः अल्प मधुरता, बहु मधुरता, बहुतर मधुरता अने बहुतम मधुरताबाळा होय छे तेमजे आचार्यो अल्प, बहु, बहुतर अने बहुतम उपशमादि गुणरूप मधुरतावाळा छे ते उक्त फळोनी समानतावडे कह्या छे. १ आत्म-पोतानी वैयावृत्य करनार ते आळसु मुनि अथवा विसंभोगी-भिन्न सामाचारीवाळो साधु, २ अन्यनी वैयावृत्य करनार ते पोतानी अपेक्षा नहिं, करनार ३ स्वपर वैयावृत्य करनार ते कोई पण स्थविरकल्पी मुनि तेमज ४ बन्ने प्रकारथी निवृत्त थयेल ते अनशन विगेरे स्वीकारेल मुनि. १ निःस्पृह होवाथी वैयावृत्यने करे छे ज, २ आचार्य अथवा ग्लानपणाने लईने वैयावच्च इच्छे छे ज, ३ करे छे अने इच्छे पण छे ते स्थविरविशेष, ४ बन्नेथी निवृत्त ते जिनकल्पी विगेरे मुनि, 'अट्ठकरे' ति० अर्थान् दिग्यात्रादिने विषे राजादिने हितनी प्राप्ति अने अहितना परिहाररूप अर्थने तथाप्रकारना उपदेशथी जे कहे छे ते अर्थकर, ते मंत्री अथवा नैमित्तिक, ते अर्थकर छे परंतु मान करतो नथी, ' हुं वगर पूछथे केम कहुँ ?' एम मान करतो नथी ए प्रथम, बीजा त्रण भांगा पण सुगम होवाथी जाणी लेवा. आ संबंधमां व्यवहारभाष्यनी गाथाओ आ प्रमाणे छेपुट्ठापुट्ठो पढमो, जत्ताइ हियाहियं परिकहेइ । तइओ पुट्ठो सेसा उ, निष्फला एव गच्छेवि ॥ १६५ ॥ यात्राना विषयमा राजाए पूछेल होय के न पूछेल होय तो पण शुभ, अशुभने कहे छे पण मानने करतो नथी ते प्रथम For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******* ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ यान-युग्य सारथिप्र भृतिचतु भंगिका सू० ३२० ॥ ४६० ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX भंग, पूछवाथी कहे पण मानवडे वगर पूछये न कहे ते तृतीय भंग अन बीजो भंग निष्फल छे केम के मान करे छे पण कई कहेतो नथी, तथा चोथो भंग पण निष्फळ छे कारण के ते पन्ने करतो नथी. फक्त राजानी सेवा करे छे. एवी रीते गच्छनी अंदर पण साधुविषयक चतुर्भगी जाणवी. गण-साधुसमुदायना अर्थ-कार्योंने करे छे ते गणार्थकर-आहार विगेरेवडे साहाय्य करनार पण मान करतो नथी, केम के ते प्रार्थनानी अपेक्षावालो होतो नथी. एम वीजा त्रण भांगा पण जाणी लेवा. कयु छ केआहारउवहिसयणा-इएहिं गच्छस्सुवग्गहंकुणइ । बीओन जाइमाणं, दोन्निवि तइओ न उ चउत्थो।१६६ ___ आहार, उपधि, शय्या विगेरेथी गच्छने मदद करे छ पण मान करतो नथी ते प्रथम, बीजो मदद करतो नथी पण मान करे छ, त्रीजो बने करे छे अने चोथो बन्ने करतो नथी. ____ अथवा · नो माणकरो' ति० हुं गच्छना कार्यनो करनार छु एम अभिमान करतो नथी. हमणा ज गच्छर्नु कार्य कडं ते संग्रह, माटे कहे छे-'गणसंगहकरे' त्ति. आहारादिवडे अने ज्ञानादिवडे गच्छ संबंधी संग्रहने करे ते गणसंग्रहकर. बाकी, पूर्वनी माफक जाणवू. कधुं छे केसो पुण गच्छस्सऽहोउ,संगहो तत्थ संगहो दुविहो। दव्वे भावे नियमाउ, होति आहारणाणादी॥१६७ गच्छने माटे संग्रह द्रव्य अने भावथी वे प्रकारनो कहेल छे. तेमां द्रव्यथी आहार, उपधि अने शय्या तथा XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाशपत्र सानुवाद ॥ ४६१ www.kobatirth.org भावथी ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप संग्रह करे छे परंतु मान करतो नथी गच्छने निर्दोष साधुनी सामाचारीमां प्रवर्त्ताविवावडे अथवा वादी, धर्मकथी, नैमित्तिक, विद्या अने सिद्ध* विगेरेपणाथी गच्छनी शोभा करवाना स्वभाववाळो ते गणशोभाकर पण मानने करतो नथी केमके प्रार्थनानो अभिलाषी होतो नथी अथवा मदनो अभाव होय छे. गणने यथायोग्य प्रायश्चित्त विगेरे देवाथी शोधि-शुद्धिने जे करे छे ते गणशोधिकर अथवा आहारादिने विषे दोषनी शंका थये छते गृहस्थना कुलमां ( घरे ) जईने तेनी प्रार्थना सिवाय जे आहारनी शुद्धि करे छे ते प्रथम पुरुष, जे मानथी शुद्धिने माटे जता नथी ते द्वितीय, गृहस्थनी प्रार्थनाथी जे जाय ते तृतीय अने जे प्रार्थनानी अपेक्षा पण करतो नथी अने जतो पण नथी ते चतुर्थ. रूपसाधुना वेपने कारणवशात् छोडे छे पण चारित्रलक्षण धर्मने छोडतो नथी, बोटिकमतमां रहेल मुनिवत्, बीजो तो धर्मने छोडे हे पण वेषने छोडतो नथी ते निववत, त्रीजो बन्नेने छोडे छे ते दीक्षाने छोडनारनी जेम अने चौथो बनेने छोडतो नथी ते सुसाधुनी जेम, कोईक जिनाज्ञारूप धर्मने छोडे छे पण स्वगच्छमां करायेली मर्यादारूप गणनी संस्थितिने छोडतो नथी. अहिं केटलाएक आचार्योंए तीर्थंकरना उपदेश बिना गच्छनी व्यवस्था आ प्रमाणे करेली के अतिशयवाळु महाकल्पादि श्रुत अन्य गच्छवाळाओ माटे आपणे आपकुं नहिं. आ मर्यादाने लईने जे अन्य गणवाळा ( योग्य साधु )ने श्रुत न आप्यं तेथी जिनाज्ञानुं पालन करवाथी धर्मने छोडे छे पण गणनी स्थितिने छोडतो नथी, केम के तीर्थंकरनो उपदेश एछे केबघा योग्य मुनिओने श्रुत आप आ प्रथम पुरुष. जे योग्यने श्रुत आपे छे ते द्वितीय, जे अयोग्य पुरुषोने आपे छे ते * अंजन, चूर्ण विगेरे प्रयोगवडे सिद्ध. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ यान-युग्य सारथिप्र भृतिचतु भेगिका सू० ३२० ४६१ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीय अने श्रुतनो नाश न धाय ते माटे श्रुतनी रक्षा ( ग्रहण ) करवामां समर्थ अन्य गच्छना शिष्यने स्वकीय दिग्बंध ( पोताना गच्छनी क्रिया) करीने अर्थात् तेने पण भणावनारना गच्छनी क्रियानुं पालन करवुं पडे ए प्रमाणे विधि करने श्रुतने आपे छे, तेथी धर्म अने गच्छनी मर्यादाने छोडतो नथी ते चतुर्थ. कधुं छे के सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देइ । उभयमवलंबमाणं, कामं तु तयंपि पूएमो ॥ १६८ ॥ 'जो अन्य गच्छबाळाने श्रुत नहिं आपीए तो श्रुतनो नाश थशे' एम विचारीने कोईक अन्य गच्छना बुद्धिमान साधुने जोईने पोतानी मेळे जतेने दिगबंध (आच्छोटन प्रच्छोटनादि क्रियारूप स्वगच्छनी विधि ) करीने श्रुतने आपे छे. ते स्वगच्छनी मर्यादानों तेमज जिनाज्ञानो पण पालक होवाथी तेने अमे विशेषतः पूजीए छीए. धर्ममां प्रीतिने लईने अने सुखपूर्वक धर्म स्वीकारेल होवाथी प्रिय छे धर्म जेने ते प्रियधर्म्मा छे पण दृढधर्म्मा नथी, केमके आपदामां पण धर्मना परिणामथी चलायमान न थाय अर्थात् क्षोभ न पामे ते दृढधर्म्मा होय छे. तेवो न होवाथी दृढधर्म्मा नथी १. कयुं छे केदसविहवेयावच्चे, अन्नतरे खिप्पमुज्जमं कुणति । अञ्चंतमणेव्वाणि, धिइविरियकिसो पढमभंगो ॥ १६९ ॥ दश प्रकारना वैयावृत्यमाथी कोई पण एक प्रकारमां प्रियधर्मीपणाने लईने तरत उद्यमने करे छे परंतु दृढधर्मी न होवाथी धैर्य अने वीर्यबलवडे कृश-नबळो होईने परिपूर्ण निर्वाह करी शकतो नथी, आ प्रथम भंग छे, बीजो पुरुष तो दृढधर्मी छे * अयोग्यने आप ते जिनाना नथी तेथी धर्म अने गच्छनी मर्यादाने उल्लंघे छे, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ४६२ ।।। www.kobatirth.org केमके अंगीकार करेल कार्यनुं पालन करे छे परंतु प्रियधर्मी नथी केमके कष्टवडे धर्मने स्वीकारे छे. तृतीय अने चतुर्थ भंग स्पष्ट छे. कं - दुक्खेण उगाहिज्जइ, बीओ गहियं तु नेइ जा तीरं । उभयं तो कल्लाणो, तइओ चरिमो उ पडिकुट्ठो ॥ १७० ॥ प्रियधर्मी न होवाथी जेने महाकष्टवडे धर्म ग्रहण करी शकाय छे परंतु ग्रहण करेल धर्मनुं बराबर पालन करतो होवाथी घर्मी ते बीजो श्रीजो उभय प्रकारवडे कल्याणरूप छे अने उभयथी प्रतिकूल चोथो पुरुष छे. आचार्य सूत्रना चोथा भांगामां जे दीक्षावडे अने उत्थापनावडे आचार्य नथी ते कोण ? ते संबंधमां कहे छे-धर्माचार्य - प्रतिबोधक. कहां छे केधम्मो जेणुवइट्ठो, सो धम्मगुरू गिही व समणो वा । कोवि तिर्हि संपउत्तो, दोहिवि एक्केक्कगेणेव ॥ १७९॥ जे धर्मनो उपदेश करेल ते गृहस्थ अथवा साधु धर्मगुरु-धर्माचार्य छे. कोईक त्रण प्रकारे - १ धर्माचार्य, २ दीक्षाचार्य अने ३ उपस्थापनाचार्य होय छे. कोईक वे प्रकारे-धर्माचार्य अने दीक्षाचार्य अथवा दीक्षाचार्य अने उपस्थापनाचार्य के अथवा कोई धर्माचार्यादि एक एक प्रकारवडे आचार्य होय छे. उद्देशन - अंगादि सूत्रने भणाववामां शिष्यने अधिकारी करवो तेमां अथवा तेनावडे जे आचार्य - गुरु ते उद्देशनाचार्य. उभयशून्य कोण होय ? ते कहे छे-धर्माचार्य. अंते-गुरुनी समीपे वसवा माटे स्वभाव छे जेनो ते अंतेवासी - शिष्य, प्रब्राजना - दीक्षावडे अंतेवासी ते प्रवाजनांतेवासी अर्थात् दीक्षित शिष्य अने महाव्रतोनुं आरोपण करवाथी शिष्य ते उपस्थापनांतेवासी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXX **************** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ यान-युग्यसारथिप्रभृ तिचतुर्भगिका सू० ३२० ।। ४६२ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कवाय छे. चोथा भांगावाळो कोण ? ते कहे छे-धर्मनो प्रतिबोध आपवाथी अथवा धर्मनी इच्छाथी आवेल शिष्य ते धर्मांतेवासी. जे उद्देशनांतेवासी पण नहिं अने वाचनांतेवासी पण नहिं ते चोथा भांगावाळो कोण ? ते कहे छे-धर्मांतवासी. बाह्य अने अभ्यंतर परिग्रहथी मुक्त थयेला ते निग्रंथ-साधुओ, भावधी ज्ञानादि रत्नोवडे विचरे-व्यवहार करे छे ते रात्निकदक्षपर्यावडे ज्येष्ठ श्रमण-निग्रंथ. स्थिति विगेरेथी महान् अने तथाविध प्रमादादिवडे प्रगट जगातां कमों छे जेने ते महाकर्मों (भारेकम), कर्मबंधना हेतुभूत कायिकयादि महाक्रियादि हे जेने ते महाक्रियावाळो, शीतादिने सहन करवारूप आतापनाने जे नथ करतो ते नाती म के ते मंदश्रद्धावा को होय छे, आ हेतुथी पांच समितिवडे असमित आवा प्रकारनो ज्येष्ठ साधुधर्मना आराधक थतो नथी. बीजो पर्यायज्येष्ठ मुनि तो अल्पकर्म्मा, अल्पक्रिय होवाथी धर्मनो आराधक थाय छे. त्रीजो लघुपर्यायवाळो रात्निक ते अवमरात्निक (आ त्रीजो भांगो प्रथम भंगवत् अने चतुर्थ भंग द्वितीय मंगवत् जाणवो) आ रीते निर्ग्रथी (साध्वी), श्रावक अने श्राविकाना 'चत्तारि गम' ति० आ त्रण सूत्रोमां पण चार चार आलापको थाय छे. (सू० ३२० ) चत्तारि समणोवासगा पं० तं० - अम्मापितिसमाणे भातिसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे, चत्तारि समणोवासगा पं० तं० - अद्दागसमाणे पडागसमाणे खाणुसमाणे खरकंटयसमाणे ४ । सू० ३२१, समणस्स णं भगवतो महावीरस्स समणोवासगाणं सोधम्मकप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओ माई ठिती पन्नत्ता । सू० ३२२, चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेना Se For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **************X*XX*XX*XX**X*XX************** Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४६३॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ मातापित्रादिसमा: Xxxxxxxxxxxxxxx श्रावका माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तते णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते. तं०-अहणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने से णं माणुस्सए कामभोगे नो आढाइ नो परियाणाति णो अटुं बंधइ णो णिताणं पगरेति णो ठितिपगप्पं पगरेति १, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते (४) तस्स णं माणुस्सते पेमे वोच्छिन्ने दिव्वे संकंते भवति २,अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते (४) तस्स णं एवं भवति-इणिंह गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं,तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति ३ अहणोक्वन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छित्ते (४) तस्स णं माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे तावि भवति, उद्वंपिय णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताई हव्व मागच्छति ४, इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुसं लोगं हव्व| मागच्छित्तए णो चेव णं संचातेति हठवमागच्छित्तए । चउहि ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसंलोगं हव्वमागच्छित्तए संचातेति हव्वमागच्छितए।तं०-अहणोववन्ने देवे देवलोगेस AAMKAKKAKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX वीरश्रावक देवत्वं, * देवागमाना गमकारणानि सू० ३२१-२३ RRRRR For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दिव्येसु कामभोगे अमुच्छिते जात्र अणज्झोववन्ने, तस्स णं एवं भवति-अत्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरितेति वा उवज्झाएति वा पवत्तीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेति वा जेसिं पभावेणं मए इमा एतारूवा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुत्ती लढा पत्ता अभिसमन्नागया, तं गच्छामि भगवं वंदामि जाव पज्जुवासाभि १, अहुणोववन्ने देवे देवलोएस जाव अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति - एस णं माणुस्सए भवे णाणीति वा तवस्तीति वा अइदुक्कररकारते, तं गच्छामि गं ते भगवं वंदामि जाव पज्जुवासामि २, अहुणोत्रवन्ने देवे देवलोएसु जाव अणज्झोववन्ने तस्स मेवं भवति - अस्थि णं मम माणुस्सए भवे माताति वा जाव सुण्हाति वा, तं गच्छामि णं तेसिमंतितं पाउब्भवामि पासंतु ता मे इममेतारूवं दिव्वं देविडिं दिव्वं देवजुत्तिं लद्धं पत्तं अभिसमन्नागतं ३, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु जाव अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति - अस्थि णं मम माणुस भवे मितेति वा, सहीति वा सुहीति वा सहाएति वा संगपति वा तोचि णं अम्हे अन्नमन्नस्स संगारे पडिसुते भवति, जो मे पुवि चयति से संबोहेतव्वे, इच्चेतेहिं जाव संचातेति For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsur Gyarmandie भीस्था नाङ्गपत्र मानुवाद ॥४६४॥ Xxxxxxxxx हव्वमागच्छित्तते ४ । सू० ३२३ ४ स्थान मूलार्थ:-चार प्रकारना श्रावको कहेला छे, ते आ प्रमागे-१ कोईक श्रावक मातापिता समानछे-साधुने एकांत हितकारी काध्ययने छे, २ भाई समान-मातापिताधी ओछा स्नेहवाळो होईने शिखामग आपवा माटे साधुने निष्ठुर वचन कहे परंतु कार्यना प्रसंगमा | उद्देशः३ वात्सल्यभक्ति करे छे, ३ मित्र समान-साधुए कोई प्रसंगने लईने कठोर वचन कहेल होय तेयी प्रीतिनो क्षय धवाथी आप मातापित्रात्तिमां साधुनी उपेक्षा करे छे अने ४ सपत्नी (शोक) समान-साधुओना केवळ छिद्रने ज जोनारो होय छे. वळी चार प्रकारना दिसमाःश्राश्रावको कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ आदर्श ( आरीसा ) समान-साधु जे स्वरूप कहे ते हृदयमा स्वीकारे, २ पताका समान- काः, वीरविचित्र देशनावडे अस्थिर मनघाळो, ३ स्थाणु समान-गीतार्थथी पण समजावी न शकाय तेयो कदाग्रही अन ४ खरकंटक समान- श्रावकदेवशिखामण आपनार साधुने दुवेचनरूप कांटाथी वींधनारो. (मू० ३२१) श्रमण भगवान् महावीरस्वामीना दश आवकोनी त्वं, देवागसौधर्म देवलोकमां अरुणाभ विमानने विषे चार पल्योपमनी स्थिति कहेली छे. (मू० ३२२ ) चार कारणोबडे देवलोकमां xमानागमतत्काल उत्पन्न थयेल देव मनुष्यलोकमां शीघ्र आववा माटे इच्छे परंतु आरवाने समर्थ न थाय, ते आ प्रमाणे-१ देवलोकमां | कारणानि तत्काळ उत्पन्न थयेल देव, दिव्य कामभोगने विषे मूञ्छित थयेल, गृद्ध थयल, ग्रथित-बंधायल अने आसक्त थयेल एवो ते देव सू०३२१मनुष्य संबंधी कामभोगमा आदरवाळो थतो नथी, वस्तुभूत-साररूप मानतो नथी, एनुं मने प्रयोजन नथी, एम निश्चय करे छे अने ३२३ 'मने मळो' एम निया| करतो नथी अर्थात् मनुष्यविषयक कामभोगोमां हूं रहुं एम विचारतो नथी, २ देवलोकमा तत्काल उत्पन्न ४६४॥ KO XXXXX) For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalbirth.org Acharya Shri K asagarsuri Gyarmandie OxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXX) थयेल देव, दिव्य कामभोगने विषे मृर्निछत, गृह, ग्रथित अने आसक्त थयेल तेने मनुष्यना भव संबंधी मातापितादि उपरना प्रेमनो अभाव थाय छे अने देव संबंधी प्रेमनो संक्रम-प्रवेश थाय छे, ३ देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थयेल देव, दिव्य काम| भोगने विषे मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित अने आसक्त थयेल, तेने एम विचार थाय छे के-हमणा जाउं छु, आ नाटक जोईने मुहर्त्तमा जाउं छु परंतु एक दिव्य नाटक जोतां बे हजार वर्ष चाल्या जाय छे तेटला काळमां अल्प आयुष्यवाळा तेना संबंधी मनुष्यो काळधर्म संयुक्त थाय छे अर्थात् मरण पामे छे, ४ देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थयेल देव, दिव्य कामभोगने विषे मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित अने आसक्त थयेल तेने मनुष्यलोक संबंधी गंध, दिव्य गंधथी विपरीत अने इंद्रियादिने अमनोज्ञ थाय छ. ऊंचे पण मनुष्यलोक संबंधी गंध चारसो पांचसो योजन पर्यंत देवने आवे छे. आ जणावेल चार कारणवडे देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थयेल देव मनुष्यलोकमां आववा माटे इच्छे छे छतां शीघ्र आववा माटे समर्थ थतो नथी. चार कारणवडे देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थयेल देव,मनुष्यलोकमां शीघ्र आववा माटे इच्छे छे अने आश्वा माटे समर्थ पण थाय छे, ते आप्रमाणे १-देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थयेल देव, दिव्य कामभोगने विषे अमृञ्छित, अगृद्ध, अग्रथित अने अनासक्त एवा तेने आ प्रमाणे विचार थाय छे के-मनुष्यभवने विपे मारा आचार्य, उपाध्याय, प्रवत्तक, स्थविर, गणी, गणधर अथवा गणावच्छेदक छ, जेना प्रभावथी में आवा प्रकारनी प्रत्यक्ष दिव्य देव संबंधी ऋद्धि, देव संबंधी कांति, पूर्व उपाजी, हमणा प्राप्त करी, भोग्य अवस्थाने सन्मुख आवी माटे हुँ जाउं, ते भगवंतो प्रत्ये वंदन करूं यावत् पर्युपासना (सेवा) करु, २ देवलोकमां तत्काल उत्पन्न थियेल देव यावत् अनासक्त तेने एवो विचार थाय छे के-आ मनुष्यभवमां वर्तता ज्ञानी, तपस्वी अथवा अति दुष्करकारक xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था ★I ( ब्रह्मचर्यादि क्रियाने करनार ) छे ते कारणथी हुं त्यां जाउं, ते भगवंतोने वंदन करूं यावत् सेवा करूं. ३ देवलोकमां तत्काल नागपत्र ४ स्थानउत्पन्न थयेल देव यावत् अनासक्त तेने एवो विचार थाय छे के-मनुष्यभवने विपे मारी माता अथवा यावत् पुत्रवधू छे तेथी काध्ययने मानुवाद त्यां जाउं अने तेनी पासे प्रगट थाउं, ते माता विगेरे मारी आवा प्रकारनी देव संबंधी, पूर्वभवमा मेळवेली, वर्तमानभवमा प्राप्त थयेली अने भोगमा सन्मुख आवेली दिव्य, देवनी ऋद्धि अने दिव्य देवनी कांतिने जुओ, ४ देवलोकमां उत्पन्न थयेल उद्देशः ३ ॥४६५॥ देव यावत् अनासक्त तेने एवो विचार थाय हे के-मनुष्यभवने विषे मारा मित्र. सखा, सुहृद ( स्वजन), सहायक अथवा माता पित्रासांगतिक (अतिपरिचित) छे तेओनो अने अमारो परस्पर संकेत करायेल हे अर्थात् कबूलात आपेल छ के-आपणामांथी * दिसमाःश्रादेवलोकथी जे प्रथम च्यवे तेने पाछळ रहेला देवे प्रतिबोध आपयो ( मेतार्यनी जेम ). आ प्रमाणे चार कारणोबडे देव शीघ्र |वकाः, वीरमनुष्यलोकमां आववा माटे समर्थ थाय छे. (सू० ३२३ ) श्रावकदेवटीकार्थ:-'अम्मापिइसमाणे '-१ मातापिता समान, केम के उपचार विना-साधुए कह्या सिवाय पण साधुओने त्वं, देवागविषे एकांत वात्सल्य भक्तिभाववाळा होय छे. २ तत्वना विचार विगेरेमा कठण वचनवडे अप्रीतिने लईने अल्पतर प्रेम होय मानागमछे परंतु तथाप्रकारना प्रयोजनने विषे तो अत्यंत वात्सल्यवाळा होवाथी भाई समान छे, ३ उपचार सहित वचन विगेरेवडे कारणानि प्रीतिनी क्षति( नाश) थवाथी अने ते प्रीतिनो नाश थये छते आपदाना समयमां पण उपेक्षा करनार होवाथी मित्र समान सू०३२१छ अने ४ जेणीनो समान-( बन्नेनो एक ) पति छे ते सपत्नी. जेम शोक्य पोतानी शोक्य प्रत्येनी ईर्ष्याने लईने तेना छिद्रोने ३२३ जुए छे एम जे श्रावक साधुओने विषे षण जोवामां तत्पर होय अने उपकारने करनारो न होय ते सपत्नी (शोक्य ) समान ४॥४६५॥ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) XXXX For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कहेवाय छे. 'अहाग' त्ति. १ जे श्रावक साधुओद्वारा वर्णन कराता उत्सर्ग अने अपवादादि आगमना भावोने यथावतजेम छे तेम ग्रहण करे छ अर्थात् समीपमा रहेला पदार्थोने जेम आरीसो ग्रहण करे छे तेम जे( तत्वने) ग्रहण करे छे ते आदर्श समान, २ पताकानी माफक विचित्र देशनादिरूप वायुवडे चोतरफथी खेंचातो होवाथी जेनो अस्थिर-अनिश्चित बोध छे ते पताका समान, ३ जे श्रावक गीतार्थ मुनिनी देशनावडे पण कोई पण कदाग्रहथी चळावी शकातो नथी, अनमन स्वभावरूप बोधने लईने समजाववा योग्य नथी अर्थात् दुराग्रही स्थाणु( ठुठा) समान छे, ४ जे श्रावक समजाव्यो छतो मात्र पोताना कदाग्रहथी चलित थतो नथी एटलं ज नहिं परंतु प्रज्ञापक( समजावनार )ने दुर्वचनरूप कंटकवडे वींधे छे ते खरकंटक समान छे. अर्थात् खर निरंतर अथवा निष्ठुर, कांटा छे जेने विषे ते खरकंटक-बावळ विगेरेनी डाळ, जे लोकमां 'खरण' कहेवाय छे ते कपडांने वळगवाथी मात्र वखने फाडवा मात्रथी छोडे छे एटलं ज नहिं परंतु तेने मूकावनार पुरुष विगेरेना हाथ पण कांटाओवडे वींधाय छे अथवा बीजाओने जे खरडे छे-लेपवाळो करे छे ते खरंट-अशुचि विगेरे तेना जेवो. तेना कुबोधने दूर करवा माटे जे पुरुष तैयार थाय छे तेने जे संसर्ग(संबंध) मात्रथी ज दूषणवाळो करे छे. कुबोध, कुशीलता अने अपकीर्तिने उत्पन्न करवाधी अथवा आ उत्सूत्रप्ररूपक छ एम असत् दूषणनो उद्भावक-प्रचार करवावडे खरंट समान छे. ( सू० ३२१ ) श्रमणोपासकना अधिकारथी कहे छ-'समणस्से 'त्यादि० सूत्र सरळ छे. विशेष ए केउपासकदशांगसूत्रमा कहेला आनंदादि दश श्रावकोनी सौधमदेवलोकमां चार पल्योपमंनी स्थिति कहेली छे. (सू० ३२२) देवना अधिकारथी ज कहे है-' चउही 'त्यादि० त्रीजा स्थानकना त्रीजा उद्देशाने विषे प्रायः आ व्याख्यान करायेलुं छे woxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXOXOXON For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४६६ ॥ 5 तथापि कंईक कहेवाय छ-'चरहिं ठाणेहिं नो संचाएइचि' अहिं संबंध ए छे के-देवलोकने विषे-देवोनी अंदर 'हवं'- ४ स्थानशीघ्र 'संचाएइत्ति'-समर्थ छ. मनोज्ञ शब्दादिरूप कामभोगोने विषे मूछितनी जेम मृढ, केम के-अनित्यादि स्वरूपवाळा काभ्ययने कामभोगना बोधमां समर्थ न होवाथी 'गृद्धः '-तेनी आकांक्षावाळो अर्थात् अतृप्त. 'ग्रथित '(बंधायेल )नी जेम ग्रथित उद्देशः ३ अर्थात् शब्दादि विषयमा स्नेहरूप दोरडीबडे गुंथायेल 'अध्युपपन्नः'-अत्यंत तन्मय ( उक्त कारणने लईने मनुष्य संबंधी) मातापित्राकामभोगने विषे आदरवाळो थतो नथी. आ वस्तुभूत छे एम पण मानतो नथी अर्थात् तुच्छ गगे छ तथा तेओने विषे अर्थ बंधन करतो नथी अर्थात् एओनी साथे मारे काईपण प्रयोजन नथी एम निश्चय करे छ, आ मने प्राप्त था ओ एवी रीते दिसमा:श्रातेओने विषे निदान करतो नथी तथा तेओने विषे स्थितिप्रकल्प-रहेवारूप विकल्प अर्थात् एओने विष हुँ रहुं के मने |वकाः , वीरए रहो-स्थिर थाओ, आवा प्रकारना विकल्पने अथवा स्थिति-मर्यादावडे प्रकृष्ट कल्प-आचाररूप स्थितिप्रकल्पने | श्रावकदेवकरतो नथी अर्थात् करवा माटे आरंभ करतो नथी. 'प्रकरोति' क्रियापदमा 'प्र' शब्दनो शरुआतरूप अर्थ छे. त्वं, देवाग' एवी रीते दिव्य देव संबंधी विषयने विषे आसक्तिरूप एक कारण छ जेथी तत्काल उत्पन्न थयेल कामभोगने विषे मानागममच्छितादि विशेषणवाळो आ देव छ तथा तेने मनुष्य संबंधी प्रेम विच्छिन्न थयेल छ माटे दिव्य प्रेमर्नु संक्रमण |X| कारणानि थयेल छे आ बीजं कारण छे. तथा आ देव जे हेतुथी कामभोगने विपे मच्छितादि विशेषणवाळो होय छे तेथी तेना | सू०३२१प्रतिबंधने लईने 'तस्स ण 'मित्यादि. देवना कार्यने विषे आधीन थवाथी मनुष्यना कार्यमां आधीनपणुं नथी. आ त्रीजुं कारण छे. तथा दिव्यभोगने विषे मृच्छितादि विशेषणथी तेने मनुष्य संबंधी आ गंध प्रतिकूल-दिव्य गंधथी | |४६६॥ For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX विपरीत छ अने प्रतिलोम पण छे केमके ते इंद्रिय अने मनने आह्लाद करनार नथी अथवा आ बन्ने शब्द एकार्थ वाचक छे, परंतु अत्यंत अमनोज्ञपणाने सूचबवा माटे बे शब्द कहेला छे. यावत् शब्द परिमाणना अर्थमां छे. 'चत्तारि पंचे' ति आ शब्द विकल्प बताववा माटे छे. कदाचित् भरतादि क्षेत्रने विषे एकांत सुषमादि समय(आरा)मां चारसो योजन ज, अने अन्य काळमां तो पांचसो योजन पण होय छे, केमके मनुष्य अने पंचेंद्रियतिर्यंचोनी बहुलताने लईने औदारिक शरीरोनी बहुलता होवाथी तेना अवयवो अने तेना मळोनी पुष्कळताथी दुरभिगंधनी प्रचुरता होय छे. मनुष्यक्षेत्रमा आववानी इच्छावाळा देवोने मनुष्यक्षेत्रथी गंध आवे छे, आम मनुष्यक्षेत्रं अशुभस्वरूप ज कडं, परंतु देव अथवा अन्य मनुष्यादि नव योजन करता विशेष दूरथी आवती गंधने जाणता नथी. अथवा आ उक्त( आगम )वचनथी जे इंद्रियना विषय- प्रमाण कछु छे ते औदारिक शरीर संबंधी इंद्रियोनी अपेक्षाए संभवित छ, नहिंतर लक्षादि योजन प्रमाणवाळा विमानोने विषे दूर रहेला देवो (सुघोषा )घंटाना शब्दने केम सांभळी शके १ जे बीजाने संभळाय छे ते प्रतिशब्द. द्वारा अथवा बीजी रीते. नरभवनुं अशुभपणुं आ मनुष्यलोकमां न आववार्नु चोकारण कयु. शेष सुगम छे. आववाना कारणो प्रायः पूर्वनी माफक छ तथापि कईक विशेष कहेवामां आवे छ के-कामभोगने विषे अमृञ्छितादि विशेषणवाळो जे देव, तेने ' एवं 'मिति. आवा प्रकारचें मन थाय छ के-मारा उपकारक कोण छ ? ते कहे छे-आचार्य छे. अहिं 'इति' शब्द समीपपणुं बताववामा अने 'वा' शब्द विकल्पना अर्थमा छे. एम आगळना सूत्रमा पण जाणवू. क्यांक इति शब्द नथी देखातो त्यां तो सूत्र सुगम ज छे. अहिं आचार्य-प्रतिबोधक, दीक्षा आपनार अथवा अनुयोगाचार्य-वाचना आपनार, उपाध्याय XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४६७ ॥ www.kobatirth.org सूत्र भणावनार, आचार्यद्वारा उपदेश करायेल वैयावृत्यादिने विषे साधुओने जे प्रवर्त्तावे छे ते प्रवर्त्ती, प्रवर्ती-प्रवर्त्तकद्वारा जोड़ायेल संयमयोगने विष सीदाता ( खेद पामता ) साधुओने जे स्थिर करे ते स्थविर, गण छे विद्यमान जेने ते गणी - गणाचार्य, गणधर - जिनेश्वरना शिष्यविशेष अथवा आर्यिका साध्वीओ प्रत्ये सावधान रहेनार (रक्षा करनार) सिद्धांतमां प्रसिद्ध साधु विशेष, * 'गणस्यावच्छेदो'- गच्छ नो देश-विभाग, अमुक मुनिओना समुदाय छे जेने ते गणावच्छेदक, ते अमुक साधुओने लाईने गच्छना आधारने माटे उपधि विगेरेनी गवेषणाने माटे विचरे छे 'इम' ति० आ प्रत्यक्ष रहेल रूपवाळी अर्थात् काळांतरने विषे पण अन्य स्वरूपने नहिं भजनारी तेवी दिव्या - स्वर्गने विषे थयेली अथवा प्रधान ( श्रेष्ठ ) विमान, रत्नादि रूप देवनी ऋद्धि, द्युत-शरीरथी उत्पन्न or if अथवा युति - इष्ट परिवारादि संयोगलक्षण युक्ति, ' लब्धा ' -जन्मांतरमां उपार्जन करेली, 'प्राप्ता' - वर्त्तमानमां मळेली, ' अभिसमन्वागता ' - भोग्यअवस्थाने प्राप्त थयेली, 'तं 'ति ते कारणथी ते भगवंतो- पूज्योने स्तुतिओवडे वंदन करूं, प्रणामवडे नमन करूं, आदर करवावडे अथवा वस्त्रादिवडे सत्कार करूं, उचित प्रतिपत्ति- उपचाररूप सेवावडे सन्मान करूं, कल्याणस्वरूप, मंगलस्वरूप, देवस्वरूप अने चैत्यस्वरूप आवी बुद्धिवडे सेवा करूं-आ देवने आववानुं एक कारण. श्रुतज्ञानादिवडे ज्ञानी इत्यादि बीजं कारण. तथा ' भाया इ वा भज्जा इ वा भइणी इ वा पुत्ता इवा धूया इ वे 'ति अर्थात् भाई, भार्या, भगिनी, पुत्र अने पुत्री स्नुषा पुत्रनी भार्या 'तं ' उपरोक्त मारा * कोई साध्वी रूपसंपन्न होय अने तेनुं शील भंग करवा माटे दुष्ट राजादि तत्पर थयेल होय तेवी साध्वीओनी संभाळ करनार इषुशास्त्रविशारद सहस्रयोधी मुनि ( शशकभसकादि मुनिनो जेम) तेओने अन्यत्र लई जईने पण तेना शीलनो रक्षा करे छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *******: ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ मातापित्रा दिसमाः श्रावकार, वीरश्रावक देवत्वं, देवा गमानाग मकारणानि सू० ३२१३२३ ।।। ४६७ ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxn XXXXXXXXXXXX Exxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx संबंधीओ के तेथी तेओनी समीपे हुँ प्रगट थाउं, 'ता' तावत् 'मे' मम (मारी) ऋद्धिने तेओ जुओ 'इमे' आ पाठांतर छ-आ त्रीजुं कारण. तथा मित्र-पाछळथी स्नेही थयेल, सखा-बालपणथी स्नेही, 'सुहृत् '-सज्जन हितपी. सहाय-सहचारी अथवा एक कार्यमा बन्ने प्रवत्तेनार, संगत-सोबत छे विद्यमान जेने ते सांगतिक-परिचित, तेओने 'अम्हे 'त्ति० अमारी साथे ' अन्नमन्नस्स 'त्ति० परस्पर 'संगारे 'त्ति० संकेत, प्रतिश्रुत-अंगीकार करेल छे (कबूलात आपेल छे) जे मो( मे )त्ति० देवलोकमांथी आपणा बन्नेमा जे प्रथम च्यवे तेने पाछळ रहेलाए प्रतिबोध आपवो ते चोथं कारण छ. आ मनुष्यभवने विषे संकेत करेल बन्ने जणमांना पूर्व लक्षादि आयुष्यवाळो एक भवनपति विगेरेमा उत्पन्न थईने अने त्यांथी च्यवीने मनुष्यपणाए उत्पन्न थाय तेने बीजो पुरुष अहिं मनुष्यमा पूर्वलक्षादि जीवीने, सौधर्मादि कल्पमा उत्पन्न थईने संबोधन करवा माटे ज्यारे अहिं आवे छे त्यारे आ संकेतरूप चो, कारण जाणवू. इत्येतैः इत्यादि निगमन सूत्र छे (सू० ३२३) हमणा ज आगमन का, तेमां तेओनावडे उद्योत थाय छे माटे लोकमां तेना विपक्षभूत अंधकारने कहे छे चउहि ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, तं०-अरहंतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं. अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिजमाणे. जायतेते वोच्छिज्जमाणे चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोते सिता. तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पव्वतमाणेहिं अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु ४, एवं देवंधगारे देवुजोते देवसन्निवाते देवुक्कलिताते देवकहकहते, चउहि । XXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Si Kailassagersal Gyarmande भीस्थाबाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४६८॥ XXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxx ठाणेहिं देविंदा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छंति एवं जहा तिठाणे जाव लोगंतिता देवा माणुस्सं ४ स्थान लोगं हव्यमागच्छेज्जा. तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव अरिहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु।सू०३२४ काभ्ययने ___ मूलार्थः-चार कारणबडे लोकमां द्रव्यथी अने भावी पण अंधकार थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ अरिहंतोनो विच्छेद थये उद्देशा३ छते-मोक्ष गये छते, २ अरिहंते कहेल धर्मनो विच्छेद थये छते, ३ पूर्वगत-उत्पाद विगेरे पूर्वनो विच्छेद थये छते, ४ अमिनो लोकान्धविच्छेद थये छते-अग्निना विच्छेदमा प्रायः द्रव्यथी अंधकार थाय छे. चार कारणबडे लोकमां द्रव्यथी अने भावथी उद्योत कारादि थाय छे, ते आ प्रमाणे--१ अरिहंतोनो जन्म थये छते, २ अरिहंतोए दीक्षा लीधे छते, ३ अरिहंतोने केवलज्ञान उत्पन्न थवाना सू० ३२४ महोत्सवोने विषे अने ४ अरिहंतोना निर्वाणना महोत्सवोने विषे. एवी रीते लोक अंधकारनी जेम देवना स्थानमां अरिहतादिना विच्छेदकालमां अंधकार थाय छे, अने अरिहंतादिना जन्म विगेरेने विषे देवना स्थानमा उद्योत थाय छे, देवनो समुदाय एकत्र थाय छ, देवोने उत्साह थाय छे अने देवोने विषे आनंदजन्य कोळाहळ थाय छे. चार कारणवडे देवेंद्रो मनुप्यलोकने विषे शीघ्र आवे छे. एवी रीते जेम त्रीजा ठाणामां कडं छे तेम यावत् लोकांतिक देवो मनुष्यलोकमां शीघ्र आवे छे त्यां सुधी कहे, ते आ प्रमाणे-अरिहंतोनो जन्म थये छते यावर अरिहंतोना निर्वाण महोत्सवोने विषे. (सू० ३२४) ____टीकार्य:-'चउही'त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-लोकने विषे द्रव्यथी अने भावथी अंधकार ज्यां जे थाय ते जाणवू. संभावना कराय छे के-अरिहंतादिना विच्छेदमा द्रव्यथी अंधकार थाय छे केम के तेना उत्पादरूप छे. छत्रभंग विगेरे थये 12॥ ४६८॥ CXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxX0 For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रजोद्घात् - आंधी चडवानी जेम. अग्निना विच्छेदमां द्रव्यथी ज अंधकार थाय छे केमके तथाप्रकारनो स्वभाव होय छे अथवा दीपक विगेरेनो अभाव छे अथवा भावथी पण अंधकार थाय छे केमके एकांत दुषम विगेरे काळमां आगम विगेरेनो अभाव होय छे. पूर्व देवनुं आगमन कयुं, हवे दुःखशय्या सूत्रनी पहेला देवाधिकारविशिष्ट सूत्रना विस्तारने कहे छे- 'चउही 'त्यादि० सुगम छे. विशेष एके - चार स्थानकोने विषे पण देवोना आगमनथी लोकमां उद्योत थाय छे. जन्म, दीक्षा अने ज्ञानोत्पादने विष तो स्वरूपथी पण उद्योत थाय छे. 'एवमिति' जेम लोकांधकार को तेम देवांधकार पण चार कारणोवडे थाय छे. देवानां स्था नोमां पण अरिहंतादिना विच्छेदकाळमां वस्तुना माहात्म्यथी क्षणमात्र अंधकार थाय छे. एवी रीते अहंतोना जन्म विगेरेने विषे देवोना स्थानोमां उद्योत थाय छे. देवसन्निपात - देवोनो समवाय ( मिलाप ), एवी ज रीते देवोत्कलिका - देवोनी लहेरी ( आनंदजन्य कल्लोल ), ' देवकहकहेत्ति' देवोनो प्रमोदपूर्वक कलकल ( महाध्वनि ) एमज देवेंद्रो मनुष्यलोकमां अरिहंतादिना जन्म विगेरेमा आवे, जेम श्रीजा स्थानकना प्रथम उद्देशकमां कधुं छे तेम देवेंद्रांना आगमन सूत्रथी आरंभीने लोकांतिकसूत्र पर्यंत कहे. मात्र अहिं परिनिर्वाणना महोत्सवने विषे आवे छे ते चोथुं कारण विशेष छे. ( सू० ३२४ ) प्रथम अरिहंतोना जन्म विगेरेना व्यतिकरद्वारा देवोनुं आगमन कां, हवे अरिहंतोना ज प्रवचनना अर्थने विषे दुःस्थित-दुष्ट रीते रहेल साधुने दुःखशय्याओ अने सुस्थित-सारी रीते रहेलने सुखशय्याओ होय छे ते हेतुथी बने सूत्र कहे छे. चत्तारि दुहसेजाओ पं० तं० तत्थ खलु इमा पढमा दुइसेज्जा तं०-से णं मुंडे भवित्ता अगारातो ७९. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KRE भीस्था. नाङ्गपत्र सानुबाद ॥४६९॥ XXXXX अणगारियं पव्वतिते निग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भयसमावन्ने कलुससमावन्ने नि- | ४ स्थानग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएइ, निग्गंथं पावयणं असदहमाणे अपत्तितमाणे अ. काम्ययने उद्देशः ३ रोएमाणे मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघातमावज्जति पढमा दुहसेज्जा १, अहावरा दोच्चा दुहसेज्जा * दुःखसुखसे ण मुंडे भवित्ता अगारातो जाव पव्वतिते सएणं लाभेणं णो तुस्सति परस्स लाभमासाएति शय्या:, पीहेति पत्थेति अभिलसति परस्स लाभामासाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उच्चावयं नियच्छइ वाचनीयाविणिघातमावज्जति दोच्चा दुहसेजा २, अहावरा तच्चा दुहसेजा-से गं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए वाचनीयाः दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसति दिव्वमाणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे जाव सू० ३२५अभिलसमाणे मणं उच्चावयं नियच्छति विणिघातमावज्जति तच्चा दुहसेज्जा ३, अहावरा चउत्था दुहसेज्जा-से णं मुंडे जाव पव्वइए तस्स णमेवं भवति जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहणपरिमद्दणगातब्भंगगातुच्छोलणाई लभामि जप्पभिई च णं अहं मुंडे जाव पव्वतिते तप्पभिज्ञ च णं अहं संवाहण जाव गातुच्छोलणाई णो लभामि, से णं संबाहण जाव गातुच्छोलणाई Kxxxxxxxxxxxxxxxx: Xxxxxxxxxxxxxxxxxx) Coxxxxxxxx |||४६९॥ For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आसाएति जाव अभिलसति से णं संबाहण जाव गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघायमावज्जति चउत्था दुहसेज्जा ४ । चत्तारि सुहसेज्जाओ पं० तं० - तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिए निग्गंथे पावणे निस्संकिते णिक्कंखिते निव्वितिगिच्छिए नो भेदसमावन्ने नो कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं सद्दहइ पत्तीयइ रोतेति निग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पतितमाणे रोएमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिघात मावज्जति पढमा सुहसेजा १, अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा, से णं मुंडे जाव पव्वतिते सतेणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति णो पीहेति णो पत्थेइ णो अभिलसति परस्स लाभ सामाणे जाव अणभिलसमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिघातमावज्जति, दोच्चा सुहसेज्जा २, अहावरा तच्चा सुहसेज्जा से णं मुंडे जाव पव्वइए दिव्वमाणुस्सए कामभोगे को आसाएति जाव नो अभिलसति दिव्वमाणुस्सर कामभोगे अणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे नो म उच्चावतं नियच्छति णो विणिघातमावज्जति तच्चा सुहसेज्जा ३, अहावरा चउत्था सुहसेज्जा- से For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsur Gyarmandie श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४७॥ ४ स्थानणं मुंडे जाव पव्वतिते तस्स णं एवं भवति-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा आरोग्गा बलिया काध्ययने कल्लसरीरा अन्नयराइं ओरालाइं कल्लागाइं विउलाई पयताई पग्गहिताई महागुभागाई कम्मक्ख उद्देशः ३ यकारणाई तवोकम्माई पडिवजति किमंग पुण अहं अभोवगमिओवक्कमियं वेयणं नो सम्म स दुःखसुखहामि खमामि तितिक्खेभि अहियासेमि ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं सम्ममसहमाणस्स शय्या , अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मन्ने कजति ?, एगंतसो मे पावे कम्मे | वाचनीयाकजति, ममं च णं अब्भोवगमिओ जाव सम्मं सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मन्ने वाचनीया कजति ? एगंतसो मे निजरा कजति, चउत्था सुहसेजा ४ । सू० ३२५, चत्तारि अवायणिज्जा पं० तं०-अविणीए वीगईपतिवद्धे अविओसवितपाइडे माई। चत्तारि वातणिज्जा पं० सं०-विणीते अविगतीपडिबद्धे वितोसवितपाहुडे अमाती । सू० ३२६ ___मूलार्थः-चार प्रकारनी दुःख देनारी दुःखशय्याओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पहेली दुःखशय्या आ-कोईक भारेकर्मी जीव, द्रव्य तथा भावथी मुंड थईने, गृहवासथी नीकळीने दीक्षित थयेल, ते निग्रंथ प्रवचनमा शंका सहित, आकांक्षा सहित, X॥४७॥ सू० ३२५ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विचिकित्सा ( धर्मना फळनो संदेह ) सहित, आ साधुं के ते साधुं ? एम भेद ( द्विधा ) भावने पामेल अने धर्ममां विपरीत बुद्धिवाको थयो थको निग्रंथ प्रवचनने सहहतो नथी, प्रतीति करतो नथी, रुचि करतो नथी, निग्रंथ प्रवचनने विषे श्रद्धा न करतो थको, प्रतीति न करतो थको अने रुचि न करतो थको मनने ऊंचुनीचं ( डामाडोळ ) करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, प्रथम दुःखशय्या कही. हवे बीजी दुःखशय्या कहे छे कोईक मुंड थईने, गृहवासथी नीकळीने यावत् दीक्षित थयेल, ते स्वकीय अशनादिना लाभवडे संतोष पामतो नथो परंतु अन्य द्वारा लाभ मेळवावानी आशा करे छे, स्पृहा करे छे, प्रार्थना करे छे, अभिलापा-अधिक इच्छा करे छे, बीजाद्वारा लाभनी आशा करतो थको यावत् अभिलाषा करतो थको मनने ऊंचुंनीचुं करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, आ बीजी दुःखशय्या कही. हवे त्रीजी दुःखशय्या कहे छे कोईक मुंडने पाव दीक्षित थयेल, ते दिव्य ( श्रेष्ठ ) मनुष्य संबंधी कामभोगनी आशा करे छे यावत् अभिलाषा करे छे, दिव्य मनुष्य संबंधी कामभोगने विषे आशा करतो थको यावत् अभिलाषा करतो थको मनने ऊंचुं नीचुं करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, आ त्रीजी दुःखशय्या कही. हवे चोथी दुःखशय्या कहे छे-कोईक मुंड थईने यावत् दीक्षित थयेल, तेने एवो विचार थाय |छे के - ज्यारे हुं गृहवासमा वसतो हतो त्यारे संवाहण - हाडकाने सुखरूप मर्दनविशेष ( चंपी), पीठी विगेरेनुं मर्दन मात्र, शरीरने तेल विगेरेथी चोपडबुं अने शरीरना प्रक्षालन ( स्नान ) ने हुं मेळवतो हतो परंतु जे दिवसथी हुं मुंड घईने यावत् दीक्षित थया बाद संवाहण ( चंपी ) यावत् शरीरना पक्षालनने हुं पामतो नथी, ते साधु संबाधन ( चंपी ) यावत् गात्रप्रक्षालननी आशा करे छे यावत् अभिलाषा करे छे, ते संबाधन यावत् गात्रप्रक्षालननी आशाने करतो थको यावत् मनने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४७१ ।। KXXXXXXXXX Ooxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxo ऊंचुनीचं करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, आ चोथी दुःखशय्या कही. चार प्रकारनी सुख देनारी सुखशय्याओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-तेमां निश्चे आ प्रथम सुखशय्या-कोईक लघुकर्मी जीव, मुंड थईने, गृहवासथी नीकळीने दीक्षित थयेल, ते साधु निग्रंथ प्रवचनने विष शंका रहित, आकांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित द्विधाभावने नहिं पामेल-निश्चित, कलुषभावने नहिं पामेल अर्थात् निर्मळ बुद्धिवाळो निग्रंथ प्रवचनने सइहे छे, प्रतीति करे छे, रुचि करे छे, निग्रंथ प्रवचनने सदहतो थको, प्रतीति करतो थको अने रुचि करतो थको मनने ऊंचुंनीचुं करतो नथी-स्थिर राखे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थतो नथी-धर्मने पाळे छे, आ प्रथम सुखशय्या कही. हवे बीजी सुखशय्या कहे छ-कोईक मुंड थईने यावत् दीक्षित थयेल, ते पोते मेळवेल अशनादिना लाभवडे संतोष पामे छे. वीजाद्वारा लाभ मेळववानी आशा करतो नथी, इच्छा करतो नथी, प्रार्थना करतो नथी, अधिक अभिलाषा करतो नथी, परना लाभनी आशाने न करतो थको यावत् अभिलाषा न करतो थको मनने ऊंचुंनीचुं करतो नथी अने धर्मथी भ्रष्ट थतो नथी, आ बीजी सुखशय्या कही. हवे श्रीजी सुखशय्या कहे छे-कोईक मुंड थईने यावत दीक्षित थयेल, ते दिव्य( श्रेष्ठ) मनुष्य संबंधी कामभोगने विषे आशा करतो नथी यावत् अभिलाषा करतो नथी. दिव्य मनुष्य संबंधी कामभोगने विषे आशा न करतो थको यावत् अभिलाषा न करतो थको मनने ऊंचुंनीचं करतो नथी अने धर्मथी पतित थतो नथी, आ त्रीजी सुखशय्या कही. हवे चोथी सुखशय्या कहे छे-कोईक मुंड थईने यावत् दीक्षित थयेल, तेने एवो विचार थाय छे के-जो ते आनंदित, रोग रहित, बळवान अने श्रेष्ठ शरीरवाळा एवा अरिहंत भगवंतो बार प्रकारना तपमांथी कोई पण एक, उदार, कल्याणकारी, घणा दिवस सुधी उत्कृष्ट संयमयुक्त, आदरपूर्वक, अचिंत्य शक्तियुक्त ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ दुःखसुख शय्या :, वाचनीयावाचनीयाः सू० ३२५ ३२६ ॥४७१॥ For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अकर्मक्षयना कारणभूत एवा तपरूप कर्म ( क्रिया ) ने करे छे, तो पछी हुं आभ्युपगमिकी ( स्वयं स्वीकारेली लोचादि क्रिया ) अने औपक्रमिकी (कर्मना उदयने लईने थयेली) ज्वरादि वेदनाक्रियाने हुं सम्यक् सहन करतो नथी, क्षमा करतो नथी, तितिक्षा - अदीनपणे सहन करतो नथी अने वेदनामां स्वस्थ रहेतो नथी. आभ्युपगमिक अने औपक्रमिक वेदनाने सम्यक् रीते सहन नहि करनार, क्षमा नहि करनार, तितिक्षा नहि करनार अने स्वस्थ नहि रहेनार एवा मने शुं प्राप्त थाय छे ? rainer मने पापकर्म प्राप्त थाय छे. आभ्युपगमिक यावत् सम्यक सहन करनार यावत् अध्यासन करनार - स्वस्थ रहेनार वामने शुं प्राप्त थाय छे? एकांतथी मने निर्जरा थाय छे. आ चोथी सुखशय्या छे. ( सू० ३२५) चार प्रकारना पुरुषो सिद्धांनी वाचनाने अयोग्य छे, ते आ प्रमाणे- १ अविनीत, २ दूध विगेरे विगयमां प्रतिबद्ध ( बंधायेल ), लालची, ३ अनुशांत अधिकरणवाळो -क्रोधी अने ४ कपटी । चार प्रकारना पुरुषो सिद्धांतनी वाचनाने योग्य छे, ते आ प्रमाणे- १ विनीत, २ विगमां अप्रतिबद्ध - आसक्ति रहित, ३ उपशांत अधिकरणवाळो क्रोध रहित अने ४ कपट रहित. ( सू० ३२६ ) टीकार्थ :- ' चत्तारी 'त्यादि ० दु:ख आपनारी चार संख्यावाळी शय्याओ ते दुःखशय्याओ. द्रव्यथी तथाप्रकारनी नहिं ( अयोग्य ) खट्वा ( ढोलणी ) विगेरे शय्या, भावथी तो दुष्ट चित्तवृत्तिवडे दुष्ट श्रमणपणाना स्वभाववाळी शय्याओ. १ प्रवचनश्रश्रद्वान, २ परलाभप्रार्थन, ३ कामाशंसन अने ४ स्नानादिप्रार्थनरूप भेदवाळी सूत्रमां कहेली छे. ' तत्रे' ति० ते चार शय्याना मध्यमां ' से ' इति० कोईक बहुलकर्मी ( ' से ' शब्द ' अथ ' ना अर्थवाळो छे. ' अयं ' ' स ' ' च ' वाक्यना उपक्षेपमां छे) 'प्रवचने' - शासनने विषे ( अहिं दीर्घपणुं प्रकटादि गणथी थयेल हे ) शंकित For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४७२॥x एकभाव विषयक संशय सहित, कांक्षित-मतांतर (अन्य मत) पण सारो छे एवी बुद्धिवाळो,विचिकित्सित-फळ प्रत्ये शंकावाळो, भेदसमापन्न-बुद्धिवडे द्विधाभावन पामेल अर्थात् जिनशासनने विष कहेलुं आ बधुं आ प्रमाणे छे के बीजी रीते छ । कलुषसमापन्न-'आ एम नथी ज' एवी रीते विपरीत बुद्धिवाळो, न श्रद्धते'-'आ एम छे' एवी रीते सामान्यथी श्रद्धा करतो नथी, 'नो प्रत्येति'-प्रीतिवडे अंगीकार करतो नथी, 'नो रोचयति'-अतिशय अभिलापबडे आसेवनाना सन्मुखपणाए रुचि करतो नथी. मनने 'उच्चावचम् -असमंजस (समजण वगरनु) करे छे.तेथी विनिधात-धर्मनाश अथवा संसारने प्राप्त थाय छे. एवी रीते आ साधु शय्यामां दुःखपूर्वक रहे छे. आ पहेली दुःखशय्या.तथा पोतानावडे जे मेळवाय छे अथवा मेळवq ते लाभअन्नादि अथवा रत्नादिनो लाभ, तेनावडे आशा करे छे, ते अवश्य मने आपशे एवी रीते आस्वादे छ अर्थात् बीजाथी जो मळे तो ज खाय,स्पृहयति-बांछे छ,'प्रार्थयति'-याचना करे छे, 'अभिलपति' प्राप्त थये छते पण अधिकतर लाभने इच्छे छे. शेष स्पष्टार्थवालु छे. एवी रीते पण आ दुःखमा रहे छ तेथी बीजी दुःखशय्या. त्रीजी सुगम छे. अगारवास-घरवास, तेमां वर्ततो हतो ( त्यारे ) संबाधन-शरीरना हाडकांने सुखत्वादिवडे निपुणताथी मदनविशेष, परिमर्दन -लोट विगेरेथी मसळवा मात्र, केम के 'परि' शब्दनी अहिं धातु अर्थमा मात्र वृत्ति छ (विशेष अर्थमा नथी, गात्राभ्यंग'-तेलादिवडे अंगने चोपडवू, 'गात्रोत्क्षालन'-अंगने धोवु.आ उक्त वस्तुना लाभने हुँ (गृवासमां) मेळवतो हतो परंतु कोई निषेध करनार न हतो. शेप स्वरूप सुगम छे.आ चोधी दुःखशय्या छे. दुखशय्याथी विपरीत रूपवाळी सुखशय्याओ पूर्वनी जेम जाणवी.विशेष ए के--'हट्ठत्ति. शोकना अभावथी हर्षितनी जेम आनंदित, 'अरोगा' ज्वरादिथी रहित, 'बलिकाः '-पुष्ट, 'कल्पशरीराः' सुंदर ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ दुःखसुख शय्या :, वाचनीयावाचनीयाः सू० ३२५ ३२६ XxxxxxxXXXXXXXXKOxoxoxo ॥४७२॥ For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शरीरवाळा, अन्यतर अनशन विगेरे कोई पण तपमांथी एक, उदार-आशंसा विगेरे दोषना अभावने लईने उदारचित्तयुक्त, ' कल्याणानि '-- मंगलस्वरूप होवाथी, 'विपुल' घणा दिन पर्यंत करवाथी, प्रयत- उत्कृष्ट संयम युक्त होवाथी, प्रगृहितआदर युक्त स्वीकारेल होवाथी, महानुभाग- अत्यंत शक्ति युक्त होवाथी, समृद्ध - ऋद्धिविशेषना कारणभूत होवाथी, कर्मक्षयना कारणभूत मोक्षना साधक होवाथी, तपकर्म-तपरूप क्रियानो आश्रय करे छे किमंग पुणकिम् ' प्रश्नना अर्थमां छे' अंग शब्द आमंत्रण - संबोधनना अर्थमां अथवा अलंकारमां छे. पुनः शब्द पूर्वोक्त शब्दथी भिन्न अर्थने देखा - वामां छे. शिरनो लोच अने ब्रह्मचर्यादिनो स्वीकार करवामां थयेल ते आभ्युपगमिकी जेनावडे आयुष्यनो उपक्रम (घटाडो) थाय ते उपक्रम ज्वर अने अतिसार विगेरे व्याधिओमां थयेल ते औपक्रमिकी, एवी आभ्युपगमिकी अने औपक्रमिकी ते वेदना - दुःख तेनी उत्पत्तिमां सन्मुख जवावडे हुं सहन करूं ' सहि ' धातु सन्मुख अर्थमां छे, जेम आसुभट ते सुभटने सहन करे छे अर्थात् तेथी भागतो नथी. पोताने विषे अथवा परने विषे क्रोध विना क्षमा करूं, अदीनपणावडे तितिक्षा करूं, अत्यंत स्वस्थतावडे ते ज वेदनामां हुं रहूं-अध्यासन करूं अथवा 'सहामि ' विगेरे चारे शब्दो एकार्थवाळा छे. ' किं मन्ने 'त्ति० 'मन्ये' शब्द निपात छे ते वितर्क अर्थवाळो छे. 'क्रियते ' थाय छे. अर्थात् भुं थाय छे ? ' एगंतसो ' ति० एकांतेसर्वथा. [ वेदना सहन नह करनाराओने एकांते पाप थाय छे अने सहन करनाराओने एकांते निर्जरा थाय छे ] ( सू० ३२५) दुःखशय्यावाळा निर्गुण अंनं सुखशय्यावाळा गुणवाळा छे आ कारणथी निर्गुण अने सद्गुणविशिष्टोने अवाचनीयत्व अने वाचनीयत्वाने माटे सूत्रद्वय कहे छे जे सुगम छे. विशेष ए के - ' वीयइ' ति० विकृति - दूध विगेरे, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागपत्र सानुबाद ॥४७३॥ Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx 'अव्यवशमितप्राभृत 'इति० प्राभृत-अधिकरणनो करनार कोप (गुस्सो) (सू० ३२६) हमणा ज वाचनाने योग्य ४ स्थानअने वाचनाने अयोग्य पुरुषो कह्या, माटे पुरुपना अधिकारथी पुरुषविशेषने प्रतिपादन करवामां तत्पर चतुभगीवडे युक्त सूत्रनो प्रबंध कहे छ काभ्ययने चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आतंभरे नाममेगे नो परंभरे, परंभरे नाममेगे नो आतंभरे. उद्देशः ३ आभिरवि परंभरेवि, एगे नो आयंभरे नो परंभरे (१) १. चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-दग्गए आत्मंभ रित्वादि नाममेगे दुग्गए, दुग्गए नाममेगे सुग्गते, सुग्गते नाममेगे दुग्गए, सुग्गए नाममेगे सुग्गए २, || चतुर्भङ्ग्यः | चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-दुग्गते नाममेगे दुव्वए, दुग्गए नाममेगे सुव्वए, सुग्गए नाममेगे || सू० ३२७ | दुव्वते, सुग्गए नाममेगे सुबए ३, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-दुग्गते नाममेगे दुप्पडिताणंदे, - दुग्गते नाममेगे सुप्पडिताणंदे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-दुग्गते नाममेगे दुग्गतिगामी, दुग्गए 8 नाममेगे सुग्गतिगामी ५. चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-दुग्गते नाममेगे दग्गतिं गते. दग्गते नाममेगे सगतिं गते ६, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-तमे नाममेगे तमे, तमे नाममेगे जोती, जोती | नाममेगे तमे, जोती नाममेगे जोती ७, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-तमे नाममेगे तमबले, तमे ४॥४७३॥ KARNA For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नाममेगे जातीवले, जोती नाममेगे तमबले, जोती नाममेगे जोतीबले ८, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० तमे नाममेगे तमबलपलज्जणे, तमे नाममेगे जोतीबलपलज्जणे ९, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०परिनायकम्मे नाममेगे नो परिन्नातसन्ने, परिन्नात्सन्ने णाममेगे णो परिन्नातकम्मे एगे परिन्नातकम्मे वि० १०, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - परिन्नायकम्मे णाममेगे नो परिन्नात गिहावासे, परनायगावासे णामं एगे णो परिनातकम्मे ११, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०- परिण्णायसन्ने णामभेगे नो परिन्नातगिहावासे, परिन्नातगिहावासे णामं एगे० १२ चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०इहत्थे णाममेगे नो परत्थे, परत्थे नाममेगे नो इहत्थे १३, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०- एगेणं नाममेगे वहति एगेणं हायति, एगेणं णाममेगे वड्डइ दोहिं हायति, दोहिं णाममेगे वडति एगेणं हातति, एगे दोहिं नाममेगे वडति दोहिं हायति १४, चत्तारि कंथका पं० तं० - आइन्ने नाममेगे आन्ने, आइन्ने नाममेगे खलुंके, खलुंके नाममेगे आइने, खलुंके नाममेगे खलुंके १५, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - आइने नाममेगे आइने चउभंगो १६, चत्तारि कंथगा पं० तं० For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXX** *****************X**X*XX*XX*XX********** Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४७४ www.kobatirth.org आतिन्ने नाममेगे आतिन्नताते विहरति, आइन्ने नाममेगे खलुंकत्ताए विहरति १७, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - आइन्ने नाममेगे आइन्नताए विहरइ, चउभंगो १८, चत्तारि पकथगा पं० तं० - जातिसंपन्ने नाममेगे णो कुलसंपन्ने १९, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० - जातिसंपन्ने नाममेगे चउभंगो २०, चत्तारि कंथगा पं० तं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो वलसंपन्ने २१, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपन्ने २२, चत्तारि कंथगा पं० तं०जातिसंपन्ने नाममेगे णो रुवसंपन्ने २३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो वसंपन्ने २४, चत्तारि कंथगा पं० तं० - जाइसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपण्णे २५, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - जातिसंपन्ने २६, एवं कुलसंपन्नेण य बलसंपण्णेण त २७, कुलसंपन्नेण य रूवसंपपणेण त २८, कुलसंपण्णेण त जयसंपपणेण त २९, एवं बलसंपन्नेणत रुवसंपन्नेणत ३०, बलसंपपणेण त जयसंपण्णेण त ३१, सव्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो (३२३६), चत्तारि कंथगा पं० तं० - रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ३७, एवामेव चत्तारि पुरिस For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ****** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ आत्मंभ रित्वादि चतुर्भङ्ग्यः सू० ३२७ ॥ ४७४ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxx जाया पं० त०-रूवसंपन्ने नाममेगे णो जयसंपन्ने ३८, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-सीहत्ताते णाममेगे निक्खंते सीहत्ताते विहरइ, सीहत्ताते नाममेगे निक्खंते सियालत्ताए विहरइ, सीयालत्ताए नाममेगे निक्खंते सीहत्ताए विहरइ, सीयालत्ताए नाममेगे निक्खंते सीयालत्ताए विहरइ । सू०३२७ मूलार्थ:-चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक पोताना आत्माने भरे छे-पोषे छे पण बीजाने भरतो | नथी ते जिनकल्पिक मुनि, २ एक बीजाना आत्माने भरे छे पण पोताना आत्माने भरतो नथी ते अरिहंत, केम के पोते कृतकृत्य होय छे, ३ एक पोताना आत्माने भरे छे अने बीजाने पण भरे छे ते स्थविरकल्पी साधु, ४ एक पोताना आत्माने भरतो नथी अने बीजाने पण भरतो नथी ते मुग्ध बुद्धिवाळो साधु. (१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक प्रथम पण दरिद्री अने पछी पण दरिद्री, २ कोईक प्रथम दरिद्री पण पछीथी धनवान, ३ कोईक प्रथम धनवान अने पछीथी दरिद्री, ४ कोईक प्रथम धनवान अने पछी पण धनवान. (२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक दरिद्री अने दुर्बत-खराब आचारवाळो, २ कोईक दरिद्री पण सुव्रत-सदाचारवाळो, ३ कोईक धनवान अने खराब आचारवाळो, ४ कोईक धनवान अने सदाचारवाळो. (३) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक दरिद्री अने दुष्ट कार्यमां आनंद माननारो २ कोईक दरिद्री छे पण सत्कार्यमां आनंद माननारो ३ कोईक धनवान अने दुष्ट कार्यमां| आनंद माननारो, ४ कोईक धनवान अने सत्कार्यमां आनंद माननारो. (४) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे Oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीस्थानाङ्गसूत्र सानुबाद ॥४७५ ॥ oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx १ कोईक दरिद्री छे अने दुर्गतिमां जवावाळो छ, २ कोईक दरिद्री छे पण सद्गतिमां जवावाळो छ, ३ कोईक धनवान छे ४ स्थानअने दुर्गतिमा जवावाळो छ, ४ कोईक धनवान अने सद्गतिमां जवावाळो छे. (५) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ काभ्ययने प्रमाणे-१ कोईक दरिद्री अने दुर्गतिमां गयेल छे-द्रमकवत्, २ कोईक दरिद्री पण सुगतिमां गयेल छे-जिनदास श्रावकवत्, उद्देशः ३ ३ कोईक धनवान पण दुर्गतिमां गयेल छ-मम्मणशेठवत्, ४ कोईक धनवान अने सुगतिमां गयेल छे-आनंदादिवत्.(६) चार आत्मंभप्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक प्रथम पण अज्ञानी अने पछी पण अज्ञानी, २ कोईक प्रथम अज्ञानी पण पछीथी ज्ञानी, ३ कोईक प्रथम ज्ञानी अने पछीथी अज्ञानी, ४ कोईक प्रथम पण ज्ञानी अने पछी पण ज्ञानी. (७) चार प्रकारना रित्वादि पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मलिन स्वभाववाळो अने अज्ञानबल अथवा अंधकारना बलवाळो, ते चोर प्रमुख, चतुर्भङ्ग्यः २ कोईक मलिन स्वभाववालो पण ज्ञानवलवाळो, ते असदाचारी ज्ञानी, ३ कोईक निर्मळ स्वभाववाळो पण अज्ञानी छे, सू० ३२७ ४ कोईक निर्मळ स्वभाववाळो अने ज्ञानी छे.(८) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मलिन स्वभाववाळो अने अज्ञानरूप बळमां आनंद करनारो छे,२ कोईक मलिन स्वभाववालो पण ज्ञानरूप बळमां आनंद करनारो छे, ३ कोईक निर्मळ स्वभाववाळो पण अज्ञानरूप बळमां आनंद करनारो छे, ४ कोईक निर्मळ स्वभाववाळो अने ज्ञानरूप बळमां आनंद करनारो छे.(९) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक परिज्ञातकर्मज्ञ परिज्ञावडे जाणीने कृषि विगेरे कर्मनुं प्रत्याख्यान करेल छ पण अपरिज्ञातसंज्ञ-आहारसंज्ञा विगेरेने जाणेल नथी, २ कोईक परिज्ञातसंज्ञ-आहारसंज्ञा विगेरेना स्वरूपने जाणे छे पण कृषि विगेरे कर्मथी निवृत्त थयेल नथी, ३ कोईक परिज्ञातकर्म अने परिज्ञातसंज्ञ छे, ४ कोईक परिज्ञात X४७५॥ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) कर्म पण नथी अने परिज्ञातसंज्ञ पण नथी. (१०) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक परिजातकर्मसावद्यकार्यथी करण, करावण अने अनुमतिथी निवृत्त थयेल छे पण गृहवासने छोडेल नथी-शिवकुमारवत् . २ कोईक गृहवासने छोडेल छ पण सावद्यकार्यने छोडल नथी-दुष्प्रव्रजित(दुष्ट साधु)वत्, ३ कोईक गृहवासने छोडेल छे अने सावद्यकार्यने छोडेल छे-ते सुसाधु, ४ कोईक गृहवासने छोडेल नथी अने सावद्यकार्यने पण छोडेल नधी-ते असंयत.(११) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक आहारादि संज्ञाने छोडेल छे पण गृहवासने छोडेल नथी, २ कोईक गृहवासने छोडेल छे पण आहारादि संज्ञाने छोडेल नथी, ३ कोईक गृहवासने छोडेल छे अने आहारादि संज्ञाने पण छोडेल छे, ४ कोईक आहारादि संज्ञाने छोडेल नथी अने गृहवासने पण छोडेल नथी. (१२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला , ते आ प्रमाणे-१ कोईक आ लोकना-मनुष्य संबंधी सुखनो अर्थी छे पण परलोकना सुखनो अर्थी नथी-ते अज्ञानी, २ कोईक परलोकना सुखनो अर्थी छे छ पण आ लोकना सुखनो अर्थी नथी-ते साधु, ३ कोईक आलोक अने परलोक बभेना सुखनो अर्थी छे-ते श्रावक, ४ कोईक आलोक अने परलोक बन्नेना सुखनो अर्थी नथी-ते मूर्ख मनुष्य.(१३)चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे,ते आ प्रमाणे-१ कोईक.एकथीश्रुतज्ञानथी वृद्धि पामे छे पण सम्यग्दर्शनथी हीन थाय छ, २ कोईक एकथी-श्रुतज्ञानथी वृद्धि पामे छे पण वेथी-सम्यग्दर्शन अने विनयथी हीन थाय छे, ३ कोईक बेथी-श्रुतज्ञानथी अने अनुष्ठान-क्रियाथी वृद्धि पामे छे पण एकथीसम्यग्दर्शनथी हीन थाय छे, ४ कोईक बेथी-श्रुतज्ञानथी अने अनुष्ठानथी वृद्धि पामे छे पण बेथी-सम्यग्दर्शन अने विनयथी हीन थाय छे. (१४) चार प्रकारना जातिविशेष अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पहेला पण आकीर्ण-वेग विगेरे गुण xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नाकपत्र गानुवाद ॥४७६॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx वाळो अने पछी पण आकीर्ण छे, २ कोईक प्रथम आकीर्ण पण पछीथी खलुंक-गळीओ (अविनीत) छे, ३ कोईक प्रथम खलुंक ४ स्थानअने पछीथी आकीर्ण, ४ कोईक प्रथम खलंक अने पछी पण खलुक छे. (१५) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, | काध्ययने ते आ प्रमाणे-१ कोई पुरुष प्रथम शांति वगेरे गुणवाळो अने पछी पण गुणवाळो छे, २ कोईक प्रथम गुणवाळो पण | उद्देशः ३ पछीथी अविनीत, ३ कोईक प्रथम अविनीत अने पछीथी गुणवाळो छ, ४ कोईक प्रथम पण अविनीत अने पाछळथी पण आत्मभरिअविनीत छे. (१६) चार प्रकारना जातिविशेष अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक अश्व आकीर्ण-वेगादि गुणवाळो छ Xत्वादि चतुअने विनय, वेगादिथी चाले छे, २ कोईक अश्व आकीर्ण छ पण मार्गमां चडावना दोषथी अविनीतपणाए चाले छे, ३ कोईक भङ्ग्यः अविनीत छे पण स्वारना गुणथी विनीतपणाए चाले छे, ४ कोईक अविनीत छे अने अविनीतपणाए चाले छे.(१७) आ दृष्टांत | स०३२७ प्रमाणे चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष विनयादि गुणवाळो छे अने विनयादिपणाए प्रवर्ते छ इत्यादि चार भांगा जाणवा. (१८) चार प्रकारना अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक अश्व जातिसंपन्न छ पण कुलसंपन्न नथी, २ कोईक कुलसंपन्न छ पण जातिसंपन्न नथी, ३ कोईक उभयसंपन्न छ अने ४ कोईक उभयसंपन्न नथी. (१९) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष जातिसंपन्न छे पण कुलसंपन्न नथी विगेरे चार भांगा जाणवा.(२०) चार प्रकारना अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक अश्व जातिसंपन्न छे पण बलसंपन्न नथी, एम चार भांगा जाणवा.(२१)ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष जातिसंपन्न छ पण बलसंपन्न नथी, एम चार भांगा जाणवा.(२२) चार प्रकारना अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक अश्व जातिसंपन्न छ पण रूपसंपन्न नथी, xn४७६॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy XXX For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एम चार भांगा जाणवा. (२३) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष जातिसंपन्न छे पण रूपसंपन्न नथी, एम चार भांगा जाणवा. (२४) चार प्रकारना अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक अश्व जातिसंपन्न पण जय (जीत) संपन्न नथी, २ कोईक जातिसंपन्न नथी पण जयसंपन्न छे, ३ कोईक उभयसंपन्न छे अने ४ कोईक उभयसंपन्न नथी. (२५) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे १ कोईक पुरुष जातिसंपन्न छे पण जयसंपन्न नथी, एम चार भांगा जाणवा. (२६) एवी रीते कुलसंपन्न अने बलसंपन्न शब्दथी चार भांगा, (२७) कुलसंपन्न अने रूपसंपन्न शब्दथी चार भांगा, (२८) कुलसंपन्न अने जयसंपन्न शब्दथी चार भांगा, (२९) एवी रीते बलसंपन्न अने रूपसंपन्न शब्दथी चार भांगा, (३०) बलसंपन्न अने जयसंपन्न शब्दथी चार भांगा अश्वमां जाणवा, (३१) सर्वत्र प्रतिपक्षरूप पुरुषमां पण एमज चार चार भांगा जाणवा अर्थात् कोईक पुरुष कुलसंपन्न छे पण बलसंपन्न नथी एम चार भांगा जाणवा. (३२) एवी रीते पुरुषमां बीजी पण चार चभंगी करवी. (३३-३६) चार प्रकारना अश्वो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक अश्व रूपसंपन्न छे पण जयसंपन्न नथी, एम चार भांगा करवा (३७), आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छ, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष रूपसंपन्न छे पण जयसंपन्न नथी एम चार भांगा करवा (३८), चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष सिंहनी पेठे शौर्यपूर्वक दीक्षा लेवा नीकळेल अने सिंहनी माफक विचरे छे-पाळे छे-धन्ना अणगारनी जेम, २ कोईक सिंहनी पेठे दीक्षा लेवा नीकळेल पण कायरपाथी शीयाळनी माफक पाळे छे-कंडरिकवत्, ३ कोईक शीयाळनी माफक दीक्षा लेवा नीकळेल अने सिंहनी पेठे विचरे छेपाळे छे - भवदेव (जंबूस्वामीना जीव) वत्, ४ कोईक शीयाळनी माफक दीक्षा लेवा नीकळेल अने शीयाळनी माफक पाळे छे ते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानानपत्र kxxxxxxxxxxxx) ॥४७७॥ xxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXxxxxxxx | मात्र उदरपोषण करनार ३९. (सू०३२७) टीकार्थः-' चत्तारी 'त्यादि० आत्माने भरे छ-पोषण करे छे ते आत्मभरी, प्राकृतपणाथी 'आयंभरे' तथा बीजाने पोषण करे छे ते परंभरी, प्राकृतपणाथी परंभरे ' तेमा प्रथम भंगने विषे पोताना अर्थ-कार्यने ज करनार ते जिनकल्पी. बीजो भांगो, परना कार्यने ज करनार ते भगवान अरिहंत केमके पोताना समग्र कार्यनी समाप्ति थयेल होईने अन्यने मुख्य प्रयोजननी प्राप्ति कराववामां दक्षतापूर्वक कहेनार होय छे, तृतीयभंगमा स्व-परनुं कार्य करनार ते स्थविरकल्पी, केमके ते शास्त्रोक्त अनुष्ठानथी पोतानुं कार्य करनार होय छे अने विधिपूर्वक सिद्धांतनी देशना देवाथी अन्यना कार्यसंपादक पण होय छे. चोथा भांगामा स्व-परना कार्यने नहिं करनार ते कोईक मूढमति अथवा यथाच्छंद-स्वच्छंदाचारी. एवी रीते लौकिक पुरुषनी पण योजना करवी १, स्वपरनो उपकार नहिं करनार दुर्गत-दरिद्र ज होय, माटे दुर्गतसूत्र कहे छ-दुर्गत पूर्वे धनवडे हीन होवाथी अथवा ज्ञानादिरत्नवडे हीन होवाथी दरिद्र छे अने पछी पण दुर्गत-दरिद्र छे अथवा दव्यथी दुर्गत-दरिद्र. वळी भावथी दुर्गत-ज्ञानादि हीन आप्रथम भंग १, एम ज बीजा त्रण भांगा जाणवा. विशेष ए के सुगत-द्रव्यथी धनवान अने भावथी x ज्ञानादिगुणवान् २, कोईक दुर्गत व्रतवाळो थाय माटे दुर्बत सूत्र कहे छे-दुर्गत-दरिद्र, दुर्बत-अयथार्थ व्रतवाळो अथवा दुर्व्यय पेदाशनी अपेक्षा(विचार) कर्या सिवाय व्यय-खर्च करनार, अथवा खराब स्थान-व्यसनादिने विषे व्यय करनार, आ एक, बीजो दरिद्र थको सुव्रत-निरतिचार नियमवाळो अथवा दानादि उचित कार्यनी प्रवृत्तिथी सुव्यय करनार, त्रीजो अने चोथो * भांगो स्पष्ट छ ३, दुर्गत पूर्ववत् अने उपकारीए करेल उपकारने जे नथी मानतो ते दुष्प्रत्यानंद, जे उपकारीना उपकारने ४स्थानकाभ्ययने उद्देशः३ आत्मभरि* त्वादि चतु भङ्ग्या सू०३२७ RXXXXXXXXXXXXX ॥ ४७७॥ For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx माने छे से सुप्रत्यानंद ४, दुर्गत-दरिद्र थको जे दुर्गतिने विषे जशे ते दुर्गतिगामी, एम बीजा ऋण भांगा जाणवा. विशेष एके-सुगतिने विषे जशे ते सुगतिगामी, सुगत-ईश्वर अथात् ऐश्वर्यवाळो ५, दुर्गत पूर्ववत् , दुर्गति प्रत्ये गयो ते यात्रिको उपर कोप थवाथी मारवा माटे तत्पर थयेलद्रमक(भिखारी)नी जेम, एम बीजा त्रण भांगा जाणवा ६, तम-अंधकारनी जेम तमअंधकार पहेला अज्ञानरूप होवाथी अथवा अप्रकाशपणुं-अप्रसिद्धपणुं होवाथी पछी पण अंधकाररूप ज आ एक, बीजा तो प्रथम तमरूप अने पछीथी ज्योतिनी जेम ज्योति, केमके ज्ञान मेळववाथी अथवा प्रसिद्धि पामवाथी, शेष बे भंग सुगम छे ७, तम-कुकमेनो करनार होवाथी मलिन स्वभाववाळो, अने तम-अज्ञान छे बल-सामर्थ्य जेनुं ते तमम्बल अथवा तमः-अंधकार, एज बल अथवा अंधकारमा बल छ जेनु ते तमाबल खराब आचारवाळो अज्ञानी अथवा रात्रिमा फरनार ४ चोर विगेरे आ एक, तथा तमः पूर्ववत , ज्योति-ज्ञानबल छ जेनुं ते ज्योतिबल अथवा सूर्य विगेरेनो प्रकाश, ते जछे बल अथवा तेमां-प्रकाशमां बल छ जेनुं ते ज्योतिबल. आ असदाचारी ज्ञानवान अथवा दिवसमां फरनार चोर विगेरे, आ चीजो. ज्योति:-सत्कर्मने करनार होवाथी उज्ज्वळ स्वभाववाळा अने तमोवल पूर्वनी जेम, आ सदाचारवाळो अज्ञानी अथवा कारणवशात् रात्रिमा गमन करनार, आत्रीजो भंग, चतुर्थ भंग सुगम छे. आ सदाचारवाळो ज्ञानी अथवा दिवसमा गमन करनार ८, तथा तमः पूर्ववत् 'तमबलपलज्जणे' त्ति० तमः-मिथ्याज्ञान अथवा अंधकार, तेज बल अथवा तेमां छे बल अर्थात् तमोबलमां अथवा उक्तरूप तममां अने बल-सामर्थ्यमा 'प्ररज्यते'-रति करे छे ते तमोबलप्ररंजन १, एवी रीते * आ द्रमकनी कथा उपदेशप्रासाद ग्रंथमा छे KKKXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४७८ ॥ www.kobatirth.org ज्योतिबलप्ररंजन पण जाणवा. विशेष ए के- ज्योति-सम्यग्ज्ञान अथवा सूर्य विगेरेनो प्रकाश. एमज बीजा वे भंग पण जाणवा. आ सूत्रमां पण पूर्वोक्त सूत्रोमां कहेला ते प्ररंजन शब्दवडे विशेषणवाळा पुरुषविशेषो समजवा अथवा तमः पूर्ववत् अथवा अप्रसिद्ध, तमोवल - अंधकारना बळवडे चालतो थको जे लज्जाय छे ते तमोबलप्रलञ्जन-प्रकाशमां चालनार १, एम ज बीजा त्रण भांगा पण जाणवा. विशेष ए के बीजो पुरुष अंधकारमां चालनारो, त्रीजो पुरुष प्रकाशमां चालनारो अने चतुर्थ कोई पुरुष पण कारणवशात् अंधकारमां चालनारो. क्यांक 'पालणे' ति० पाठ छे त्यां तमः - अज्ञानना बळवडे अथवा अंधकारना बळवडे अने ज्योतिः - ज्ञानना वळवडे अथवा प्रकाशना बळवडे 'प्रज्वलति '- मदवाळो थाय छे अर्थात् जे अहंभावने करे छे ते प्रज्वलन ९. ज्ञपरिज्ञावडे स्वरूपथी जाणेला अने प्रत्याख्यानपरिज्ञावडे छोडेला छे कृषि वगेरे कर्म जेणे ते परिज्ञातकर्मा, अने आहारसंज्ञादिने नथी जाणेल तेम नथी छोडेल जेणे ते अपरिज्ञातसंज्ञभाव विना दीक्षा लीघेल मुनि अथवा श्रावक - आ एक भंग, परिज्ञातसंज्ञ - सद्भावनावडे भावित होवाथी आहारसंज्ञादिधी रहित, पण न परिज्ञातकर्मा - कृषि विगेरेथी निवृत्त नहिं थयेल श्रावक, आ बीजो भंग, त्रीजो साधु अने चोथो असंयत छे १०, परिज्ञातकर्मा - सावद्य कार्यनुं करयुं, कराव अने अनुमोदवुं तेथी निवृत्त अथवा कृषि विगेरेथी निवृत्त पण गृहवासने छोडेल नथी ते अप्रवजित, आ एक, बीजो तो गृहवासने छोडेल छे पण आरंभने छोडेल नथी ते दुष्ट साधु, त्रीजो सुसाधु अने चोथो असंयत ११, विशिष्ट गुणनुं स्थानक होवाथी संज्ञाने छोडनार, पण गृहस्थ होवाथी गृहवासने छोडेल नथी-आ एक, बीजो तो यति होवाथी गृहवासने छोडेल छे पण सद्भावनाबडे भावित नहि होवाथी आहारादि संज्ञाने छोडेल नथी-आ बीजो भंग. बन्नेने छोडेल हे ते श्रीजो अने बनेने छोडेल नथी ते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***************** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ आत्मभरित्वादि चतु भङग्यः सू० ३२७ ।। ४७८ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx चोथो भंग १२, आ जन्ममां ज अर्थ-मोगसुखादि प्रयोजन अथवा आस्था-'ए ज सारुं छे' एवी छे बुद्धि जेनी ते ईहाथै अथवा इहास्थ मोगपुरुष अथवा लोकमां प्रतिबंध पामेल, परत्र-जन्मांतरने विषेज प्रयोजन अथवा आस्था के जेने ते पराथें अथवा परास्थ ते साधु अथवा बालतपस्वी, उभय लोकने विषे प्रयोजन अथवा आस्था छ जेने ते सुश्रावक अथवा बन्ने लोकना सुखमां बंधाएल उभयलोकना प्रयोजनथी रहित ते कालसौकरादि अथवा मूढ अथवा 'इहैव'-कोईक विवक्षित ग्राम विगेरेमा ज रहे ते इहस्थ, तेमां बंधाएल होवाथी 'न परस्थ-परमा रहेल नथी १, बीजो तो परत्र-बीजे स्थले प्रतिबद्ध होवाथी परस्थ २, अन्य तो उभय स्थलमा रहेनार ते उभयस्थ ३ अने चोथो तो सर्वत्र अप्रतिबद्ध होवाथी अनुभयस्थ-साधु १३, काइक एकवडे-श्रुतवडे वृद्धिने पामे छे अने एकथी-सम्यग्दर्शनथी हीन थाय छे. कयु छ के|जह जह बहस्सुओसं-मओयसीसगणसंपरिडोय।अविणिच्छिओय समए,तह तह सिद्धंतपडिणीओ। जेम जेम बहु शास्त्रनो ज्ञाता होय, घणा लोकोवडे सम्मत होय,तथा शिष्यना समुदायवडे सारी रीते परिवृत्त होय, पण सिद्धांत. ना तत्त्वमा अनिश्चित-अजाण होय तो ते सिद्धांतनो प्रत्यनीक-वैरी थाय छे. आ एक. बीजो एकवडे-श्रुतवडे वृद्धिने पामे छ अने बेथी ( सम्यग्दर्शन तथा विनयथी ) हीन थाय छे. श्रीजो बेवडे-श्रुत अने अनुष्ठानवडे वृद्धि पामे छे पण एकथी-सम्यग्दर्शनथी हीन थाय छे. चोथो बेथी-श्रुत अने अनुष्ठानथी वृद्धि पामे छ पण बेथी सम्यगदर्शन अने विनयथी हीन थाय छे अथवा ज्ञानवडे वृद्धि पामे छे अने रागद्वेष-बन्नेथी हीन थाय छ, त्रीजा ज्ञान KOOOKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXOXOXOK) For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४७९ ॥ www.kobatirth.org अने संयमवडे वृद्धि पामे छे अने रागथी हीन थाय छे, चोथो ज्ञान अने संयमथी वृद्धिने पामे छे अने राग-द्वेष उभयथी हीन थाय छे अथवा क्रोधवडे वधे छे अने मायावडे घटे छे, आ एक. बीजो क्रोधवडे बधे छे अने माया तथा लोभवडे घटे छे. जो क्रोध अने मानवडे वधे छे अने मायाथी घटे छे. चोथो क्रोध तथा मानवडे बधे छे अने माया - लोभथी घटे छे १४, प्रकंथको अथवा पाठांतरथी कंथको ते अश्वविशेषो, आकीर्ण-वेग विगेरे गुणोथी पूर्वे पण व्याप्त अने पछी पण तेवोज, आ प्रथम भेद, बीजो तो प्रथम आकीर्ण पण पाछळथी खलुंक-गळिओ अविनीत, त्रीजो प्रथम खलुंक पण पाछळथी आकीर्ण-वेगादि गुणवाळो, चोथा पूर्वे अने पछी पण खलुंक - गळिओ १५, आकीर्ण - गुणवान अने आकीर्णपणावडे - विनय वेगादि गुणवान - पणाए वहे छे - प्रवर्त्ते छे. पाठांतरमां 'विहरती' त्ति० छे - विचरे छे. बीजो आकीर्ण, पण आरोहण-चडावना दोपवडे खलुंकपणाए - गळिआपणाए वहे छे. त्रीजो खलुंक छे पण आरोहक - स्वारना गुणथी आकीर्ण गुणपणाए वहे छे. चोथो तो सुगम छे १६, बन्ने सूत्रमां पण दातिकरूप पुरुषो जोडवा.सूत्रमां तो क्यांक नथी कला, केमके सूत्रनी गति विचित्र होय छे. १७ - १८, जाति ४, कुल ३, बल २, रूप अने जय १--ए पांच पदने विषे द्विक्संयोगी दश भंगवडे प्रकंथकना दृष्टांतरूप दश चतुर्भगी सूत्रोछे २८. ते प्रत्येक सूत्रने ज अनुसरण करता सता दातिकरूप दश पुरुषसूत्रो थाय छे ३८, अर्थात् जाति अने कुलबल-रूप- जय पदथी चार, कुल अने बल-रूप-जय पदथी त्रण, बल अने रूप-जय पदथी व तथा रूप अने जय पदथी एक एवी रीते द्विक्संयोगी दश भांगा थाय छे. विशेष ए के--जय बीजानो पराजय करवो-बीजाने जीत सिंहपणाए - शौर्यपणाए गृहवासथी नीकळेल - दीक्षित थयेल तेमज उद्यत (तत्पर) विहारवडे विचरे छे - शीयाळपणाए - दीनवृत्तिथी विचरे छे ३९. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ आत्मभरि त्वादि चतु भङ्ग्यः सू० ३२७ ॥ ४७९ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KOOOoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxcom (१० ३२७) पूर्वे जात्यादि गुणवडे अश्वादिथी पुरुषोनी समानता कही, हवे अप्रतिष्ठान विगेरेनी समानताने प्रमाणथी कहे जे चत्वारि लोगे समा पं० सं०-अपइट्ठाणे नरए १ जंबुद्दीवे दीवे २ पालते जाणविमाणे ३ सव्वट्रसिद्ध महाविमाणे ४ । चत्तारि लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं पं० त०-सीमंतए नरए १ समयक्खेत्ते २ उडुविमाणे ३ ईसीपब्भारा पुढवी ४। सू० ३२८, उडालोगेणं चत्तारि बिसरीरा पं० तंपुढविकाइया आउ० वणस्सइ० उराला तसा पाणा. अहो लोगे णं चत्तारि बिसरीरा पं०२०-एवं चेव, एवं तिरियलोएवि ४ । सू० ३२९ - मूलार्थ:-लोकने विषे चार वस्तु समान कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ सातमी नरकनो अप्रतिष्ठान नामनो नरकावास, २ जंबूद्वीप नामनो द्वीप, ३ पालक नामर्नु यान विमान अने ४ सर्वार्थसिद्ध नामर्नु महाविमान. आ दरेक एक लाख योजनना लांबापहोला छे. लोकमां चार वस्तु, दिशा अने विदिशाए समान कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ पहेली नरकभूमिनो सीमंतक नामनो नरकावास, २ समयक्षेत्र (मनुष्यलोक), ३ सौधर्म देवलोकनुं उड नामर्नु विमान अने ४ ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी. आ दरेक पास्तालीश लाख योजनना लांबापहोळा छे.(सू० ३२८) ऊर्ध्वलोकमां चार प्रकारना जीवो वे शरीरवाळा कहेला छे,ते आ प्रमाणे१ पृथिवीकायिक, २ अपूकायिक, ३ वनस्पतिकायिक अने ४ स्थूल त्रस जीवो केमके एक शरीर वर्चमान भव संबंधी अने For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥। ४८० ॥ www.kobatirth.org बीजुं जन्मा॑त॒रमा॑ां थनारुं मनुष्य संबंधी, पछी मोक्षमां जवाथी केटलाएकने त्रीजुं शरीर न होय. एवी रीते अधोलोकमां चार प्रकारना पूर्वोक्त जीवो के शरीरवाळा कडेला छे. वळी तिर्यकूलोकमां पण एम ज जाणवुं. (सू० ३२९) टीकार्थ:-' चत्तारी' त्यादि० वे सूत्र प्रायः उक्तार्थ छे, तो पण कईक कहेवाय छे. सातमी नरकपृथिवीमां कालादि पांच नरकावासोना मध्यमां रहेल अप्रतिष्ठान नामनुं नरकावास छे ते एक लाख योजन छे. पालक देवे बनावेलं, सौधर्मेंद्र संबंधी यान (वाहन) रूप विमान अथवा जवा माटेनुं विमान, ते यान विमान परंतु ते शाश्वत नथी. पांच अनुत्तर विमानोना मध्यमां सर्वार्थसिद्ध नामनुं विमान छे. लोकने विषे चार वस्तु समान होय छे. केवी रीते ? ते कहे छे 'सपक्खि सपडिदिसं' ति समान हे दिशाओ जेने विषे ते सपक्ष ( अहिं 'इकार' प्राकृतपणान लईने छे) तथा समान छे विदिशाओ जेने विषे तेसप्रतिदिक् ते जेम होय छे तेम समान होय छे अथवा पक्षोवडे सरखा ते सपक्ष, अहिं अव्ययीभाव समास छे. नीचे अने उपरना विभागवडे रहेल, विस्तारवाळा अने सांकडा बे द्रव्य पदार्थोनी अथवा विषमताए रहेला तुल्य प्रमाणवाळा ने पदार्थोंनी दिशा अने विदिशाओ होती नथी माटे अत्यंत समानताने देखाडवा सपक्ष अने सप्रतिदिक्रूप ने विशेषण कहेल छे. प्रथम नरकभूमिमां पहेला प्रस्तर (पाथडा) ने विषे पीस्तालीश लक्ष योजनप्रमाण सीमंतक नामनो नरकावास छे. समय-काळवडे जाणाक्षेत्र समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्यक्षेत्र. सौधर्मकल्पमां प्रथम प्रस्तरटने विषे ज उडु नामनुं विमान छे. रत्नप्रभादि पृथिवीनी अपेक्षाए इपत् (अल्प) छे प्राग्भार- ऊंचाई विगेरे जेणीमां ते इषत्प्राग्भारा जाणवी. (सू० ३२८) इषत्प्राग्भारा पृथिवी ऊर्ध्व लोकविषे होय छे माटे ऊर्ध्व लोकना प्रस्तावथी कहे छे-'उड्डे' त्यादि०ने छे शरीर जेओने ते वे शरीरवाळा, पृथिवीकायिक For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ लोके समा द्विशरीराब ०३२८२९ | ४८० ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarthang Acharya Shri Kailasagarsuri Gyarmandie OxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXKOKOKOKOxy विगेरेनुंज एक शरीर अने बीजुं जन्मांतरमा थनारुं मनुष्य शरीर. आबे उपरांत त्रीजुं शरीर केटलाएक जीवोने थतुं नथी; कारण के ते अंतर रहित मोक्षमा जाय छे. 'ओराला तसत्ति०-उदारा-स्थूल द्वींद्रियादि जीवो, परंतु तेजस्कायिक अने वायुकायिकरूप सूक्ष्म जीवो नहिं केम के तेओने वीजा भवमा मनुष्यभवनी प्राप्ति न थवाथी मोक्ष थतो नथी, माटे अन्य शरीरनो संभव होय छे ( तेथी बन्नेनो निषेध करायेल छे) तथा उदार प्रसनुं ग्रहण करवावडे द्वींद्रियादिनु प्रतिपादन छते पण अहिं बे शरीरपणाथी पंचेंद्रियो ज (गर्भज) ग्रहण करवा योग्य छ, कारण के विकलेंद्रियोने अंतर रहित बीजा भवमा सिद्धिनो अभाव होय छे. कयु छ के-" विगला लभेज्ज विरई ण हु किंचि लभेज्ज सुहुमतसा "-विकलेंद्रियो अनंतर-मनुष्यादिभवमा विरतिने प्राप्त करी शके छे परंतु सूक्ष्म त्रसो-तेउ, वाउ अनंतर भवमां कई पण न पामे-समकित पण पामे नहिं. लोकना संबंधी प्राप्त थयेल अधोलोक अने तिर्यक्लोक संबंधी वे अतिदेशसूत्र उक्तार्थ छे. (सू० ३२१) तिर्यक्लोकना अधिकारथी तेमां उत्पन्न थयेल संयतादि पुरुषने भेदोवडे कहे छ चत्तारि पुरिसजाया पं०२०-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते थिरसत्ते । सू०३३०, चत्वारि सिज| पडिमाओ पं०. चत्तारि वत्थपडिमाओ पं०, चत्तारि पायपडिमाओ पं०. चत्तारि ठाणपडिमाओ पं०।सू० * अहीं सूक्ष्म शब्द आपेक्षिक छे माटे सूक्ष्म अने बादर बन्ने तेनो, वायु लेवा अर्थात् बोजा जीवोनी अपेक्षाए सूक्ष्म-झीणो कायावाळा. ४ तेउ अने वाउना शरीरथो बहु जोबोनी हिंसा यतो होवाथी तेओने समकितनी प्राप्ति पण थतो नथी. For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxx भीस्थानाङ्गसत्र सानुवाद ॥४८१॥ ३३१, चत्तारि सरीरगाजीवफुडापं० त०-वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए, चत्तारि सरीरगा कम्मुम्मीसगा पं० तं०-ओरालिए वेउविए आहारते तेउते । सू० ३३२. चउहि अस्थिकाएहिं लोगे फुडे पं० तं०-धम्मत्थिकारणं अधम्मत्थिकारणं जीवत्थिकारणं पुग्गलत्थिकाएणं, चउहि बादरकातेहिं उववज्जमाणेहिं लोगे फुडे पं० तं०-पुढविकाइएहिं आउ० वाउ० वणस्सइकाइएहिं । मू० ३३३, चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पं० तं०-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे एगजीवे । सू० ३३४ मूलार्थः-चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- हीसत्त्व-लाजी परिसह अथवा संग्राममा धैर्यने धेरै छ. ही- मनसत्त्व-लाजथी मनमा ज धैर्यने धरे छ पण कायाथी नहिं, चलसत्त्व-परिसह विगेरे आववाथी अस्थिरसचवाळो छे अने स्थिरसत्व-परिसह विगेरेने सहन करवामां निश्चल सत्त्व-धैर्यवाळो छे. (सू० ३३०) शय्या संबंधी चार प्रतिमाओ (अभिग्रह विशेष) कहेली छे, वस्त्र संबंधी चार प्रतिमाओ कहेली छे, पात्र संबंधी चार प्रतिमाओ कहेली छे अने स्थान संबंधी चार प्रतिमाओ कहेली छे. (सू० ३३१) चार शरीरो जीववडे स्पर्शायला छ अर्थात् जीववडे व्याप्त छे, ते आ प्रमाणे-वैक्रिय, आहारक, | तैजस अने कार्मण. चार शरीरो कार्मण शरीरथी मिश्र कहेल छे, ते आ प्रमाणे-औदारिक, वैक्रिय, आहारक अने तैजस. | (सू० ३३२) चार अस्तिकायवडे लोक स्पशार्येल कहेल छे, ते आ प्रमाणे-धर्मास्तिकायवडे, अधर्मास्तिकायवडे, ४ स्थानकाध्य यने उद्देशः३ सवप्रति माजीवस्पृष्टलोकस्पृष्टप्रदेशाग्रतुल्याः सू०३३० ३३४ xxxxxxxxxxxxxxxxx ॥ ४८१॥ RXXRIKRA For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx जीवास्तिकायवडे अने पुद्गलास्तिकायवडे. चार बादरकायोबडे लोक स्पर्शायेल कहेल छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकायवडे, अप्कायवडे, वायुकायवडे अने वनस्पतिकायवडे. ( स० ३३३ ) चार द्रव्यो प्रदेशोना प्रमाणबडे सरखा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ लोकाकाश अने ४ एक जीव. (सू० ३३४) टीकार्थ:-'चत्तारी' त्यादि० लज्जावडे सत्त्व-परिषहादिने सहन करवामां अथवा रणांगणने विपे रहेवारूप बल छ जेनु ते हीसच. उत्तम कुळमां उत्पन्न थयेल एवा मने ( मारी उपर) मनुष्यो हसशे एम मनमा ज लज्जावडे परंतु शरीरमां सत्व (धैर्य) नहिं; कारण के रोमहर्ष-रंवाटी ऊभी थवारूप अने कंप विगेरे भयना चिह्न देखावाथी केवळ मनबडे जेनुं सच छे ते हीमनसत्त्व. परिषहादिनी प्राप्ति(आववा)मां बलनो नाश थवाथी चल-अस्थिर छे सच जेनुं ते चलसत्त्व, आ प्रकारथी विपरीत | अर्थात् परिषहादिने विषे स्थिर(अडग) रहेबाथी स्थिरसव. (मू०३३०) हमणाज स्थिर सत्त्ववाळो कह्यो, ते अभिग्रहोने स्वीकारीने पाळे छ माटे ते बताववा सारु आ चार सूत्रो'चत्तारि सिजे' त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के जेना उपर सूवाय छ ते शय्या-संथारो, तेनी प्रतिमा-अभिग्रहो ते शय्याप्रतिमाओ. तेमां फलक(पाटियु) विगेरेमां कोईपण एक उद्दिष्ट-चोकस करेल ज लईश, बीजु नहि-आ पहेली. जे प्रथम चोकस करेल छ तेने ज ज्यारे हुं जोईश त्यारे ते ज लईश, पण बीजुं नहिं-आ बीजी. ते पण जो ते शय्यातरनाज घरमां होय तो तेनी पासेथी लईश, पण बीजे स्थलथी लावीने तेनी उपर शयन करीश नहिआ त्रीजी, ते फलक विगेरे जेम जोईए तेम जो पाथरेलुं होय तो तेनी पासेथी हुँ ग्रहण करीश, पण बीजी रीते नहि-आ चोथी. आ चार प्रतिमाओमां पहेली चे प्रतिमाओ गच्छथी नीकळेला साधुओने ग्रहण करवा योग्य नथी. पाछली बे प्रतिमामांथी कोईपण xxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नागपत्र बानुवाद ॥४८२॥ rxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx एक प्रतिमाने विषे अभिग्रह करे. गच्छांतर-अन्य गच्छमां गयेला साधुओने ती चारे कल्पे छे. वस्त्रना ग्रहणविषयमा जे प्रतिज्ञा ते वस्त्रप्रतिमा. प्रथम चोकस करेल कोईपण एक कपास विगेरेनु वख हूं याचीश-आ पहेली. जोयेल वस्त्रने याचीश, पण बीजुं नहिंआ बीजी, नीचे पहेवाबडे अथवा उपर पहेवाबडे शय्यातरे प्रायः सारीरीते (बहु ज) वापरेल होय एवा वखने हुं ग्रहण करीशआ त्रीजी तेमज फेंकवा योग्य वस्त्रने ग्रहण करीश-आ चोथी. पात्रनी प्रतिमा-चोकस करेल काष्ठना पात्र विगेरेने हुं याचीश-आ पहेली. जोयेल पात्रने याचीश-आ बीजी. दातारनी मालिकीनु अने ते प्रायः वापरेलु अथवा वेत्रण पात्रने विषे क्रमशः वपरातुं एवा पात्रने याचीश-आत्रीजी. फेंकी देवा योग्य पात्रने याचीश-आ चोथी. स्थान-कायोत्सर्गादि माटे आश्रय, तेने विषे प्रतिमाओ ते स्थानप्रतिमाओ. तेमां कोईक साधुने आवा प्रकारनो अभिग्रह होय छे-हुं अचित्त स्थान प्रत्ये आश्रय कशि अने त्यां पग विगरेनुं संकोचन अने विस्तारवारूप क्रिया करीश तथा अचित्त भीत विगेरेनुं कंईक अवलंबन करीश. वळी त्यांज स्तोक पादविहार ने आश्रय करीश अर्थात थोडे चालीश-आ पहेली प्रतिमा. संकुंचन अने प्रसारण विगेरे क्रियाने अने भींत विगेरेना अवलंबनने करीश पण पादविहार करीश नहिं- बीजी. संकुंचन अने प्रसारणने करीश परंतु भीतादिनुं अवलंबन अने पादविहार करीश नहिं-आत्रीजी. जे स्थानमा त्रणे करतो नथी अर्थात् संकुंचनादि क्रिया, अवलंबन अने पादविहार करतो नथी-आ चोथी स्थानप्रतिमा. (मू० ३३१ ) अनंतर शरीरनी चेष्टानो निरोध कह्यो, माटे शरीरना प्रसंगथी-'चत्तारीत्यादि वे सूत्र स्पष्ट छे, परंतु जीववडे स्पृष्ट-व्याप्त ते जीवस्पृष्ट शरीरो. वैक्रिय विगेरे शरीरो अवश्य जीववडे ज व्याप्त होय छे, किंतु जेम जीववडे छोडायल छतां पण मृतावस्थामा औदारिक शरीर होय छे तेम आ वैक्रियादि शरीरो होतां नथी. 'कम्मुम्मीसग 'त्ति० MARAXXXxxxxxx ४ स्थान काध्यक्वे उदेशः३ सच्चप्रतिमाजीवनस्पृष्टलोक स्पृष्टप्रदेशाग्रतुल्पाः सू०३३० ३३४ ॥४८२॥ For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) कार्मण शरीखडे औदारिकादि शरीरो विशेषमिश्रको-हमेशां मिश्र होय छे परंतु तेओ एकला न होय. जेम औदारिकादि त्रण शरीरो वेक्रियादि शरीरोबडे अमिश्र पण होय छ तेम कार्मण शरीरथी रहित होता नथी. (सू० ३३२) शरीरो, कामेणबड़े उन्मिश्र ज छे एम कर्दा अने उन्मिश्रको. स्पृष्ट-स्पर्शायेला ज छ माटे स्पृष्टना प्रसंगथी वे सूत्र-'चउहीं' त्यादि० उक्तार्थ छे. केवल 'फुडे 'त्ति० स्पृष्ट-दरेक प्रदेश प्रत्ये व्याप्त. पृथिवीकायिकादि पांचे सूक्ष्मोनो सर्व लोकथी सर्व लोकमां उत्पादउपजq होवाथी बधाय लोकमांथी नीकळीने मनुष्यक्षेत्रमा ऋजुगति अने वक्रगतिवडे उत्पन्न थता बादर तेजस्कायिकोनो तो वे ऊर्ध्व कपाटने विषे चादरतेजस्कायत्वरूप व्यपदेशने इष्ट होवाथी 'चउहिं यादरकाएहिं ' एम कर्दा. बादर पृथिवी, अप, वायु अने वनस्पतिना जीवो समस्त लोकमांथी नीकळीने पृथ्वी आदि, घनोदधि विगेरे, अने धनवातवलयादिने विषे यथायोग्य पोताना उत्पत्तिस्थानोमा ऋजु अथवा वक्रगतिबडे उत्पन्न थता अपर्याप्तक अवस्थामा अत्यंत बहुपणाथी सर्व लोकने दरेक स्पर्श छे. आ पृथ्वीआदि पर्याप्ता बादर तेजस्कायिको अने त्रसजीवो, लोकना असंख्याता भागने ज स्पर्श छे. श्रीपनवणा सूत्रमा कयु छ के-"एत्य णं यादरपुढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे" अहिं चादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोना स्थानो कह्या छ. उत्पत्तिबडे लोकनो असंख्यातमो भाग छे. तथा "बादरपुढविकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सवलोए" चादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकोना स्थानो कहेला छ, उत्पत्तिवडे सर्व लोकमां छे. एवी रीते आ वायु अने वनस्पतिना स्थानो जाणवा. तथा-"यादरतेउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजहभागे" बादर पर्याप्तक तेजस्कायिकोना स्थानो xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था सानुवाद ॥४८३ ।। ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सच्चप्रति माजीवस्पृ कहेला छे. उत्पत्तिवडे लोकनो असंख्यातमो भाग छे. "बादरतेउक्काइयाणं अपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, लोयस्स दोसु उड्डकवाडेसुं तिरियलोयतढे य'त्ति० बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकोना स्थानो लोकनाये ऊर्ध्व कपाटने विषे अने ऊर्ध्व कपाटमा रहेला तिर्यकलाकने विषे कहेल छे. कोईक आचार्यो तिर्यक्लोकरूप स्थालमां पण कहे छे. तथा"कहिन्नं भंते! सुहमपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पजत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्नगा पन्नत्ता समणाउसो!" त्ति. हे भगवन् ! पर्याप्तक अने अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिकोना स्थानो क्या कहेला छे ? उत्तर हे गौतम ! जे सूक्ष्म पृथ्वीकायिको पर्याप्तक अने अपर्याप्तक छे ते बधाय एक सरखा, विशेष रहित, भिन्नस्वरूपे नहि एटले X| सर्व लोकने विषे व्यापीने रहेला कहेला छे. हे आयुष्मान् श्रमणो! एमज बीजा अपकायिकादि चारे सूक्ष्मो जाणवा. | " एवं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागो" त्ति० पर्याप्त अने अपर्याप्त, द्वींद्रियोना स्थानो कहेला छे. उत्पत्तिवडे लोकनो असंख्यातमो भाग छे. एमज शेष सोना पण स्थानो जाणवा. (सू० ३३३ ) चारवडे लोक स्पर्शायेल छे एम कयुं, माटे लोकना प्रस्तावथी लोकनी अने धर्मास्तिकायादिनी परस्पर प्रदेशथी समानता कहे छे. 'चत्तारी त्यादि. सरळ छे. विशेष ए के-प्रदेशाग्र-प्रदेशना परिमाणवडे तुल्य-समान छे, केमके आ बधायना असंख्यात प्रदेश होवाथी 'लोयागासे' त्ति. आकाशअनंत प्रदेशपणुं होईने धर्मास्तिकाय विगरेनी साथे अतुल्यतानी प्राप्ति थवाथी 'लोक'नुं ग्रहण करेल छे. 'एगजीवे 'त्ति. सर्व जीवोना, अनंत XXX Oxxxxxxxxxxxxxxxxxxx लोकस्पृष्ट प्रदेशाग्रतुल्याः सू० ३३०३३४ XXXX) X॥४८३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रदेश होवाथी विवक्षित तुल्यतामां अभावना प्रसंगने लईने 'एक' जीवनुं ग्रहण करेल छे. ( सू० ३३४ ) पहेलां पृथ्वी विगेरेथी लोक स्पर्शायेल छे एम कहुं, माटे पृथ्वी विगेरेना प्रस्तावथी कहे छे के चउपहमेगं सरीरं नो सुपस्सं भवइ, तं०- पुढविकाइयाणं, आउ० तेउ० वणस्सइकाइयाणं । सू० ३३५, चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदेति तं० - सोतिंदियत्थे घाणिदियत्थे, जिम्भिदियत्थे फासिंदियत्थे । सू० ३३६, चउहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते तं०-गतिअभावेणं णिरुवग्गहताते लुक्खताते लोगाणुभावेणं । सू० ३३७ मूलार्थ:- चार प्रकारना जीवोनुं एक शरीर अति सूक्ष्म होवाथी आंखे देखी काय नहि, ते आप्रमाणेपृथ्वीकाथिकोनुं, अप्कायिकोनुं, तेजस्कायिकोनुं अने वनस्पतिकायि कोनुं. ( सू० ३३५) चार इंद्रियोना अर्थो - शब्दादि विषयो स्पृष्ट-इंद्रियोना संबंधमां आववाथी - जोडावाथी जणाय छे, ते आ प्रमाणे श्रोत्रंद्रियनो विषय शब्द, घ्राणेंद्रियनो विषय गंध, जिवेंद्रियनो विषय रस अने स्पर्शेद्रियनो विषय स्पर्श. ( सू० ३३६ ) चार कारणवडे जीवो अने पुद्गलो लोकांतथी बहारअलोकमां जवा माटे समर्थ नथी, ते आ प्रमाणे-गतिना अभावथी, सहायताना अभावथी, रुक्षता-लुखासथी अने लोकना अनुभावथी - लोकमर्यादाथी. ( सू० ३३७ ) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था मानुवाद ॥४८४॥ Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx टीकार्थ:-'चउण्ह 'मित्यादि० सरळ छे. विशेष एके-'नो पस्सं'ति. अत्यंत सूक्ष्म होबाथी एक *शरीर, आंखवडे जोई शकाय नहि. क्यांक'नो सुपस्संति' एवो पाठ छे त्यां आंखथी सुखे देखाय नहि अर्थात् आंखथी प्रत्यक्ष दृश्य नथी परंतु अनुमान विगरे प्रमाणोथी दृश्य छ तेम समजवं. बादर वायुकायिकोर्नु तथा पांचे सूक्ष्म जीवोना एक अथवा अनेक शरीरो पण अदृश्य छे-देखाय नहिं माटे वायुने छोडीने शेष चारनु का. अहिं 'वनस्पति' शब्दवडे साधारण ग्रहण करवा योग्य छे केम के प्रत्येक वनस्पतिना एक शरीरनुं तो जोवापणूछे ज.(०३३५) पृथ्वी विगेरेना शरीरोनु च इंद्रियवडे विषयपणुं कधु माटे इंद्रियना विषयना प्रस्तावथी कहे छ-'चत्तारि इंदियेत्यादि. अर्थ स्पष्ट छे. विशेष ए के-इद्रियावडे 'अर्यत' जणाय छे ते इंद्रियोना अर्थों-शब्दादि, 'पुट्ट 'त्तिः स्पृष्टा-इंद्रियो साथे संबंध पामेला, 'वेएंति 'त्ति० आत्मावडे जणाय छ केमके नेत्र अने मन सिवाय श्रोत्र विगेरे इंद्रियोनो प्राप्त थयेल विषयना बोधरूप स्वभाव होय छे. कयु छ के पुढे सुणेइ सदं, रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंधं रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे ॥ १८०॥ . श्रोत्रंद्रिय स्पर्शमात्रथी शब्दने सांभळे छे, वळी स्पर्श कर्या सिवाय चक्षुइंद्रिय रूपने जुवे छे अने विशेष रीते स्प. शोयेल अर्थात् सारी रीते एकत्र थयेल गंध, रस अने स्पर्शने घ्राणेंद्रिय विगेरे ग्रहण करे छे-जाणे छे. (सू० ३३६) अनंतर जीव अने पुद्गलनो इंद्रियरूप द्वारवडे ग्राहक ग्राह्यभाव कह्यो, हवे ते बन्नेना गतिधर्म प्रत्ये चिंतन करता थका सूत्रकार __* पृथ्वो, अप, तेन अने साधारण वनस्पतिना अनेक शरीरो साथे मळवाथी देखाय छे. ४ स्थानकाभ्यवने उद्देश:३ पृथ्यादि शरीरासुद्द* श्यतास्पृष्टा इन्द्रियार्थाः जीवपुद्गलानामलोकेगमः सू०३३५ kxxxxxxxxxxxxi Xn४८४॥ For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX कहे छे-'चउही'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के-धर्मास्तिकायादि द्रव्योनी गति नथी माटे 'जीवा य पुग्गला य' एम कडं, 'नो संचाएंति' समर्थ 'बहिय'त्ति० लोकांतथी बहार अर्थात् अलोकने विषे जवा माटे समर्थ नथी, कारण के गतिनो अभाव छे-लोकना छेडाथी आगळ गतिलक्षण स्वभावनो अभाव छ; जेम दीपकनी शिखा नीचे न जाय तेम तेओ जई शकता नथी. तथा निरुपग्रहपणाथी-धर्मास्तिकायना अभावने लईने गतिमां सहाय करनारनो अभाव होबाथी गाडी विगेरेथी रहित पांगळानी जेम गमन थतुं नथी. वळी रुक्षपणाथी-रेतीनी मूठीनी जेम लोकना छेडाओने विषे पुद्गलो, लुखाशथी अवश्य एवी रीते परिणमे छे के जेने लईने आगळ जवा माटे समर्थ थता नथी. कर्मपुद्गलोनो पण तथाभाव-रुक्षभाव थये छते जीवोथी छूटा पडी जाय छ. बळी सिद्ध परमात्माओ निरुपग्रहतावडे-धर्मास्तिकायना अभावने लईने आगळ जता नथी. लोकानुभाव-लोकनी मर्यादा| बडे पोताना विषयक्षेत्रथी बीजे स्थळे सूर्यमंडळनी जेम आगळ जई शके नहि. (सू. ३३७) अनंतर अर्थो कह्या, कहेल अर्थमा दृष्टांतथी प्रायः प्राणीओने विश्वास उत्पन्न थाय छ माटे दृष्टांतना भेदोर्नु प्रतिपादन करवा माटे पांच सूत्रो कहे छ चउबिहे गाते पं० तं०-आहरणे, आहरणतद्देसे. आहरणतहोसे, उवन्नासोवणए १, आहरणे | चउविहे पं० तं०-अवाते, उवाते, ठवणाकम्मे, पडुप्पन्नविणासी २, आहरणतद्देसे चउबिहे पं० | तं०-अणुसिट्ठी, उवालंभे, पुच्छा, निस्सावयणे ३, आहरणतद्दोसे चउठिवहे पं० २०-अधम्मजुत्ते, | पडिलोमे, अंतोवणीते, दुरुवणीते ४, उवन्नासोवणए चउठिवहे पं० २०-तव्वत्थुते, तदन्नवत्थुते, | धर्मास्तिकायनापुइगलोनो पण तथापि पुद्गलो, लुसाडी विगेरेथी रहि xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ॥१८५॥ ४ स्थानकाभ्ययने उद्देश ३ आहरणभेदाः सू. KI ३३८ F पडिनिभे, हेतू ५, हेऊ चउठिवहे पं० २०-जावते थावते वंसते लूसते, अथवा हेऊ चउव्विहे पं० । तं०-पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे, अहवा हेऊ चउबिहे पं० तं०-अस्थित्तं अस्थि सो हेऊ १, अत्थित्तं णत्थि सो हेऊ २, णत्थित्तं अस्थि सो हेऊ ३, णत्थित्तं णत्थि सो हेऊ ४ ।सू० ३३८ मलार्थ:-चार प्रकारे ज्ञात-दृष्टांत कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ आहरण-जेनावडे व्याप्तिथी अप्रसिद्ध अर्थने प्रतीतिमां लवाय छे, जेम ब्रह्मदत्तनी माफक करेलु पाप दुःखने माटे थाय छे एम कहेवू ते, २ देशआहरण-जम आ स्त्रीचें मुख चंद्र सदृश छे एम कहे ते, अहिं चंद्रनी सौम्यतारूप देशर्नु समानपणुं छे, ३ दोष सहित आहरण-जेम कोईक बुद्धिमान ईश्वरादिवडे करायेलुं आ जगत छ -घटपटादिनी माफक कहेवू ते, ४ उपन्यासोपनय-कोईक वादी पोताना पक्षy स्थापन करे छे अने ए स्थापेल पक्षने दूर करवा माटे प्रतिवादीए आपेलं दृष्टांत, जेम वादीए कह्यु के-आत्मा आकाशनी जेम अमृर्च होवाथी अकर्ता छ, तेनुं निराकरण करवा माटे कहेवू के-एम आकाशनी माफक आत्मा अभोक्ता पण थशे. (१), आहरण चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ अपाय-अनर्थ-ते द्रव्यथा, क्षेत्रथी, काळथी अने भावथी एम चार प्रकारे छे. तेनां उदाहरणो कहेवा ते, २ उपाय-पुरुषना व्यापाररूप साधनवडे कार्यनी निष्पत्ति थाय छे ते, तेना द्रव्यादि भेदथी उदाहरणो कहेवा, ३ जे दृष्टांतद्वारा अन्यना मतने दूषण आपीने स्वमतनी स्थापना कराय छे ते स्थापनाकर्म, पुंडरीक अध्ययननी माफक अने ४ तत्काल उत्पन्न थयेल वस्तुनो विनाश, ते दृष्टांतनुं निरूपण करवा माटे ज्यां होय छे ते प्रत्युत्पन्न XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX KXxxxxxxxxxxx ४८५॥ For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) विनाशी (२), देशआहरण चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ सद्गुणनी स्तुतिवडे गुणवानना गुणोनी प्रशंसा ज्या उप देशाय छे ते अनुशास्ति, २ अपराधने विषे प्रवृत्त थयेल मुनिने दृष्टांतद्वारा जे उपालंभ देवाय छे ते उपालंभ, ३ ज्ञान विगेरेना निर्णयना अभिलाषीपणाथी गुरुने पूछवायोग्य प्रश्नो करवावडे जेमां दृष्टांतद्वारा उपदेशाय छे ते पृच्छा तेमज ४ कोईपण सुशिष्यनो आश्रय करीने बीजाने प्रतिबोधवा माटे दृष्टांतरूपे जे कहेवं ते निश्रावचन (३) दोष सहित आहरण चार प्रकारे कहेलुं छे, ते आ प्रमाणे-१ जे दृष्टांत कहेवाथी अधर्मनी बुद्धि उत्पन्न थाय ते अधर्मयुक्त, २ लुच्चा प्रत्ये लुच्चाई करवी 'शठं प्रति शाव्यम्' एम दृष्टांतद्वारा कहे, ते प्रतिलोम, ३ अन्यना मतने क्षण आपवा माटे जे ग्रहण करेल दृष्टांतद्वारा स्वमतने ज दूषण आपे छे ते आत्मोपनीत अने ४ दुष्ट अथवा अशुद्ध वचननी योजना जे दृष्टांतमा कराय छे ते दुरुपनीत. (४) उपन्यासोपनय | चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ वादीए स्थापेल जे साधन( हेतु)रूप वस्तु, ते ज वस्तु उत्तररूप छे जेने विषे | ते तद्वस्तुक, २ वादीए स्थापेल वस्तुथी अन्य उत्तरभूत वस्तु छे जेमा ते तदन्यवस्तुक, ३ वादीए कहेल दृष्टांतना जेवू दृष्टांत उत्तर देवा माटे कहेवार्नु छे जेमां ते प्रतिनिभ अने ४ जे उपन्यासोपनयमां पूछनारनो हेतु छ तेज हेतु उत्तररूपे कहेवाय छे ते हेतु. (५) हेतु चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ वादीना काळनी यापना-विलंब करे छे ते यापक, *२ वादीए स्थापेल हेतुना सदृश हेतुने जे स्थापे छे ते स्थापक, ३ शब्दना छळवडे जे बीजाने व्यामोह( भ्रम ) उत्पन्न करे छे ते व्यंसक अने ४ धूर्तवडे ग्रहण करायेल वस्तुने जे लूंटी ले छे ते लूसक. अथवा हेतु चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे१ प्रत्यक्ष-आत्मावडे जणाय ते पारमार्थिक प्रत्यक्ष अने इंद्रियादिद्वारा जणाय ते सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, २ हेतुना जोवा Ixxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुबाद ॥ ४८६॥ ४ स्थानस्नध्ययने उद्देश ३ आहरममेदाः xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ३३८ रूप संबंधी व्याप्तिना स्मरण पछी जे मान-ज्ञान थाय छे ते अनुमान, जेम धूमाडाने जोवाथी अग्निनुं ज्ञान थाय छे, ३ उपमावडे समानपणानुं जे ज्ञान थर्बु अर्थात् बळद वो रोझ छे ते उपमान, अने आप्तपुरुषद्वारा कहेवायलं वचन ते आगम. अथवा हेतु चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ धूमादि हेतुरूप वस्तु छे तो अग्नि विगेरे साध्य वस्तु छे, ते अस्तित्वअस्तित्व हेतु, २ जो अग्नि विगेरे वस्तु छे तो तेथी विरुद्ध शीत विगेरे वस्तु नथी ते अस्तित्वनास्तित्व हेतु, ३ अग्नि विगरे नथी माटे शीतकाळमां ठंडी विगेर छे ते नास्तित्वअस्तित्व हेतु अने ४ वृक्षत्वादि नथी तेथी शाखा विगेरे पण नथी ते नास्तित्वनास्तित्व हेतु. (सू०३३८) टीकार्थः-पांच सूत्रोनी व्याख्यामां जे छते दार्शतिक अर्थ जणाय छे ते ज्ञात-दृष्टांत, अहिं अधिकरणमा 'क्त' प्रत्यय करवाथी 'ज्ञात' शब्द सिद्ध थाय छे. साधन( हेतु )ना सद्भावमां साध्यनो अवश्य सद्भाव छ अथवा साध्यना अभावमा साधननो अवश्य अभाव होय छे. आ उपदर्शन लक्षण छे. कयु छ के-"माध्यवडे हेतुनो बोध थाय छे अने साध्यना अभावमा साधननो बोध थतो नथी. जेमां दृष्टांत कहेवाय छे ते साधर्म्य अने वैधर्म्यरूप वे प्रकारे छे." साधर्म्य दृष्टांत अर्हि अग्नि छ, धूमथी जेम महानस-रसोडामां अने वैधर्म्य दृष्टांत तो अमिनो अभाव छते धूमाडो होतो नथी, जेम जलाशयमा अग्नि होतो नथी. अथवा आख्यानक-कथानकरूप दृष्टांत ते चरित्र अने कल्पितना भेदथी चे प्रकारे छे. तेमां चरित्र आ प्रमाणे-निदान(नियाj) दुःखने माटे छे, ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीनी जेम. कल्पित आ प्रमाणे-प्रमादवाळाओने यौवनादि अनित्य छे एम बताव, जेम पांडु (धोळा) पत्रे-पांदडाए किशलय-कुमळां पत्रोने कछु, ते आ प्रमाणे Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४॥ १८६॥ KXXXXX For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) जह तुब्भे तह अम्हे. तुब्भेऽविय होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥१८॥ जेम हमणा तमे किशलयभावने अनुभवता थका गर्व करो छ तेम अमे पण भूतकालमां तमारा जेवा हता. हमणा अमे जेम जीर्ण-शुष्कभावने प्राप्त थया छीए तेम तमे पण भविष्यमा थशो-उक्तन्यायवडे पडता एवा पांडु (पाकी गयेला) पत्रो किशलयोन बोध आपे छे. अथवा उपमान मात्र दृष्टांत-कोमळ पत्रनी जेम सुकुमार हाथ छे, इत्यादिवत् अथवा ज्ञात-उपपत्ति मात्र दृष्टांतनो हेतु होय छे. शामाटे यव खरीदो छो ? मफत नथी मळता माटे खरीदीए छीए इत्यादि अनेक प्रकारो छे, तो * पण साध्यने जणाववारूप दृष्टांत, उपाधिना भेदथी चार प्रकारे सूत्रकार बतावे छे-१' आ' अभिविधि( व्याप्ति वडे 'हियते' अप्रतीत अर्थ जेनावडे प्रतीतिमा लई जवाय छे ते आहरण, जेमा सामुदायिक ज दाष्टोतिक अर्थ लेवाय छे. जेम पाप दुःखने माटे छे, ब्रह्मदत्त चक्रीनी माफक. तथा २ 'तस्य'-आहरणना अर्थनो देश(विभाग) ते तदेश, उपचारथी ते देशरूप आहरण छे. प्राकृतशैलीथी 'आहरण' शन्दनो पूर्व निपात कर्ये छते (मृलमां ) आहरणतद्देश छे. अहिं तात्पर्य ए छ के-ज्यां दृष्टांतरूप अर्थना देशवडे ज दाष्टांतिक अर्थनो न्याय मेळवाय छे ते तदेशोदाहरण छे. जेम आ स्त्रीनुं चंद्र जेवू मुख छे. अहिं चंद्रने विषे सौम्यत्व लक्षणबडे ज देशथी मुखनो न्याय मेळववो, परंतु नेत्र तथा नासिकार्नु रहितपणुं तेमज कलंकादिरूप अनिष्टवडे नहिं. ३ ते आहरण संबंधी साक्षात् अथवा प्रसंगथी प्राप्त थतो दोष ते तद्दोष, ते आ प्रमाणे-धमेने विषे धींनो For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie बीस्थानाङ्गसूत्र सानुबाद ॥४८७ ॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ आहरण भेदाः सू० ३३८ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxoxoxoxx) उपचार करवाथी तदोषाहरण छे. अहिं प्राकृत शैलीथी आहरण शब्दनो पूर्व निपात करवाथी 'सूत्रमा' आहरणतदोष प्रयोग थेयेल है अथवा 'तस्य' आहरण संबंधी दोष छ जेमां ते आहरणतदोष, बीजु तेमज जाणवू. अहिं भावार्थ आ प्रमाणे छे-साध्यनुं विकलपणुं ( अयोग्यत्व) विगेरे दोपथी जे दुष्ट छे ते तदोषाहरण. जेम घटनी माफक अमूर्तपणाथी शब्द नित्य छे. अहिं साध्य अने साधननी विकलता नामनो दृष्टांतदोष छे. वली जे असभ्य विगरे वचनरूप छे ते पण तदोषाहरण छे. जेम हुं सर्वथा असत्यनो परिहार करूं छु-गुरुना मस्तकने कापवानी माफक, अथवा साध्यनी सिद्धिने करतो थको पण अन्य दोषने लावे छे ते पण तद्दोषाहरण. जेम के-लौकिक मुनिओ सत्य धर्मने इच्छे छे पण-"सो कूवाथी एक वावडी सारी, सो वावडीथी एक यज्ञ श्रेष्ठ, सो यज्ञथी एक पुत्र श्रेष्ठ अने सो पुत्रथी एक सत्य श्रेष्ठ छे" आ प्रमाणे नारदनी माफक बोले छे. आवा वचनवडे श्रोताने प्रायः संसारना कारणभूत पुत्र, यज्ञ विगैरेने विषे धर्मनी प्रतीति बतावेली छे तेथी आहरणतदोषता छे. बळी जेम कोई पण बुद्धिमान पुरुष कहे के-सन्निवेश रचना विशेषवाल्लं होवाथी घटनी माफक आ जगत करायेलुं छे अने तेना कर्ता ईश्वर छ. उक्त वाक्यवडे ज ते विवक्षित ईश्वर बुद्धिमान कुंभार तुल्य अनीश्वर पुरुषविशेष सिद्ध थाय छे. ४ वादीए स्वसम्मत अर्थना साधन माटे वस्तुनो उपन्यास (स्थापन ) कर्ये छते तेना खंडन माटे प्रतिवादीद्वारा जे विरुद्ध अर्थनो उपनय कराय छे अथवा पूर्वपक्षना स्थापनमा जे उत्तररूप उपनय ते उपन्यासोपनय केवळ उत्तररूप युक्ति मात्र छतां पण दृष्टांतनो भेद छ कारण ज्ञात-दृष्टांतनो हेतु होय छे. जेमके-*आत्मा अमृतपणाथी आकाशनी माफक अकर्ता छ, एम की छते अन्य * आ सांख्य मत छे. तेओ आत्माने कर्ता मानता नथी पण भोक्ता माने छे. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥४८७॥ For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कहे ले-आकाशनी माफक आत्मा अभोक्ता पण थशे अने अभोक्तृत्व ( अभोक्तापणुं ) तमने पण इष्ट नथी. बळी प्राणीनं अंग होवाथी ओदन(भात) विगेरेनी माफक xमांसद् भक्षण दोष रहित छे. अहिं अन्य कहे छे के-आदन विगेरेनी माफक स्व-पोताना पुत्र विगेरेनुं मांसभक्षण पण निर्दोष थशे. वळी ऋषभदेव विगेरेनी जेम संग रहित+ मुनिओ वस्त्र अने पात्र विगेरेना संग्रहने करता नथी. अहिं कहे छे-कमंडल विगेरे पण तेओ वस्त्रादिनी माफक ग्रहण करता नथी. शामाटे तुं कार्य करे छ ? धननी इच्छावाळो छु माटे. अहिं पहेलं आहरण नामनुं ज्ञात संपूर्ण साधर्म्यरूप छे, बाजुं तद्देशाहरण-देशथी साधर्म्यरूप छ, त्रीजु तद्दोषाहरण (दोष सहित) छे अने चोथु उपन्यासोपनय प्रतिवादीना उत्तररूप छ. आ प्रमाणे चार प्रकारना ज्ञातना स्वरूपनी विभाग छे. अहिं देशथी संवाद गाथा जणावे छचरियं च कप्पियं वा. दुविहं तत्तो चउब्विहेक्केकं । आहरणे तसे, तद्दोसे चेवुवन्नासा ॥ १८२॥ उदाहरण के प्रकारे छे-चरित्र अने कल्पित. ते दरेकना चार चार भेद छ-१ आहरण, २ तदेश, ३ तदोष अने ४ उपन्यासोपनय. अवाये'-अपाय-अनर्थ, ते जे दृष्टांतमा द्रव्यादिने विषे कहेवाय छ, ते आ प्रमाणे-आ द्रव्यादि विशेषाने विषे विवक्षित द्रव्यादि विशेषोनी जेम, अपाय-अनर्थ छे अथवा हेयता (त्यागवू) जेमां कहेवाय छे ते अपाय नामर्नु आहरण छे, ते x निर्दय एवा पशुवधादिने करनार वाममार्गी वगेरेनो मत छे. + आ दिगंबरनो मत छे. तेओ वस्त्रपात्रादि उपकरणने मानता नथा. XXX. For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसत्र सानुवाद ॥ ४८८॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ आहरण सू० ३३८ KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy द्रव्यादि भेदवडे चार प्रकारे छे. तेमां द्रव्यथी अथवा द्रव्यने विषे अपाय अथवा तेनु कारण होवाथी द्रव्य ज अपाय ते द्रव्यअपाय, एनी हेयतानो साधक अथवा अपाय-अनर्थनो साधक आहरण पण तेमज कहेवाय छे. तेनो प्रयोग आप्रमाणे-द्रव्य अपाय छोडवा योग्य छ अथवा द्रव्यमा अनर्थ बत छे. आ संबंधमां दृष्टांत जणावे छे-कोईक वे वणिक भाईओ परदेशमा जई, धन मेळवीने पाछा वळतां मार्गमां धननी बांसळीना लोभथी परस्परने माखानी इच्छाथी क्रमशः पोताना गाम पासे आव्या त्यारे विचायु के-आ द्रव्य अनर्थनुं कारण छे तेथी पश्चात्तापपूर्वक द्रहमां बांसळी फेंकी दीधी एटले मत्स्ये गळी, ते मत्स्यने धीवरे पकड्यो. बाद ते धीवर पासेथी ते बन्ने भाईओनी बहनो मत्स्यने खरीदी लावी. पछी तेने शस्त्रथी विदारतां तेमांथी वांसळी नीकळी. त्यारे तेनी माताए पूछयु के-आ शुंछ ? तेणीए द्रव्यना लोभथी पोतानी माताने शखबडे मारी नाखी. ते अनथेने जोईने बन्ने भाईओए वैराग्यथी *दीक्षा लीधी. अपायनो परिहार, द्रव्यना त्यागथी-प्रव्रज्यावडे थाय छे. देशवडे उपनयनी विवक्षा न करवाथी आनी आहरणता क्षेत्रथी अथवा क्षेत्रमा अथवा क्षेत्र ज अपाय ते क्षेत्र अपाय. शेष स्वरूप पूर्वनी माफक छे. आगळ पण एमज जाणवू. तेनो प्रयोग आ प्रमाणे - अपायवाल्लु क्षेत्र वर्जq. जरासंध नामना प्रतिवासुदेवना हेतुथी संभावित अनथे ज्यां छे एवी मथुरानगरीने जेम दशार्हचक्र-यादवो छोडता हवा, अथवा दुश्मनना क्षेत्रमा सर्प सहित घरनी माफक अपाय संभवे छे. अपाय सहित-अनर्थवाळा काळना त्यागमां यत्न करे ते काळअपाय, ते आ प्रमाणे-'बार वर्ष सुधीमां द्वैपायन द्वारिकाने बाळशे' एम श्री नेमिनाथ प्रभुना वचन सांभळीने बार वर्षलक्षण अपाय सहित समयने छोडवानी इच्छाथी उत्तरापथने * आ कथा मुनिपतिचरित्रमा सुस्थित आचार्यना संबंधमां छे, त्यांथो जाणो लेवी. Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥४८८॥ For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विषे गयेल द्वैपायननी जेम, अथवा रुद्र विगेरेनी जेम अपाय सहित काळ होय छे. भावअपाय आ प्रमाणे भाव अपायने महान् सर्पनी जेम छोड, अथवा नागदत्त क्षुल्लकनी माफक. ते दृष्टांत कहे छे-कोईक तपस्वी साधु, कोई क्षुल्लक मुनि सहित पारणा माटे भिक्षा लेवाने फरता हता तेवामां कोईक रीते तेनाथी देडकी मरी जवाथी क्षुल्लक (लघु) मुनिए प्रायश्चित्तनी प्रेरणा करी, परंतु तेनुं वचन ( तपखीए ) स्वीकार्यु नहिं. फरीथी आवश्यकता समयमां शिष्ये संभारी आप्युं, तेथी क्रोधित थईने शिष्यने मारवा माटे ते वेगथी दोड्यो वच्चमां स्तंभ साथै अथडावाथी ते साधु मृत्यु पामीने ज्योतिष्कदेवमां उत्पन्न थयो. त्यांथी अनंतर च्यवीने जातिस्मरणज्ञान सहित दृष्टिविष सर्प थयो. ते समयमां कोईक सर्पना दंशवडे राजानो पुत्र मरण पामवाथी सर्पोनी उपर कोप पाल राजा बधा सर्पोने मारवानो आदेश करवाथी मारनाराओ पैकी कोईक मारनार मनुष्यद्वारा औषधिना बळी आकर्षायेल ते नागे ज्ञानथी पूर्वकृत क्रोधना परिणामने जोईने विचार्थी के-मारी दृष्टिना विषथी मने मारनार पुरुषनो नाश न थाओ, आवी भावनावडे बिलमांथी पूंछडाना भागथी जेम जेम नीकळतो गयो तेम तेम तेना खंड ( कटका ) थता गया तो पण क्रोधलक्षण भाव अपायने छोडवा लाग्यो. बाद ते ज नाग त्यांथी अनंतर च्यवीने राजाना नागदत्त नामना पुत्र तरीके उत्पन्न थयो. ते बाळपणामांज दीक्षा स्वीकारीने अत्यंत वैराग्यवाळो थयो परंतु ( पूर्वना ) तिर्यंच भवना अभ्यासथी अत्यंत क्षुधावाळो थ, सूर्योदयी प्रारंभी अस्त समय पर्यंत भोजन करनार थयो, अने असाधारण गुणोने मेळववावडे देवताओद्वारा वंदन करायो. आ ज कारणथी ते मुनिना गच्छनी अंदर रहेल मासोपवास विगेरे तपस्या करनार चार तपस्वीओनी ईर्ष्याना कारणभूत थयो. ( पछी ते साधुए) पोताने माटे लावेल आहार ते तपस्वी चार मुनिओने विनयने माटे बताव्यो, परंतु मत्सरथी ते मुनिओ ते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie मीस्थानाङ्गसूत्र सानुबाद ॥४८९॥ xxxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ आहरण भेदाः सू० ३३८ oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx आहारमा धुंक्या. पछी ते मुनि ( ते चूंकवाळो आहार अमृत तुल्य मानीने जम्या ) अत्यंत उपशांत चित्तवृत्तिथी केवळज्ञान पाम्या, नगरना देवताओए तेमने बंदन कयु. वली ते चारे तपस्वीओने पण संवेगनो हेतु थवावडे केवळज्ञानदर्शनरूप समृद्धिनो प्राप्त करावनार अने कोपरूप भाव अपायनो त्याग करावनार * थया. अथवा कोपादि लक्षणवाळो भाव अपाय क्षपक( तपस्वी मुनि )नी माफक थाय छे. अहिं आ संबंधमां बे गाथा जणावे छदव्वावाए दन्नि उ.वाणियगा भायरोधणनिमित्तं । वहपरिणयमेक्कमिकं. दहमि मच्छेण निव्वेओ॥१८३ खित्तमि अवक्कमणं, दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो य काले,भावे मंडुक्कियाखमओ॥१८४ ॥ आ बने गाथाओमा जणावेल दृष्टांतो उपर कहेवाई गया छे. 'उवाए ' त्ति० उपेय-कार्य प्रत्ये पुरुषना व्यापारादि सामग्रीरूप ते उपाय, ते द्रव्यादि उपेयमा छ, एवी रीते जे आहरणमा कहेवाय छे ते उपाय आहरण. जेमके-आ साधवा योग्य द्रव्यादि विशेषोने विषे उपाय छे, विवक्षित द्रव्यादि विशेपनी माफक अथवा द्रव्यनी उपादेयता जेमां कहेवाय छे ते आहरणउपाय छे. ते पण द्रव्यादिवडे चार प्रकारे छे. तेमां सुवर्णादि द्रव्यनो, अथवा प्रासुक उदक विगेरेनो अथवा 'द्रव्य' ए ज उपाय ते द्रव्यउपाय. द्रव्यर्नु साधन अथवा द्रव्यनी उपादेयता • आ कथा उपदेशप्रासादना प्रथम भागमा छे. मुनि कूरगडु नामथी प्रसिद्धिने पामेल छे, केम के ते निरंतर एक गडक प्रमाण आहार करता हता. XXXXxxxx (xxxxxxxx ॥४८९॥ For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) रूप साधन पण तेमज कहेवाय छे. तेनो प्रयोग आ प्रमाणे-सुवर्ण विगेरेमा उपाय छे अथवा उपायवडे ज सुवर्णादि मेळवबामां प्रवर्तवायोग्य छे. तेवा प्रकारना धातुवाद सिद्धपुरुष विगेरेनी माफक, एम क्षेत्रोपाय-क्षेत्रमा परिकम(संस्कार)वडे उपाय. जेम आ क्षेत्रनो क्षेत्रीकरणरूप उपाय हळ विगरे छे अथवा तथाविध साधुना व्यापारवडे तथाविध अन्य क्षेत्रनी माफक प्रवर्तवं एम काळउपाय-काळना ज्ञाननो उपाय. जेम काळना ज्ञानमां धान्य विगेरेनी जेम उपाय छ, अथवा घटिका(घडी)नी छाया विगेरे उपायवडे तुं काळने जाण तथाभूत गणितने जाणनारनी माफक. एम भावोपाय-जे भावने जाणवामा उपाय छे अथवा उपायथी तुं भावने जाण. मोटी कुमारिकानी कथा कहेवावडे जाणेल छे चोर विगेरेनो भाव जेणे एवा अभयकुमारनी माफक. ते कथा आ प्रमाणे-राजगृहनगरना स्वामी श्रेणिकराजानो अभयकुमार नामनो पुत्र छे. ते राजाने देवना प्रसादबडे सर्व ऋतु संबंधी फळादिथी समृद्ध आराम(बगीचो) मळेल छे. त्यारवाद अकाळे उत्पन्न थयेल आम्रफल-भक्षणना दोहदवाळी पोतानी खीनो * दोहद पूर्ण करवा माटे कोईएक चांडाल चौरे ते बगीचामाथी आम्रफळानुं अपहरण कर्ये छते ते चोरने जाणवा माटे नाटक जोवाना | निमित्ते एकठा थयेला घणा मनुष्योना मध्यमां अभयकुमारे बृहत्कुमारिकानी कथा कही, ते आ प्रमाणे-कोईक मोटी कुमारिका इच्छित पतिना लाभने अर्थे कामदेवनी पूजा करवा सारु कोईकना बगीचामाथी पुष्पोने चोरती थकी बगीचाना माळीए पकडी.तेणीए सत्य हकीकत कही एटले 'परणीने पतिना समागम सिवाय तारे मारी पासे आवq' एम कबूलात करावीने माळीए तेने छोडी. त्यारबाद क्यारेक ते परणी छती, पतिने पूछीने रात्रिए माळी पासे जाती हती तेवामा क्रमशः चोर* अने राक्षसे पकडी. वस्त्राभूषणवडे अलंकृत होबाथी बँटवा माटे चोरे पकडी अने राक्षसे भक्षण करवा पकडी. XXXXXXXKKKXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxx भीस्था नागपत्र सानुवाद ॥४९०॥X ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ आहरण भेदाः सू० ३३८ KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX तेणीए सत्य वृत्तांत को छते ज्यारे तं पाछी वळे त्यारे अमारी पासे आवजे ' एम नकी (कोल) करीने तेओए छोडी. पछी ते बगीचामां गई. माळीए 'आ स्त्री सत्य प्रतिज्ञावाळी छ एम जाणीने अखंडित शील सहित तेणीने विदाय करी. तमज चोर अने राक्षसे पण विदाय करी. त्यारवाद पति पासे आवी." आ प्रमाणे कथा कहीने 'अहो लोको! पति, माळी, चार अने राक्षसमांथी दुष्कर काम करनार कोण ?' एम अभयकुमारे पूछयु, त्यारे इालु+ विगेरे लोकोए पति. माळी अने राक्षसने दुष्कर काम करनार तरिके जणाव्या परंतु चांडाल चोरे, 'चोर दुष्करकारक छ' एम कय, तेथी अभयकुमारे पण आ उपायवडे भावने ओळखीने तेमज आ चोर छ एम नक्की करीने चोरने बंधावी लीधो. आ संबंधमां बे गाथा दर्शावे छेएमेव चउविगप्पो, होड उवाओऽवि तत्थ दव्वम्मि धाउवाओ पढमो,णंगलकलिएहिं खत्तं तु॥१८५ कालोऽवि नालियाईहिं. होइ भावम्मि पंडिओअभओ। चोरस्स कए णहि य,बड्डकुमारि परिकहिंसु॥१८६ ___ आ बन्ने गाथाओ उक्तार्थ छे. ३ 'ठवणाकम्मे ' त्ति. स्थापq ते स्थापना, तेनुं कर्म ते स्थापनाकर्म. जे दृष्टांतद्वारा परमतने दूषित करीने स्वमतनी स्थापना कगय छ त स्थापनाकर्म. द्वितीय(बीजा) अंगमा बीजा श्रुतस्कंधने विष पुंडरीक नामर्नु पहलं अध्ययन छ तेमां कहेल छ-कोईक बहुल कादव अने जळवाळी पुष्करणी छे, तेना मध्यभागमा रहेल महापुंडरीक कमळने लेवा माटे + इप्याळुए पतिने दुष्कर करनार कह्यो, कामातुर लोकोए माळोने अने क्षुधातुर जनोए राक्षसने दुष्करकारक जणाव्यो. XXXKKKKKKKKXXXXXXXXXXXXXXX ॥४९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxKKKKKKKM चार दिशाएथी चार पुरुषो कादववाळा मार्गावडे प्रवेश करवा माटे तैयार थया परंतु तेओ कमळने मेळव्या सिवाय कईममा खूची गया. अन्य पुरुष तो कांठा उपर रह्यो थको तेमज कर्दमने स्पा सिवाय ज अमोघवचनवडे पुंडरीकने मेळवतो हतो. आ दृष्टांत छे, अहिं उपनय आ प्रमाणे-कईमना स्थान जेवा विषयो, पुंडरीक समान राजादि भव्य पुरुष, चार पुरुषो समान परतीथिको, पंचम पुरुष समान साधु, अमोघ वचन समान धर्मदेशना अने पुष्करणी समान संसार. तेनाथी उद्धार समान निर्वाण छे. आ दृष्टांतने विषे विषयनी अभिलाषावाळा अन्यतीर्थिकोने संसारथी तारकपणुं नथी अने साधुने तो तेथी विपरीत छ अर्थात् भव्यना तारक छे. आ प्रमाणे कहेता आचार्य परमतना दृषणवडे स्वमतर्नु स्थापन कयु, आ दृष्टांत स्थापनाकम थाय छे. अथवा प्राप्त थयेल दूषणने दूर करीने पोताना अभिप्रायनी स्थापना करवी, आवा प्रकारना अर्थनी प्राप्ति जेनाथी थाय ते स्थापनाकम. कोईक माळीए राजमार्गमा वडीनीत करवारूप अपराधने दूर करवा माटे तेस्थानने विषे पुष्पोनो पुंज करवाथी 'आ शुं छे ?' एम पूछनारा लोकोने 'आ हिंगशिव देव छ' एम बोलता थका ते माळीए व्यंतरना आयतननी स्थापना करी. आ आख्यानथी अवश्य उक्त अर्थ निश्चित थाय छे माटे आ स्थापनाकर्म छ. तथा नित्यानित्य वस्तु छे एम जिनमत कहे छ माटे असंगत छ कारण के विरुद्ध धर्मनो अध्यास छ, आ प्रमाणे वादीए आपेल क्षणने दर करवा माटे कहेवाय छ केविरुद्ध धर्माध्यास विकल्पनी जेम भेदन कारण नथी. विकल्प ज क्रमवडे थनार वणे( अक्षर )नो उल्लेख-कथन करनार विरुद्ध धर्म सहित हाय छे. कथंचित एक नहिं थाय एम नहिं अर्थात् एक थाय.खंडथी अलग करेल अक्षर संबंधी स्वरूपना लाभनो अभाव थवाथी अर्थात् काईपण शब्दना दरेक अक्षरोने जुदा पाडवाथी मुख्य अर्थनो अभाव थाय, प्रवृत्ति अने निवृत्तिने xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानागपत्र सानुबाद ॥१९१॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ आहरण भेदाः मु०३३८ xxxxxxxxxxxxxxxxxxx विषे अकारणता थाय, आ प्रमाणे असमंजस थाय. एमज विरुद्ध धर्माध्यासनुं कथंचित् अभेदपणुं छते केवळ नित्यानित्य थतुं नथी. आ पण दूर कयु एटलं ज नहिं परंतु सर्वे वस्तु अनेकांतात्मक छ एम विकल्पज्ञातवडे स्वमतस्थापन कर्य. स्वमतनी स्थापनावडे विकल्पज्ञात, स्थापनाकर्म छे. अत्र नियुक्तिनी गाथाओ जणावे छठवणाकम्मं एक(अभेदमित्यर्थः),दिटुंतो तत्थ पुंडरीयंतु।अहवाऽवि सन्नढकण,हिंगुसिक्यं उदाहरणं।। आ गाथानो भावार्थ उपर्युक्त छे. जे सव्यभिचार-दोष सहित हेतु सहसा-तत्काल स्वयं स्थापन करेल छ तेना समर्थन माटे जे दृष्टांत फरीथी स्थपाय छे ते स्थापनाकर्म. कडुं छे केसव्वभिचारं हेउं, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उवहइ सप्पसरं, सामत्थं चऽप्पणो णाउं ॥१८८।। ___ सव्यभिचार हेतुने तत्काल कहीने ते ज हेतुने पोतार्नु प्रसंग सहित सामर्थ्य जाणीने अन्य हेतुओवडे पुष्ट करे.. ते आ प्रमाणे-शब्द कृतकत्व (करेल) होवाथी अनित्य छे. प्रतिपक्षी-वर्णात्मक शब्दने विषे कृतकत्व विद्यमान नी, केमके वो( अक्षरो )ने नित्यपणाए कहेल छे. कृतकत्व हेतु व्यभिचारी (सदोष) छे. पूर्वपक्षी फरीथी कहे छे-वर्णात्मक शब्द कृतकत्व ( करायेल ) छे, पोताना कारण( ताल्वादि स्थान )ना भेदवडे घट-पटनी जेम भिद्यमान( भिन्नपणुं) होय छे. घटादिना दृष्टांतवंड ज वर्णोनुं कृतकत्व स्थापन कयु माटे स्थापनाकर्म थाय छे. 'पडुप्पन्नविणासि'त्ति० तत्काल उत्पन्न xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org थयेल वस्तुनो विनाश. जे दृष्टांतमां- कथनपणाए छे ते प्रत्युप्तन्नविनाशी आहरण. जेम कोईक X नगरमा एक वाणीओ बसे छे. तेने घणी पुत्री, बहेनो विगेरे स्त्रीओनो परिवार छे. तेना घरनी पासे राजगांधर्वो ( गवैयाओ ) दिवसमां त्रण वार संगीत करे छे, तेथी वणिकना घरनी तमाम स्त्रीओ ते संगीतना शब्दने विषे अने गांधवने विषे आसक्त थवाथी कंईपण घरनुं काम करती नथी. आ जोईने ते वाणीआए विचार्य के आ स्त्रीओ बधी भ्रष्ट थयेल छे माटे हवे एवो उपाय करूं के जेथी भविष्यमां न बगडे. एम विचारीने ते स्त्रीओना शीलनी रक्षाने माटे पोताना घरमा कुलदेवतानुं देहरुं कराव्युं अने ज्यारे गांधर्वो नाटक करे त्यारे ते वाणीओ पोताना करेला देहरामां वाजा वगडाववा लाग्यो. तेने लईने ते गांधर्वोने विघ्न थवाथी तेओए राजाने निवेदन कर्यु. राजाए वणिकने तेडावीने पूछधुं के तुं केम विन करे छे ? त्यारे तेणे कछु के-मारा घरमां कुलदेवता छे तेनी आगळ हुं वाजा बगडा हुं. न्यायी राजाए गांधवोंने कहां के एमां शेठनो वांक नथी. तमने जो विन थतुं होय तो बीजे स्थळे गायन करो; कारण के देवनी भक्तिमां अंतराय कराय नहिं. आवी रीते वाणीआए प्रत्युत्पन्नदोषनो विनाश करीने परिवारना शीलनुं रक्षण कर्यु. एवी रीते गुरुए शिष्योने कोईक वस्तुमां आसक्त थयेल जोईने तेओनी आसक्तिनुं निमित्तपणुं raatar area. आ प्रमाणे प्रत्युत्पन्नविनाशनीयता जणावनार होवाथी प्रत्युत्पन्नविनाशीरूप ज्ञातता गांधर्विक आख्यान संबंधी जाणवा योग्य छे. कां छे के होति पडुप्पन्नविणा-सणंमि गंधव्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थइ जई, अज्झोवज्जेज तो गुरुणा ॥ १८९॥ X आ दृष्टांत टीकामां संक्षिप्त होवाथी गाथावृत्तिनो भावार्थ लईने कंईक विस्तारथी लखेल छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपूत्र सानुवाद ॥ १९२॥ ४ स्थानक्यध्ययने उदेश:३ आहरण भेदा: सू०३३८ KXxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXX आ गाथानो अर्थ उपर जणावेल छे 'वारेयब्वो उवाएणं'–उपायवडे गुरुए, शिष्यने आसक्तिथी वारवा योग्य छ अथवा आत्मा आकाशनी जेम अमूर्तपणाथी अकर्ता छे. आवी रीते आत्माने अकर्तृत्वनी प्राप्तिरूप दक्षण उत्पन्न थये छते तेना विनाशने माटे कहेवाय छआत्मा कथंचित् मृतपणाथी देवदत्तनी माफक कर्ता ज छे. आहरणता अने तेना भेदोर्नु देशवडे अने दोषवचपणाए उपनयन्यायना जभावी आहरण- व्याख्यान कयु २. हवे आहरणतद्देश कहेवाय छे, ते चार प्रकारे छ-१ अनुशासन ते अनुशास्ति अर्थात् सद्गुणोना उत्कीर्तनवडे प्रशंसा करवा योग्य छ, आ प्रकारे जेमा उपदेशाय छे ते अनुशास्ति. जेम गुणवान् पुरुषो प्रशंसा करवा योग्य होय छे. जेमके-साधुना नेत्रमा पडेल रजकणने दूर करवावडे लोकोद्वारा शीलमा शंका थवाथी ते कलंकने प्रक्षालन-दर करवा माटे आराधना करायेल देववडे सहायवाळी, चालणीवडे भरेल पाणीने छांटवाथी उघाडेल छे चंपापुरीना त्रण दरवाजा जेणीए एवी जे सुभद्रा, 'अहो शीलवती' एम महाजन लोकवडे प्रशंसायेली छे. कयुं छे केआहरणं तद्देसे, चउहा अणुसहि तह उवालंभो। पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥१९०॥ १ अनुशास्ति, २ उपालंभ, ३ पृच्छा अने ४ निश्रावचन-आ चार प्रकारे आहरणतद्देश छे. अनुशास्ति(प्रशंसा)मा सुभद्रानुं दृष्टांत छ. साहुक्कारपुरोयं, जह सा अणुसासिया पुरजणेणं। वेयावच्चाईसुवि, एव जयंतेववूहेज्जा ॥ १९१ ॥ oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxOK) ॥ ४९२॥ For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जेम नगरवासी जनोए 'सारुं कर्यु' एम सुभद्रानी प्रशंसा करी तेम वैयावच्च विगेरे कार्योमां प्रयत्न करनाराओनी पण स्तुतिवडे परिणामनी वृद्धि करे. अहिं तथाप्रकारे वैयावृत्य करवुं इत्यादिवडे उपनय संभवे छे, परंतु तेना त्यागवडे महाजनद्वारा करायेली प्रशंसा मात्रथी ज उपनय करेल छे माटे आहरणतद्देशता छे. एमज आगळ पण असम्मत अंश ( विभाग ) ना त्यागथी सम्मत अंशनुं उपनयन भावj. २ ओलंभो देवो ते उपालंभ, प्रकारांतरवडे अनुशासन (शिखामण) ज छे. ते जेमां कहेवाय छे ते उपालंभआहरण तद्देश छे. जेम - कोईक अपराधवाळा शिष्यो उपालंभ आपना योग्य छे, ते आ प्रमाणे - श्री महावीरस्वामीना समवसरणमां विमान सहित आवेल चंद्र अने सूर्यना प्रकाशवडे काळना विभागने नहि जाणती मृगावती नामनी साध्वी त्यां रही. बाद चंद्र तथा सूर्य गये छते आ अतिकाळ - रात्रिनो समय छे एम भ्रांतिवाळी थई थक्की ते मृगावती साध्वीओ साधे आर्या चंदनानी पासे गई त्यारे वेणीए उपालंभ आप्यो के-उत्तम कुळमां उत्पन्न थयेली तमारा जेवीओने रात्रिए बहार रहेबुं ते अयुक्त छे. ३ पृच्छा - शुं ! केवी रीते ? कोणे कठै ? इत्यादि प्रश्नरूप. जेमां विधेयपणाए उपदेशाय छे ते पृच्छा. निर्णय करवाना इन्कोद्वारा ज्ञानी पुरुषो पूछवा योग्य छे, जेवी रीते कोणिक राजाए भगवानने पूछ हतुं. ते संबंध कहे छे के श्रेणिक नृपनो | पुत्र कोणिक श्रमण भगवान् महावीरने पूछतो हवो, ते आ प्रमाणे भदंत ! कामभोगने छोड्या सिवाय चक्रवर्तीओ मरीने क्यां उत्पन्न थाय छे ? भगवाने कथं के-सातमी नरकभूमिने विषे. त्यारे कोणिक बोल्यो के-हुं क्या उत्पन्न थईश ? स्वामीए कं के - हट्टी नरकमां. कोणिक बोल्यो के हुं सातमीमों केम नहिं ? स्वामीए कह्युं के सातमीमां चक्रवर्तीओ जाय छे. त्यारे ते ८३ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX*X*XX**X*X******* Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नाङ्गपत्र सानुबाद ॥४९३ ॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ आहरणभेदाः सू० ३३८।। Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxo बोल्यो के-शुं हुंचक्रवर्ती नथी ? मारे पण हस्ति विगेरे चक्रवर्ती समान रत्नो छे. स्वामीए कह्यु के-तारी पासे बीजां रत्नो अने निधानो नथी. त्यारे कृत्रिम रत्नो बनावीने भरतक्षेत्र साधवाने प्रवृत्त थयेल ते कोणिक, कृतमाल नामना यक्षबडे तमिस्रा गुफाना द्वार पासे मरायो अने उही नरकमां गयो. ४ 'निस्सावयणे' त्तिनिश्रावडे जे बचन ते निश्रावचन. कोइ पण शिसुर्घ्यने अवलंबीने बीजाने बोध करवा माटे जे वचन ते निश्रावचन छे. ते जमां विधेयपणाए कहेवाय छे ते आहरणनिश्रावचन छ, विनयसंपन्न अन्य शिष्यने अवलंबीने नहि सहन करनार शिष्यो प्रत्ये किंचित् कहे. जेम गौतमस्वामीने आश्रर्याने भगवाने कहल छ तेम. ते आ प्रमाणे-दीक्षित तापसादिने केवळज्ञाननी उत्पत्ति थये छते अने पोताने केवळज्ञाननी उत्पत्ति न थवाथी अधैर्यवाळा गौतमने (भगवाने कयुं के) गौतम ! तुं घणा काळथी (स्नेहवडे) संश्लिष्ट (जोडायलो) छे, चिरकाळनो परिचित छे, तुं अधैर्य न कर इत्यादि वचनना समूहवडे अनुशासन करनार भगवानद्वारा बीजाओ पण अनुशासन कराया. वळी तेमना बोध माटे द्रुमपत्रक नामर्नु अध्ययन कहेल छे. कयु छ के-"पुच्छाए कोणिए खलु, निस्सावयणमि गोयमस्सामि"पूछवामां कोणिक राजार्नु अने निश्रावचनमां श्रीगौतमस्वामीनुं उदाहरण छे. त्रीजुं तद्देशोदाहरण व्याख्यान करायु, हवे तद्दोषउदाहरण- व्याख्यान कराय छ-ते चार प्रकारे छे. १'अहम्मजुत्ते' त्ति० कोईक अर्थन साधवा माटे जे उदाहरण केवळ पापना कथनरूप कहेवाय छे, जेना कहेवाथी प्रतिपाद्य-श्राताने अधर्मनी बुद्धि उत्पन्न थाय छे ते अधर्मयुक्त उदाहरण. ते आ प्रमाणे-नलदामकोलिकनी जेम उपायवड़े कार्योंने करवा. तेनी कथा कहे छ-स्वपुत्रने करडनार मकोडानी शोध * उत्तराध्ययन सूत्रनुं दशमुं अध्ययन. KOKKOKOOKKKXXXKXXXXXKKKKKKKKAK. ४९३॥ For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवायी जायेल बिलमा रहेला बधा य मकोडाओने मारवा माटे उष्ण पाणी रेडवानुं कार्य जोईने खुश थयेल चाणक्ये ते मंकोडा मारनार नलदामकोलिकने कोटवालनु पद आप्यु. तेणे चोरीना कार्यमा सहकारी थवारूप-मददगार बनवारूप उपायवडे विश्वास उपजावीने साथे मळेला चोरोने विषमिश्रित भोजन खबराबी बधाने मारी नाख्या. आ आहरण तदोषता अर्थात दृष्टांतनी दोषता. आ दृष्टांत अधर्मयुक्त अने तेवा प्रकारना श्रोताने अधर्मनी बुद्धिन उत्पन्न करावनाएं छे. - माधपणे आबा प्रकारचं उदाहरण आपवा योग्य नथी. २' पडिलोमे ' त्ति० जेमा प्रतिकूल प्रत्ये प्रतिकलपणं | उपदेशाय छे. 'यधा शठं प्रति शठत्वं कुयोत्' जम शठ प्रत्ये शठता करवी; जेमके चंडप्रद्योतनुं अपहरण करवा माटे तेनावडे अपहरण करायेल अभयकुमारे तेनी साथे शठता करी हती. श्रोताने अन्यनो अपकार करवामां निपुणवद्धिने उत्पन्न करनार होवाथी आ दृष्टांतने तद्दोषता छे. अथवा धृष्ट-धीठा प्रतिवादीए जीव अने अजीब आबे राशि ज छ एम को छते तेन खंडन करवा माटे कोईक कहे छ-गरोळी विगेरेना कपायेला पूंछडानी जेम नोजीव नामनी त्रीजी राशि पण छे. आ विपरीत सिद्धांतना कथनथी आ दृष्टांतने पण तदोषता छे. ३'अत्तोवणीए' त्ति० पोते ज स्थापन थयेल. जेम निवेदन करेल तेम स्वयं जोडायल छे जेने विषे ते आत्मोपनीत. जे दृष्टांत अन्यमतने दूषण आपवा माटे स्वीकारेल ते दृष्टांतद्वारा पोताना मतने दुष्टपणाए लई जाय छे. जेम पिंगले जे कछु ते पोताना दोषने माटे थयु. तेनी कथा कहे छे-तळाव अभेद केम थशे ? एम राजाए पूरथु त्यारे पिंगल नामनो स्थपति( कारीगर ) बोल्यो के-भेदना स्थानमा कपिलादि गुणवाळो पुरुष भूमिमां दाध्ये छते अभेद थशे. प्रधाने तो तेवा गुणो पिंगलमा होवाथी तेने ज तळावमा नखाव्यो. एम पोताना वचनदोषी xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्कपत्र सानुबाद ॥४९४ ॥ xxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ आहरणभेदाः सू० ३३८ पोते ज जोडायो. आ प्रमाणे पण आत्मोपनीत छे. अहिं उदाहरण कहे छे-जेम' सर्वे जीवाने हगवा नहिं आ पक्षने दूषण आपवा माटे कोईक कहे छे-जेम विष्णुए दैत्योने हण्या छ तेम अन्य धर्ममा रहेलाोने हणवा. आवी रीते कहेबावडे वादीए धोतरमा रहेला पुरुषोने स्व आत्मा हणवा योग्यपणाए स्थापन कर्यो. आ दृष्टांतनी तदोषता तो प्रसिद्ध छ. ४ दुरुवा णीए' त्ति० दुष्टउपनीत-निश्चित रूप योजलु छ जेने विष ते दुरुपनीत-दुष्ट रीते कहेल-परिव्राजकना वाक्यनी जेम, ते आ प्रमाणे-[जाळवडे व्यग्र हाथवाळो कोईक परिव्राजक मत्स्यने पकडवा माटे चाल्यो. कोईक धूतं तेने कईक कयु अने तेनो तेणे असंगत उत्तर आप्यो ] आ प्रसंगमा श्लोक छ के-हे आचार्य-भिक्षु ! आ तारी जीर्ण कथा केम छ ? तेणे कयुंमत्स्यना वध माटे जाळ छे. धूत्तें पूछयु-शुं तुं मत्स्योने खाय छ ? तेणे कबू-हुं दारु साथे मांस खाउंछु? फरी धूर्ते पूछyशुं तुं दारु पीए छे ? तेणे कयु-वेश्यानी साथे पीउ छु.धूते फरी पूछयु-शु तुं वेश्याने घेर जाय छ ? हा. दुश्मनोनी गरदन उपर पग दईने जाउं छु. ते कधु-शुं तारे शत्रुओ छे ? तेणे कह्यु-हा हुं चोरी करुं छु माटे शत्रुओ छे. धूर्ते फरी पूछयुशुतुं चोर छो ? तेणे जबाब आप्यो-चूत-जुगार खेलवाने माटे. ते पुनः पूछ धु-शुं तुं जुगारी छे ? भिक्षुए कह्यु-जे कारणथी हुं दासीपुत्र छु तेथी जुगार खेलुं छ." आ प्रमाणे प्रकृत साध्यमां अनुपयोगी अथवा पोताना मतमा क्षण लावनारं दृष्टान्त, ते दान्तिकनी साथे साधयना अभावथी दुरुपनीत छे. जेम घटनी माफक शब्द नित्य छ, अहिं घटमां नित्यत्व नथी ज, माटे घटना साधर्म्यथी शब्दनुं नित्यपणुं क्याथी सिद्ध थाय ? परंतु घटना अनित्यपणाथी तेना साधर्म्यपणाने लईने शब्दनु अनित्यपणुं तेमने अमान्य छतां पण सिद्ध थाय छे. आ दृशंत साध्यमां अनुपयोगी छे. बळी संतान-क्षणपरंपरानो नाश ॥४९४॥ For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ते दीपकनी माफक मोक्ष छे. आवी रीते (बौद्धना) स्वीकारने विषे दीपकना दृष्टांतथी अनादिमान् संताननी पण अवस्तुता थाय छे, ते बतावे छे-दीप अने आत्माना संताननो नाश उत्तर क्षणनो अजनक छे. उत्तरक्षणने उत्पन्न न कर्ये छते अर्थक्रियाकारित्व (कार्य) लक्षणरूप सच्च (विद्यमानपणु) नो अभाव होवाथी ठेल्ला क्षणनुं अवस्तुपणुं छे केमके अन्य क्षण अबस्तुत्वजनक छे. पूर्व क्षणनुं पण अवस्तुत्व छे, तेथी ज पूर्वतरनुं पण, एवी रीते समस्त संताननुं अवस्तुपणुं थशे. पूर्वपक्षी - अन्य क्षणना अनारंभमां पण स्वगोचर (प्रत्यक्ष ) ज्ञान उत्पन्नरूप अर्थक्रियानो करनार होवाथी अंत्यक्षण वस्तुरूप थशे. उत्तर - एम नथी. ए प्रमाणे तो भूत अने भावी पर्यायनी परंपरारूप योगिज्ञान पण पोताना विषयने उत्पन्न करे छे माटे वस्तुपणं स्वीकारनुं एम कहेतुं योग्य नथी. क्षणांतरना अनारंभमां वस्तुत्व छे, आ कथनथी दीपनुं दृष्टांत स्वमतमां दूषण आपनारुं थाय छे. अथवा कृतकत्व होवाथी घटनी माफक शब्द अनित्य छे. आ वक्तव्यमां संभ्रमथी कृतकत्व होवाथी शब्दवत् घट अनित्य छे. आम कहेनारने विपरीत दृष्टांतथी दुरुपनीत थाय छे. आ संबंधमां जगावे छे के पढमं अहम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उवन्नासो । दुरुवणियं च चउत्थं, अहम्मजुत्तम्मि नलदामो । १९२ । पडलो जह अभओ, पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो । इति * आ अर्धी गाथा छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie मास्था xxxxxxxxxxxx सानुबाद ॥४९५४ EXXXXX ४ स्थानकाम्ययने उद्देशः ३ आहरणभेदाः अत्तउवन्नासंमि य, तलायभेयंमि पिंगलो थवई । अणिमिसगेण्हणभिच्छुग, दुरुवणीए उदाहरणं ॥ १९३॥ आ अढी गाथा प्रायः उक्तार्थ छे. आहरणतदोष कह्यो, हवे उपन्यासउपनय कहेवाय छे, ते चार प्रकारे छे-तेमां 'तब्वत्थुए'-* त्ति वादविडे स्थापन करायेल साधनरूप वस्तु छ तेज उत्तरभूत वस्तु छ जे उपन्यासोपनयमां ते १ तद्वस्तुक अथवा ते जअन्यवडे स्थपायेल वस्तु ते तद्वस्तु, ते ज तद्वस्तुक, ते वस्तुयुक्त उपन्यासउपनय पण तद्वस्तुक कहेबाय छे. आगळ पण एमज जाणवं. जेम कोईक कहे छ के-समुद्रना किनारा उपर एक महान वृक्ष छे, तेनी शाखाओ जळ अने स्थळ उपर रहेली छे. तेना जे पांदडां जळमां पडे छे ते जळचर जीवो थाय छे अने जे स्थळमां पडे छे ते स्थळचर जीवो थाय छे. अन्य (प्रतिवादी) वादीए स्थापित वृक्षना पत्र-पतनरूप वस्तुने ग्रहण करीने ज तेणे कहेला वाक्यनुं खंडन करे छे, परंतु जे पत्रो मध्यमां पडे छ तेओनी शी स्थिति ? ते कहो. आ युक्तिमात्र उत्तरभूत तद्वस्तुक उपन्यासउपनय छे. ज्ञात-दृष्टांतना निमित्तपणाथी आनुं जातपणुं छे. अथवा आ ज्ञात यथारूढ ज छे. ते कहे छे-आनो प्रयोग आ प्रमाणे छे-जल अने स्थलमा पडला पत्रो, जल अने स्थलना मध्यमां पडेलां पत्रनी जम जलचरादि जीवोरूप संभवतां नथी, जल अने स्थलमां पडेला पत्रोने जलचरत्वादिनी प्राप्तिनी जेम ते बन्नेना मध्यमां पडेला पत्रोने उभय (जलचर-स्थलचरमिश्रित) रूपनो प्रसंग आवशे; परंत उभयस्वरूप जीवो तो स्वीकारेला नथी. अथवा जीव आकाशनी जेम अमूर्तपणाथी नित्य छे. आवी रीते वादीए को ॥४९५॥ For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org छते तेने उत्तर आपे छे जीव मूर्त्तपणाथी कर्मनी माफक अनित्य ज थाओ. ' तयन्नवत्थुए ' ति० अन्यवडे स्थपायेल वस्तुथी उत्तरभूत अन्य वस्तु छे जे उपन्यासउपनयमां ते २ तदन्यवस्तुक. जेम जलमां पडेलां पत्रो जलचर जीवो थाय छे एम को छते, एनुं निरसन करवाने माटे पतनथी अन्य उत्तर कहे छे-जे पत्रोने पडावीने खाय छे अथवा लई जाय छे ते पांदडांनुं शुं थशे ? कया रूपमा आवशे ? कई नहि थाय. आ पण जणावनारपणाए ज्ञात कहेल छे. अथवा आ ज्ञात यथारूढ छे. ते कहे छे-जल अने स्थलमां पडेलां पत्रो मनुष्य विगेरेथी आश्रितपत्रोनी माफक जलचरादि जीवोरूपे संभवता नथी. अहिं आ अभिप्राय छे के जेम जलादिवडे आश्रित थवाथी पत्रो जलचरादिपणे उत्पन्न थाय छे तेम मनुष्यादिवडे आश्रित थवाथी मनुष्यादिथी उत्पन्न थयेल यूका ( जू) आदि स्वरूपे उत्पन्न थाओ; कारण के आश्रितपणानी समानता छे परंतु ते पत्रो तेम ते स्वरूपे स्वीकारेल नथी माटे जल विगेरेमां पडेलां पत्रोनुं पण जलचरपणुं विगेरेनो असंभव छे. 'पडिनिभे ' ति० जे उपन्यासउपनयमां वादीए स्थापेल वस्तुनी समान वस्तु उत्तर देवा माटे स्थापन कराय छे ते ३ प्रतिनिभ. जेम कोईपण प्रतिज्ञा करे छे के जे पुरुष मने अपूर्व वस्तु संभळावे तेने एक लाखना मूल्यवाळो कटोरो आपुं. तेने अपूर्व संभाव्यं तो पण ते अपूर्व नथी एम स्वीकारे छे. त्यारबाद एक सिद्धपुत्रे कधुं के— तुझ पिया मज्झपिउणो, धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुढंव दिज्जउ, न सुयं खोरयं देहि ॥ १९४ तारा पिताए मारा पिता पासेथी संपूर्ण एक लाख द्रव्य लीघेलुं छे, ते जो तें पूर्व सांभळ्युं होय तो लाख द्रव्य आप, अने न सांभळ्युं होय तो आ अपूर्व छे माटे कटोरो आप. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४९६॥ Cxxxxxxxx ४ स्थान काध्ययने उद्देशः३ आहरण भेदाः सू० ३३८ ४ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx आ दृष्टांतनी सदृशता आ प्रमाणे के-कोईके बधुंय को छते पण में आ प्रथम सांभळेलु छ एवी रीते असत्य वचन बोलनारना निग्रह माटे " तारा पिताए मारा पिता पासथी लाख द्रव्य लीधेल छे" आ प्रकारे वे तरफथी बंधन समान असत्य वचननु ज स्थापनपणुं होबाथी आ दृष्टांतनी प्रतिनिभता-समानपणुं छे. युक्तिमात्ररूप आ प्रतिनिभर्नु पण अथेने जणावनार होबाथी ज्ञातपर्यु छ अथवा यथारूढ ज आ ज्ञात छे ते कहे छे. अहिं आ प्रयोग छ-मने कोई पण श्लोक विगेरे अश्रुतपूर्व नथी अर्थात् बधुं य सांभळेलं छे. आवा प्रकारना अभिमानरूप धनवाळाने अमे उत्तर आपीए छीए के-तने अश्रुतपूर्व-पूर्व नहिं सांभ. ळेल वचन छ. तारो पिता, मारा पितानो संपूर्ण एक लाख द्रव्यनो देवादार छे. 'हेउ' त्ति जे उपन्यास उपनयमा प्रश्ननो हेतु उत्तररूप कहेवाय छ ते ४ हेतु. कोईकवडे कोईक प्रश्न पूछायो-शुं तारावडे यव खरीदाय छ ? ते कहे छ के-फोकट नथी मळता माटे. वळी शा कारणथी तुं ब्रह्मचर्यादि अनुष्ठान करे छ ? उत्तर-तपस्या नहिं करनाराओने नरकादिने विषे बहु भारे वेदना होय छे माटे अनुष्ठान करुं छं. आ पण युक्तिमात्र छ परंतु अर्थने जणावनार होवाथी ज्ञानरूपे कहेल छ अथवा यथारूढ ज्ञात ज छे. ते कहे छ-आनो प्रयोग आ प्रमाणे-शा कारणथी तारावडे प्रव्रज्या-क्रिया कराय छ ? एम काईकवडे पूछायो थको साधु कहे छे के-प्रव्रज्या सिवाय मोक्ष थाय नहिं माटे क्रिया करुं छं. एनुं समर्थन करवा माटे ज साधु ते प्रत्ये कहे छ-अरे यवन ग्रहण करनार ! शामाटे तारावडे यत्र खरीदाय छ ? ते कहे छ के-मफत नथी मळता माटे. साधुओनो आ अभिप्राय छ-जेम फोकट मळयाना अभावथी तं यवोने खरीदे छ एवी रीते हैं पण प्रव्रज्या विना मोक्षनो लाभ न थवाथी संयम क्रिया करूं छु. अहिं खरीदवामां मफत यवना अलाभरूप हेतुने दृष्टांतरूपे आपेल होवाथी हेतुउपन्यास उपनय ज्ञातता छे. अहिं x॥४९६॥ For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org किंचित् विशेषणवडे आवा प्रकारना अन्य ज्ञातभेदो पण संभवे छे, परंतु ते वित्रक्षित नथी अथवा गुरुओवडे कथंचित् अंतर्भाव विवक्षित छे. परंतु अमे तेने सम्यग जाणता नथी. ५. हवे ज्ञात पछी दृष्टांतवाळा हेतुने साध्यसिद्धिनुं अंग होवाथी तेना भेदोने 'हेड' इत्यादि त्रण सूत्रबडे कहे छे आ स्पष्ट छे. विशेष एके - ' हिनोति - ज्ञेय वस्तुने जगावे छे माटे हेतुः अन्यथा अनुपपत्ति लक्षणरूप छे. कधुं छे के - " अन्यथा हेतुनुं अनुपपत्तिरूप लक्षण कहेल छे तेनी अप्रसिद्धि, संदेह अने विपर्यासवडे हेत्वाभासपणुं कहेल छे. " (१) पूर्व कहेल हेतु प्रश्नना उत्तररूप उपपत्ति (युक्ति) मात्र छे. अने आ ' हेतु ' तो साध्य प्रत्ये अन्य अने व्यतिरेकवाळो छे. तेवा प्रकारना दृष्टांतवडे तद्भावनुं स्मरण थाय छे ते एक लक्षणवाको छे, परंतु किंचित् विशेषथी चार प्रकारे छे. 'जावए ति० वादीने काळनी यापना- बिलंब करावे छे. जेम कोईक असती स्त्री एकेक रूपीआवडे एकेक उंटनुं लीं देवु ' एवी रीते पतिने शिखामण आपीने ते लींडांने वेचवा माटे उज्जयनीमां मोकलवाना उपायवडे विट (उल्लंठ) पुरुषनी सेवामां काळनी यापना करती हती, आ १ यापकहेतु छे. कधुं छे के "उन्भामिया य महिला, जावगहेउम्मि उहलिंडाई " उक्तार्थ छे. अहिं वृद्धोए व्याख्यान कर्यु छे के-प्रतिवादीने जाणीने तेवा तेवा विशेषण बहुल हेतु करवा योग्य छे के जेथी काळनी यापना (विलंब) थाय छे अने वादी प्रकृत विषयने जाणतो नथी. ते संभावना आवा प्रकारे कराय छे-पवनो चेतनवाळा छे. अन्यवडे प्रेरणा थये छते तिरछो अने अनियतपणाए गायना शरीरनी जेम गतिमान् होय छे. आ हेतु, विशेषणनी बहुलताए बीजाने दुःखपूर्वक जाणवारूप होवाथी वादीने काळनी यापना करे छे. हेतुना स्वरूपने न जाणतो थको वादी जल्दीथी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था बाइपत्र सानुबाद ॥४९७॥ XX oxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXX अनेकांतिकत्व विगरे दुषणोने प्रगट करवा माटे समर्थ थतो नथी, माटे आ हेतुथी वादीने काळनी यापना थाय छे. अथवा ४ स्थान व्यापिनी प्रतीति न थवावडे व्याप्तिसाधक प्रमाणांतरनी विशेष अपेक्षा सहित होवाथी वादी जल्दीथी साध्यनी प्रतीति करतो काध्ययने नथी. परंत काळक्षेप थाय छे. आ हेतु साध्यनी प्रतीति प्रत्ये विलंब करावनार होवाथी यापक छे. जेम बम्त सच्च छतापणं)। उदेशः३ होवाथी भणिक छ. बौद्धना पक्षमां " सत्चात्" आ हेतु छ, परंतु एम श्रवण मात्रथी कोई अन्य क्षणिकपणा प्रत्ये आहरणप्रतीति करता नथी. आथी बोद्ध सत्व (छतापो) क्षणिकत्ववडे व्याप्त छ. आ *व्याप्तिने साधवा माटे प्रयत्न करे ले. ते बतावे छ-नामर्नु अर्थक्रियाकारीपणुं ज सच छ अथोत् घट नाम जळाहरण-पाणी लावई विगेरे क्रिया करनार थाय भेदाः तोज घटमां अर्थक्रियाकारीपणुं छे; अन्यथा वंध्याना पुत्रने पण सत्त्व(छतापणा)नो प्रसंग आवशे. नित्य- एक स्वरूप होवाथी -सू०३३८ अर्थक्रिया क्रमवडे नहिं थाय, अने योगपद्य-एकी साथे पण नहिं थाय; केम के क्षणांतर( अन्य क्षण )मां अकर्त्तापणानो प्रसंग थशे. आहेतथी अर्थक्रियालक्षणरूप सच्च, अक्षणिकथी निवर्तमान थयुं थकुं क्षणिक ज रहे छे. आवी रीते काळक्षेपबडे साध्य अने साधनने विष काळनी यापना करनार होवाधी 'सच 'लक्षण हेतु यापक छे. ' स्थापयति' व्याप्ति प्रसिद्ध होवाथी काळक्षेप विना पक्षनुं समर्थन करे छे. जेम कोईक धृतं परिव्राजक एम कहे छे के-'लोकना मध्यभागमां आपलं बाहरवालं थाय छे, ते मध्यभागने हूंज जाणुं छु' एम मायावडे दरेक गाममा भिन्न भिन्न लोकना मध्यभागने प्ररूपतो।x | हतोतेनो निग्रह करवा माटे कोईक श्रावके कह्यु के-'लोकना मध्यभागर्नु एकपणुं होवाथी घणा गामाने विष तेनो संभव * यत् सत् तत् क्षणिकम् ते व्याप्तिः-जे सत् छे ते क्षणिक छे, आ व्याप्ति छे. X॥ ४९७॥ XXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org केवी रीते होय ? आवी रीते युक्तिथी तारावडे बतावेल भूलोकनो मध्यभाग थतो नथी.' आ प्रमाणे पक्ष स्थापन कर्यु माटे २ स्थापक हेतु छे. कं छे के लोगस्स मज्झजाणण, थावगहेऊ उदाहरणं " उक्तार्थ छे. धूम होवाथी अहिं अग्नि छे, बळी द्रव्य अने पर्यायथी वस्तु नित्यानित्य छे, ते प्रमाणे प्रतीयमानपणाथी-चोकस थती होवाथी आ ने हेतुनी प्रसिद्ध व्याप्तिवडे काळक्षेप विना साध्यना स्थापनथी स्थापकपणुं छे. तथा 'व्यंस्यति' बीजाने जे व्यामोह [ भ्रम] उत्पन्न करे छे ते शकट अने तीतरने ग्रहण करनार धूर्त्तनी जेम व्यंसक छे. तेनी कथा कहे छे-कोईक पुरुषे रस्ताना मध्यमां मळेल मृत तीतरयुक्त शकट (गाई) वडे नगरमा प्रवेश कर्यो. तेने धूर्ते कां के आ शकटतीतर केम मळे छे ? ते पुरुषे-आ शकट संबंधी तीतर मागे छे एम विचारीने कधुं के "तर्पणालोडिकया" पाणी विगेरेथी मसळेल साधुआवडे मळे छे. त्यारपछी धर्ते साक्षीओने बोलावी तीतर सहित शकटने ग्रहण कर्यु अने कं के' आ बन्ने मारा छे, एणे ज शकटतीतर आपेल छे, में तो शकटसहित तीतर ते शकटतित्तरी ग्रहण करेल छे. आ प्रमाणे बनवाथी गाडावाळो खेद् पाम्यो. कधुं छे के " सा सगडतित्तिरी वंसगंमि हेडंमि होइ णायव्वा" उक्तार्थ छे.. ते आवी रीते- “अस्ति जीवोऽस्ति घटः" जीव छे, घट छे, एम स्वीकार कर्ये छते जीव अने घटने विषे अस्तित्व समानपणाए वर्त्ते छे तेथी ते बन्नेनुं एकपणुं थयुं, अभिन्न शब्दनो विषय होवाथी व्यंसक हेतु. घट शब्दनो विषय घटना स्वरूपनी जेम. वळी अस्तित्व जीवादिमां वर्त्ततुं नथी, तेथी जीवादिनो अभाव थाप, केमके अस्तित्वनो अभाव होवाथी व्यंसक हेतु छे केमके ते प्रतिवादीने व्यामोह करनार छे. तथा 'लूसए' ति० व्यंसकवडे प्राप्त थयेल अनिष्ट अहिं शकटतोतर ' शब्द विभक्त रहित है। वाथो भ्रमजनक छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थान भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥४९८॥ क्यध्ययने उदेश आहरण भेदार सू०३३८ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx लूटे छे अर्थात् गयेल वस्तुने पाछी वाळे छे ते लूपकहेतु. तेज शाकटिके-गाडावाळाए जेम बीजा धूर्ते तेने शीखव्युं त्यारे ते धूत पासे जईने मान्यु के-मने तर्पणालोडिका आप. त्यारपछी ते धृते पोतानी स्त्रीने कछु के-आने सत्कु (पात्रविशेषबडे) मसळेल पिंड आप. तेम करती थकी-साधुआना पिंडने मसळती एवी तेनी भार्याने ग्रहण करीने ते चालतो थयो अने धूतेने कयु के-आ स्त्री मारी छे केमके सत्कुवडे जे मसळे छ ते तर्पणालोडिका छे अने ते तें ज आपेल हे. कारण के-अस्तित्वनी वृत्तिवडे जीव अने घटने विषे तुं एकत्वनी संभावना करे छे त्यारे सर्व भावोर्नु एकत्व थशे, कारण के सर्व भावोने विपे पण अस्तित्ववृत्तिनी समानता छे, परंतु एम थतुं नथी. अहिं अस्तित्ववृत्तिनी समानता होवाथी आ लूषक हेतु छ, केमके जीव अने घटने विषे अभावनी आपत्तिरूप एकत्वना प्रतिपादक लक्षणने अथवा बीजाए उत्पन्न करेल अनिष्टने लूटेल छे. १. 'अहवे' ति० प्रकारांतरवडे हेतुने जणावनार विकल्प अर्थवाळो ' अथवा ' शब्द छ. 'हिनोति' प्रमेय रूप पदार्थने जे जणावे छे ते अथवा जेनावंडे पदार्थ जणाय छे ते हेतु, अर्थात् प्रमेयनी प्रमिति-निर्णय करवामां जे कारण ते प्रमाण. ते स्व. रूप विगरेना भेदथी चार प्रकारे छे. तेमां' पच्चक्खे' त्ति० अर्थों प्रत्ये जे व्याप्त थाय छे ते अक्ष-आत्मा, ते प्रत्ये जे ज्ञान वते छे ते प्रत्यक्ष ज्ञान छ. निश्चयधी अवधि, मनःपर्याय अने केवळरूप छे. अथवा अक्ष-इंद्रियो प्रत्ये जे ज्ञान वर्त छे ते व्यवहारथी प्रत्यक्ष छ, अने ते चक्षु विगरेथी थयेटु छ. प्रत्यक्षतुं लक्षण कहे छ-" पदार्थर्नु अपरोक्षपणाए ग्रहण करनार जे ज्ञान ते प्रत्यक्ष अने इंद्रियोवडे ग्रहणनी अपेक्षाए बीजुं परोक्ष जाणवं." 'अनु'-लिम(चिह )र्नु दर्शन अने संबंधना अनुस्मरण पछी 'मान'-जे ज्ञान ते २ अनुमान छे, एर्नु लक्षण आ प्रमाणे-“साध्य विना हेतुथी न थनार अने साध्यनो निश्चय करावनार ४९८ For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 環球赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛赛来素業赛事表赛赛 अनुमान छे, केम के प्रमाण होवाथी प्रत्यक्षनी माफक ते भ्रांतेि रहित छ." आ साध्य विना न धनार हेतुथी उत्पन्न थवावडे पण उपचारथी हेतु छ. ३ उपमान ते उपमा, ते ज उपम्य, आधी 'रोझना जेवो आ बळद छे' एवी समानताना निर्णय रूप छे. कर्ष छ के-कोईक पुरुष बळदने जोइने जंगलमा घणा अवयवोनी समानता धारण करनार अने गोळ कंठवाळा अन्य रोझने ज्यारे जुए छ त्यारे तेज अवस्थामां आ पशुना जेवो आ बळद छे एबु जे ज्ञान प्रबर्त छे ते उपमान छे. अथवा सांभळेल अतिदेश वाक्यना समान अथेनी प्राप्तिने विषे संज्ञा अने संज्ञी(संज्ञावाळा)ना संबंधन जे ज्ञान ते उपमान कहेवाय छे.' आगम्यत' जेनावडे पदार्थो जणाय छ ते ४ आगम अर्थात् आप्तपुरुषना वचनवडे प्राप्त करवा योग्य अगम्य पदार्थना निणेयरूप छे. कयुं छे केतत्चना ग्रहण करावनारपणाए दृष्टवाध अने इष्टबाधथी रहित तेमज परमार्थने कहेनार वाक्यवडे थतुं जे ज्ञान ते शाब्द (आगम) प्रमाण कहेल छे. आप्तपुरुषे कहेलु नहिं उल्लंघन करवा योग्य, दृष्ट अने इष्टतुं विरोध नहिं करनालं, तचनो उपदेश करनारुं अने कुमार्गनो नाश करनारु समस्त शास्त्र छे. अहिं जेना विना उत्पन्न न थवाय ते हेतुबडे जन्य होवाधी अनुमान ज छे, पण कार्यने विषे कारणनो उपचार करवाथी हेतु छे. ते चतुर्भगीरूप होबाथी चार प्रकारे छे. १ अस्ति-विद्यमान छ तत्लिंगभूत धूम विगेरे वस्तु एम करीन ' अस्ति सः'-अग्नि विगेरे साध्य पदार्थ छ माटे आ हेतु अनुमान छे. बळी २ अग्नि विगेरे वस्तु छे, आने लईने तेनाबी विरुद्ध शीत विगो पदार्थ नथी, आ हेतु पग अनुमान छे. वळी ३ अग्नि विगेरे वस्तु नथी, तेथी शीतकालने विषे ते शीतादि पदार्थ छ, आ हेतु पण अनुमान छे. वळी ४ वृक्षत्वादि नथी माटे शीशमना झाड विगेरे वस्तु नधी, आ हेतु पण अनुमान छे. अहिं १ शब्दमां कृतकपर्नु अस्तिपणु होवाथी घटनी जेम अनित्यपणुं छे. Xxoxoxoxoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥। ४९९ ।। www.kobatirth.org तथा घूमना अस्तिपणाथी अहिं महानस - रसोडानी जेम अनि छे इत्यादि स्व ( पोताना ) भावनुं अनुमान अने कार्य अनुमान प्रथम भंगवडे सूचन करेल छे. तथा २ अभितुं अस्तित्व होवाथी अथवा धूमनुं अस्तित्व होवाथी शीतनो स्पर्श नथी, इत्यादि बिरुद्ध भावनी प्राप्तिरूप अनुमान अने विरुद्ध कार्यनी प्राप्तिरूप अनुमान है. अग्निनुं अथवा धूमनुं अस्तित्व होवाथी शीना स्पर्शथी थयेल दांत, वेणी (केशपाश ) अने रोम ( संवाडा ) नुं कंपन विगेरे महानसनी जेम पुरुषना विकारो नथी, इत्यादि कारणथी विरुद्धनी प्राप्तिनुं अनुमान अने कारणथी विरुद्ध कार्यनी प्राप्तिनुं अनुमान द्वितीयभंगवडे कट्टेल छे. तथा ३ छत्रादिनुं अथवा अग्निनुं नास्तिपणुं होवाथी कोईक *कालादिविशेषमां आतप ( तडको) अथवा शीतनो स्पर्श छे-पहेलां प्राप्त थल प्रदेशने विषे आतप अने शीतस्पर्शनी जेम इत्यादिक विरुद्ध कारणानुपलभअनुमान अने विरुद्धानुपलभअनुमान तृतीय भंगवडे स्वीकारेल छे. तथा जोवानी सामग्री छते घटनी प्राप्तिना अभावपणाथी विवक्षित प्रदेशनी जेम अहिं घट नथी - इत्यादि स्वाभावानुपलब्धि अनुमान. घूमना अभावपणाथी संपूर्ण धूमनो कारणसमूह नथी - अन्य प्रदेशनी जेम, इत्यादि कार्यानुपलब्धिअनुमान. वृक्षना अभावथी शीशमनुं वृक्ष नथी इत्यादि व्यापकानुपलंभअनुमान तथा अग्निना अभावथी धूम नथी इत्यादि कारणानुपलभअनुमान चतुर्थभंगवडे कल छे. आ जैन प्रक्रिया नथी एम कहेतुं नहिं, केमके सर्वत्र जैनदर्शनन अभिमत अन्यथा अनुपपन्नत्वरूप हेतुना लक्षणनुं विद्यमानपणुं छे. ( सू० ३३८ ) हमणा ज हेतु शब्दवडे ज्ञानविशेष कह्यो, | तेना अधिकारथी ज्ञानविशेषनुं निरूपण करवा माटे सूत्रकार कहे छे * उन्हाळामां छत्रना अभावधी आतपनो अने शीयाळामां अग्निना अभावथी शीतनो स्पर्श छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ आहरण भेदाः सू० ३३८ ।।। ४९९ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxi चउविहे संखाणे पं० सं०-पडिकम्म १ ववहारे २ रज्जू ३ रासी ४। अहोलोगे णं चत्तारि अंधगारं करेंति, तं०-नरगा णेरइया पावाई कम्माइं असुभा पोग्गला १, तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, तं०-चंदा सूरा मणि जोती २, उड्डलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, तं०-देवा देवीओ विमाणा आभरणा ३॥ सू० ३३८ ॥ चउट्ठाणस्स ततिओ उद्देसतो समत्तो॥ ___ मूलार्थ:-चार प्रकारे गणित कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ परिकर्म-पाटीगणित एक, दश विगेरे, २ व्यवहार-तोल, x माप विगेरे, ३ रज्जु-फूट, गज विगरे अने ४ राशि-त्रिराशि विगरे (१) अधोलोकमां चार वस्तु अंधकार करे छे, ते आ प्रमाणे-नरकवासो, नैरयिको, पापकर्मो अने अशुभ पुद्गलो (२) तिरछालोकने विषे चार वस्तु उद्योत करे छ, ते आ प्रमाणे-चंद्रो, सूर्यो, मणि अने अग्नि (३) ऊर्ध्वलोकमां चार वस्तु उद्योत करे छे, ते आ प्रमाणे-१ देवो, २ देवीओ, ३ विमानो अने ४ आभरणो (३) (सू० ३३८) टीकार्थ:-'चउब्विहे ' त्यादि० संख्या कराय छ-जेनावडे गणाय छे ते संख्यान अर्थात् गणित. तेमा संकलना (गोठवण) विगेरे पाटी प्रसिद्ध छे. एम व्यवहार पण मिश्रक व्यवहार विगेरे अनेक प्रकारे छे. रज्जु-रज्जुगणित अर्थात् क्षेत्रगणित. राशि-त्रिराशि, पंचराशि विगेरे (१) रज्जु शब्दथी क्षेत्रगणित कयु, क्षेत्रना संबंधथी त्रण प्रकारे विभाग करायेल लोक XxxKOKOKOKOMOKOKOKOKXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानासूत्र खानुवाद ५०० www.kobatirth.org रूप क्षेत्रनी, अंधकार अने उद्योतने आश्रयीने त्रण सूत्रवडे, प्ररूपणा करे छे- 'अहे' त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के पूर्वोक्त लक्षणवाळा अधोलोकने विषे चार वस्तु [अंधकार करे छे] - नरकावासो, नैरयिको आ वे कृष्णस्वरूप होवाथी अंधकार करे छे तथा ज्ञानावरणादि पापकर्मों, मिथ्यात्व अने अज्ञानरूप भाव अंधकारना करनारा होवाथी अंधकार करे छे एम कहेवाय छे. अथवा अंधकारस्वरूप अधोलोकने विषे प्राणीओने उत्पन्न करनारा होवाथी पाप कर्मोने अंधकारनुं कर्तृत्व-कत्तीपशुं छे तथा अशुभ पुद्गलो अंधकार भाववडे परिणामने पामेला छे. 'मणि' ति० चंद्रकांत विगेरे मणिओ, 'जोइ' ति० ज्योति - अग्नि (मू० ३३८) ॥ चतुर्थ स्थानकना तृतीय उद्देशकनी टीकानो अनुवाद समाप्त ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ संख्या नानि अ न्यकारो द्योत कारकाः सू० ३३८ ।। ५०० ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ चतुर्थस्यानकाध्ययने चतुर्थ उद्देशः ॥ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX तृतीय उद्देशकर्नु व्याख्यान कयु, त्यारवाद चतुर्थ उद्देश कनो आरंभ कराय छे. आनो संबंध आ प्रमागे छ-तृतीय उद्देशकने विषे चार स्थानकपणाए विविध भावो कह्या, हवे पण तेत्री जरीने कवाय छे-आवा प्रकारना संबंधविशिष्ट आ उद्देशकनुं प्रथम सूत्र चत्तारि पसप्पगा पं० त०-अणु पन्नाणं भोगागं उप्पाएता एगे पसप्पए, पुवुःपन्नाणं भोगाणं अविप्पतोगेणं एगे पसप्पए, अगुपन्नाणं सोरखाणं उप्पाइत्ता एगे पल-पए पुवुप्पन्नाणं सोक्खाणं अविप्पओगेणं एगे पसप्पए । सू. ३३९. णेरतितागं वउबिहे आहारे पं. तं०-इंगालोवमे मुम्नुरोवमे सीतले हिमसीतले, निरिक्ख जोणि पाणं चउबिहे आहारे पं० तं०-कंकोवमे विलोवमे पाणमंसोवमे पुत्तमंसोवमे, मगुस्साणं चउबिहे आहारे पं० तं.-अलणे जाव सातिमे, देवागं चउबिहे आहारे पं० तं०-वन्नमंते गंधमंते रसमंते फासते । सू० ३४०, चतारि जातिआसीविता पं. तं. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नानपत्र सानुबाद विच्छतजातीयासीविसे मंडुक्कजातीयासीविसे उरगजातीयासीविसे मणुस्सजातिआसीविसे विच्छ्यजातिआसीविसरसणंभंते ! केवइए विसए पन्नत्ते? पभूणं विच्छ्यजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं करित्तए विसए से विसट्टताए नो चेवणं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा, मंडुकजातिआसीविसस्स पुच्छा, पभूणं मंडुक्कजातिआसीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं (विसप०) विसट्टमाणिं,सेसंतं चेव जाव करेस्संति वा, उरगजाति पुच्छा, पभू णं उरगजातिआसीविसे जंबूद्दीवपमाणमेत्तं बोदि विसेण सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा, मणुस्सजातिपुच्छा, पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे समतखेत्तप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए, विसते से विसताते नो चेव णं जाव करिस्संति वा ॥ सू०३४१ मूलार्थः-चार प्रकारना प्रसर्पको-एक देशथी बीजा देशमा जनारा पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष नहिं उत्पन्न थयेला भोगोने मेळववा माटे संचरे छे-देशाटन करे छे, २ कोईक प्रथम मळेल भोगोनुं रक्षण करवा माटे संचरे छे, ३ कोईक अनुत्पन्न सुखोने मेळववा माटे संचरे छे अने ४ कोईक पूर्व मेळवेल सुखानी रक्षा माटे देशांतरमा संचरे छे. (मू० ३३९ ) नैरयिकोने चार प्रकारे आहार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ अंगारा जेबो अर्थात् थोडो काळ बाळनारो, २ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ प्रसर्पकाः आहारः आशीविपाः सू० ३३९-४१ xxxxxxxxxxxxx KKKXKXXI x॥५०२॥ For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx मुर्मुर-अर्द्ध बुझायेल अग्नि जेवो अर्थात् घणा काळ सुधी बाळनारो, ३ शीतळ-ठंडीनी पीडा करनारो अने ४ हिमशीतळअत्यंत ठंडी करनारो.तिर्यचोने चार प्रकार आहार कहेल छे,ते आ प्रमाणे-१ कंक पक्षीना आहार जेबो अर्थात दुःखपूर्वक पचे तेवो आहार पण सुखपूर्वक पचे छ, २ बिलना जेवो अर्थात् बिलमां कई पण रेडवामां आवे ते सुखपूर्वक प्रवेश करे छे तेम स्वाद विना गळामा प्रवेश थाय छे. ३ पाणमांसोपम-चंडालना मांस जेवो-दुगंच्छनीय होवाथी दुःखकारक छे अने ४ पुत्रमांसोपमपुत्रना मांस जेवो अर्थात् अत्यंत दुःखकारक छे. मनुष्योने चार प्रकारे आहार कहेल छे, ते आ प्रमाणे--अशन, पान, खादिम अने स्वादिम. देवोने चार प्रकारे आहार कहेल छे, ते आप्रमाणे - शुभ वणवाळो, शुभ गंधवाळो, शुभ रसवाळो अने शुभ स्पर्शवाळो. (सु. ३४०) चार प्रकारे जातिवडे आशीविष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ वींच्छु जातिनो आशीविष, २ मंडक-देडकानी जातिनो आशीविष, ३ सर्पजातिनो आशीविष अने ४ मनुष्यनी जातिनो आशीविष. प्रश्न-हे भगवन् ! वृश्चिक(वींछु जातिना आशीविषनो विषय केटलो कहेल छ ? उत्तर-वृश्चिक जातिनो आशीविष स्वविषवडे अर्द्ध भरतना प्रमाणवाळा शरीरने विषमय करे अने शरीरने विदारी नाखवा माटे समर्थ थाय छे. विषना अर्थपणाथी शक्तिमात्र छे, परंतु निश्चय पूर्वोक्त शरीरनी प्राप्तिद्वारा विषमय कर्या नथी, करता नथी अने करशे पण नहि. देडकानी जातिना आशीविष संबंधी प्रश्ननो उत्तर-मंडक जातिना आशीविष पोताना विषबडे भरतक्षेत्र प्रमाण शरीरने विषमय करवा माटे समर्थ छे पण कर्या नथी, करता नथी अने करश नहि. सर्पनी जातिना आशीविष संबंधी प्रश्ननो उत्तर-सर्पनी जातिनो आशीविष पोताना विषबडे जंबूद्वीप. प्रमाण शरीरने विषमय करवा माटे समर्थ छ परंतु कर्या नथी, करता नथी अने करशे नहि. मनुष्य जातिना आशीविष संबंधी For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥५० xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx प्रश्ननो उत्तर-मनुष्य जातिनो आशीविष पोताना विषबडे समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) प्रमाणवाळा शरीरने विपवडे परिणत करवा अने शरीरने विदारण करवा समर्थ छे, तेनो शक्तिमात्र आ विषय छ परंतु का नथी, करता नयी अने करशे पण नहि. (सू०३४१) काम्ययने ___टोकार्थः-'चत्तारि पसप्पगे'त्यादेि० आ सूत्रनो अनंतर सूत्र साथे आ प्रमाणे संबंध छ-अनंतर सूत्रमा देवो अने उद्देशः४ देवीओ कह्या, तेओ भोगवाळा अने सुखधाळा होय छे माटे भोगो अने सुखाने आश्रयाने प्रसप्पकना भेडो कहेवाय छे. प्रसपकाः छे, आवा प्रकारना संबंधविशिष्ट आ सूचनी व्याख्या आ प्रमाणे-प्रका-विशेषवडे ' सपन्ति' भोगादिकने माटे एक देशथी आहार: बीजा देश प्रत्ये जाय छ-संचरे छे अथवा आरंभ अने परिग्रहथी विस्तारने प्राप्त थाय छे ते प्रसप्प को. 'अगुप्पन्नागं' ति. आशीवि(अहिं द्वितीया विभक्तिना अर्थमां छठी छे.) प्राप्त नाहे थपेल शब्दादिक भोगोने अथवा तेना कारणभूत धन अने स्त्री विगेरेने पाः सू० 'उप्पाइत्त' त्ति. संपादन करवा माटे, अथवा अनुत्पन्न भोगाने उत्पन्न करतो थको कोई एक 'प्रसपेन्ति'-जाय ४३३९-४१ छे अथवा प्रसर्पक ( जनारो ) थाय छ, भोगादिकनी इच्छावाका प्राणीओ संचरे छे. कयुं छे केधावेइ रोहणं तरइ,सागरंभमइ गिरिनिगुंजेसु । मारेइ बंधवं पि हु,पुरिसो जो होज(इ) धणलुद्धो ॥१९५॥ अडइ बहुं वहइ भरं,सहइछुहं पावमायरइ धि?।। कुलसील जातिपच्चय-ट्ठिई वलोभदुओ चयइ ॥१९६॥ जे मनुष्य धननो लोभी होय छे ते रोहणगिरि प्रत्ये दोडे छे, समुद्र तरे छ, पर्वतनी गुफाओने विवे भटके छे अने भाईने पण मारे छे. बळी घणु ज रखडे छे, भारने वहे छ, क्षुधाने सहे छे, पापने आचरे छे तेमज लोभभां आसक्त अने धृष्ट EXXXXXXxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XxxxxxxxxXXXXXXXXXXXX निर्लज थयो थको कुल, शील-सदाचार अने जातिनी मर्यादाने पण छोडे छे. ___बळी प्रथम मेळवलानु अथवा पाठांतरथी 'प्रत्युत्पन्नानां'-वर्तमानमा मळे ला(भोगादिक नुं रक्षण करवा माटे, 'सौख्यानाम् '-भागवडे प्राप्त करना योग्य आनंद विशेषो माटे सचरे छे शेप सुगम छे. (मू. ३३१) भोग अने सौख्यने माटे संचरनारा कर्म बांधीने नारकपणाए उत्पन्न थाय छ माटे आहारना अधिकारथी नारकोना आहारनु निरूपण करता थका सूत्रकार कहे छे-'नेरइयाण'मित्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-अल्प काळ दाह-बळरा होबाथी अंगारानी उपमा जेबो,घगा काळ पर्यंत वळतरा थवाथी मुमुरना जेवो, शीतवेदनानो उत्पादक होवाथी शीत अने अत्यंत शीनवेदनाना उत्पादक होवायी हिमशीतळ छे. उपयुक्त चारे क्रमशः एक एकथी अधिक वेदनाबाळा छ. आहारना अधिकारथी तिच, मनुष्य अने देव संबंधी आहारनुं निरूपण करवा माटे त्रण सूत्र 'तिरिक्खजोणियाण'मित्यादि०-स्पष्ट छे. विशेष ए के-कंक(पक्षीविशेष)नी आहारपडे उपमा छ जेमा ते मध्यम पद(आहारपद)ना लोपथी कंकोपम अर्थान् कंकपक्षीने स्वरूपवडे दुर्जर आहार पण सुखपूर्वक खावा योग्य अने सुखरूप परिणामवाळो थाय छे-सुस्वपूर्वक पचे छ. एवी रीते जे आहार नियंचोने सुभक्ष अने सुखरूप परिणामवाळो होय छे ते कंकोपम. बिलने विषे प्रवेश करतुं द्रव्य(पदार्थ) बिल ज छे, तेनी उपमा छ जेने विषे ते बिलोपम. जेम विलमा रसनो आस्वाद मळ्या सिवाय जल्दीथी किंचित् प्रवेश थाय छे एवी रीते जे आहार, गळारूप बिलमा प्रवेशे छे ते बिलोपम कहेबाय छे. 'पाण'चांडाल, तेनुं मांस, अस्पश्यपणाए निंदनीय होवाथी दुःखपूर्वक खावायोग्य होय. एवी रीते तेओने दुःखाद्य (दुःखे खावायोग्य) आहार ते पाणमांसोपम. पुत्र पर तो अत्यंत स्नेह होवाथी तेतुं मांस अतिशय दुःखपूर्वक खावा योग्य होय, एवी रीते जे दुःखाद्यतर (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥५०३॥ आहार ते पुत्रमांसोपम. क्रमपूर्वक आ आहारो शुभ, सम, अशुभ जने अशुभतर जाणवा. ( वर्णवान् इत्यादि शब्दने विषे प्रशंसामा अथवा अतिशय अर्थमा 'मतुप' प्रत्यय थयेल छे. ) (सू० ३४०) आहार भक्षण करवा योग्य छ, माटे भक्षणना अधिकारथी आशीविष सूत्र कहेल छ. ते सुगम छे. विशेष ए के-'आसीविस त्ति० आश्य(दाढाओ)ने विपे विष छे जेओने ते आशीविषो. तेओ कर्मथी अने जातिथी होय छे. तेमांथी कर्मथी तियचो अने मनुष्यो कोईपण गुणथी आशीविषो थाय. सहसार देवलोक पर्यंतना देवो शापादिद्वारा अन्यनो नाश करवाथी कर्मथी आशीविषो छ. कह्यु छ के आसी दाहातग्गय-महाविसाऽऽसीविसा दुविह भेया। ते कम्मजाइभेएण, गहा च उव्विहविग्गप्पा। ___गाथानो अर्थ उपर जणाव्या मुजब छे. जातिथी आशीविषो वृश्चिक विगेरे छ. 'केवइय' त्ति विपनो केटलो विषय छे ? प्रभु एटले समर्थ. अर्द्ध भरतनुं प्रमाण एटले समर्थ. अद्ध भरतनुं प्रमाण कईक अधिक बसें त्रेशठ योजनरूप छे तेटला प्रमाणवाळा शरीरने पोतानी साधनभूत दाढाथी उत्पन्न थयेल विपवडे विषमय करी शके छे. अथवा क्यांक 'विषपरिगताम्' एवो पाठ छे त्यां विषवडे व्याप्त छे. 'विसट्टमाणि'-विदारण करवा माटे समर्थ होय छ. अथवा 'से' वृश्चिकनुं विष, ए ज अर्थनो भाव ते विषार्थता, विषार्थतानी विपनो अथवा तेमां 'नो चेव' त्ति. नहिं ज 'संपत्त्या'-एवा प्रकारनी बोंदि( शरीर )नी प्राप्तिद्वारा 'करिंसु' त्ति० वृश्चिकोए करेल नथी. अर्थात् तेवी तेनी शक्ति होय छे छतां कदापि करता नथी. अहिं एकवचनना प्रक्रमने विषे बहुवचन निर्देश करेल छे ते आशीविष वृश्चिकोनुं बहुपणुं ४स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ प्रसर्पकाः आहार आशीविषाः सू० ३३९-४१ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx KKKXXkxx XXXX । ५०३॥ For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx जणाववा माटे छ, एवी रीते करता नथी, करशे नहीं. वृश्चिकोनुं त्रण काळ संबंधी निर्देश-त्रिकाळपणुं जणाववा माटे छे. समयक्षेत्र ते मनुष्यक्षेत्र. (सू० ३४१ ) विषनो परिणाम ज व्याधि छे माटे तेना अधिकारथी व्याधिना भेदो कहे छ चउब्विहे वाही पं०२०-वातिते पित्तिते सिभिते सन्निवातिते । सू०३४२, चउविहा तिगिच्छा पं०२०-विजो ओसधाई आउरे परिचारते ४ (१) सू०३४३. चत्तारि तिगिच्छगा पं० तं०-आततिगिच्छते नाममेगे णो परतिगिच्छते १, परतिगिच्छए नाममेगे ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०वणकरे णाममेगे नो वणपरिमासी, वणपरिमासी नाममेगे णो वणकरे, एगे वणकरेवि वणपरिमासीवि, एगे णो वणकरे णो वणपरिमासीवि ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-वणकरे नाममेगे णो वणसारखी ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं-वणकरे नाममेगे णो वणसरोही ४ (३) चत्तारि | वणा पं० त०-अंतोसल्ले नाममेगे णो बाहिंसल्ले ४ (१) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०अंतोसल्ले णाममेगे णो बाहिंसल्ले ४ (२) चत्तारि वणा पं० त०-अंतो दुढे नाम एगे णो बाहिं दुद्वे, बाहिं दुढे नामं एगे नो अंतो ४ (३) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अंतो दुढे नाममेगे नो KKKKAKKKKKKKKKKXXKKKKKKAKKKKKK For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir x श्रीस्थानागपूत्र सानुवाद Xxxxxxx XXKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX बाहिं दुढे ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-सेतसे णाममेगे सेयंसे, सेयंसे नाममेगे पावंसे, पावंसे णाममेगे सेयंसे, पावंसे णाममेगे पावंसे ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं-सेतंसे णाममेगे सेतंसेत्ति सालिसए, सेतसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसते ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं-सेतंसेत्ति णाममेगे सेतंसेत्ति मण्णति, सेतंसेत्तिणाममेगे पावसेत्ति मगति ४ (३) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति सालिसते मन्नति, सेतंसे णाममेगे पावसेत्ति सालिसते मन्नति ४ (४) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आघवतित्ता णाममेगे णो परिभावतित्ता, परिभावइत्ता णाम मेगे नो आघवतित्ता ४ (५) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं-आघवतित्ता णाममेगे नो उंछजीविसंपन्ने, उंछजीविसंपन्ने णाममेगे णो आघवइत्ता ४ (६) चउव्विहा रुक्खविगुठवणा पं००-पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए । सू०३४४ मूलार्थ:-चार प्रकारे व्याधि-रोग कहेल छे, ते आ प्रमाणे-वायुथी थयेल, पित्तथी थयेल, श्लेष्म का थी थयेल अने सनिपातथी थयेल. (सू०३४२) चार प्रकारे चिकित्सा-उपचार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-वैद्य, औषधो, रोगी अने ४-थान. काध्ययन उद्देशः ४ व्याधिचिकित्साचिकित्सकवणशल्यश्रेयः पापाख्यायकादि. AMARARURURXXXXXXXSEX oyxx ३४२-४४ For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परिचारक - सेवा (मावजत करनार (१) (सू० ३४३) चार प्रकारना चिकित्सो-वैद्यो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पोतानी चिकित्सा करे छे पण बीजानी चिकित्सा करतो नयी, कोईक बीजानी चिकित्सा करे छे पण पोतानी करतो नथी, कोईक पोतानी अने बीजानी पण चिकित्सा करे छे अने कोईक पोतानी के परनी चिकित्सा करतो नथी. (२) चार प्रकारना पुरुषो कहेल छे, ते आ प्रमाणे - कोईक व्रणकर - पोते रुधिरादि काढवा माटे शरीरमां क्षत करे छे पण व्रणने स्पर्श करतो नथी, कोईक व्रणने स्पर्श करे छे. पण पोते व्रण करतो नथी, कोईक बगने करे छे अने स्पर्श पण करे छे अने कोईक व्रगने करतो नथी तेम स्पर्श पण करतो नथी. (१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमागे -१ कोईक बग करे छे पण पाटो न बांधवाथी aणनी रक्षा करतो नवी, २ कोईक बगनी रक्षा करे छे पण व्रण करतो नवी, ३ कोईक वग करे छे अने व्रणनी रक्षा पण करे छे अने ४ कोईक बन्ने करतो नथी. (२) चार प्रकारना पुरुषो कडेला छ, ते आ प्रमाणे १ कोईक वग करे छे पण व्रणने रुझावतो नथी, २ कोईक व्रण रुझावे छे पण व्रण करतो नथी, ३ कोईक बग करे छे अने रुतावे पण छे अने ४ कोईक ब करतो नथी. (३) चार प्रकारना व्रण (घा) के गुम कट्टेल छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक व्रण अंदरमां शल्यवाळ होय हे पण चहार देखातुं नथी, २ कोईक वग बहार शल्य वाळु देखाय छे पण अंदर शल्यालं होतुं नवी, ३ कोईक व अंदर अने बहार शल्यबाळं होय छे अने ४ कोईक अंदर के बहार शल्यबाळं होतुं नयी. (१) आ दृष्टांते चार प्रकार ना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईक पुरुष अंदर शल्यवाळो छे पण बहार शल्यवाळा नवी, एम व्रगती माफक चतुभंगो करवी. (२) चार प्रकारना व्रणो ( फोडा ) कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक व्रण ऌतादि दोषथी अंदर दुष्ट के पण ८५ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ५०५ ।। www.kobatirth.org हा दुष्ट नथी, २ बोईक व्रण पर विगेरे नविाथी बहार दृष्ट छे पण अंदर दुष्ट नथी, ३ कोईक व्रण अंदर अने बहार दुष्ट छे अने ४ कोईक व्रण अंदर के बहार दुष्ट नथी. (३) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे. ते आ प्रमाणे१ कोईक पुरुष अंदरथी दुष्ट छे रण बहारथी दुष्ट नथी- सौम्य देखाय छे, २ कोईक पुरुष कारणवशात् बहारथी दुष्ट देखाय पण अंदरथी दुष्ट नथी, ३ कोईक अंदर अने बहारथी दुष्ट छे अने ४ कोईक अंदर के बहारथी दुष्ट नथी. (४) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक पुरुष श्रेयांस प्रशंसायोग्य भाववाळो छे अने सदनुष्ठानवाळो छे ते साधु, २ कोईक प्रशंसा योग्य भावबाटो छे पण अविरतिपणाने लईने पापवाळो हे- ते समकिती, ३ कोईक मिध्यात्वी होवाथी पापवाळो पण कारणवशात् सदनुष्ठानवाळो हे उदायी नृपने मारनार कपटीनी जेम अने ४ कोई अप्रशस्य भाववाळो अने पाप अनुष्ठानवाळो - काल सौकरिकनी जेम (१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ एक पुरुष भावथी श्रेयांस छे अने द्रव्यथी बीजाने प्रशंसवा योग्य बुद्धि उत्पन्न करवावडे श्रेयांस तुल्य छे, २ कोई पुरुष भावथी श्रेयांस छे पण द्रव्यथी 'आ पापी छे' एवी बुद्धि बीजाने उत्पन्न करवावडे पापांशतुल्य छे, ३ कोईक भावथी पापांश छे पण द्रव्यथी श्रेयांस तुल्य छे अने ४ कोई भावथी पापांश अने द्रव्यथी पण पापांश तुल्य छे. (२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाण- १ कोईक पुरुष प्रशंसवा योग्य छे अने पोताना आत्माने श्रेष्ठ माने छे २ कोईक श्रेष्ठ हे पण पोताना आत्माने पापी माने छे दृढप्रहारी मुनिनी जेम, ३ कोईक पापी छे पण पोताना आत्माने श्रेष्ठ माने छे - कुतीर्थिकवत् अने ४ कोईक पापी छे अने पोताना आत्माने पापी माने - सद्बोधवाको होवाथी. (३) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष भावधी श्रेष्ठ छे अने द्रव्यथी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******** ******** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ व्याधि चिकित्सा चिकित्सक व्रणशल्य श्रेयः पापाख्यायका| दि० सू० ३४२४४ ।। ५०५ ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXOXOM कईक शुभ क्रियावालो होवाथी लोकोवंडे श्रेष्ठ तुल्य मनाय छे. २ कोईक पुरुष भावथी श्रेष्ठ छे पण लोकोबडे पापी मनाय छेकारण वशात् असदनुष्टानवाळो होबाथी, ३ कोईक भावथी पापी छ पण कंईक सारं अनुष्ठान करतो होबाथी लोकोवडे श्रेष्ठ तुल्य मनाय छे अने ४ कोईक भावथी पापी छे अने लोकोबडे पण पापी मनाय छे. (४) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष प्रवचननो आख्यायक-प्ररूपक छे पण शासननो प्रभावक नथी केम के ते उदार क्रिया रहित छे, २ कोईक पुरुष शासननो प्रभावक छ पण प्रवचननो प्ररूपक नथी, ३ कोईक प्ररूपक छे अने प्रभावक पण छे अने ४ कोईक प्ररूपक नथी अने प्रभावक पण नथी. (५) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष सूत्रार्थनो प्ररूपक छे पण शुद्ध एषणामां तत्पर नथी, २ कोईक शुद्ध एषणामां तत्पर छ पण शुद्ध प्ररूपक नथी, ३ कोईक शुद्ध प्ररूपक अने | शुद्ध एषणामां तत्पर छ अने ४ कोईक शुद्ध प्ररूपक नथी तेम शुद्ध एपणामां तत्पर पण नथी. (६) चार प्रकारे वृक्षनी विकणा कहेली छे, ते आ प्रमाणे-प्रबाल(नवा अंकुर)पणाए, पत्रपणाए, फूलपणाए अने फलपणाए. (सू०३४४) टीकार्थ:-'चउविहे ' त्यादि सुगम छे. विशेष ए के-वायु छे निदान जे रोगर्नु ते वातिक, एम सर्वत्र जाणवू. विशेष ए के-*बे दोष अथवा त्रण दोषनो संयोग ते सन्निपात. वायु विगेरेनुं स्वरूप आ प्रमाणे-'वायु-१ रुक्ष, २ लघुहलको, ३ गीत, ४ कर्कश, ५ सूक्ष्म अने ६ गतिवाळो छे. पित्त-१ स्नेहल( चीकगुं), २ तीक्ष्ण, ३ उष्ण, ४ लघु, ५ काचा मांसना गंध जेवू, ६ फेलाई जनारुं अने ७ प्रवाही छे. (१) कफ-१ भारी, २ अत्यंत ठंडो, ३ स्निग्ध-अतिशय * वात अने पित्त, वात अने कफ, पित्त अने कफ ए द्विदोष सन्निपात अने वात, पित्त अने कफ त्रणेनो मिलाप ते त्रिदोष सन्निपात. x Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir बीस्था मानसत्र सानुवाद KoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXKXXXXKXxx चीकाशवाळो, ४ प्रक्लेदी-मंद, ५ स्थिर अने ६ पिच्छिल घाटो (मलाईना थर जेबो) छे. सत्रिपात तो बे दोष विगेरे मळवाधी मिश्रलक्षणवाळो छे. (२) वळी वात विगेरेना आ कार्यों छे -१ कठगपगुं, २ संकोचन, ३ पीडा, ४ शूल, ५ श्यामता, ६ हायपग विगेरे अंगमा दुःखाबो, ७ चेष्टानो भंग, ८ अंगोनू सूई जर्बु-खाली चडवी, ९ शीतपणु, १. तीक्ष्णपणु अने ११ शोष-तृषा लागवी. (१)१ पाणी विगेरेर्नु झर, २ स्वेद परसेवो), ३ बळतरा, ४ रताश, ५ दुर्गधपणुं, ६ खेद, ७ पाचक, ८ कोप, ९ प्रलाप, १० मृा , ११ भ्रमी-चकरी अने १२ पीळापणुं-आ कार्यों पित्तनां छे एम वैद्यो कहे छे. (२) १ श्वेतपणुं, २ शीतपणुं, ३ गुरुना-भारेपणुं, ४ चक्र-खरज, ५ चीकाश, ६ सोजो, ७ स्थिरपणुं, ८ लेप-चोटवू. ९ उत्सेध-ऊंची अने संपात-नीची श्वास लेयो विगेरे लांबा काळे किपार्नु थq-आ | कार्यों कफना छ. एम वैद्यो कहे छे. (३) अनंतर व्याधि कयो, हो व्याधिनी ज चिकसा अने चिकिसकोने ये सूत्रवडे कहे छ-'चउबिहे ' त्यादि सुगम छे. विशेष ए के-चिकित्सा एटले रोगन प्रतिकार, तेतुं कारगना भेदयी चतुर्विधपणुं छे. बीजाओए [अन्य शास्त्रकारोए] पण आ सूत्रने मळतुं कथन कहेलुं छे, जेमके "१ वैद्य, २ औषधो, ३ सेवा करनार अने ४ रोगी आ चिकित्साना चार चरणो चिकित्साना करावनारने माटे कहेल छे अने ते दरेकना चार गुगो छ. (१)१ चतुर, २ शाखना अर्थने जाणनारो, ३ जोयेल वैद्यक क्रियावाळो अने ४ पवित्र आचारवाळो-आ चार वैधना गुणो छे. १ पहु कल्पवालं, २ बहु गुणवाडं, ३ औषधना गुणसंपन्न अने ४ योग्य-आ चार औषधना गुणो छे. (२) १ प्रीतिवाळो, २ पवित्र, ३ दक्ष अने ४ बुद्धिमान आ चार सेवा करनारना गुगो छ, अने १ पैसावालो, २ वैद्यना कडेवा प्रमाणे वर्तनारो, ३ जणाव XXXXXX ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ X| व्याधिचिकित्साचिकित्सक व्रणशल्यश्रेयः पापाख्यायकादि०सू० ३४२४४ For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx नार अने ४ हिम्मतवालो-आ चार रोगीना गुगो छ. (३)" आ द्रव्यरोगनी चिकित्सा कही परंतु मोहरूप भावरोगनी चिकित्सा तो आ प्रमाणे जाणवीनिविगइ निब्बलोमे, तब उद्धट्राणमेव उब्भामे । वेयावच्चाहिंडग, मंडलि कप्पट्टियाहरण ॥१९८॥ निर्षिकृति-विगय त्याग करे, २ वाल, चणा विगेरे निर्बल आहार करे, ३ ऊगादरी को, ४ आयंबिल विगेरे तप करे, ५ कायोत्सर्ग करे, ६ भिक्षाचर्या करे, ७ वैयावृत्य करे, ८ भिन्न देशोने विषे विहार करे अने ९ सूत्रार्थनी मंडलीमां | प्रवेश करे. आ प्रमाणे मोह रोगनी चिकित्सा छे.. ___आ संबंधमां कोई एक कुलपुत्रीनुं उदाहरण छे. कोईक शेठनी पुत्री कई पण काम कर्या सिबाय सुखपूर्वक घरमा रहे छे. तेनो पति देशांतरमा गयेल छे. तेणी स्नानादि शंगारपरायण होवार्थी विषयवाळी थई तेथी धावमाताने क{ के-"कोईक पुरुषने लई आव.' त्यारे धावमाताए तेणीना मातापिताने ते वृत्तांत जगाव्यु. तेश्रोए विचारीने सपुत्राने कद्दु के-'धान्यने कोठारमाथी काढीने साफ कर.' इत्यादि अनेक कार्यमा जोडी आपबाथी श्रमिन थयेली ते रात्रे सुखपूर्वक मई जगा लागी. एक बखत धावमाताए पूछयु के-'हुं कोईक पुरुषने लावू ?" त्यारे तेणीए कयु के-'हुं तो थाकी गई छु, मने ऊंघ आवे छे.' एवी रीते साधुओ पण सूत्रार्थ देवा विगेरेना कार्यमा व्यग्र होवाथी तेमने कामनो संकल्प थतो नथी. (सू० ३४३) चिकित्सको द्रव्यथी वरादि रोगो प्रत्ये अने भावथी रागादि प्रत्ये, तेमां आत्म संबंधी-वरादिनी अथवा कामादिनी KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्था बाङ्गसूत्र बानुबाद ॥ ५०७ www.kobatirth.org चिकित्सा करनार ते आत्मचिकित्सक हवे पोतानी चिकित्सा करनारने भेदथी त्रण सूत्रोवडे कहे छे' चत्तारी 'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के व्रण ( देहने विषे रुधिरादि काढवा मांटे क्षत-छिद्र) ने पोते करे छे ते व्रणकर, 'नो'व्रणने स्पर्श करतो नथी एवा स्वभाववाळो ते नोव्रणपरिमर्शी-आ एक बीजो तो बीजाए करेल व्रणने स्पर्श करे छे परंतु व्रण करतो नथी. एवी रीते अतिचार लक्षण भावत्रणने कायावडे करे छे पण ते व्रणने ज पुनः पुनः संभारवावडे स्पर्श करतो नथी, बीजो तो अतिचारने वारंवार संभारवाडे स्पर्श करे छे परंतु कायाथी अभिलापाने करतो नथी केमके संसारनो भय विगरे होय छे. (१) एक व्रण करे छे पण तेने पाटो विगेरे बांधवावडे संरक्षण करतो नथी, बीजो तो करेल व्रणनुं संरक्षण करे छे परंतु व्रणने करतो नथी. भावत्रणने आश्रयीने तो अतिचारने करे छे परंतु अनुबंधने धनारो कुशीलादिनो संसर्ग अने तेनुं निदान-मूलना परिहारथी रक्षण करतो नथी-आ एक अने बीजो तो पूर्व करेल अतिचारने निदानना परिहारथी रक्षण करे छे अने नवीन अतिचार करतो नथी. (२) औषधादिना देवावडे व्रणनो संरोह-अटकाव करतो नथी ते नोव्रणसंरोही [ अन्य औषधादिना देवावडे व्रणनो संरोह करे छे- रुझावे छे ते व्रणसंरोही ], भावत्रणनी अपेक्षाए तो प्रायश्चित्तने नहि स्वीकारवाथी व्रणसंरोही नथी, अन्य पूर्वे करेल अतिचार संबंधी प्रायश्चित्तनो स्वीकार करवावडे व्रणसंरोहीअतिचारने टाळनार छे केमके नोत्रणकर- नवीन अतिचारने करनार नथी. ( ३ ) आत्मचिकित्सको कला, हवे चिकित्सा करवा योग्य व्रणने दृष्टांतरूपे करीने पुरुषना भेदोने कहे छे' चत्तारी ' त्यादि० चार सूत्रो सुगम छे. विशेष ए केअंदर शल्य छे जेनुं अर्थात् जोवामां नहिं आवतुं ते १ अंतःशल्य. 'बाहिं सल्ले' ति० जे शल्य व्रणनी अंदर अल्प छे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ व्याधि चिकित्साचिकित्सक व्रणशल्यश्रेयः पापाख्यायका दि० सू० ३४२४४ ५०७ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अने बहार तो घणुं छे एटले अंदर अल्प अने बहार बहु शल्य छ जेनुं ते बाह्यशल्य कहेवाय छे. जो वळी सर्वथा अणथी बहार होय तो शल्यपणुं ज न होय, अथवा शल्यनो उद्धार कर्ये छते पण भूतकाळनुं शल्य भविष्यमा पण होय. जे व्रणमां अंदर घणुं शल्य छे अने बहार पण देखाय छे ते ३ उभयशल्य अने चतुर्थ भंग शन्य छ अर्थात अंतर्बाह्य शल्य नथी. (१) गुरुनी समक्ष आलोचना करवावडे अतिचाररूप अंतःशल्य छ जेने ते अंतःशल्य, आलोचना करवावडे बहार शल्य छ जेने ते २ बहिशल्य, आलोचना करवावडे अने न करवावडे अंतः अने बाह्य शल्य छ जेने ते ३ अंतःबहिशल्य, चतुर्थ भंग शून्य छ-शल्य रहित छे. (२) लूतादिरोगना दोषथी जे व्रण छे ते अंतर्दुष्ट व्रण छे-रताश विगेरेना अभावने लईने सौम्यपणुं होवाथी बाह्य दुष्ट नथी. (३) पुरुष तो शठताथी अंतरमां दुष्ट छे पण आकारने छुपाववाथी बहार दुष्ट नथी आ एक, बीजो तो कारणवशात् वचन- कठोरपणुं विगरे देखाडवाथी बहारथी दुष्ट छ (पण अंतर्दुष्ट नथी). (४) पुरुषना अधिकारथी तेना भेदोनुं प्रतिपादन करवा माटे छ सूत्रो छे अने ते सरळ छे, परंतु १ कोईएक अत्यंत प्रशस्य श्रेयानेक-प्रशंसा करवा योग्य छे-सद्बोधवाळो होवाथी प्रशस्य भाववाळो छे. वळी प्रशस्त अनुष्ठान करवाथी श्रेष्ठ छसाधुनी जेम, २ बीजो तो पूर्वनी जेम प्रशस्य भाववाळो छ पण अविरतिपणाने लईने दुष्ट अनुष्ठान करनार होवाथी अत्यंत | पापी छ.३ त्रीजो तो मिथ्यात्वादिबडे हणायेल होवाथी भावथी अत्यंत पापी छ अने कारणवशात् सारा अनुष्ठानना करनार होवाथी श्रेष्ठ छ-उदायीनृप-मारकवत्, चोथो तो ते ज नृपने मारवाथी पापनो करनारो कृत्रिम साधु. अथवा १ गृहस्थपणामां * अहिं एक भंग कह्यो, तदनुसार शेष त्रण भंग मूल अनुवादमां आपेल छे ते परथी समनी लेवा. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भीस्था-४ माङ्गसूत्र सानुवाद १५०८॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अत्यंत श्रेष्ठ के दीक्षा लेवाना समपमा, वळी प्रजम्यामां के विहारना समयमा श्रेष्ठ छे. एवो रोते अन्य ३ भांगा पण जाणवा. (१) कोईक भावथी अत्यंत श्रेष्ठ छ अने द्रव्यथी तो श्रेष्ठ अत्यंत प्रशंसा करवा योग्य छे. आवा प्रकारनी बुद्धि लोकने उत्पन्न करवावडे सदृशक-अन्य श्रेष्ठ पुरुष तुल्य छ पण सर्वथा श्रेष्ठ नबी आ एक, बीनो तो भाषयी श्रेउ छे पण द्रव्यथी अत्यंत पापी छे. आवो रीते लोकने वुद्धि उत्पन्न करवावडे अन्य पारी तुल्य छ, त्रीजो तो भावधी अत्यंत पापी छे पण द्रव्यथी आकारने छुगाववावडे बीजा श्रेष्ठ पुरुष तुल्य छ, चोथो तो सुज्ञात छे. (२) १ कोईक सवृत्तिमाळो होबाथी अत्यंत श्रेष्ठ छे अने पोताना आत्माने श्रेष्ठ माने छ. अथवा लोकोबडे श्रेष्ठ मनाय छे केम के निर्मळ मदनुष्ठानमाळो होय छे. अहिं 'मन्नि जह' त्ति वक्तव्यमा प्राकृतशैलीवडे 'मनई' एम कयु. २ बीजो अत्यंत श्रेष्ठ छे पग पोताना आत्माने विषे अरुचिपरायण होवाथी स्वात्माने अत्यंत पापी माने छे अथवा पूर्वना जाणल तेना दोषद्वारा लोकोबडे ते पापी मनाय छे-दृढप्रहारीनी जेम.त्रीजो मिथ्यात्वादिवड हणायेल होवाथी अत्यंत पापी छे पण स्वात्माने श्रेष्ठ माने छ-कुतीर्थिकनी जेम. ४ अविरतिक होवाथी अत्यंत पापी छे पण सद्बोधवाळो होबाथी स्वात्माने पापी माने छे, अयथा संपत लोकोबडे असंयत मनाय छे. ( ३)१ कोईक भावथी अत्यंत श्रेष्ठ छे अने द्रव्यथी तो किंचित् सदनुष्ठानमाळो होवायी श्रेष्ठ छ एम (लोकाने ) विकल्प उत्पन्न करवावडे बीजा अत्यंत श्रेड तुल्प मनाय छे. मनुष्यबडे श्रन्ट जगाय छ अवधा विभक्तिना परिणामथी अन्य श्रेष्ठ पुरुष समान पोताना आत्माने मान छे. एम बीजा ३ भांगा पण जागा. (४) 'आघवइत्ते'ति०१ कोईएक प्रवचननो प्ररूपक छ पण शासननो प्रभावक नबी, कारण के उदार क्रिया अने प्रतिभादिवडे KXXXXX (XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX अध्ययने उद्देशः ४ व्याधिचिकित्साचिकित्सक व्रणशल्यश्रेयः पापा ख्यायकादि० मू० ३४२ ४४ ।।५०८॥ For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रहित होय छे अथवा प्रविभाजयिता सिद्धांतना अर्थने नय अने उत्सर्गादिवडे विवेचन करनार, अथवा आख्याक - सूत्रानो कनार अने प्रविभावयिता के प्रविभाजयिता ते अर्थने कहेनार. ( ५ ) कोईएक सूत्रार्थनो कहेनार छे, परंतु उंच्छजीविकासंपन्न - एषणा माटे तत्पर नथी. ते दुर्भिक्षादि प्रसंगरूप आपत्तिमां प्राप्त थयेल साधु अथवा संविज्ञपाक्षिक छे. कधुं छे केहोज हु बसणं पत्तो, सरीर दुब्बल्याए असमत्थो । चरणकरणे असुद्धे, सुद्धं मग्गं परुवेजा ॥ १९९ ॥ कोई साधु कष्ट प्राप्त थवाथी अथवा शरीरनी दुर्बलताथी साधुना आचाररूप चरणसितरी अने करणसितरीने पालवामां असमर्थ छे तो पण शुद्ध साधुना मार्गनी प्ररूपणा करे, कारण के शुद्ध प्ररूपकनुं आराधकपणुं होय छे. ओनोऽवि विहारे, कम्मं सिढिलेइ सुलहवोही य । चरणकरणं त्रिसुद्धं उवहंतो तो ॥ २००॥ साधुना आचार पाळवामां असमर्थ छतां पण चरणकरण डे विशुद्ध साधुना मार्गनी प्रशंसा अने प्ररूपणाने करतो थको कर्मने शिथिल करे छे अने सुलभबोधि थाय छे. बीजो यथाच्छंदक, त्रीजो साधु अने चोथो गृहस्थ विगेरे. पूर्वना सूत्रमां साधुरूष पुरुषना आख्यायक अने एषणा * अहि फक्त शब्दना अर्थो कहेला ले परंतु भांगा बतावेला नथी, ते अप्रमाणे १ कोई एक सिद्धांतोप्राक छे पत्र नयादि - वडे विवेचक नथी, २ कोई एक विवेचन करनार छे पण प्ररूपक नयो, ३ कोईक उभययुक्त छे तेमज ४ उभयशून्य छे. अथवा १ कोईक सूत्रनो वक्ता छे पण अर्थनो कहेनार नथो, २ सूत्रबक्ता नवी पण अर्थने कहेनार छे, ३ उमय युक्ता छे, ४ उभयशून्य छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भीस्थानाङ्कन सानुबाद ॥५०९॥ OXXXXXXXXX ४ स्थान काध्ययने उद्देशः४ क्रियाबाद्याः मू० ३४५ rxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy शुद्धित्वरूप गुणनी विभूषा कही, हवे तेनी समानताथी वृक्षनी विभूषाने कहे छ-'चउबिहे' त्यादि० अथवा पूर्व उच्छजीविकासंपन्न साधुपुरुष कह्यो ते वैक्रिय लब्धिवाळा साधुने तथाप्रकारना प्रयोजनने विषे-वृक्षनी विकुर्वणा करनारने जे प्रकारे तेनी विकुर्वणा थाय ते कहे छ-'चउब्विहे ' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-'प्रवालतये' ति. नवीन अंकुरपणाए एवो अर्थ छे. (सू० ३४४) आ पूर्वे कहेल आख्यायक विगेरे तीथिको छ, माटे तेओर्नु स्वरूप कहे छ चत्तारि वातिसमोसरणा पं०२०-किरियावादी अकिरियावादी अन्नाणितावादी वेणतियावादी। णेरइयाणं चत्तारि वादिसमोसरणा पं० तं०-किरियावादीजाव वेणतियवादी एवमसुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं । सू० ३४५ मूलार्थ:-चार प्रकारना बादीना समवसरणो-विविध मतना मिलापो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ क्रियावादी, तेना | एक सो ऐंशी भेदो छ, २ अक्रियावादी, तेना चोराशी भेदो छे. ३ अज्ञानिकवादी, तेना सडसठ भेदो छे, ४ बैनयिकवादी, तेना वत्रीश भेदो छे. सर्व मळीने त्रण सो वेशठ भेद थाय छे. रयिकोने चार वादीना समवसरणो कहेला छे, ते आ प्रमाणेक्रियावादी यावत् बैनयिकवादी. एम असुरकुमारोना पण चार समवसरणो छे यावत् स्तनितकुमारोना पण चार छे. एवी रीते एकेंद्रिय अने विकलेंद्रियने छोडीने यावत् वैमानिकोना चार वादीना समवसरणो छे. (सू० ३४५) टीकार्थः-वादिनः-तीथिको समवतार थाय छे जेओने विषे ते समवसरणो-विविध मतना मिलापो. तेओना समवस ५०९॥ For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx रणो ते वादी समवसरणो. क्रिया-जीव, अजीवादि पदार्थ छ, आवी रीते अस्तित्वरूप क्रियाने कहे छे ते क्रियावादीओ अर्थात आस्तिको. तेओर्नु जे समवसरण ते अभेद होवाथी ते क्रियावादीओ ज कहेवाय छे. जीव, अजीवादि पदार्थथी अस्तित्वरूप क्रियाना निषेधथी अक्रियावादीओ नास्तिको छे. स्वीकारद्वाराए अज्ञान के जेओने ते अज्ञानिको, ते ज वादीओ-अज्ञानिक वादीओ अर्थात् अज्ञान ज श्रेय छे एवी प्रतिज्ञावाला छे. विनय ज वैनयिक, तेज मोक्षने माटे छे एवी रीते कहेनारा ते वैनयिकवादीओ. आ चारेना भेदोनी संख्या आ प्रमाणे जाणवी. असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसा। - क्रियावादीना १८० भेद, अक्रियावादीना ८४ भेद, अज्ञानिकवादीना ६७ भेद अने वैनयिकवादीना ३२ भेद छे. तेमां एक सो ने एंशी भेद क्रियावादीना थाय छे, ते आ उपायवडे जाणवा-जीव, अजीव, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, पुण्य, पाप अने मोक्ष-ए नव पदार्थोंने विरचीने-पद्धत्तिसर एक पाटी पर लखीने जीव पदार्थनी नीच स्व अने पर भेदो स्थापन करवा. तेनी नाँचे नित्य अने अनित्य भेदो स्थापना, तेनी पण नीचे काळ, ईश्वर, आत्म, नियति अने स्वभाव आ पांच भेदो स्थापवा. बाद आवी रीते विकल्पो करवा-'अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत:'-कालथी नित्य अने स्वतः जीव छे.आ एक विकल्प. विकल्पनो अर्थ आ प्रमाणे-आ आत्मा निश्चये पोताना रूपवडे विद्यमान छे पण परनी अपेक्षाए नहिं-*इस्त्र अने * जेम हस्वपणुं के दोघेपणुं स्वतः छे परंतु आपेक्षिक नथो. xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXXR. For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ५१० । ***** www.kobatirth.org दीर्घत्वनी जेम नित्य छे. काळवादीओनो आ विकल्प छे. कहेल अभिलापवडे ज बीजो विकल्प +ईश्वरने कारण मानवावाळा वादीओनो छे. 'पुरुष एवेदं ग्निम् ' आ बधुं य पुरुष ज छे एम स्वीकारनारा आत्मवादीओनो त्रीजो विकल्प छे. नियति, पदार्थाने अवश्यपणे जे जेम थवानुं होय तेमां प्रेरणा करनारी छे. आवो चोथो विकल्प नियतवादीओनो छे. पांचमो विकल्प *स्वभाववादीओनो छे, एवी रीते 'स्वतः ' पदने नहिं छोडवावडे पांच विकल्पो प्राप्त थाय छे तेमज [ स्वतःने बदले ] परतः आ पदवडे पण पांच ज विकल्पो प्राप्त थाय छे. तेमां परतः ए पदनो अर्थ आ प्रमाणे- अहिं बधा पदार्थोनो पररूपनी अपेक्षावाको स्वरूपनो परिच्छेद-ज्ञान छे. जेम हस्वत्वादिनी अपेक्षावाको दीर्घत्वादि परिच्छेद छे. ए प्रमाणे ज आत्मा प्रत्ये स्तंभ अने कुंभादिने जोईने तेनाथी जुदी वस्तुमां ज आत्मबुद्धि प्रवर्त्ते छे. आ हेतुथी जे आत्मानुं स्वरूप छे ते परतः ( बीजाथी ) ज निश्चय कराय छे पण स्वतः नहि. अहिं नित्य पदनो त्याग न करवावडे आ दश विकल्पो छे. एवी रीते अनित्य पदवडे पण दश विकल्पो थाय छे, एम वीश विकल्पो जीव पदार्थवडे प्राप्त थाय छे. बीजा अजीव विगेरे आठ पदाने विषे पण एवी रीते ज दरेक पदमां वीश विकल्पो थाय छे आ कारणथी वीशने नवगुणा करवाथी एक सो एंशी भेदो क्रियावादीओना थाय छे. आ विकल्पो एकेकमां शीलांग ( ना भेद ) नी जेम प्राप्त थता नथी. अक्रियावादीओना तो चोराशी भेदा जाणवा. तेनी स्थापना आ प्रमाणे- पुण्य अने पाप सिवाय शेष जीवादि सात पदार्थनो तेमज उपन्यास करवो. X काळवादीओ कहे छे के दरेक पदार्थ काळकृत छे. + सर्व पदार्थ ईश्वरकृत छे एम ईश्वरवादीओनुं कथन छे. गोशालकादि नियतवादीओ नियतिने ज कारण माने छे. * स्वभाववादीओ दरेक पदार्थ मयूरपिच्छत् स्वभावयो ज थाय छे एम माने छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *********** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ क्रिया वाद्याः सू० ३४५ । ५१० ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवपदनी नीचे स्व अन पररूप वे विकल्पनो उपन्यास करवो. आत्माना *असत्त्व ( अविद्यमानपणा ) थी नित्य अने अनित्य भेदनुं स्थापन नथी. काळ विगेरे पांच पदोने विषे छट्टी यदृच्छा स्थपाय छे. अनिच्छापूर्वक पदार्थनी प्राप्ति ते यच्छा. त्यारबाद विकल्पोनो अभिलाप आ प्रमाणे- 'नास्ति जीवः स्वतः कालतः " - जीव स्वतः अने कालतः नथी- आ एक विकल्प. एवी रीते ईश्वरादि विगेरे यदृच्छा पर्यंत पदोवडे बधा मळीने छ विकल्पो थाय छे. तथा "जीव परतः अने कालतः नथी" आ छ विकल्प, एकंदर बार विकल्पो जीव पदथी थया. एवी रीते अजीवादि शेष छ पदोने विष पण दरेकना बार विकल्पो थाय छे. एम बारने सातगुणा करवाथी चोराशी विकल्पो नास्तिकोना थाय छे. अज्ञानिकोना तो सडसठ विकल्पो थाय छे, ते आ प्रमाणे जाणवा-तेनी स्थापनामां जीव, अजीव विगेरे नव पदार्थोंने पूर्वनी माफक क्रमशः स्थापीने छेवटमा उत्पत्ति पद स्थापीने जीवादि पदनी नीचे सत् विगेरे सात पदो स्थापना, ते आ प्रमाणे- १ सत्र, २ असच्च, ३ सदसत्त्व, ४ अवाच्यत्व, ५ सदवाच्यत्व, ६ असदवाच्यत्व अने ७ सदसदवाच्यत्व, तेथी आ जीवादि नव पदने सच्च विगेरे सात पदोवडे गुणवाथी शठ विकल्पो थाय छे. उत्पत्तिना तो प्रथमना ज चार विकल्पो १ सच्च, २ असच्च, ३ सदसच अने ४ अवायत्व - आ चार विकल्पो त्रेसठ विकल्पोमा उमेरवाथी सडसठ थाय छे. विकल्पनो अभिलाप आ प्रमाणे जीव विद्यमान छे एम कोण जाणे छे ? अथवा तेने जाणवावडे शुं ? आ एक विकल्प. एवी रीते असत् विगेरे पदो पण कहेवा. वळी 'भावोनी उत्पत्ति १ छती छे एम कोण जाणे छे ? अथवा एने जाणवावडे शुं ? एवी रीते २ अछती, ३ छती- अछती अने ४ अवक्तव्य * अक्रियावादीओ आत्मानुं अस्तित्व मानता नथी तेथी नित्य-अनित्य पद स्थापन नथी. ८६ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान भीस्थानारपत्र सानुवाद EXXXX काभ्ययने उद्देशः क्रियावाद्याद्याः सू० ३४५ xxxxxxxxxxxxxxxxxxx उत्पत्ति छ एम कोण जाणे छे ? अथवा एने जाणवावडे शु? सवादि सप्तभंगीनो आ प्रमाणे अर्थ छ-१ स्वरूपमात्रनी अपेक्षाए *वस्तुनुं विद्यमानपणुं छे. २ पररूपमात्रनी अपेक्षाए +असत्व-अविद्यमानपणुं छे. ३ वळी घट विगेरे द्रव्यना एक देशरूप ग्रीवादिना सद्भावपर्यायरूप ग्रीवात्वादिवडे विशेषित घटनुं विद्यमानपणुं होवाथी तथा घटादि द्रव्यना अपर बुध्नादि देशने ज असद्भावपर्यायरूप वृत्तत्वादिवडे अथवा परगत(बीजामा रहेल) पर्यायवडे ज विशेषित घटर्नु अविद्यमानपणुं होवाथी वस्तुनुं सदसत्पणुं छ. ४ समस्त अखंडित ज घटादि वस्तुने अर्थान्तरभूत(भिन्नरूप) पटादि पर्यायोबडे अने पोताना ऊर्ध्व, कुंडल, ओष्ठ, आयत(दीर्घ), वृत्त अने ग्रीवादि पर्यायोवडे युगपत् विवक्षित वस्तुनुं सच के असचवडे कहेवा माटे Xअशक्य होवाथी ते घटादि द्रव्यनु अवक्तव्यपणुं छे. ५ सद्भावपर्यायवडे आदेश( विवक्षा) करायेल घटादि द्रव्यना एक देशनुं सत्त्व होवाथी अने अपर(बीजा) देशनुं स्व-परपर्यायोवडे युगपत् विवक्षित करवाथी सच्चवडे के असचवडे कहेवा माटे अशक्य होवाथी घटादि द्रव्यतुं सद्अवक्तव्यपणुं छे अर्थात् एक देशमां सत्पणुं छे अने अन्य देशमां अवक्तव्यपणुं छे. ६ तेज घटादि द्रव्यना एक देशनु परपर्यायवडे विशेषित करायेल घटनुं असत्पणुं होवाथी अने अपरदेशनुं स्वपरपर्यायथी युगपत् विवक्षित करवावडे तेमज कहेवाने अशक्य होवाथी ते घटादिनुं असद्अवक्तव्यपणुं छे अर्थात् एक देशमा असत्पणुं अने अन्य देशमा अव्यक्तपणुं छे. ७ घटादि द्रव्यना एक देश- स्वपर्यायोथी विशेषित करवावडे सत्त्व होवाथी अने बीजा ____ *घट वस्तु मृत्तिकादि म्वरूपवडे सत् छे. +वस्त्रादि पररूपनी अपेक्षाए घटनु असतूपणुं छे. xघटादि द्रव्यमां सत्त्व अने अमत्त्व एक समयमा विद्यमान छे अने वचनवडे एक अक्षरनो उच्चार करता असंख्य समय लागे माटे अवक्तव्य छे. kxxxxxxxxxxxxxxx ५११॥ For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देशनुं परपर्यायोथी विशेषित करवावडे असत्त्व होवाथी अने अन्य ( त्रीजा ) देशनुं स्व-परपर्यायोवडे युगपत् विशेषित घटनुं तेमज कहेवा माटे अशक्यपणाने लईने अवक्तव्य होवाथी ते घटादि द्रव्यनुं सत् असत् अवक्तव्यपणुं छे. अहिं प्रथम, द्वितीय अने चतुर्थ भंग ए त्रणे अखंडित वस्तु ( द्रव्य ) ने आश्रित छे अर्थात् सकलादेशी छे. शेष बीजो, पांचमो, छडा अने सातमो आचार भांगा वस्तुना देशने ( पर्यायने ) आश्रयवाळा कहेला छे. वळी तृतीय भंग पण अखंड वस्तुने आश्रितज छे एम अन्य आचार्योए कल छे, ते आ प्रमाणे- स्वपर्यायो अने परपर्यायोवडे विवक्षित अखंड वस्तुनुं सत् असत्पणुं छे. आ कारणथी ज आचारांगनी टीकामां कहेलं छे के अहिं उत्पत्तिने स्वीकारीने पाछला त्रण विकल्पो संभवता नथी, कारण के पदार्थना अबयवनी अपेक्षा तेमज उत्पत्तिना अवयवनो अभाव होय छे एम अज्ञानिकवादी ओना सडसठ विकल्पो थाय छे. वैनयिकोना बत्री विकल्पो थाय छे, ते आ प्रमाणे जाणवा-१ देव, २ राजा, ३ यति, ४ ज्ञाति, ५ वृद्ध, ६ अधम, ७ माता अने ८ पिता - ए दरेकनुं काया, वाणी, मन अने दानवडे देश, काळने अनुसारे विनय करवो. एवी रीते आ चार भेदो देवादि आठ स्थानाने विषे थाय छे. सर्व मेळवतां वत्रीश थाय छे. चारे वादीओनी सर्व संख्या त्रण सो त्रेशठ थाय छे. पूज्य पुरुषोए कां छे के - " नित्यानित्यात्मक आत्मादि नव पदार्थो, स्वथी अने परथी स्थापेला, काळकृत, नियतिकृत, स्वभावकृत, ईश्वरकृत अने आत्मकृत. आ प्रमाणे एक सो ऐंशी भेद आस्तिक ( क्रियावादी ) मतना थाय छे || १ || पुण्य अने पाप रहित सात पदार्थो स्वrt अने परथी स्थापला १ काळ, २ यदृच्छा. ३ नियति, ४ ईश्वर, ५ स्वभाव अने ६ आत्मकृत नथी- आ प्रमाणे नास्तिक ( अक्रियावादी ) मतना चोराशी भेद छे ||२|| सत् असत् विगेरे सात भेदथी गुणायेल जीवादि नव पदार्थो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie भीस्थानागपत्र ४ न्यानकाभ्ययने उद्देशः ४ गर्जिताविमेघपुरुषाः सू० ३४६ ॥५१२॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy अने भावनी उत्पत्तिना सत्, असत्, सदसत् अने अवक्तव्यथी कोण जाणे छे ? आ प्रमाणे अज्ञानिक वादीना सडसठ भेद थाय छे ॥ ३ ॥ सुर, नृपति, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता अने पिताने विषे मन, वचन, काया अने दानवडे विनय करवा योग्य छे. आ बैनयिकमतना बत्रीश भेद छे ॥४॥"-ए ज चार समवसरणोने चतुर्विशति दंडकने विषे निरूपण करता थका सूत्रकार कहे छे-'नेरइयाण' मित्यादि० सुगम छे. विशेष ए के-मन सहित होवाथी नारक विगरे पंचेंद्रियोमा आ चारे समवसरणो संभवे छे. 'विगलेंदियवन' ति. एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिंद्रियोने मन न होवाथी तेओने समवसरणो संभवता नथी. (सू० ३४५) पुरुषना अधिकारथी पुरुषविशेष- प्रतिपादन करवा माटे प्रायः दृष्टांत सहित तालीश पुरुषसत्राने ' चत्तारि मेहे ' त्यादि सूत्रोवडे कहे छे चत्तारि मेहा पं. तं०-गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो गजित्ता, एगे गजित्तावि वासित्तावि, एगे णो गजित्ता णो वासित्ता४ (१) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता ४ (२) चत्तारि महा पंतं.-गजित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे० ४ (३) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-गजित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता ४ (४) चत्तारि मेहा पंतं०-वासित्ता णाममेगे णो विज्जयाइत्ता ४(५) एवामेव चत्तारि (KOKAKKKKKKKKKKKXxxxxxxxxxxxx ॥ ५१२॥ For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxx पुरिसजाया पं० तं०-वासित्ता णाममेगे णो विज्जुमाइत्ता ४ (६) चत्तारि मेहा पं० तं०-कालवासी णाममेगे णो अकालवासी ४ (७) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-कालवासी णाममेगे णो अकालवासी ४ (८) चत्तारि मेहा पं० तं-खेत्तवासी णाममेगे णो अखित्तवासी ४ (९) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं. तं-खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी ४ (१०) चत्तारि मेहा पं० तं०जणतित्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता, णिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणइत्ता ४ (११) एवामेव चत्तारि अम्मापियरो पं० तं०-जणइत्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता ४ (१२) चत्तारि मेहा पं० तं०-देसवासी णाममगे णो सव्ववासी ४ (१३) एवामेव चत्तारि रायाणो पं० त०-देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती ४ (१४) सू० ३४६ मूलार्थ:-चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक मेघ गर्जारव करे छे पण वरसतो नथी, कोईक बरसे छ पण गाजतो नथी, एक गाजे छे अने वरसे छे तथा एक गाजतो नथी ने वरसतो पण नथी. (१) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष दानादि कार्यमां गाजे छे-मोटे सादे प्रतिज्ञा करे छे पण दानादि कार्य करतो नथी, २ चीजो दानादि कार्य करे छे पण गाजतो नथी-प्रतिज्ञा करतो नथी, ३ त्रीजो प्रतिज्ञा करे छे अने कार्य पण करे xxxxxxxxxxxxxx XXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie नाङ्गस्त्र 8 यानुवाद | ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ गर्जितादिमेघपुरुषाः छे अने ४ चोथो बन्ने करतो नथी. (२) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक मेघ गाजे छ पण वीजळी करतो | नी, २ वीजळी करे छे पण गाजतो नथी, ३ बन्ने करे छे अने ४ बन्ने करतो नथी. (३) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष प्रतिज्ञा करे छे पण आडंबर करतो नथी, २ आडंबर करे छ पण प्रतिज्ञा करतो नथी, ३ बन्ने करे छ अने ४ बन्ने करतो नथी. (४) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ एक मेघ बरसे छे पण वीजळी करतो नथी, २ एक वीजळी करे छे पण बरसतो नथी, ३ एक उभय करे छे अने एक उभय करतो नथी. (५) ए दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष दानादि कार्य करे छे पण आडंबर करतो नथी, २ कोईक आडंबर करे छे पण दानादि करतो नथी, ३ कोईक उभय करे छ अने ४ कोईक उभय करतो नथी. (६) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मेघ योग्य अवसरे वरसे छे पण अकाळे वरसतो नथी. २ अकाळे वरसे छे पण काळे वरसतो नथी, ३ काळे अने अकाळे बरसे छे अने ४ काळे के अकाळे वरसतो नथी. (७) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष योग्य समये दानादि कार्य करे छे पण अयोग्य समये करतो नथी, २ अयोग्य समये दानादि करे छे पण योग्य समये करतो नथी, ३ योग्य अने अयोग्य समये दानादि करे छ तथा ४ योग्य के अयोग्य समये दानादि करतो नथी. (८) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मेघ धान्यादिना उत्पत्तिस्थानरूप क्षेत्रमा वरसे छे पण अक्षेत्र-रणभृमिमां बरसतो नथी, २ कोईक रणभूमिमां बरसे छे पण क्षेत्रमा वरसतो नथी, ३ बन्नेमां बरसे छे अने ४ क्षेत्र के अक्षेत्रमा वरसतो नथी, (९) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष पात्रमा RRRRR x॥५१३॥ For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दानादि आये छे पण कुपात्रने विषे दानादि आपतो नथी, २ कुपात्रमां आवे छे पण पात्रमां देतो नथी, ३ बनेमां आवे छे अने ४ बन्नेमा आपतो नथी. (१०) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक मेघ धान्यना अंकुरादिने उत्पन्न करे छे पण संपूर्ण धान्यने निष्पन्न करतो नथी, २ कोईक मेघ संपूर्ण धान्यने निष्पन्न करे छे पण प्रथमथी धान्यना अंकुरादिने उत्पन्न करतो नथी, ३ कोईक बनेने करे छे अने ४ कोईक बन्नेने करतो नथी. (११) ए दृष्टांते चार प्रकारना मातपिता कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक मातपिता पुत्रने जन्म आपे छे पण पालन करता नथी, २ कोईक पालन करे छे पण जन्म आपता नथी, ३ कोईक जन्म आपे छे अने पाछे छे अने ४ कोईक जन्म आपता नथी अने पाळता नथी. ( १२ ) चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक मेघ एक विभाग ( खंड ) मां वरसे छे पण सर्वत्र वरसतो नथी, २ कोईक सर्वत्र बरसे छे पण विभागमां वरसतो नथी, ३ कोईक विभागमां अने सर्वत्र वरसे छे अने ४ कोईक विभागमां के सर्वत्र बरसतो नथी. (१३) ए दृष्टांते चार प्रकारना राजाओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ कोईक राजा अमुक क्षेत्रना देश-विभागनो अधिपति छे पण सर्वनो अधिपति नथी- ते पल्लीपति विगेरे, २ कोईक राजा सर्वनो अधिपति छे पण पल्ली विगेरे देश ( विभाग ) नो अधिपति नथी, ३ कोईक उभयनो अधिपति छे ते चक्रवर्ती विगेरे अने ४ कोईक उभयनो अधिपति नथी ते राज्यथी भ्रष्ट थयेल समजवो. (१४ ) ( सू० ३४६ ) टीकार्थ :- सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के- मेघाः- वरसादो गर्जारव करे छे पण वृष्टि करता नथी. ( १ ) एम कोईक पुरुष गर्जनारनी जेम गर्जारवने करे छे अर्थात् दान, ज्ञान, व्याख्यान, अनुष्ठान अने शत्रुनो निग्रह विगेरे विषयमां शब्दवडे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ५१४ ।। www.kobatirth.org महाप्रतिज्ञा करे पण मेघनी जेम वरसनार नहि अर्थात स्वीकारेल कार्यनो संपादक नहि, बीजो कार्यनो करनार छे पण शब्दधी प्रतिज्ञा करता नथी. एवी रीते बीजो अने चोथो भांगो जाणवो. ( २ ) ' विज्जुयाइत्त ' ति० वीजळीनो करनार. (३) एम कोईक पुरुष पण शब्दवडे प्रतिज्ञानो करनार छे पण वीजळी करनार मेघनी जेम दानादि प्रतिज्ञात कार्यना आरंभनो आडंबर करनार नथी, बीजो तो आडंबर करनार छे पण प्रतिज्ञा करनार नथी. एम शेप त्रीजो तथा चौथो चंने भांगा पण समजवा. ( ४ ) कोईक दानादिवडे वरसनार छे पण दानादिना आरंभनो आडंबर करनार नथी. बीजो तो आडंबर करनार छे पण दानादि करतो नथी. श्रीजी बने करे छे अने चोथो कई पण करतो नथी. (५-६ ) कालवर्षी अवसरे बरसनार, एम अन्य त्रण भांगा जाणवा. ( ७ ) पुरुष तो अवसरे वरसनार ( मेघ )नी जेम अवसरे दान अने व्याख्यानादिवडे प्रवृत्ति करनार आ एक, बीजो तो आधी विपरीत, एम शेष ने मांगा जागवा. ( ८ ) क्षेत्र - धान्यादिनुं उत्पत्तिस्थान. ९ ) पुरुष तो क्षेत्रमां वर्षनारनी जेम पात्रने विप दान अने श्रुतादिनो निक्षेपक (वाचनार) - आ एक, बीजो आर्थी विपरीत, त्रीजो तथाप्रकारना विवेकनी विकळताने लईने अतिशय उदारताथी अथवा शासननी प्रभावना विगेरे कारणथी उभय स्वरूपपात्र तथा कुपात्रने आपनार अने चौथो तो दानादि कार्यने विष प्रवृत्ति नहि करनार ( कृपणादि ) (१०) जनयिता - जे मेघ वृष्टिवडे धान्यने अंकुरादिरूपे उत्पन्न करे छे अने निम्मापयिता तो जे मेघ वृष्टिवडे ज सफळपणाने प्राप्त करे छे. (११) एवी रीते माता, पिता पण प्रसिद्ध छे. एम आचार्य पण शिष्य प्रत्ये जोडवा योग्य छे. ( १२ ) विवक्षित भरत विगेरे क्षेत्रना अथवा प्रावृट् विगेरे काळना देश-विभागमां अने पोताना ( मेघना ) देशवडे जे वर्षे छे ते देशवर्षी, जे मेघ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ गर्जितादि मेघपुरुषा सू० ३४६ ।। ५१४ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx सर्व क्षेत्र अने प्रावृट् विगैरे सर्व काळमां अथवा सर्वात्मवडे वर्षे छे ते सर्ववर्षी, वीजा भांगाना विकल्पो आ प्रमाणेक्षेत्रथी देशमा अने काळथी सर्वत्र वर्ष छे १, क्षेत्रथी देशमा अने पोताथी सर्वात्मवडे वर्षे छे २, काळयी देशमा अने क्षेत्रथी सर्वत्र ३, काळथी देशमा अने पोताथी सर्वात्मवडे ४, अथवा पोताथी देशवडे अने क्षेत्रथी सर्वत्र ५, पोताथी देशवडे अने काळथी सर्वत्र ६, क्षेत्र अने काळथी देशमां अने पोताथी सर्वत्र ७, क्षेत्रथी देशमा. पोताथी देशवडे अने काळथी सर्वत्र ८, काळथी देशमां, पोताथी देशवडे अने क्षेत्रथी सर्वत्र ९-आ उक्त नव विकल्पोबडे जे मेघ वर्ष छे ते देशवर्षी अने सर्ववर्षी छे. चोथो भांगो सुज्ञात छे. (१३)१ राजा तो मेघनी जेम विवक्षित क्षेत्रमा ज योगक्षेम करवा समर्थ छे ते देशाधिपति परंतु सर्वाधिपति नहिते पल्लापति विगेरे. २ जे राजा पल्ली विगरे विभागमां समर्थ थतो नथी, बीजे स्थळे तो सर्वत्र समर्थ छे ते सर्वाधिपति परंतु देशाधिपति नथी ३, जे बन्ने स्थलनो अधिपति छ अथवा देशाधिपति थईने जे सर्वाधिपति थाय छे ते वासुदेवादिनी माफक देशाधिपति अने सर्वाधिपति होय छे. चोथो पुरुष राज्यभ्रष्ट जाणवो. चत्तारि मेहा पं० तं०-पुक्खलसंवद्वते पज्जुन्ने जीमूते जिम्हे, पुक्खलवट्टए णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससहस्साई भावेति, पज्जुन्ने णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वाससयाई भावेति, जीमूतेणं महामेहे एगणं वासेणं दसवासाई भावति, जिम्हे णं महामेहे बहहिं वासेहिं एगं वासं भावेति वा ण वा भावेइ ४ (१५) सू. ३४७. चत्तारी करंडगा पं००-सोवागकरंडते वेसिता KoxxxoKKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था- करंडते गाहावतिकरंडते रायकरंडते ४ (१६) एवामेव चत्तारि आयरिया पं० २०-सोवागकरंडग- स्थान नाङ्गमत्र समाणे वेसिताकरंडगसमाणे गाहावइकरंडगसमाणे रायकरंडगसमाणे ४ (१७) सू० ३४८, अध्ययने सानुवाद उद्देशः ४ चत्तारि रुक्खा पं० २०-साले नाममेगे सालपरियाते साले नाममेगे एरंडपरियाए एरंडे ४ (१८) ॥५१५॥ पुष्करसंवएवामेव चत्तारि आयरिया पं० तं०-साले णाममेगे सालपरितात साले णाममेगे एरंडपरियाते एरंडे द्या मेघणाममेगे ४ (१९) चत्तारि रुक्खा पं० सं०-साले णाममेगे सालपरिवारे ४ (२०) एवामेव चत्तारि पुरुषाः, क रण्डकपुरुआयरिया पं० तं०-साले णाममेगे सालपरिवारे०४ (२१) सालदुममज्झयारे, जह साले णाम पा वृक्षहोइ दुमराया । इय सुंदरआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥१॥ एरंडमज्झयारे, जह साले णाम मत्स्यगोल पकटाः च| होइ दुमराया। इय सुंदरआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥२॥ सालदुममज्झयारे, एरंडे णाम तुष्पदाद्याः होति दुमराया । इय मंगुलआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयवे ॥३॥ एरंडमज्झयारे, एरंडे णाम पक्षिभिर् * निष्कृष्टा* होइ दुमराया। इय मंगुलआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥ ४ ॥ चत्तारि मच्छा पं० २०-अणु| सोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी मज्झचारी ४ (२२) एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० तं-अणु-२३४७-५२ KOKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxXox) For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी मज्झचारी ४ (२३) चत्तारी गोला पं० तं०- मधुसित्थगोले जउगोले दारुगोले महियागोले ४ (२४) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - मधुसित्थगोलसमाणे ४ (२५) चत्तारि गोला पं० तं० - अयगोले तउगोले तंबगोले सीसगोले ४ (२६) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - अयगोलसमाणे जाव सीसगोलसमाणे (२७) चत्तारि गोला पं० तं० - हिरण्ण गोले सुवन्नगोले रयणगोले वयरगोले (२८) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं हिरण्णगोलसमा जाव वइरगोलसमाणे (२९) चत्तारि पत्ता पं० तं०- असिपत्ते करपत्ते खुरपत्ते कलंबचीरितापत्ते (३०) एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-असिपत्तसमाणे जाव कलंबचीरीयापत्तसमाणे (३१) चत्तारि कडा पं० तं० - सुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंबलकडे (३२) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - सुबकडसमाणे जाव कंबलकडसमाणे ( ३३ ) सू० ३४९, चउठिवहा चउप्पया पं० तं०- एगखुरा दुखुरा गंडीपदा सणप्फदा (३४) चउव्विहा पक्खी पं० तं० - चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी (३५) चउव्विहा खड्डपाणा पं० तं० - बेइंदिया तेइंदिया For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ५१६ ।। www.kobatirth.org चाउरिंदिया संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया (३६) सू० ३५०, चत्तारि पक्खी पं० तं० - णिवत्तिता णाममेगे नो परिवर्तित्ता परिवइत्ता नाममेगे नो निवइत्ता एगे निवतित्तावि परिवतित्तावि, एगे नो निवतित्ता नो परिवतित्ता (३७) एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० तं णिवतित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता (३८) सू० ३५१, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - णिक्कट्ठे णाममेगे णिक्कट्ठे निक्कट्ठे नाममेगे अणिक्कट्टे (३९) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - णिक्कट्टे णाममेगे णिक्कट्टप्पा णिक्कठे नाममेगे अनिक्कट्टप्पा (४०) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- बुहे नाममेगे बुहे, बुहे नाममेगे अबुहे ( ४१ ) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - बुधे नाममेगे बुधहियए ४ (४२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०आयाणुकंपते णाममेगे नो पराणुकंपते ४ (४३) सू० ३५२ मूलार्थ:- चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ पुष्कलसंवर्त्तक, २ पर्यन्य, ३ जीमूत अने ४ जिम्ह. १ पुष्कलसंवर्त्तक नामनो महामेघ एक वृष्टिवडे दश हजार वर्ष पर्यंत भूमिने उदकना चीकाशवाळी करे छे अर्थात् धान्यादि उत्पन्न करवाने समर्थ करे छे. आ मेघ शीतळनाथ प्रभु सुधी वरसेल हे. २ पर्यन्य नामनो महामेघ एक वृष्टिवडे एक हजार वर्ष पर्यंत भूमिने उदकना चीकाशवाळी करे छे. आ मेघ शांतिनाथ प्रभु पर्यंत वरसेल छे. ३ जीमूत नामनो महामेघ एक दृष्टि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ पुष्कर संव तांद्या मेन पुरुषाः, कर ण्डकपुरुषाः वृक्ष-मत्स्थ गोलपक टाः चतुष्प दाद्याः पक्षिभिक्षू निष्कृष्टा द्याः सू० ३४७-५२ ॥ ५१६ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandie KAKKAKKAKKKKKKAKKKAKKAKKAKKK बडे दश वर्ष पर्यत भूमिने चीकाशवाळी करे छे. आ मेघ महावीर प्रभु पर्यंत वरसेल छे अने ४ जिम्ह नामनो महामेघ घणी वखत दृष्टिबडे एक वर्ष पर्यत भूमिने चीकाशवाळी करे छे अथवा न पण करे. (१५) (सू० ३४७) चार प्रकारना करंडीआ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ चांडालनो करंडक-प्रायः चामडाथी भरेल होय, २ वेश्यानो करंडक-ते लाख सहित सोनाना घरेणा विगेरेथी भरेल होय, ३ गृहपति एटले श्रीमंत कौटुंबिकनो करंडक-उत्तम सुवर्णमणिना आभूषणथी भरेल होय अने ४ राजानो करंडक-अमूल्य रत्नोथी भरेल होय. (१६) ए दृष्टांत चार प्रकारना आचार्यों कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ चांडालना करंडक समान आचार्य, लोकरंजन करनार शाखने धारण करनार तेमज विशिष्ट क्रियाविकळ होय, आ अत्यंत असार छ. २ वेश्यान करंडक समान आचार्य, किंचित् शाखने दुःखबडे भणेल पण वचनना आडंबरवडे भोळा लोकोने खेंचनार होय, ३ गृहपतिना करंडक समान आचार्य, स्वसमय अने परसमयना जाणनार तथा क्रियायुक्त होवाथी सारभूत छे अने ४ राजाना करंडक समान आचार्य, समस्त आचार्यना गुणयुक्त सुधर्मास्वामीनी जेवा अत्यंत सारभूत छे. (१७) (सू० ३४८) चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक वृक्ष शाल नामे छे अने शालना पर्यायवाळो-घणी छाया विगेरे गुणयुक्त छे, २ कोईक वृक्ष शाल नामे छे पण एरंडना पर्यायवाळो-अल्प छायादि गुणयुक्त छे, ३ कोइक वृक्ष एरंड नामे छे पण शालना पर्यायवाळोघणी छायादि गुणयुक्त छे, ४ कोईक वृक्ष एरंड नामे छे अने एरंडना पर्यायवाळो-अल्प छायादि गुणयुक्त छे. (१८) ए दृष्टांते चार प्रकारना आचार्यो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक आचार्य जातिथी शाल-सुकुलीन अने सद्गुरुना कुलवाळा अने शालपर्याय-ज्ञानक्रियादि गुणयुक्त छ, २ कोईक आचार्य जातिथी शाल पण एरंडपर्याय-ज्ञानादि गुणथी हीन छे, ३ कोईक xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काध्ययने भीस्थानागपत्र सानुबाद ॥ ५१७॥ XxxxxxxXKXXXXXXXXXXXXXXXXX आचार्य जातिथी एरंड-हीन कुलवाळो पण शालपर्याय-ज्ञानादि गुणयुक्त छे अने ४ कोईक आचार्य एरंड-जातिथी हीन कुल- |४४ स्थान वाळो अने एरंडपर्याय-ज्ञानादि गुणथी हीन छे. (१९) चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक * वृक्ष शाल नामर्नु अने शाल परिवारवाळु छे, २ कोईक शालनामा अने एरंडना परिवारवालु छ, ३ कोईक एरंड. उदेशः १ नामा अने शालना परिवारवाळू तथा ४ कोईक वृक्ष एरंड नामर्नु अने एरंडना परिवारवाल्लु छे. (२०) आ पुष्करसंव ताद्या मेघदृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक आचार्य शाल समान उत्तम गुणयुक्त छे अने शाल परिवार पुरुषाः,करउत्तम गुणयुक्त परिवारवाळा छे. ए प्रमाणे चतुभंगी जाणवी. (२०) आ संबंधमां चार गाथाओनो अर्थ आ प्रमाणे छ-"शालवृक्षो. ण्डकपुरुषाः ना मध्यमां जेम शाल नामनुं वृक्ष, वृक्षोनो राजा होय छे तेम उत्तम आचार्य, सुंदर शिष्योवडे राजा समान जाणवा अर्थात् वृक्ष-मत्स्यसुधर्मास्वामी जेवा स्वयं आचार्य पण उत्तम अने जंबूस्वामी विगरे उत्तम परिवार जाणवो॥१॥ एरंड वृक्षोनी मध्यमां गोलपकटा: जेम शाल वृक्षोनो राजा होय छे तेम असुंदर शिष्योना मध्यमां सुंदर आचार्य होय छे. जेम स्वयं गर्गाचार्य उत्तम अने तेनो चतुष्पपरिवार असुंदर हतो ॥ २ ॥ शाल वृक्षोनी मध्यमां जेम एरंड वृक्षोनो राजा होय छे तेम सुंदर शिष्योनी मध्यमां असुंदर दाद्याः आचार्य होय छे. जेम अभव्य अंगारमर्दक आचार्य उत्तम पांच सो शिष्योना परिवारवाळा हता ॥३॥ एरंड वृक्षोनी पक्षिभिर् निष्कृष्टामध्यम जेम एरंड वृक्षोनो राजा होय तेम असुंदर शिष्योनी मध्यमा असुंदर आचार्य जाणवो ॥४॥" चार प्रकारना द्या:सू० मच्छो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मच्छ अनुश्रोतचारी-नदीना प्रवाह प्रमाणे चाले छे, २ कोईक मच्छ प्रतिश्रोतचारी- ३४७-५२ | प्रवाहनी सामे चाले छे. ३ कोईक मच्छ प्रवाहना तीरमा चाले छे अने ४ कोईक मच्छ प्रवाहना मध्यमां चाले छे. (२२)ए IXM७॥ xxxxx For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx दृष्टांत चार प्रकारना अभिग्रहधारी साधुओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक साधु उपाश्रयी आरंभीने क्रमशः भिक्षाटन करे छे ते अनुश्रोतचारी, २ कोईक साधु अमुक गृहस्थना घरथी आरंभीने उपाश्रय प्रत्ये आवे छे ते प्रतिश्रोतचारी. ३ कोईक साधु छेल्ला घरोने विषे भिक्षाटन करे छे ते अंतचारी अने ४ कोईक साधु मध्य भागना घरौने विष भिक्षाटन करे छे ते मध्यचारी. (२३) चार प्रकारना गोळा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ मीणनो गोळो, २ लाखनो गोळो. ३ काष्ठनो गोळो अने ४ माटीनो गोळो. (२४) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष मीणना गोळा समान कोमळ होय छे, २ कोईक लाखना गोळा समान कंईक कठण होय छे, ३ कोईक काष्ठना गोळा समान विशेष कठण होय छे अने ४ कोईक पुरुष माटीना (पत्थरना) गोळा समान परिषहादि सहन करवामां अत्यंत कठण होय छे. (२५) चार प्रकारना गोळा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ लोढानो गोळो, २ पु-कलईनो गोळो, ३ त्रांबानो गोळो अने ४ सीसानो गोळो. (२६) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ लोढाना गोळा समान, २ कलईना गोळा समान, ३ त्रांबाना गोळा समान अने ४ सीसाना गोळा समान. क्रमशः अधिक भारे होय छे. (२७) चार प्रकारना गोळा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ रूपानोगोळो, २ सोनानो गोळो, ३ रत्ननो गोळो अने ४ हीरानो गोळो. (२८) ए दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ रूपाना गोळा समान, २ सोनाना गोळा समान, ३ रत्नना गोळा समान अने ४ हीराना गोळा समान. क्रमशः आ सर्व ज्ञानादि गुणवडे श्रेष्ठ छे.(२९) चार प्रकारना पत्र-[पांदडांनी जेम झीणी धार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ तरवारनी धार,२ करवतनी धार, ३ क्षुर-सजायानी धार अने ४ कदंबचीरिका-शस्त्रविशेषनी धार. (३०) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीस्थानागपत्र मानुवाद ॥५१८ ॥ KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ते आ प्रमाण-१ असिपत्र समान यावत् ४ कदंबचीरिका पत्र (धार) समान,स्नेहपासने छेदवामां समर्थ छे. (३१) चार प्रकारना ४ स्थान कट पाथरवानी वस्तुविशेष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ सुच-तृणविशेषथी बांधेल कट( सादडी ), २ वासनी सळीओथी काध्ययने गुंथल कट, ३ चामडाथी गुंथेल कट अने ४ कंबलकट. (३२) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते उद्देशः४ पुष्करसंवआ प्रमाणे-सुंच कट समान यावत् कंबलकट समान-गुरु विगरेमां अल्प, विशेष, विशेषतर अने विशेषतम प्रतिबंध ाद्या मेघ(राग)वाळा छे. (मू० ३४९) चार प्रकारना चतुष्पदो ( चोपगा पशु) कहेला छे. ते आ प्रमाणे-१ एक खुरवाळा पुरुषाः करते अश्वादि, २ बे खुरवाळा ते गाय प्रमुख, ३ गंडीपदा-एरणना जेवा पगवाळा ते हाथी प्रमुख अने ४ सनखपदा- ण्डकपुरुषाः न्होरवाळा--सिंह विगेरे. (३४) चार प्रकारना पक्षीओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ चर्मपक्षी-चामडानी पांखवाळा-ते | वृक्ष-मत्स्यवागोळ प्रमुख, २ लोमपक्षी-रुंवाळानी पांखवाळा-हंस प्रमुख, ३ समुद्गकपक्षी-बीडायेली पांखवाळा, ४ विततपक्षी गोलपकमोकळी (खुल्ली) पांखवाळा. त्रीजा तथा चोथा प्रकारना पक्षी अढी द्वीपनी बहार छे. (३५) चार प्रकारना क्षुद्र प्राणीओ Xटाः चतुष्प. कहेला छे, ते आ प्रमाणे-बेइंद्रियो, तेइंद्रियो, चौरिंद्रियो अने संमूच्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिको. (३६) (स०३१०) चार प्रकारना दाद्या पक्षिमिथू पक्षी कहला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पक्षी माळाथी बहार नीकळे छे पण फरवाने समर्थ नथी, २ कोई क फरवाने समये छे पण माळाथी बहार नीकळतुं नथी, ३ कोईक बहार नीकळे छे अने फरे पण छे अने ४ कोईक बहार नी कळतुं नथी अने द्याः सू० फरतुं पण नथी. (३७) आ दृष्टांते चार प्रकारना साधुओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ काईक साधु भिक्षा माटेनीकळे ||३४७-५२ छे पण फरता नथी,२ कोईक साधु फरवाने समर्थ छ पण भिक्षा माटे नीकळता नथी, ३ कोईकनीकळे छे अने फरे छे Exxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx निष्कृष्टा XXXXOoxxx For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir xxxxxxxxxxxxxxxxXXXKKKKXxxxxxxx अने ४ कोईक भिक्षा माटे नीकळता नथी ने फरता नथी. (३८)(२०३५१) चार प्रकारना पुरुषा कहेला छे, ते आ प्रमाणे१ कोईक पुरुष तपथी प्रथम कृश शरीरवाळो छे पण पछी तप करवाथी कृश शरीरवाळो छ, २ कोईक प्रथम स्थूल शरीरवाळो छे पण पछीथी तपवडे कृश शरीरवाळो छ, ३ कोईक प्रथम कृश शरीरवाळो छ पण पछीथी स्थूल शरीरवाळो छ अने ४ कोईक प्रथमथी स्थूल शरीरवाळो अने पछीथी पण स्थूल शरीरवाळो छे. (३९) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष कश शरीरवाळो छ अने कश-आत्मा-पातळा कपायवाळो छ,२ कोईक कृश शरीरवाळो छ पण स्थल आस्मा-बहुल कपायवाळो छे,३ कोईक स्थूल शरीरवाळो छ पण कृशआत्मा-पातला कषायवाळो छे.४ कोईक स्थूल शरीरवाळो अने स्थूलआत्मा-बहुलकषाय| वाळो छे (४०) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष बुध-सतक्रियावाळी अने विवेकवाळो छ,२ कोईक सक्रियावाळो छ पण विवेकवाळो नथी,३ कोईक सक्रियावालो नथी अने विवेकवाळो छ अने ४ सक्रियावाळो नथी अने विवेकवाळो पण नथी. (४१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष बुध-शास्त्रज्ञ छे अने बुधहृदय-कार्यमा चतुर छे, २ कोईक शास्त्रज्ञ छे पण कार्यमां चतुर नथी, ३ कोईक शास्त्रज्ञ नथी पण कार्यमां चतुर छे अने ४ शास्त्रज्ञ नथी अने कार्यमा चतुर पण नथी. (४२) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष पोतानी अनुकंपानो करनार छे परंतु बीजानी अनुकंपानो करनार नथी ते प्रत्येकबुद्धादि, २ कोईक बीजानी अनुकंपानो करनार छे पण पोतानी अनुकंपा करतो नथी ते तीर्थकरादि, ३ कोईक बन्नेनी अनुकंपानो करनार ते स्थविरकल्पी, ४ कोईक बनेनी अनुकंपानो करनार नथी ते कालसौकरिकादि. (४३) (५० ३५२) MOXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXMARI For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीस्था सानुवाद ॥५१९॥ xण्डकपुरुषाः XXXXXXXXXXXXXXXXX KXXXXXXXXXXXXXX टीकार्थः-'पुक्खले। त्यादि. 'एगेणं वासेणं' ति० एक वृष्टिवडे भावित करे छ-उदकना स्नेह( चीकाश )वाळी भूमिने करे छे अर्थात् धान्य विगेरेने उत्पन्न करवामां सामर्थ्यवाळी करे छे. जिम्ह मेघ तो घणा वखत वरसवावडे काध्ययने एक वर्ष पर्यंत भूमिने भावित-चीकाशवाळी करे के अथवा तेना जलनुं रूक्षपणुं होवाथी रसवाळी करतो नथी. आ वर्णन पछी ४ उद्देशः ४ पुरुषना अधिकारथी मेघना अनुसारे पुरुषो पुष्कलावत विगेरेनी समान जाणवा. तेमां एक ज वखतना उपदेशवडे अथवा दानवडे पुष्करसंव xद्या मेघचिरकाल पर्यंत प्राणीने शुभ स्वभाववाळो अथवा समृद्धिवाळो जे करे छे ते आद्य मेघ(पुष्कळावर्त) समान जाणवो, एवीरीते अल्पतर xपुरुषाः.करअने अल्पतम काळनी अपेक्षाए क्रमशः द्वितीय अने तृतीय मेघ समान छे. अनेक वखत उपदेशादिवडे प्राणीने अल्प काळ पर्यंत उपकारने करतो थको अथवा न करतो थको चतुर्थ मेघ समान छे. (१५) करंडक-वस्त्र अने आभरण विगेरे राखबार्नु स्थान, वृक्ष-मत्स्यते लोकमां प्रसिद्ध छे. १ श्वपाक-चांडालनो करंडक, ते प्रायः चामडाने संस्कारवाना उपकरणरूप वधादि चाशना स्थानवडे * गोलपकअत्यंत असार होय छे. २ वेश्यानो करंडक तो लाखवडे पूरित सोनाना आभरण विगेरेनुं स्थान होवाथी किंचित् प्रथम कर- Xटा: चतुष्पडकथी सारभृत छतां कहेवामां आवनार त्रीजा तथा चोथा करंडकनी अपेक्षाए असार छे. ३ गृहपति-श्रीमंत कौटुंबिकनो करंडक, ते विशिष्ट मणि अने सुवर्णना आभरणादि युक्त होवाथी सारतर छ. ४ राजकरंडक तो अमूल्य रत्नादिना भाजनपणाथी सार पक्षिभिक्षु निष्कृष्टातम छे. (१६) एवी रीते जे आचार्य षट्प्रज्ञक गाथादिरूप सूत्रधारी अने विशिष्ट क्रियाथी हीन छे ते प्रथम करंडक समान * द्याः सू० छे, कारण के ते अत्यंत असार होय छे. बीजो जे दुःखपूर्वक श्रुतना लवलेशने भणेल छे पण वचनना आडंबरवडे मुग्ध लोकोने ३४७-५२ | आकर्षे छे-रंजित करे छे ते परीक्षामां समर्थ न होवार्थी असारपणाने लईने द्वितीय करंडक समान छेजे आचार्य स्वसमय दाद्याः For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अने परसमयने जाणनार तथा क्रियादि गुणयुक्त छे ते सारतर होवाथी त्रीजा करंडक समान छे अने जे आचार्य समस्त आचार्यना (छत्रीश छत्रीशी) गुणोथी युक्त तीर्थकर सदृश छे ते चतुर्थ करडंक समान छे-सुधर्मादिवत् सारतम होवाथी. (१७) कोईक शाळ नामना वृक्षनी जातियुक्त होवाथी शाल छे अने शालना ज पर्यायो-बहुलछायापणुं, सेववापणुं विगेरे धर्मों छे जेने ते शालपर्याय-आ एक, कोईक नामथी पूर्ववत् शाल पण एरंडनाज पर्यायो-अबहुल (अल्प छाया पणु, अमेववा योग्यपणुं विगेरे धर्मों के जेने ते एरंडपर्याय-आ बीजो, कोईक एरंडनामा वृक्षनी जातिवाळो होवाथी एरंड नाननो छे पण शालपर्याय-बहुलछायात्व विगेरे धर्मयुक्त होय छे आ बीजो, कोईक एरंडनामा वृक्ष पूर्ववत् अने एरंडपर्याय -अल्प छायापणुं विगरे एरंडना धर्मयुक्त होय छे-आ चतुर्थ. (१८) आचार्य तो शालनी जेम शाल जातिवाळो छ सेम आचार्य पण सुकुलीन अने सद्गुरुकुलवाळो छे ते शाल ज कहेबाय छे. तथा शालपर्याय-शालना धर्मवाळो छे. जेम शाल छाया विगेरे धर्म सहित छ तेम जे आचार्य ज्ञान अने क्रियाथी थयेल यशः विगेरे गुणोयुक्त होय छे ते शालपर्याय कहेवाय छे-आ एक, तथा एक आचार्य पूर्ववत् शाल छे अने पूर्वोक्तथी विपरीत होवाथी एरंडपर्यायवाळो छे-आ बीजो. तृतीय अने चतुर्थ भंग पण एवी रीते समजवा. (१९) तथा पूर्व प्रमाणे ज शाल अने शालरूप ज परिवार छ जेनो ते शालपरिवार, एवी रीते शेष त्रण भंग जाणवा. (२०) आचार्य तो शालनी जेम गुरुकुल अने श्रुतादिवडे उत्तम होवाथी शाल छ अने शाल समान महानुभाव साधुना परिवारथी शाल परिवारवाळो छ, तथा (बीजो) एरंड तुल्य निर्गुण साधुना परिवारथी एरंड परिवारवाळो छे तथा त्रीजो श्रुतादिवडे हीनपणाथी आचार्य एरंड जेबो छे अने चोथो तो सुज्ञात छे. उक्त चतुर्भगीवडे ज भावना माटे XXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था नानपत्र Kxxxxxxxxxxx पानुवाद ॥५२०॥ 'सालदुमे' इत्यादि० गाथाचतुष्क छे. ते सुगम छे. विशेष एके-मंगुल-असुंदर (२१), अनुश्रोतवडे जे चाले छे ते अनु । स्थान श्रोतचारी-नदी विगेरेना प्रवाहमां गमन करनार, एवी रीते बीजा भांगा जाणवा. (२२) एम भिक्षाक-१ जे साधु अभिग्रह अध्ययने उद्देशः४ लईने उपाश्रयना समीपथी क्रमवडे कुलोने विषे भिक्षा करे छे ते अनुश्रोतचारी मत्स्यनी जेम अनुश्रोतचारी छे. २ जे साधु पुष्करसंकक्रमवडे अन्य घरोने विषे भिक्षा करतो थको उपाश्रयमां आवे छे ते बीजो.३जे साधु क्षेत्रना अंत-ठेल्ला घरोने विषे भिक्षा करे छे द्या मेघते त्रीजो अने ४ क्षेत्रना मध्यमां जे भिक्षा करे छे ते चाथो. (२३) मधुसित्थु-मीणनो गोळो-गोळाकार पिंड ते मधुसित्थु गोळो. पुरुषाः,करएम बीजा पण गोळा जाणवा. विशेष ए के-जतु-लाख, काष्ठ अने माटी प्रसिद्ध छे. (२४) जेम ए गोळाओ मृदु, कठिन, कठिन- *ण्ड कपुरुषाः तर अने कठिनतम क्रमवडे होय छ तेम जे पुरुषो परिषह विगेरेमां मृदु, दृढ, दृढतर अने दृढतम सत्यवाळा होय छे ते मधुसित्थु X] वृक्ष-म विगेरे गोळा समान कथनवडे कहेला छे. (२५) लोढाना गोळा प्रमुख प्रसिद्ध छे. (२६) आ लोढाना गोळा विगेरेना क्रमबडे गुरू स्य-गोल ( भारी), गुरूतर, गुरूतम अने अत्यंत गुरूवडे जे पुरुषो आरंभादि विविध प्रवृत्तिथी उपार्जन करेल कर्मना भारवाळा होय छे ते पकटाः च लोढाना गोळा समान इत्यादि व्यपदेशवाळा होय छे. अथवा माता, पिता, पुत्र अने स्त्री संबंधी स्नेहना भारथी (अधिक पक्षिभिक्षु अधिक) भारवाळा होय छे. (२७) रूपा विगेरेना गोळाओमा क्रमशः अल्पगुण, गुणाधिक, गुणाधिकतर अने गुणाधिकतमने विषे पुरुषो समृद्धिथी अथवा ज्ञानादिगुणथी समानपणाए योजवा. (२८-२९) पत्रनी माफक पातलापणाए जे तरवार विगेरे छे | द्याः सू० ते पत्रो असिः-खड्ग, ते ज पत्र ते असिपत्र, जेनावडे काष्ठ छेदाय छे ते करपत्र-करवत, क्षुर-सजायो ते ज पत्र ते क्षुरपत्र, x३४७-५२ | कदंबचीरिका शस्त्रविशेष छे (३०) १ तेमा खड्गनुं शीघ्र छेदकपणुं होवाथी जे पुरुष जलदी स्नेहना पाशने छेदे छे ते असि- ५२०॥ IS तुष्पदाद्याः Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx | निष्कृष्टा For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx: पत्र समान छ-चोकस करेल देवना वचनवडे सनत्कुमार जेम संसारना स्नेहनो त्याग को तेम, २ फरी फरी उपदेशातो थको जे पुरुष दीक्षानी भावनाना अभ्यासथी स्नेहरूप तरुने छेदे छ ते करपत्र समान, तथाविध श्रावकनी जेम. केमके गमनागमनथी कालना विलंबवडे करवतर्नु छेदकपणुं छे. ३ जे पुरुष धर्मनो मार्ग सांभळे छ तो पण सर्वथा स्नेहने छेदवामां असमर्थ छ अने देशविरति मात्रने ज स्वीकारे छ ते क्षुरपत्र समान, सजायो तो अल्प केशादिकने छेदे छे अने ४ जे पुरुष स्नेहना छेदनने मनोरथ मात्रवडे ज करे छ ते चतुर्थ-अविरति सम्यग्दृष्टि अथवा जे गुरु विगेरेने विषे शीघ्र, मंद, मंदतर अने मंदतमपणाए स्नेहने छेदे छे ते पूर्वोक्त रीते व्यपदेश कराय छे. (३१) कांच विगेरेथी आतानवितान-ताणावाणावडे जे बनाव| वामां आवे छ ते कट-पाथरणविशेष. कटनी जेम कट माटे उपचारथी तांतणादिमय पण उपचारथी कट ज छ तेमांx 'सुबकडे ' त्ति० घासविशेषथी बनेल, 'विदलकडे 'त्ति० वांसना कटकावडे करेल, 'चम्मकडे 'त्ति० कोमळ चामडाथी बनेल मंचक विगरे तेमज 'कम्बलकडे' ति० कंबल ज. (३२) आ सुंबकटादिने विषे अल्प, बहु, बहुतर अने बहुतम अवयवोवडे प्रतिबंधने विषे पुरुषो योजवा, ते आ प्रमाण-गुरु विगेरेने विषे जेनो अल्प प्रतिबंध-स्नेह छे ते अल्प असत्यादिवडे पण नाश थवाथी सुंबकट समान छे.एवी रीते सर्वत्र भाव. (३३) चतुष्पदो-स्थलचर पंचेंद्रिय तियचो. दरक पगने विषे जेओने एक खुर छे ते एकखुरा-अश्व विगेरे, एवी रीते वे खुर छे जेओने ते द्विखुरा-गाय विगेरे. गंडी-सोनी विगेरेना अधिकरणरूप एरण, तेना जेवा पग छ जेओना ते गंडीपदा-हाथी विगेरे. 'सणप्फय' त्ति० सनखपदा अर्थात् | * कट्टासणुं, सादडी. oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥५२१ ॥ न्होरवाळा सिंह विगेरे. आ सूत्र अने पछीना बे सत्रोने विषे जीवोने पुरुष शब्दवडे वाच्य होवाथी पुरुषर्नु अधिकारपणुं छे. | ४४ स्थान (३४) चर्ममय पांखवाळा चर्मपक्षीओ-वागुली विगेरे, एम लोमनी पांखवाळा हंस बिगेरे, डाबलानी माफक चीडायेल छे काध्ययने पांखो जेओनी ते समुद्गक पक्षीओ ( अहिं समासांत 'इन् ' प्रत्यय थयेल), ते मनुष्यक्षेत्रनी बहारना द्वीप-समुद्रोने विष छे. उद्देशः४ एवी रीते ज विततपक्षीओ पण जाणवा. (३५) क्षुद्र-अनंतर-बीजा भवने विषे मोक्षे जवाना अभावथी अधम एवा उच्छ्वासा- पुष्करसंवदिवाळा ते क्षुद्रप्राणा. संमृर्छवडे थयला अर्थात् पोतानी मेळे उत्पन्न थयेला ते संमूछिमो. आवा तिर्यच संबंधी छ योनि जेओनी तांद्या मेघते सम्मूञ्छिम पंचेंद्रिय तियंचयोनिको. (अहिं त्रण पदोनो कर्मधारय समास कर्ये छते आ प्रयोग सिद्ध थाय छे.) (३६) 'निपतिता पुरुषाः,करमाळाथी उतरनार अर्थात् कोईक पक्षी दृढताथी अथवा अज्ञताथी माळाथी नीचे आवे छ पण बाळक होवाथी परिभ्रमण करवाने |ण्डकपुरुषाः वृक्ष-मत्स्यशक्तिमान नथी-आएक. एवी रीते बीजो पुष्ट होवाथी परिभ्रमण करवाने शक्तिमान छ पण भीरु होवाथी माळाथी उतरवाने माटे * गोलपकशक्तिमान नथी. बीजो उभय रीते शक्तिमान छ अने चोथो अति बालपणाथी उभय रीते शक्तिमान नथी. (३७) निपतिता- Xटाः चतुष्पभोजनादिनो अर्थी होवाथी भिक्षाचर्यामां जनार छ पण परिभ्रमण करनार नथी, केमके ग्लानपणाथी अथवा आळसुपणाथी के लजालुपणाथी-आ एक, बीजो उपाश्रयथी नीकळतो थको परिभ्रमणशील छ पण भिक्षाने माटे जवाने अशक्त छे, कारण के * पक्षिभिक्षु सूत्रार्थमां आसक्त होय छे. तृतीय अने चतुर्थ भंग स्पष्ट छे. (३८)निकृष्ट-तपबडे कृश देहवाळो. बळी निकृष्ट छे केमके कषायने निष्कृष्टा द्याः सू० कृश (पातळा) करेला होय छे. एवी रीते अन्य त्रण भांगा पण जाणवा. (३९) एवी ज भावना माटे अनंतर सूत्र कहे छ-कृश ३४७-५२ शरीरवडे निकृष्ट, वळी कषायादिना मंथनवडे निकृष्ट छ आत्मा जेनो ते निकृष्टात्मा, एम बीजा त्रण भांगा जाणवा. अथवा ॥ ५२१॥ दायाः For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम निकृष्ट- तपवडे कृश करेल शरीरवाळो छे अने पछी पण निकृष्ट छे, एवी रीते अहिं प्रथम (३९) सूत्रनुं व्याख्यान कर अने बीजं (४०) सूत्र तो जेम कहेलुं छे तेम कहेवुं. (४०) बुधत्वना कार्यभूत सत्क्रियाना योगथी बुध. कां छे के-" भणनार, भावनार अने बीजा तत्वना चिंतको, आ बधाय व्यसनवाळा के माटे हे राजन् ! जे क्रियावान ते ज पंडित छे. (१)” वळी बुध - विवेक सहित अंतःकरण होवाथी-आ एक, बीजो बुध-सत्क्रियावाळो छे अने विवेक रहित अंतःकरण होवाथी अबुध छे. जो असत्क्रियावाळो होवाथी अबुध अने विवेक सहित चित्त होवाथी बुध छे. चोथो तो उभयना निषेधथी अबुध - अबुध छे. (४१) अनंतर सूत्रवडे ए ज स्पष्ट कराय छे-सत्क्रियावाळो होवाथी बुध, अने जाणनार छे हृदय जेनुं ते बुधहृदय-विवेक युक्त मन होवाथी, अथवा शाखनो जाण होवाथी बुध अने बुधहृदय तो कार्यमां अमूढ लक्षवाळो होवाथी-आ एक, एवी रीते बीजा ण भांगा पण विचारवा योग्य छे. (४२) १ आत्मानुकंपक- आत्माना हितने विषे प्रवर्त्तनार ते प्रत्येकबुद्ध के जिनकल्पिक मुनि अथवा बीजानी अपेक्षा न करनार निर्दय, २ परानुकंपक ते कृतकृत्य थवावडे तीर्थंकर अथवा पोतानी अपेक्षा सिवाय दयारूप एक रसवाळा मेतार्यमुनिनी जेम. ३ उभयनो अनुकंपक ते स्थविरकल्पी साधु, ४ उभयनी अनुकंपा नहि करनार ते पापात्मा कालसौकरिक विगेरे (४३) (सू० ३५२ ) अनंतर पुरुषोना भेदो कथा हवे तेना वेदबडे संपादन करवा * प्रत्येकबुद्धादि मुनिओ, एकलविहारो होवाथो अन्य मुनिओनो वैयावृत्त्यादि करता नथी तेम प्रायः उपदेशादि आपता न होवाथी बीजाने उपकार करता नथी. आ कारणने अंगे परानुकंपक कहेला छे पण बीजा जोवोनी अनुकंपा न करे एम समजतुं नहिं केमके तेओ दयाळु छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीस्था- योग्य पुरुषना व्यापारविशेषने कहेवाने इच्छता सूत्रकार सूत्रसप्तकने कहे छे ४ स्थान नाङ्गसूत्र काध्ययने चउविहे संवासे पं० त०-दिव्वे आसुरे रक्खसे माणुस्से ४ (१) चउबिहे संवासे पं0सानुवाद उद्देशः४ तं०-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासंगच्छति, देवे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे । ५२२॥ संवास: णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति ४ (२) चउ. आसुरामिविहे संवासे पं० त०-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं | योग्याद्या संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं * संवासं गच्छति ४ (३) चउविहे संवासे पं० त०-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे नाममेगे मणुस्सीहिं सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से नाममेगे देवीहिं सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से नाममेगे मणुस्सीइ सद्धिं संवासं गच्छति ४ (४) चउविधे संवासे पं० तं०-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४ (५) चउबिहे संवासे पं० त०-असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे नाममेगे मणु Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Xxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXKKKKxxxxxx स्सीए सद्धिं संवासं गच्छति १ (६) चउबिहे संवासे पं० तं०-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे नाममेगे माणुसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४ (७) सू० ३५३, चउविहे अवद्धंसे पं० तं०-आसुरे आभियोगे संमोहे देवकिब्बिसे चउहि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताते कम्म पगरेंति तं०-कोवसीलताते पाहडसीलयाते संसत्ततवोकम्मेणं निमित्ताजीवयाते, चउहिं ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताते कम्मं पगरेति तं०-अत्तकोसेणं परपरिवातेणं भूतिकम्मेणं कोउयकरणेणं, चउहि ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताते कम्मं पगते तं०-उम्मग्गदेसणाए मग्गंतराएणं कामासंसपओगेणं भिजानियाणकरणेणं, चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताते कम्मं पगरेंति तं०-अरहंताणं अवन्नं वयमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवनं वयमाणे, आयरिय उवज्झायागमवन्नं बदमाणे चाउवन्नस्स संघस्स अवन्नं वदमाणे । सू० ३५४ __ मूलार्थ:-चार प्रकारनो संवास-संभोग कहेलो छे, ते आ प्रमाणे-दिव्य (वैमानिक) संबंधी, असुर-भवनपति संबंधी, राक्षसव्यंतर संबंधी अने मनुष्य संबंधी. (१) चार प्रकारनो संवास कहेलो छ, ते आ प्रमाणे-१ कोईक वैमानिक देव 'देवी साथे संवास करे छ, २ कोईक देव असुरी साथे संवास करे छे, ३ कोईक असुर देवी साथे संवास करे छे अने ४ कोईक असुर xxxxxOOKKOOKKoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र खानुवाद ॥५२३॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx असुरी साथे संवास करे छे. (२) चार प्रकारनो संवास कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक देव देवी साथे संवास करे छे २ कोईक देव राक्षसी-व्यंतरी साथे संवास करे छे, ३ कोईक राक्षस देवी साथे संवास करे छे अने ४ कोईक राक्षस राक्षमी साथे संवास करे छे. (३) चार प्रकारनो संवास कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक देव देवी साथे संवास करे छे. २ कोईक देव मनुष्यणी साथे संवास करे छे, ३ कोईक मनुष्य देवी साथे संवास करे छे अने ४ कोईक मनुष्य मनुष्यणी साथे संवास करे छे. (४) चार प्रकारनो संवास कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक असुर असुरी साथे संवास करे छ, २ कोईक असुर राक्षसी साथे संवास करे छ, ३ कोईक राक्षस असुरी साथ संवास कर छे अने ४ कोईक राक्षस राक्षसी साथे संवास करे छे. (५) चार प्रकारनो संवास कहल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक असुर असुरी साथे संवास सेवे छे, २ कोईक असुर मनुष्यणी साथे संवास सेवे छे, ३ कोईक मनुष्य असुरी साथे संवास सेवे छ अने ४ कोईक मनुष्य मनुष्यणी साथे संवास सेवे छे. (६) चार प्रकारनो संवास कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक राक्षस राक्षसी साथे संवास सेवे छ, २ कोईक राक्षस मनुष्यणी साथे संवास सेवे छ, ३ कोईक मनुष्य राक्षसी साथे संवास सेवे छे अने ४ कोईक मनुष्य मनुष्यणी साथे संवास सेवे छे. (७) (सू० ३५३) चार प्रकारे अपध्वंस-(चारित्रना फळनो विनाश) कहल छे, ते आ प्रमाणे-१ आसुरीभावनाजन्य ते आसुर, २ अभियोगभावनाजन्य ते आभियोग, ३ संमोहभावनाजन्य ते संमोह अने ४ देवकिल्बिष भावनाजन्य ते देवकिल्विष अपध्वंस. चार कारणवडे जीवो असुरपणानुं आयुष्कादि कर्म करे छे, ते आ प्रमाणे-१ क्रोधी स्वभाववडे, २ कलह करवाना स्वभाववडे, ३ आहारादिमां आसक्ति सहित तप करवावडे अने ४ निमित्तादि प्रकाशीने आजीविका चलाववा ४ स्थान. काभ्ययने उद्देशः४ संवादः आसुराभियोग्याद्याः सू०३५३ ५४ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥ ५२३॥ For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy वडे. चार कारणवडे जीवो आभियोगताने अर्थे आयुष्कादि कर्म करे छे, ते आ प्रमाणे-१ आत्मानो उत्कर्ष( गर्व ) करवाबडे, २ बीजानी निंदा करवावडे, ३ भूतिकर्म-ताववाळा विगेरेने राख विगरेथी रक्षादि करवावडे अने ४ कौतुककरण-सौभाग्यादिन माटे बीजाना शिर उपर हस्तना भ्रमण विगेरेथी मंत्रबावडे. चार कारणवडे जीवो संमोहपणाने अर्थ आयुष्कादि कर्म करे छे, ते आ प्रमाणे-१ उन्मार्गनी देशनावडे, २ सन्मार्गनो अंतराय करवावडे, ३ कामभोगनी आशंसा( वांछा)बडे अने ४ लोभथी निया' करवावडे. चार कारणवडे जीवो देवकिल्बिषपणाचें आयुष्कादिकर्म करे छ-बांध छ, ते आ प्रमाणे-१ अरिहंतोना अवर्णवादने बोलतो थको, २ अरिहंते कहेला धर्मना अवर्णवादने बोलतो थको, ३ आचार्य उपाध्यायना अवर्णवादने बोलतो थको अने ४ चतुर्विध संघना अवर्णवादने बोलतो थको. (सू० ३५४) टीकार्य:-'चउव्विहे संवासे' इत्यादि० सूत्र सरळ छे. विशेष ए के-स्त्रीनी साथे संवसन-शयन करवू ते संवास. द्यौः-स्वर्ग, तेमां बसनार देव पण उपचारथी द्यौ, तेमां थयेल ते दिव्य अर्थात् वैमानिक संबंधी संवास. भवनपति विशेष असुर संबंधी संवास ते आसुर. एवी रीते अन्य बे संवास जाणवा. विशेष ए - के-राक्षस-व्यंतरविशेष. देव अने असुर विगेरेना संयोगथी छ चतुभंगी सूत्रो । थाय छे. (सू० ३५३) पुरुषक्रियाना अधिकारथी ज अपध्वंसमत्र जणावे छे- | देवी | असुरी | पाक्षसी | मानुषी अपध्वंसन-विनाश थर्बु ते अपध्वंस-चारित्रनो अथवा तेना फळनो असुरादि भावनाजनित विनाश. असुर भावनावडे थयेल ते आसुर, अथवा जे अनुष्ठानने विषे वर्ततो थको असुरपणाने उत्पन्न करे, तेनावडे आत्माने वासित करवो ते आसुर xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बीस्था नासूत्र सानुवाद ॥ ५२४ ॥ www.kobatirth.org भावना. एवी रीते बीजी भावनाओ पण जाणवी. अभियोग ( दास ) भावनाजनित ते आभियोग. संमोहभावनाजनित ते संमोह. देवकिल्बिष भावनाजनित ते दैवकल्प. कंदर्पभावनाजनित कांदर्प अपध्वंस पांचमो के परंतु अहिं चतुःस्थानकना अनुरोधथी तेने कल नथी. भावना तो आगममां पांच कहेल छे. कछु छे के— कंप १ देवकिब्बिस २, अभिओगा ३ आसुरा य ४ संमोहा ५ । एसा उ संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया ॥ २०२ ॥ १ कामप्रधान विप्राय देवो संबंधी जे भावना ते कंद, २ किल्पिक देवो संबंधी ते किल्मिपिकी, ३ किंकर स्थानीय | देव संबंधी ते अभियोगिकी, ४ असुरदेव संबंधी ते आसुरी अने ५ मूढात्मा देव संबंधी जे भावना ते संमोही - आ पांच संक्लिट ( अप्रशस्त ) भावनाओ कहेली छे, आ पांच भावनाओने पैकी जे भावनानी अंदर जे जीव वर्त्त छे ते अल्प चारित्रना प्रभावधी तेवा प्रकारना देवोने विषे जाय छे. कहां छे के जो संजओविया - अप्पसत्थासु वहइ कहंचि । सो तब्बिहेसु गच्छइ, सुरेषु भइओ चरणहीणो ॥ २०३ आ अप्रशस्त भावनाओने विषे जे संयत कईपण वर्षे छे ते तेवा प्रकारना देवोने विषे जाय छे ते सर्वथा चारित्रयी हीन छे तेथी देवाने विषे जवानी तेने माटे भजना छे अर्थात् जाय किंवा न पण जाय. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************* ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ संवासः आसुराभि योग्यायाः सू० ३५३ ५४ ।। ५२४ ॥ - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxx आसुरादि भावनाजन्य अपध्वंस कह्यो, ते असुरत्व विगेरेनो हेतु छे माटे असुरत्वादि भावनाना साधनभूत कर्मोना कारणोने चार सूत्रोवडे कहे छ-'चउहिं ठाणेहीं' त्यादि० सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-असुरोने विषे थयेल ते आसुर-असुरविशेष, तेनो जे भाव ते आसुरत्व, तेना माटे-आसुरपणाने अर्थ अथवा असुरपणा माटे के असुरपणाए तेना आयुष्कादि कर्मने करवा माटे आरंभ करे छे, ते आ प्रमाणे-१ क्रोध स्वभावपणावडे, २ क्लेशना संबंधवडे, ३ संसक्ततपकर्म-आहार, उपधि अने शय्यादिने विषे प्रतिबद्धभावरूप तपश्चर्यावडे अने ४ त्रण काल संबंधी लाभ अलाभादि विषयक निमित्त थी मेळवेल आहारादिवडे उपजीवनरूप निमित्त आजीविकावडे. आ अर्थ अन्यत्र आ प्रमाणे कह्यो छअणुबद्धविग्गहोविय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी ।निकिवगिरागुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ ॥२०४ __साधु अने श्रावकने विषे निरंतर कलह करनार, आहारादिमां आसक्ति सहित तप करनार, निमितनो प्रकाशनार, निशूक अने अनुकंपा रहित अर्थात् दुःखी प्राणीने जोईने जेना हृदयमां कंपारी न आवे ते प्राणी आसुरीभावना करे छे. जे कार्य प्रत्ये योग्य छे ते आभियोग्य-किंकर देवविशेषो, तेओनो जे भाव ते आभियोग्यता, ते अर्थे अथवा आभियोग्यपणाए. १ आत्मोत्कर्ष-पोताना गुणना अभिमानवडे, २ परपरिवाद-परना दोषने कहेवावडे, ३ भूतिकर्म-ज्वरवाळा विगरेने भूति (राख )विगेरेथी रक्षा करवावडे अने ४ कौतुककरण-सौभाग्यादिना निमिचे बीजाना शिर उपर हस्तना भ्रमणादिवडे मंत्रक्रिया विगैरे करवावडे. आ भावना पण बीजे स्थळे आवी रीते जणावी छे For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था काम्या मानुवाद ॥५२५॥ ४ स्थानकाम्ययने उद्देशः४ संवासा आसुराभि| योग्याद्याः कोउय भूईकम्मे, पसिणा इयरे निमित्तमाजीवी। इडिरससायगरुओ, अभिओगंभावणं कुणइ ॥२०५ १ अनिष्टनी शांति माटे थु थु विगैरे करवू ते कौतुक, २ मंत्रवडे मंत्रीने राख विगेरेनुं देवं ते भृतिकर्म, ३ अंगुष्ठ अने आरीसा विगेरेमां देवतुं आकर्षण करीने प्रश्ननुं पूछवु, ४ स्वाम विद्यावडे कहे, ५ निमित्त विगेरे प्रकाशीने आजीविका चलाववी तथा ऋद्धि, रस अने सातगौरव सहित उक्त प्रवृत्तिने करतो थको प्राणी आभियोग्य भावना करे छे. संमोह पामे छे ते संमोह-मूढात्मा देव विशेष, तेनो जे भाव ते संमोहता, तेना माटे अथवा संमोहपणाए. १ उन्मार्गदेशना-सम्यग्दर्शनादिरूप भावमार्गथी विरुद्ध धर्मना कथनवडे, २ मार्गातराय-मोक्षमार्गने विषे प्रवृत्त थयेलने विन्न करवावडे, ३ कामाशंसाप्रयोग-शब्दादि विषयोने विषे अभिलाषा करवावडे अने ४ 'भिज' त्ति० लोभ-गृद्धिवडे निया| करवू ते, 'आ तप विगैरेथी मने चक्रवर्तिपणुं विगैरे मळो आवी रीते निकाचना-दृढ करवावडे. आ भावना पण अन्यत्र नीचे प्रमाणे कहेल छउम्मग्गदेसओ मग्ग-नासओ मग्गविप्पडीवत्ती। मोहेण य मोहेत्ता, संमोहं भावणं कुणइ ॥ २०६॥ १ उन्मार्गनो कहेनार, २ मार्गनो नाश करनार-पोताना तथा बीजाना बोधिबीजनो नाश करनार, ३ विपरीत मार्गने स्वीकारनार एवो जीव स्वयं मूढ थयो थको बीजाने मोह उपजावीने संमोह भावना करे छे. १ उन्मार्गनो कहेनार, २ मार्गनो नाश करनार-पोताने तथा बीजाने बोधिबीजनो नाश करनार, ३ विपरीत मार्गने स्वीकारनार एवो जीव स्वयं मूढ थयोथको बीजाने मोह उपजावीने संमोह भावना करे छे. ३५३-५४ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx (xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org . देवोना मध्यमां किल्बिष- पाप, तेने लईने ज अस्पृश्यादि धर्मवाळो देवरूप किल्बिष ते देवकिल्बिष, बीजुं वर्णन तेमज जाणवु. अवर्ण-निंदा-खोटा दोषनुं आरोपण करवुं. आ अर्थ अन्यत्र आवौ रीते कहेल छे. नाणस्स केवलणं, धम्मायरिआण सव्वसाहूणं । भासं अवन्नमाई, किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥ २०७॥ । १ ज्ञाननी, २ केवलीओनी, ३ धर्माचार्यानी अने ४ सर्व साधुओनी निंदाना करनार तथा ५ मायावी एवो प्राणी किल्बि feat भावना करे छे. चोथुं स्थानक होवाथी अहिं पांचमी कंदर्प भावना कही नथी, पण भावनानुं वर्णन चालतं होवाथी ते बतावे छेकंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासणकरे य | विम्हाविंतो य परं, कंदष्पं भावणं कुणइ ॥ २०८ ॥ १ कामनी कथा करनार, २ कुक्रुचित- भांडना जेवी चेष्टा करनार, ३ द्रवशील-गर्वथी शीघ्र गमन अने भाषणादि करनार, ४ वेष अने वचनादिवडे स्वपरने हास्य उत्पन्न करनार, ५ बीजाने इंद्रजालादिवडे विस्मय करावनार एवो जीव कंदर्पी भावना करे छे. ( सू० ३५४) आ अपध्वंस प्रव्रज्यावाळाने छे माटे प्रव्रज्यानुं निरूपण करवा ' चउब्विहा पव्वज्जे 'त्यादि० आठ सूत्रो कहे छे. चउव्विहा पव्वज्जा पं० तं० - इहलोगपडिबद्धा परलोगपडिबद्धा दुहतो लोगपडिबद्धा अप्पडिबद्धा १, चउव्विहा पव्वज्जा पं० तं०-पुरओ पडिबद्धा, मग्गओ पडिबद्धा, दुहतो पडिबद्धा, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद अपडिबद्ध। २. चउठिवहा पठ्वज्जा पं० सं०-ओवायपध्वजा. अक्खातफ्ठवजा, संगारपव्वज्जा, विहगगइपव्वज्जा ३, चउम्विहा पव्वजा पं० तं0-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, मोयावइत्ता, परिपूयावइत्ता ४, चउबिहा पव्वजा पं. तं०-नडखइया, भडखइया, सीहखइया, सियालक्खइया ५, चउविहा किसी पं० तं०-वाविया, परिवाविया, णिदिता, परिणिंदिता ६, एवामेव चउब्विहा पञ्चजा पं० तं०-वाविता, परिवाविता, णिदिता, परिणिदिता, ७ चउबिहा पवजा पं० २०-धन्नपुंजितसमाणा, धन्नविरल्लितसमाणा. धन्नविक्खित्तसमाणा, धन्नसंकहितसमाणा ८ । सू० ३५५ मूलार्थ:-चार प्रकारे प्रवज्या-दीक्षा कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ उदर भरवा माटे दीक्षा लेवी ते आलोकप्रतिबद्धा, २ देवादि संबंधी सुखन माटे दीक्षा लेवी ते परलोकप्रतिबद्धा, ३ उभय लोकना सुखने अर्थे दीक्षा लेवी ते उभयलोकप्रतिबद्ध। अने ४ मोक्षना अर्थ दीक्षा लेवी ते अप्रतिबद्धा. (१) 'जो हुं दीक्षा लईश तो मने शिष्य, आहारादि मळशे' एम अगाउथी दीक्षा लेनाराओने विषे जे अभिलाषा ते अग्रतःप्रतिबद्धा, २ जनादिके प्रथमथी दीक्षा लोधेल छ तेना स्नेहने लईने जे पाछ की दीक्षा लेवी ते पृष्टतःप्रतिबद्धा,३ उभयतः प्रतिबद्धा-आगळ्थी अने पाछळथी पण प्रतिबंधवाळी छे अने चौथी अप्रतिवद्धा पूर्ववन(२) चार प्रकारे प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ सद्गुरुओनी सेवावडे जे दीक्षा लेवाय छे ते अवपातप्रव्रज्या, २ 'तुं दीक्षा ग्रहण KXXXXXXxxxxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ इहलोकप्रतिबद्धादिप्रव्रज्या भेदाः सू०३५५ (Oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalbirth.org Acharya Shei Katasagarsur Gyarmandie xxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXXK) कर' एम कहेवाथी जे दीक्षा लेवाय छे ते आख्यातप्रव्रज्या, ३ 'जो तुं दीक्षा ले तो हुँ पण लईश' एवा संकेतथी जे दीक्षा लेवी ते संकेतप्रव्रज्या अने ४ परिवारादिना वियोगथी एकाकीपणे देशांतरमा जईने दीक्षा लेवी ते विहगगतिप्रव्रज्या.(३) चार | प्रकारनी प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ तोदयित्वा-पीडा उपजावीने जे दीक्षा अपाय ते, २ प्लावयित्वा-बीजे ठेकाणे लई जईने दीक्षा अपाय ते, ३ मोचयित्वा-करज विगेरेथी मूकावीने जे दीक्षा अपाय ते, ४ परिप्लुतयित्वा-भोजननी लालचवडे जे दीक्षा। अपाय ते. (४) चार प्रकारनी प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ नटनी जेम संवेग रहित धर्मकथा करवावडे भोजनादि मेळवq ते नटखादिता, २ सुभटनी जेम बळ देखाडीने भोजनादि मेळव ते भटखादिता, ३ सिंहनी जेम बीजानी अवज्ञा करीने भोजनादि मेळवq ते सिंहखादिता अने ४ शीयाळनी जेम दीनतावडे भोजनादि मेळवq ते शृगालखादिता. (५) चार प्रकारनी कृषी(खेती) कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ जेमा एक वखत धान्य ववाय ते वाविया, २बेत्रण वखत उखेडीने स्थानांतरमा रोपाय ते परिवाविया, ३ जेमां एक बार निंदण-घास विगेरे दर कराय ते निदिया अने ४ वारंवार निंदण-घास विगेरे दूर कराय ते परिनिंदिया. (६) आ दृष्टांत चार प्रकारनी प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ सामायिक चारित्रनुं आरोपण करवू ते वाविया, २ बडीदीक्षा अथवा फरीथी दीक्षा आपवी ते परिवाविया, ३ एक वखत अतिचारनी आलोचना करवी ते | निंदिया अने ४ वारंवार अतिचारनी आलोचना करवी ते परिनिंदिया. (७) चार प्रकारनी प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ खळामां शुद्ध करेल धान्यना ढगला जेवी-अतिचार रहित दीक्षा, २ खळामा ज कचराने पवनवडे दूर करेल धान्यना एकत्र नहिं करेल पुंज समान-अल्प अतिचारवाळी, ३ बळदनी खुरीवडे खुंदावाथी वेरायेल धान्यना जेवी-बहु अतिचारवाळी अने ४ KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गमत्र खानुषाद ॥५२७॥ Ex xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx क्षेत्रमाथी लावीने खळामा मृकेल धान्य समान-बहुतर अतिचारवाळी प्रव्रज्या. (८) (सू०३ ५५) टीकार्थः-आ सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-१ मात्र उदरभरणादि इच्छावाळानी जे दीक्षा ते इहलोकप्रतिबद्धा, २ भवांतर संबंधी कामभोगनी इच्छावाळानी जे दीक्षा ते परलोकप्रतिबद्धा, ३ उभय लोक संबंधी मुखना अभिलाषीओनी जे दीक्षा ते द्विधालोकप्रतिबद्धा अने ४ विशिष्ट सामायिक चारित्रवाळाओनी जे दीक्षा ते अप्रतिबद्धा. (१) पुरतः-प्रव्रज्या लेवाथी भविष्यमां थनारा शिष्य अने आहारादिने विषे आगळथी प्रतिबंधवाळी जे दीक्षा ते १ पुरतःप्रतिबद्धा कहेवाय छे. एम स्वजनादिने विष (स्नेहवडे पाछळथी लीधेल दीक्षा) ते २ मार्गतःप्रतिबद्धा कहेवाय छे. ३ कोईक प्रव्रज्या आगळथी अने पाछळथी पण एम द्विधाप्रतिबंधवाळी छ अने ४ कोईक अप्रतिबद्धा पूर्वनी जेम छे. (२) 'ओवाय' त्ति०-अवपात-सद्गुरुओनी सेवा, तेथी जे प्रव्रज्या ते १ अवपातप्रव्रज्या, २ 'तुं दीक्षा ले' एम कहेवाथी दीक्षा लेनारनी जे प्रव्रज्या ते आख्यातप्रव्रज्या-आर्यX| रक्षितमूरिना भाई फल्गुरक्षितनी जम, ३'संगार' त्ति०-संकेतथी जे प्रव्रज्या--मेतार्यादिनी जेम अथवा ज्यारे 'तं दीक्षा | लईश त्यारे हुं पण लईश' एम संकेतथी जे दीक्षा ते संकेतप्रव्रज्या, ४ 'विहगगड़ ' त्ति विहगगतिवडे-पक्षी जेम बीजे जाय छे ते न्यायवडे परिवारादिना वियोगथी अने देशांतरमा जवावडे एकलानी जे दीक्षा ते विहगगतिप्रव्रज्या, क्यांक 'विहगपव्वजे' ति० पाठ छे त्यां पक्षीनी जेम एम जाणवू, अथवा विहत-दारिद्रवडे के शत्रुओबडे पराभव पामेलनी जे दीक्षा ते विहतप्रव्रज्या. (३) तुयावइत्त' त्ति० व्यथा( पीडा) उत्पन्न करीने जे दीक्षा देवाय छे ते १ तोदयित्वा प्रव्रज्या, सागरचंद्र मुनिवडे अपायेल मुनिचंद्र नृपना *पुत्रनी जेम. 'उयावइत्त' त्ति० एवो क्यांक पाठ छे त्यां ओज * आ कथा मुनिपनि चरित्रमा छे. ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ इहलोकप्रतिबद्धा| दिप्रव्रज्या भेदाः सू०३५५ ॥५२७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie XxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXX शारीरिक अथवा विद्यादिकना बलने देखाडीने जे दीक्षा देवाय छे ते ओजयित्वा एम कहेवाय छे. 'पुयावइत्त' ति० पलक धातु गति अर्थमां छे, आ वचनथी २ प्लावयित्वा-आयरक्षितनी जेम बीजे स्थळे लई जईने अथवा पूत-दूषणने दूर करवावडे पवित्र करीने जे दीक्षा अपाय छे ते पूतयित्वा, 'वुयावइत्त' त्ति० जेम गौतमस्वामीए खेडूतने सारी रीते समजावीने दक्षिा आपी तेम अथवा पूर्वपक्षरूप वचनने करावीने अने तेने जीतीने अथवा प्रतिज्ञा करावीने जे दीक्षा देवाय छे ते ३बोधयित्वा. क्यांक 'मायावइत्त'त्ति एवो पाठ छे त्यां साधुवडे छोडावीने जे दीक्षा अपाय छे ते ३ मोचयित्वा, तेलने अर्थ दासपणाने पामेली भगिनीनी जेम. [दीक्षित थयेल बंधुना उपचारने माटे कोईकनी दुकानेथी एक कर्ष प्रमाण तेल लावीने तेनी बहेने आप्यु. एम दररोज एक कर्षनी वृद्धिवडे तेल लावीने ते साधुने आपती तेथी घडादि संख्यावाढं तेल थयु, ४ करज वध्यं परंतु देवू अपायुं नहि तेथी तेणी जीवन पर्यंत तेनी दासी थईने रही. त्यारवाद कोई वखत फरीने ते साधु त्यां आव्या त्यारे बहेननी हकीकत जाणीने तेणे ते व्यापारीने समजाव्यो अने बहेनने छोडावीने दीक्षा आपी.1 'परिवयावइत्त'त्ति० घृतादिवडे परिपूर्ण भोजन ते परिप्लुत-भोजनना माटे जे दीक्षा अपाय छे ते-आर्यसहस्ति आचार्य बडे रंकने (संप्रति राजाना जीवने) अपायेल दीक्षानी जेम ४ परिप्लुतयित्वा कहेवाय छे. (४) नटनी जेम संवेग रहित धर्म कथाना करवावडे मेळवेल भोजनादिनुं 'खइय' त्ति० खावु छे जेने विषे ते १ नटखादिता अथवा नटनी जेम 'खइव' त्ति० संवेगशून्य धर्मकथाना कथनरूप स्वभाव छ जेने विषे ते नटस्वभावा. एम भट विगेरेमां पण जाणवू. विशेष ए के-तथा प्रकारना बळने बतावीने मेळवेल भोजनादिनु खावु छ जेने विषे ते २ भटखादिता अथवा भाट या चारणनी वृत्तिरूप स्वभाव xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxaar For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्थानाङ्गसूत्र पानुवाद ।। ५२८ ।। www.kobatirth.org छे जेमां ते भटस्वभावा. सिंहनी जेम शौर्यना अतिशयथी अन्यनी अवज्ञावडे मेळवेल अथवा भक्षणवडे जेम शरू कर्यु तेम खायुं छे जेने चिषे ते ३ सिंहखादिता अथवा सिंहस्वभावा शीयाळ तो दीनवृत्तिवडे मेळवेल भोजननुं अथवा भक्षणवडे अन्य स्थानमां शरू कर्यु अने अन्य स्थानमां खावु छे जेमां ते ४ शृंगालखादिता अथवा शृगालस्वभावा. (५) कृषि - धान्यने माटे क्षेत्रनुं खेडवु, ' वाविय' ति० एक वखत धान्य ववाय एवी, २ ' परिवाविय 'त्ति० बे अथवा त्रण वार उखेडीने अन्य स्थानमां रोपवाथी परिवपनवती-शालि ( डांगर )नी खेतीनी जेम, ३ ' निंदिय ' ति० एक वखत अन्य जातीय घास विगेरेने दूर करवावडे शोधेली ते निदाता, ४ ' परिनिंदिय' ति० बे अथवा त्रण वखत तृणादिना शोधनवडे परिनिदाता कृषी छे. ( ६ ) प्रव्रज्या तो सामायिक ( चारित्र ) ना आरोपणवडे १ वाविया, २ परिवाविया एटले निरतिचार चारित्रवाळाने महाव्रतना आरोपणवडे अथवा सातिचार चारित्रवाळाने मूळ प्रायश्चित देवाथी, ३ निंदिया- एक बार अतिचारना आलोचनथी अन ४ परिनिंदिया- वारंवार अतिचारना आलोचनथी जाणवी. (७) 'धन्नपुंजियसमाण ' ति० खळामां तूस विगेरे कचरो काढीने निर्मळ करेल धान्यना पुंज समान समस्त अतिचाररूप कचराना अभाववडे मेळवेल स्वस्वभावपणाथी, आ एक प्रव्रज्या. बीजी तो खळामां ज ' यद्विरेल्लितं ' वायुवडे कचराने विस्तारेलउडावेल पण ढगलो नहिं करेल एवा धान्य समान प्रव्रज्या, जे थोडा पण प्रयत्नवडे स्वस्वभावने प्राप्त करशे. त्रीजी तो यद्विकीर्ण-वळदना खुरवडे खूंदावायी छूटा थयेल धान्य समान, जे प्रव्रज्या सहज उत्पन्न थयेल अतिचाररूप कचरायुक्त होवाथी सापेक्षित अन्य सामग्रीवडे काळना विलंबथी स्वस्वभावने मेळववा योग्य थाय छे ते धान्य विकीर्ण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *******X*XXX ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ इहलोक प्रतिबद्धादिप्रव्रज्याभेदाः सू० ३५५ ।। ५२८ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx समाना कहेवाय छे. चौथी तो क्षेत्रथी लावेल अने खळामा राखेल धान्यना जेबी जे प्रव्रज्या, ते बहुतर अतिचार सहित होवाथी बहुतर काळवडे प्राप्त करवायोग्य स्वस्वभाववाळी छे ते धान्यसंकर्षित समाना जाणवी. अहिं धान्यना विशेषण पुंजित विगरे शब्दनो प्राकृतशेलीथी परनिपात करेल छे. (८) (सू० ३५५) आ प्रव्रज्या संज्ञाना वशथी आ प्रकारे विचित्र प्रकारे | होय छे तेथी संज्ञानुं निरूपण करवा माटे सूत्रपंचक कहे छे चत्तारि सन्नाओ पं० त०-आहारसन्ना भयसन्ना मेहणसन्ना परिग्गहसन्ना (१) चउहिं ठाणेहिं आहारसन्ना समुप्पज्जति, तं०-ओमकोट्टताते १ छहावेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं २ मतीते ३ तट्रोवओगेणं ४ (२) चउहि ठाणेहिं भयसन्ना समुप्पजति, तं०-हीणसत्तत्ताते १ भयवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं २ मतीते ३ तदट्ठोवओगेणं ४ (३) चउहि ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुप्पजति, तं०-चितमंससोणिययाए १ मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं २ मतीते ३ तदट्ठोवओगेणं ४(१) चउहि ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुप्पजइ, तं०-अविमुत्तयाए लोभवेयाणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते तदवोवओगेणं (५) सू० ३५६, चउबिहा कामा पं० तं०-सिंगारा कलुणा बीभत्सा[च्छा] रोहा, सिंगारा कामा देवाणं कलणा कामा मणुयाणं बीभत्सा कामा तिरिवखजोणियाणं रोहा कामा kixxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie बीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ५२९॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ संज्ञाः का माश्च सू० *३५६-५७ णेरइयाणं । सू० ३५७ मृलार्थ:-चार प्रकारे संज्ञा-चेतनाशक्ति कहेली छ, ते आ प्रमाणे-१ आहारसंज्ञा-आहारनी इच्छा, २ भयसंज्ञाडरवू, ३ मैथुनसंज्ञा-विषयनी इच्छा अने ४ परिग्रहसंज्ञा-धन विगेरेना संचयनी इच्छा. (१) चार कारणवडे जीवने आहारसंज्ञा उत्पन्न शाय छे, ते आ प्रमाणे-१ उदर खाली थवाथी, २ क्षुधावेदनीय कर्मना उदयथी, ३ आहारनी कथा सांभळवा विगेरेथी उत्पन्न थती मतिवडे अने ४ निरंतर भोजननी चिंतना करवाथी.(२) चार कारणवडे जीवने भयसंज्ञा उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ हीनसत्त्व(धैर्य )पणाथी, २ भय*वेदनीय कर्मना उदयथी, ३ भयजनक कथा सांभळवा विगेरेथी उत्पन्न थती मतिवडे अने ४ भयनीज विचारणा करवावडे. (३) चार कारणथी मैथुनसंज्ञा उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ मांस अने रक्तनी वृद्धि थवाथी, २ मोहनीय कर्मना उदयथी, ३ कामनी कथा सांभळवा विगेरेथी उत्पन्न थयेल बुद्धिवडे अने ४ निरंतर विषयर्नु चिंतन करवाथी. (४) चार कारणवडे परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ परिग्रह सहित होवाथी, २ लोभवेदनीय कर्मना उदयथी, ३ धन विगेरेने जोवादिकथी उत्पन्न थयेल मतिवडे अने ४ सतत धन विगेरेनुं चिंतन करवाथी. (५) (मू०३५६) चार प्रकारना कामो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-शृंगार, करुण, विभत्स अने रौद, शृंगाररसवाळा कामो देवोने होय छे, करुण * भयवेदनीय शब्दथी भयमोहनीय कर्म समजवु, वेदनीय शब्दनो अर्थ अनुभववायोग्य होवाथी बधा कर्म वेदनीय छे. विशेष व्याख्यावडे साता असाता प्रकृतिलक्षण वेदनीय कर्म छे. Ooxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४॥ ५२९॥ For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie Exxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx रसवाळा कामो मनुष्योने होय छे, बीभत्सरसवाळा कामो तियंचयोनिकोने होय छे अने रौद्ररसवाळा कामो नैरयिकोने होय छे. (मू० ३५७) टीकार्थ:-' चत्तारी' त्यादि० सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के-संज्ञानं संज्ञा-जाणवू ते संज्ञा अर्थात् चैतन्य, ते +असा. तावेदनीय अने मोहनीय कर्मना उदयजन्य विकार युक्त चैतन्य, आहारसंज्ञादिपणाए व्यपदेश कराय छे. तेमा आहारसंज्ञाआहारनो अभिलाष, भयसंज्ञा-भयमोहनीय कमवडे प्राप्त थवा योग्य जीवनो परिणाम, मैथुनसंज्ञा-वेदना उदयथी थयेल मैथुननो अभिलाष अने परिग्रहसंज्ञा-चारित्रमोहना( लोभना) उदयथी थयेल परिग्रहनो अभिलाष (१). अबमकोष्टतयाखाली उदरवडे, मत्या-आहारनी कथाना सांभळवा विगेरथी थयेल मतिबडे, तदर्थोपयोगेन-आहारनी सतत चिंतावडे आहारसंज्ञा उद्भवे छे (२), हीनसत्व-हिम्मतना अभावथी, मत्या-भयनी वार्ता सांभळवाथी अने भयंकर वस्तुने जोबाथी थयेल मतिवडे, तदर्थोपयोगेन-इहलोकादिभवरूप अर्थनी विचारणा करवाथी सामान्यथी भयसंज्ञा उपजे छे. (३) वृद्धि पामेल छे मांस अने शोणित जेना ते चितमांसशोणित, तेना भावपणाए-मांस अने रक्तनी वृद्धि थवावडे, मत्या-कामक्रीडानी कथाना श्रवण विगेरेथी थयेल बुद्धिवडे, तदर्थोपयोगेन-मैथुनरूप अर्थनु वारंवार चिंतन करवावडे मैथुन संज्ञा थाय छे. (४). अविमुक्ततया-सपरिग्रहपणाए, मत्या-सचेतनादि परिग्रहने जोवा विगेरेथी थयेल मातिवडे, तदर्थोपयोगेन-परिग्रहर्नु अनुचिंतन +आहारसंज्ञा असातावेदनीय कर्मना उदयजन्य चैतन्य छे अने क्रमशः शेष त्रण संज्ञा भयमोहनीय, वेदमोहनोय अने लोभमोहनीय कर्मना उदयनन्य चैतन्य लक्षण छे. संज्ञा उदय अने क्षयोपशमभावरूप छे. For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीस्था नाश सूत्र बालुवाद ।। ५३० www.kobatirth.org करवावडे परिग्रह संज्ञा थाय छे. (५) ( सू० ३५६ ) संज्ञाओ ज कामगोचर छे माटे कामनुं निरूपण करतुं सूत्र स्पष्ट छे, विशेष ए के - कामा-शब्दादि विषयो छे. देवोने शृंगाररूप काम छे, केमके एकांतिक अने आत्यंतिक मनोज्ञपणाने लईने अत्यंत रतिरसनुं स्थान होवाथी रतिरूप ज शृंगार छे. कयुं छे के - " अन्योन्य आसक्त थयेल पुरुष अने स्त्री संबंधी रतिस्वभाव - व्यवहार ते शृंगार " मनुष्योने करुण काम होय छे कारण के तुच्छपणाथी, क्षणमां जोयेलनुं नष्ट थवावडे अने शुक्र, शोणित विगेरेथी थयेल देहना आश्रितपणाए शोचनात्मक होवाथी तथाप्रकारतुं मनोज्ञपणुं नथी होतुं, "करुणः शोकप्रकृति " रिति वचनात् करुण रस शोकस्वभाव ज छे, तिचोने विभत्स काम होय छे, केमके ते जुगुप्सानुं स्थान होय छे. कछे के - " भवति जुगुप्साप्रकृतिर्वीभत्सः " बीभत्सरस जुगुप्सात्मक ज छे. नैरयिकोने अत्यंत अनिष्टपणाए क्रोधनो उत्पादक होवाथी रौद्र-दारुण काम होय छे. कयुं छे के-" रौद्रः क्रोधप्रकृति " रिति रौद्र रस ज क्रोधरूप छे. ( सू० ३७५ ) आ कामो तुच्छ अने गंभीरना बाधक, साधक छे, माटे तुच्छने तथा गंभीरने कहेवाने इच्छता सूत्रकार दृष्टांत सहित आठ सूत्रोने कहे छे चत्तारि उदगा पं० तं०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदए १, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं - उत्त नाममेगे उत्ताहिदए, उत्ताने नाममेगे गंभीरहिदए ४ (२) चत्तारि उदगा पं० तं० - उत्ताणे णा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************* ******** ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ उदको दधिसमपुरुषाः सू० ३५८ ५३० ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ममेगे उत्ताणोभासीउत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४ (३) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४ (४) चत्तारि उदही पं० तं०उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही ४ (५) एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए ४ (६) चत्तारि उदही पं० त०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४ (७) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी ४ (८) सू० ३५८ मूलार्थ:-चार प्रकारना उदक कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक उदक उत्तान-थोडं ऊंडु ( छीछरु ) छे. वळी निर्मळपणाथी उदकनो मध्यभाग देखाय छे ते उत्तानोदक, २ कोईक उदक उत्तान-थोडु ऊर्छ छे पण डहोडं जल होवाथी मध्य भाग देखातो नथी ते गंभीरोदक, ३ कोईक गंभीर-ऊंडं जल छे पण स्वच्छ होबाथी मध्यभाग देखाय छे ते उत्तानोदक अने ४ कोईक जल गंभीर-ऊंडु छ अने डहोल्डं होबाथी मध्यभाग देखातो नथी ते गंभीरोदक. (१) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष बाह्य चेष्टाथी उत्तान-अगंभीर अने अंगंभीर(तुच्छ) हृदयवाळो छे, २ कोईक बाह्य चेष्टाथी कारणने लईने तुच्छ छे पण स्वभावथी गंभीर हृदयवाळो छ, ३ कोईक बाह्य चेष्टाथी गंभीर छे पण स्वभावथी xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीस्थानाङ्गपत्र सानुवाद ४ स्थानकाभ्ययने उद्देश उदकोदधिसमपुरुषाः सू०३५८ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx तुच्छ हृदयवाळो छे ४ अने कोईक बाह्य चेष्टाथी गंभीर अने गंभीर हृदयवाळो छ (२) चार प्रकारना उदक कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पाणी उत्तान-छीछरुं छे अने छीछरा जेवू देखाय छे, २ कोईक छीछरुं छे पण सांकडा स्थानविशेषथी ऊंडं देखाय छे, ३ कोईक अगाध पाणी छे पण विस्तारवाळा स्थानने लईने छीछरा जेवू देखाय छे अने ४ कोईक पाणी अगाध छे अने अगाध(गंभीर) देखाय छे. (३) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष प्रकृतिथी तुच्छ छे अने तुच्छ जेवो देखाय छे, २ कोईक प्रकृतिथी तुच्छ छे पण बाह्यवृत्तिथी गंभीर जेवो देखाय छे, ३ कोईक प्रकृतिथी गंभीर छे पण कारणवशात् तुच्छ जेवो देखाय छे अने ४ कोईक प्रकृतिथी गंभीर छे अने गंभीर जेवो देखाय | छे. (४) चार प्रकारना समुद्रो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक समुद्र एक देश-विभागमा प्रथम पण तुच्छ छे अने पछी पण तुच्छ छे, २ कोईक समुद्र एक विभागमा प्रथम तुच्छ छे पण पछी बेल-भरती आववाथी गंभीर छे, ३ कोईक समुद्र एक विभागमा प्रथम गंभीर छ पण पछी ओट थवाथी तुच्छ छे अने ४ कोईक समुद्र प्रथम अने पछी पण गंभीर छे. (५) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष प्रथम पण तुच्छ अने पछी पण तुच्छ छे, २ कोईक प्रथम तुच्छ पण पछीथी गंभीर छ, ३ कोईक प्रथम गंभीर पण पछीथी तुच्छ छे अने ४ कोईक प्रथम गंभीर अने पछीथी पण गंभीर छे. (६) चार प्रकारना समुद्रो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक समुद्र तुच्छ छे अने तुच्छ जेवो देखाय छे, २ कोईक तुच्छ छे पण गंभीर जेबो देखाय छे, ३ कोईक गंभीर छ पण तुच्छ जेवो देखाय छे अने ४ कोईक समुद्र गंभीर छे अने गंभीर जेबो देखाय छे. (७) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष प्रकृतिथी xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ॥५३१॥ For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx तुच्छ छे अने बाह्य वृत्तिथी तुच्छ जेवो देखाय छे एम पूर्वोक्त रीते चोथा सूत्रनी माफक चोभंगी जाणवी (८) (मू० ३५८) टीकार्थः 'चत्तारी' त्यादि० सूत्रो स्पष्ट छे. विशेष ए के-उदक-पाणी कहेला छे तेमां १ कोईक जळ उत्तान-तुच्छपणाथी छीछरूंछे, वळी स्वच्छपणाने लईने मध्य स्वरूप देखातुं होवाथी उत्तानोदक छे. ('उत्ताणोदये त्ति० आ निर्देश, समासरहित प्राकृतशैलीने अंगे समस्त पदनी जेम जणाय छे). मूलमा स्वीकारेल उदक शब्दवडे आ पद कहेल अर्थवाळू थशे एम कहेवू नहिं, केम के तेनुं (उदक शब्दनु) बहुवचनांतपणावडे अहिं असंबंध्यमानपणुंछे. साक्षात् उदक शब्द छे तो बहुवचनांत उदक शब्दने लाववावडे तेना वचनना परिणामी शुं प्रयोजन छ? एवी रीते उदधि सत्रने विषे पण भाव. तथा २ उत्तान पूर्वनी जेम अने गंभीर उदक मलिन होवाथी तेनुं स्वरूप जणातुं नथी, ३ गंभीर-बहु जळ होवाथी अगाध छे अने स्वच्छपणाने लईने मध्य स्वरूप देखातुं होवाथी उत्तानोइक छ, ४ अगाध होवाथी गंभीर, वळी मलिन स्वरूप होवाथी गंभीरोदक छे. (१)१ पुरुष तो उत्तान-बहारथी देखाडेल मद अने दीनता विगेरेथी थयेल विकृत शरीर ने वचननी चेष्टाथी अगंभीर-तुच्छ छे, वळी दैन्य विगेरे गुणथी युक्त अने गुह्यने धारण करवामां असमर्थ चित्तवाळो होवाथी उत्तान-तुच्छ(हृदय) छ-आ एक, बीजो कारणवशात् देखाडेल विकृत चेष्टाथी उत्तान छे अने, खभावथी उत्तान हृदयना विपरीतपणाथी गंभीर हृदयवाळो छ, त्रीजो तो दैन्यादिवाळो छते पण कारणवशात् आकारने 'गोपववावडे गंभीर अने उत्तानहृदय पूर्वनी जेम अर्थात् स्वभावथी तुच्छ हृदयवाळो छे अने चोथो प्रथम भंगथी विपरीत होवाथी बाह्यथी अने अंतरथी गंभीर छे. (२) तथा प्रतलपणाथी-थोडं पाणी होवाथी उत्तान अने स्थानविशेष. थी उत्तान जेवो देखाय छे-आ एक, द्वितीय-उत्तान पूर्ववत् पण सांकडा स्थान विगेरेथी अगाध जेवो देखाय छे, xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ तरककुम्भ| समपुरुषाः श्रीस्था तृतीय गंभीर छ अने तथाप्रकरना स्थानना आश्रितपणा विगेरेथी उत्ताननी माफक देखाय छे, [चतुर्थ गंभीर अने गंभीर नागपत्र माफक देखाय छ ] (३) पुरुष तो उत्तान-तुच्छ अने उत्तान ज देखाय छ-आ एक, बीजो तुच्छ छे पण विकारने गोपववाथी पानुवाद गंभीर जेबो देखाय छे, तृतीय गंभीर छ पण कारणवशात् विकारत्वने देखाडवाथी तुच्छ जेबो देखाय छे, चोथो सुगम छे. (४) ॥५३२॥ वे उदकसूत्रनी माफक बे उदधिसूत्र पण हाष्टातिक सहित समजवा अथवा एक उदधि-समुद्रनो देश छीछरो होवाथी उत्तान-प्रथम अने पछी पण छे केम के मनुप्यक्षेत्रनी बहारना समुद्रोने विषे वेलनो अभाव होय छे, आ एक, बीजा तो प्रथम उत्तान अने पछी गंभीर-वेलना आववाथी, त्रीजो प्रथम गंभीर अने पछी बेलना चाल्या जबाथी उत्तान छे, चोथो सुगम छ. | (५-८) (सू० ३५८ ) समुद्रना प्रस्तावथी तेना तरनाराओनुं वर्णन वे सूत्रवडे करे छे __ चत्तारि तरगा पं० त०-समुदं तरामीतेगे समुदं तरइ, समुदं तरामीतेगे गोप्पतं तरति, गो|| पतं तरामीतेगे०४ (१) चत्तारि तरगा पं० तं०-समुदं तरित्ता नाममेगे समुद्दे विसीतते, समुदं तरता णाममेगे गोप्पते विसीतति. गोपति०४ (२) सू० ३५९, चत्तारि कुंभा पं० तं०-पुन्ने नाममेगे पुन्ने, पुन्ने नाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुन्ने, तुच्छे नाममेगे तुच्छे (१) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-पुन्ने नाममेगे पुन्ने०४ (२) चत्तारि कुंभा पं० तं०-पुन्ने नाममेगे पुन्नोभासी, xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx) XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ॥५३२॥ For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पुन्ने नाममेगे तुच्छोभासी, तुच्छे नाममेगे पुन्नोभासी, तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासी ४ (३) एवं चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - पुन्ने नाममेगे पुन्नोभासी ४ (४) चत्तारि कुंभा पं० तं० - पुन्ने नाममेगे पुन्नरूवे, पुन्ने नाममेगे तुच्छरूवे ४ (५) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - पुन्ने नाममेगे पुन्नरु ४ (६) चत्तारि कुंभा पं० तं० पुन्नेवि एगे पित्तट्ठे, पुन्नेवि एगे अवदले, तुच्छेवि एगे पिट्ठे, तुच्छेवि एगे अवदले ४ (७) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० पुन्नेवि एगे पितट्ठे ४ (८) तहेव चत्तारि कुंभा पं० तं० - पुन्नेवि एगे विस्संदति, पुन्नेवि एगे नो विस्संदति, तुच्छेवि एगे विस्संदति, तुच्छेत्रि एगे नो विस्संदइ ४ (९) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं पुन्नेविगे विस्संदति ४ (१०) तहेव चत्तारि कुंभा पं० तं०-भिन्नं, जजरिए, परिस्साई, अपरिस्साई ४ (११) एवामेव चव्विहे चरित्ते पं० तं० - भिन्ने जाव अपरिस्साई ४ (१२) चत्तारि कुंभा पं० तं०- महुकुंभे मेगे महपिहाणे, महुकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे ४ (१३) एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - महुकुंभे णामगे हु For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ********* Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandie भीस्थानागपत्र सानुबाद ॥५३३॥ ४स्थानमध्ययने उद्देशः ४ तरककुम्भसमपुरुषाः सू० ३५९ kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ४:(१४) हिययमपावमकलुसं, जीहाऽवि य महुरभासिणी निच्चं । जमि पुरिसंमि विजति, से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥१॥ हिययमपावमकलुसं, जीहाऽवि य कडुयभासिणी निच्चं । जंमि पुरिसंमि विजति. से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥२॥ जं हिययं कलुसमयं, जीहाऽवि य मधुरभासिणी निच्चं । जंमि परिसंमि विज्जति, से विसकुंभे महुपिहाणे ॥३॥ जं हिययं कलुसमयं, जीहाऽवि य कड्यभासिणी निच्चं । जंमि परिसंमि विज्जति. से विसकुंभे विसपिहाणे ॥४॥ सू०३६० ___ मूलार्थ:-चार प्रकारे तरनारा-तारु कहला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईएक समुद्रनी जेम दुस्तर सर्वविरतिने हुँ तरुं छुकरुं छु एम स्वीकारीने तेने पाळे छे, २ कोईएक समुद्रनी जेम दुस्तर सर्वविरतिने स्वीकारीने असमर्थपणाथी *गोपद समान देशविरतिने पाळे छे, ३ कोईएक गोपद समान देशविरतिने स्वीकारीने सामर्थ्यपणाथी सर्वविरतिने पाळे छ अने ४ कोईएक गोपद समान देशविरतिने स्वीकारीने देशविरतिने जपाळे छे.(१) चार प्रकारे तरनारा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष समुद्र समान महाकार्य करीने समुद्र जेवा बीजा महाकार्यमां सीदाय छे-असमर्थ थाय छे, २ कोईक समुद्र जेवू कार्य करीने गोपद समान सामान्य कार्यमां सीदाय छ, ३ गोपद जेवू सामान्य कार्य करीने समुद्र समान महाकार्यमा सीदाय छे अने ४ गोपदनु सामान्य कार्य करीने गोपद जेवा अन्य कार्यमा सीदाय छे. (२) (सू० ३५९) चार प्रकारना कलशो कहेला छे, *गोपद एटले लोकभाषामा 'समुद्रनी खाडी' एम दोपिकाकार कहे छे. For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते आ प्रमाणे-१ कोईक कलश पूर्ण-संपूर्ण अवयववाळो अने वळी पूर्ण-मध विगेरेथी भरेल छ,२ कोईक कलश संपूर्ण अवयववाळो छे पण तुच्छ-खाली छ, ३ कोईक कलश अपूर्ण अवयववाळो छ पण पूर्ण-मध विगेरेथी भरेल छे अने ४ कोईक कलश अपूर्ण अवयववाळो अने खाली छे. (१) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष जात्यादि गुणवडे पूर्ण अने बळी ज्ञानादि गुणवडे पूर्ण छ, २ कोईक जात्यादि गुणवडे पूर्ण छे पण ज्ञानादि गुणथी हीन छ, ३ कोईक जात्यादि गुणथी हीन पण ज्ञानादि गुणवडे पूर्ण छ अने ४ कोईक जात्यादिवडे हीन अने ज्ञानादि गुणधी पण हीन छे. (२) चार प्रकारना कलशो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक कलश संपूर्ण अवयववाळो छे अने जोनारने संपूर्ण जेवो देखाय छ, २ कोईक संपूर्ण अवयववाळो छ पण जोनारने तुच्छ जेवो देखाय छे, ३ कोईक तुच्छ छे पण संपूर्ण जेबो देखाय छे अने ४ कोईक तुच्छ छे अने तुच्छ जेवो देखाय छे. (३) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष धन विगेरेथी पूर्ण छ अने तेनो उपयोग करवाथी पूर्ण जेवो देखाय छे, २ कोईक धनादिवडे पूर्ण छ पण तेनो उपयोग न करवाथी तुच्छ जेबो देखाय छे, ३ कोईक धनादिथी तुच्छ छे पण तेनो उपयोग करवाथी पूर्ण जेवो देखाय छे अने ४ कोईक तच्छ छे अने तुच्छ जेबो देखाय छे. (४) चार प्रकारना कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक कुंभ जळ विगेरथी पूर्ण अने सुंदर रूपवाळो छ, २ कोईक जलादिवडे पूर्ण छे पण तुच्छ रूपवाळो छे, ३ कोईक जलादिवडे तुच्छ(खाली) पण सुंदर रूपवाळो छे अने ४ कोईक जलादिथी तुच्छ अने तुच्छ रूपवाळो छे. (५) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष ज्ञानादिबडे पूर्ण अने पवित्ररूप-रजोहरणादि विशिष्ट वेषवाळो छ, २ कोईक पुरुष ज्ञानादिवडे पूर्ण छे पण तुच्छ XxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandie श्रीस्था ४ स्थान काध्ययने नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ५३४॥ उद्देशः४ तरककुम्भ समपुरुषाः सू० ३५९ -६० KOKKKKKKKKKXxxxxxxxxxx रूपवाळो-द्रव्यलिंगथी रहित छ, ३ कोईक पुरुष ज्ञानादि गुणथी रहित छे पण द्रव्यलिंग( मुनिवेप) युक्त छ अने ४ कोईक बन्नेथी तुच्छ छ अर्थात् ज्ञानादि गुणथी अने वेपथी रहित छ. (६) चार प्रकारना कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक कुंभ जलादिथी पूर्ण छे अने कनकादिमय होवाथी प्रीतिकर छे, २ कोईक कुंभ जळादिथी पूर्ण छ पण मृत्तिकादि हीन द्रव्यवाळो होवाथी अपदल-असारभूत छ, ३ कोईक जलादिथी रहित छ पण श्रेष्ठ द्रव्यमय होवाथी प्रीतिकर छे अने ४ कोईक जलादिथी रहित छे अने हीन द्रव्यवाळो होवाथी असार छे. (७) आ दृष्टांते चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष धन, श्रुतादिथी पूर्ण छ अने दानादिथी प्रीतिकर छे, २ कोईक धन, श्रुतादिथी पूर्ण छ पण दानादिना अभावथी प्रीतिकर नथी, ३ कोईक धन,श्रुतादिथी हीन छे पण दानादिर्थी प्रीतिकर छे अने ४ कोईक उभयप्रकारे हीन(असार) छे.(८) चार प्रकारना कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक कुंभ जलादिथी पूर्ण छे अने झरे छे, २ कोईक जलादिथी पूर्ण छे पण झरतो नथी, ३ जलादिथी हीन छ पण झरे छे अने ४ जलादिथी हीन छे अने झरतो नथी. (९) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष धन, श्रुतादिवडे पूर्ण छे अने झरे छे-धन, श्रुतादिने आपे छे, २ कोईक धनादिथी पूर्ण छ पण धनादिने आपतो नथी, ३ कोईक धनादिथी हीन छे पण आपे छे अने ४ कोईक धनादिथी हीन छ अने धनादिने आपतो नथी. (१०) चार प्रकारना कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ फूटेल, २ जाजरो-फाटवाळो, ३ पाणीने झरनार (काचो) अने ४ पाणीने नहिं झरनार-पाको. (११) आ दृष्टांते चार प्रकारना चारित्र कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ खंडित-मूलप्रायश्चित्त(फरीथी दीक्षा ने योग्य, २ जर्जरित-छेदादि प्रायश्चित्तने योग्य, ३ सक्ष्मअतिचारयुक्त, अने ४ निरतिचारचारित्र. (१२) चार प्रकारना Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXMURARMAXXXXX कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक मधनो कुंभ अने मधk ढांकणुं छे, २ कोईक मधनो कुंभ अने विपर्नु ढांक[ छ, ३ कोईक विषनो कुंभ अने मधनुं ढांकणु छे अने ४ कोईक विषनो कुंभ अने विषतुं ढांकणुं छे. (१३) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष निष्पाप हृदयवाळो छे अने मधुरभाषी छे, ए प्रमाणे चार भांगा जाणवा. (१४) अहीं मृळनी चार गाथानो अर्थ आ प्रमाणे विचारवो-जे पुरुषमां पापरहित, प्रीतिकर हृदय अने जीभ पण मधुर बोलनारी नित्य विद्यमान छ ते पुरुष मधुनो कुंभ अने मधुना ढांकणा जेवो छ।।२॥ जे पुरुषमा पापरहित, प्रीतिकर हृदय छे परंतु जीभ कटुक बोलनारी नित्य विद्यमान छ ते पुरुष मधुना कुंभ अने विषना ढांकणा जेवो छ ।॥ २॥ जे पुरुषमा पापमय, अग्रीतिकर हृदय छे पण जीभ मधुरभाषिणी नित्य विद्यमान छे ते पुरुष विषनो कुंभ अने मधुना ढांकणा जेबो छ । ३ ॥ जे पुरुषमा पापमय, अप्रीतिकर हृदय छे अने जीभ पण कटुकभाषिणी नित्य विद्यमान छे ते पुरुष विषनो कुंभ अने विषना ढांकणा जेवो छ । ४ ।। (सू० ३६०) टीकार्थः-'चत्तारि तरगे' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-तरे छे ते तरा, ते ज तरको-तरनाराओ छे. 'समुद्रनी माफक दुस्तर सर्वविरति विगरे कार्यने (९) तरामि-करूं छु' एवी रीते स्वीकारीने तेमां समर्थ कोईएक समुद्रने तरे छे अर्थात् ते ज समर्थन करे छ-आ एक, चीजो तो तेने ( सर्वविरत्यादिने ) स्वीकारीने असमर्थपणाथी गोष्पदसमान देशविरति विगेरे अल्पतमने तरे छे-पाळे छे, श्रीजो तो गोष्पदप्राय(देशविरति)ने स्वीकारीने वीर्यना अतिरेकथी समुद्रप्राय(सर्वविरति)ने पण साधे छे. चतुर्थ भंग सुगम छे. (१) समुद्रप्राय कार्यने निर्वाहीने समुद्रप्राय अन्य प्रयोजनमा खेद पामे छे पण तेनो निर्वाह करतो नथी, कारण के क्षयोपशमनी विचित्रता होय छे. एवी रीते शेष त्रण भांगा पण जाणवा. (२) कुंभना दृष्टांतवडे xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXOXO For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्कपत्र सानुबाद १ स्थान काभ्ययने उद्देशः४ | तरककुम्भसमपुरुषाः सू० ३५९ XXXX xxxx पुरुषोने ज प्रीतपादन करवानी इच्छावाळा सत्रकार सत्रना विस्तारने कहे छे-आ सत्र सुगम छे. विशेष ए के-पूर्ण-समग्र अवयव युक्त अथवा प्रमाणोपेत, वळी पूर्ण-मधु विगेरेथी भरेल, आ प्रथम, बीजा भांगाने विषे तुच्छ-खाली, त्रीजा भांगामां तुच्छ-अपूर्ण अवयववाळो अथवा लघु अने चतुर्थ भंग सुगम छे. अथवा पूर्ण भरेल, पहेला अने पछी पण पूर्ण, एवी रीते चार भांगा जाणवा. (१) पुरुष तो जाति विगेरे गुणोथी पूर्ण, वळी ज्ञानादि गुणोथी पूर्ण अथवा धनथी के ज्ञानादि गुणोथी प्रथम पूर्ण, एवी रीते बीजा त्रण भांगा पण जाणवा. (२) अवयवोवडे अथवा दहीं विगेरेथी पूर्ण अने जोनाराओने पूर्ण ज जणाय छे-भासे छे ते पूर्णावभासी-आ एक, बीजो तो पूर्ण छ पण कोईक हेतुथी विवक्षित प्रयोजनना असाधकपणादिने लईने तुच्छ जणाय छे. एम बीजा वे भंग जाणवा. (३) पुरुष तो धन, श्रुतादिवडे पूर्ण अने तेनो विनियोग करवाथी-वापरवाथी पूर्ण ज जणाय छे-आ एक, बीजो तो धनादिनो उपयोग न करवाथी तुच्छ ज जणाय छ, त्रीजो तो धनादिवडे तुच्छ-हीन छे परन्तु कोई पण रीते प्रसंगने उचित प्रवृत्ति करवाथी पूर्णनी माफक जणाय छे अने चोथो तो तुच्छ-धन, श्रुतादिथी रहित, आने लईने ज तेनो वपराश न करवाथी तुच्छ जणाय छे. (४) तथा पाणी विगेरेथी पूर्ण, वळी पूर्ण अथवा पुण्य पवित्र रूप छे जेनुं ते पूर्णरूप अथवा पवित्ररूप-आ प्रथम, द्वितीय भंगमां तुच्छ-हीन छे आकार जेनो ते तुच्छरूप. एम शेष बे भंग पण जाणवा. (५) पुरुष तो ज्ञानादिवडे पूर्ण अने पूर्णरूप अथवा विशिष्ट रजोहरणादि द्रव्यलिंगना सद्भावथी पुण्यरूप सुसाधु-आ एक, द्वितीय भंगमां कारणवशात् तजेल वेषवाळो सुसाधु, तृतीय भंगमा तुच्छ-ज्ञानादिथी रहित निह्ववादिक अने चतुर्थ भंगमां | ज्ञानादिथी हीन अने द्रव्यलिंगथी हीन गृहस्थादि. (६) तथा पूर्ण पूर्ववत् ('अपि' शब्द तो तुच्छनी अपेक्षाए समुच्चय अर्थमां -६० xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx XXXXXexxx For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxxxx Dxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy छ. ) कोईक घट प्रीतिने माटे थाय ते प्रियार्थ, कारण के कनकादिमय होवाथी सारभृत छे, तथा अपदल-कारणभूत मृत्तिकादि द्रव्य असुंदर छ जेनुं ते अपदल अथवा अवदलति-विदाराय छे-चीराय छे ते अवदल, कईक ओछो पाकेल होवाथी असार छे. तुच्छ घट पण एवी रीते जाणवो. (७) पुरुष धन, श्रुतादिवडे पूर्ण अने प्रियार्थ-कोईक प्रिय वचन तथा दानादिवडे प्रियकारी सारभूत छ, बीजो तो तेवो नथी माटे अपदल छे-परोपकार करवामां अयोग्य छे. तुच्छ पण एवी रीते समजबो. (८) घट पूर्ण छ तो पण जलादिने झरे छे, अहिं जलादिवडे तुम्छ-ओछो छ ते ज झरे छे. 'अपि' शब्द सर्वत्र प्रतियोगीनी अपेक्षाए समुच्चय अर्थमा छे. (९) कोई एक पुरुष तो धन के श्रुतादिवडे पूर्ण छे अने तेने आपे छे-आ एक, बीजो तो पूर्ण छे पण धनादि आपतो नथी, त्रीजो तुच्छ अल्प धनादिवाळो छे तो पण धन, श्रुतादिने आपे छे, चोथो धनादिथी रहित छे ने आपतो पण नथी. (१०) तथा भिन्न-फूटेलो. जर्जरित-रेखायुक्त अर्थात् फाटवाळो, परिश्रावी-दुष्पक्व होवाथी झरनारो अने अपरिश्रावी-कठिन होवाथी झरनारो नथी. (११) चारित्र तो मूल प्रायश्चित्तनी प्राप्तिवडे भिन्न-भांगेलं, छेदादि प्रायश्चित्तनी प्राप्तिवडे जर्जरितनबलं, सूक्ष्म अतिचारपणावडे परिश्रावी-अल्प दोषवाळु चारित्र अने निरतिचारपणाए अपरिश्रावी चारित्र छे. अहिं पुरुषना अधिकारमा पण जे चारित्रलक्षण पुरुषधर्मर्नु कथन करेल छे ते धर्म अने धर्मानुं कथंचित अभेदपणुं होवाथी निर्दोष जाणवु. (१२) तथा मधुनो कुंभ ते मधुकुंभ अर्थात् मधुथी भरेल अथवा मधु छे पिधान-ढांक| जेनुं ते मधुपिधान, एम बीजा त्रण भांगा पण जाणवा. (१३) पुरुषसूत्र स्वयमेव सूत्रकार भगवाने 'हिय' मित्यादि० गाथाचतुष्टयवडे भावेल छे. तेमा हृदय-मन, अपाप-हिंसा रहित, अकलुष-अप्रीति रहित अने मधुरभाषिणी जिला पण जे पुरुषने विषे विद्यमान छे ते XXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie www.kobatirth.org बीस्थानाजपत्र पानुवाद ॥५३६॥ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy पुरुष मधुंकुभनी जेम मधुकुंभ छ अने मधुपिधाननी जेम मधुपिधान छे, एम प्रथम भंगनी योजना करवी. त्रीजी गाथामा जे ४ स्थान हृदय कलुषमय-अप्रीतिवाळ, उपलक्षणथी पापवाल्लं अने जे मधुरभाषिणी जिह्वा ते जे पुरुषने विष नित्य विद्यमान छे ते पुरुष काध्ययने विपकुंभ अने मधुपिधान छे; कारण के तेनुं समानपणुं छे. (१४) (सू० ३६०) अहिं कहेल चतुर्थ पुरुष उपसर्गनो करनार उद्देश: थाय, माटे उपसर्गनी प्ररूपणा करवा माटे 'चउब्विहा उवसग्गे 'त्यादि० सूत्रपंचक कहे छ उपसर्गाः चउव्विहा उवसग्गा पं० तं०-दिव्वा माणुस्सा तिरिक्खजोणिया आयसंचेयणिज्जा १, दिव्वा उवसग्गा चउठिवहा पं० तं०-हासा पाओसा वीमंसा पुढोवेमाता २, माणुस्सा उवसग्गा चउठिवहा पं० २०-हासा पाओसा वीमंसा कुसीलपडिसेवणया ३, तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चउम्विहा पं० २०-भता पदोसा आहारहेडं अवच्चलेणसारक्खणया ४, आतसंचेयणिज्जा उवसग्गा चउव्विहा पं० सं०-घट्टणता पवडणता थंभणता लेसणता ५ । सू० ३६१ मूलार्थ:-चार प्रकारना उपसौ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-दिव्या-देव संबंधी, मनुष्य संबंधी, तिर्यचयोनिक संबंधी अने. पोताथी ज करायेला. (१) दिव्य उपसर्गो चार प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाण-हास्यथी, प्रद्वेषथी, विमर्श-परीक्षाथी अने जुदी जुदी रीते हास्यादिथी. (२) मनुष्य संबंधी उपसा चार प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाणे -हास्यथी, प्रद्वेषथी, परीक्षा-IX थी अने कुशील सेवयानी इच्छाथी. (३) तियंचयोनिक संबंधी उपसर्गो चार प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाणे-भयथी, 1 ॥५३६ (XXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX प्रद्वेषथी, आहारना हेतुथी तथा वाळक अने स्थाननी रक्षा माटे. (४) आत्मसंचेतनीय उपसर्गो चार प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ संघट्टणधी-आंखमा रज पडतां तेने हाथे चोळवाथी पीडा थाय छे. २ पडी जवाथी.३ घणी वार बेसवा विगेरे। बडे अंग झलाई जवाथी अंने घणो ४ काळ पग संकोचीने बेसवाथी वायुवडे तेमज पग लागी-मळी जवाथी. (५) (मू. ३६१) ___टीकार्थः-आ सूत्र सरळ हे. विशेष ए के-समीपे प्राप्त थवारूप अथवा धर्मथी जेओवडे भ्रष्ट कराय छे ते उपसगा-दुःखविशेषो, ते कर्त्ताना भेदथी चार प्रकारना छे. कयु छ केउसजणमुवसग्गो, तेण तओय उवसिज्जए जम्हा। सो दिव्वमणुयतेरिच्छ-आयसंवेयणाभेओ ॥२०॥ प्रायः उक्तार्थ छ. आत्मावडे · संचत्यन्ते '-कराय छ ते आत्मसंचेतनीयो १, तेमां दिव्य उपसर्गो ' हास' त्ति० हास्यथी थाय | छ अथवा हासवडे उत्पन्न थवाथी हासउपनगो. एवी रीते अन्य उपसर्गोमां पण जाणवू. जेम भिक्षाने अथै ग्रामांतरमा गयेल क्षुल्लक मुनिओए व्यंतरी पासे प्रार्थना करी के ' जो अमे इच्छित भोजन मेळवशुं तो तने उंडरेक (खडी) विगेरे आपशु' एम अंगीकार करीने इष्टभोजन प्राप्त थये छते 'आ तारुं छ' एम कहीन ते उंडरेकादि तेओए पोते ज खाधु. देवीए हास्यवडे तेओना रूपने छुपावीने तेओनी साथे क्रीडा करी. क्षुल्लक मुनिओ न आव्ये छते गच्छना मुनिओए व्याकुल थई आचार्य पासे निवेदन कयु के देवीए क्षुल्लकोने आ प्रमाणे विघ्न करेल छे. बाद वृषभ( समर्थ ) मुनिओए उंडरकादि याचीने ते देवीने आप्यु त्यारे ज तेणीए क्षुल्लक मुनिओने बताव्या. प्रद्वषथकी जेम संगमक देवे महावीर भगवंतने उपसर्गों XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थान xxxxxx नागपत्र सानुवाद ॥५३७॥ KXXXXXX कर्या. विमर्श-परीक्षाथी जेम वर्षातुने विषे कोईक देवकुलिका( देरी)मा केटलाएक महानुभाव साधुओ चातुर्मास रहेला. चातुर्मास - ४ स्थानपूर्ण थया बाद तेओ अन्यत्र गया. तेमाथी एक साधु पुनः ते देवकुलिकामां आवीने रह्यो त्यारे देवीए विचार्यु के-आ साधु केवो काभ्ययने छ ? एम तनी परीक्षा करवा माटे उपसर्ग करवा लागी. पृथक्-भिन्न भिन्न प्रकारनी मात्रा-हास्यादि वस्तुरूप छे जेओने विषे उद्देशः ते पृथग्विमात्रा, अथवा पृथग्-विविध मात्रावडे (आ लोप थयेल तृतीया विभक्तिना एकवचनवाडं पद जाणवू.) हासवडे उपसर्गाः करीने प्रद्वेषवडे उपसर्ग करे छे, एवी रीते संयोगवाळा थाय छे, जेम संगमक देव ज विमर्षद्वारा प्रद्वेषवडे उपसर्ग करतो हतो. सू०३६१ २, मनुष्य संबंधी हास्यथी, जेम गणिकानी पुत्री क्षुल्लक मुनिने उपसर्ग करती हती. क्षुल्लकमुनिवडे ते गणिकानी पुत्री दंडवडे ताडन कराई. बाद राजद्वारमा ते बन्नेनो विवाद थवाथी क्षुल्लकमुनिए भंडारनुं दृष्टांत कपु. [जेम राजाना भंडारनी चोरी करनारने ताडन कराय छे तेम आ गणिकानी पुत्री पण साधुना आचाररूप भंडारना शीलरूपी रत्नने चोरनारी छे माटे में तेणीने दांडावडे मारेल छे. ] प्रद्वेषथी जेम गजसुकुमार मुनि सोमिल ब्राह्मणद्वारा मराया. परीक्षाथी जेम चाणाक्यना कथनथी चंद्रगुप्त राजाए धर्मनी परीक्षा माटे अंतःपुरमा अन्यलिंगीओने बोलाव्या अने धर्मनी व्याख्या कराववाद्वारा क्षोभित कर्या, परंतु जैन साधुओने क्षोभ पमाडवाने माटे समर्थ न थयो. कुशील एटले अब्रह्मनुं प्रतिसेवन, तेनो भाव ते प्रतिसेवनता उपसर्ग अथवा कुशीलनु प्रतिसेवन छे जेओने विषे ते प्रतिसेवनको अथवा कुशीलनी प्रतिसेवनावडे एम व्याख्यान करवू.जेम वसति-उपाश्रय ___ *अन्यलिगोओनुं शील दृढ न होवाथी राजानी राणी विगेरेना रूपमा व्यामोह पाम्या अने साधुओ तो शीलमा दृढ होवाधी राणोनी सामु पण जोयु नहि. xn५३७॥ KxxxxxxxxxxXXXXXXxxxx For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXX xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxOKOOK) माटे प्रोषित-परदेश गयेला भर्तारवाळी इर्ष्यालु स्त्रीना घरने विष सायंकालना समये साधु आव्या त्यारे ते इर्ष्यालु एवी चार स्वीओए साधुने रद्देवा माटे आवास आप्यो. पछी दरेक स्त्रीए चार प्रहर पर्यंत साधुने उपसर्ग कर्यों पण ते क्षोभ न पाम्या ३. भयथी श्वान विगेरे तिर्यचो करडे छे, प्रद्वेषथी चंडकोशिक नाग भगवानने डश्यो (डंख मार्यो), आहारना हेतुथी सिंह विगेरे अने संतान तथा स्थाननी रक्षा करवा माटे कागडी विगेरे उपसर्ग करे ४. आत्मसंचेतनीया-पोताथी करायेला उपसर्गो. घट्टणता-घस, अथवा घसवावडे, जेम आंखमां रज पडवाथी आंखने हाथवडे मशळी तेथी दुःखने माटे शरूआत करी अथवा स्वयमेव आंखमां के गळामां मांसना अंकुर विगेरे थयेल होय तेने घसे, प्रपतनता-पडवापणुं अथवा पडवावडे जेम उपयोग विना चालनारनुं पतन थवाथी दुःख उत्पन्न थाय छे ते, स्तंभनता अथवा स्तंभनवडे, जेम त्यां सुधी बेठो ऊभो रह्यो अने सूतो के ज्यां सुधी पग विगेरे स्तब्ध-अकडाई जाय ते स्तंभनता, श्लेषणता अथवा श्लेषणावडे, एवी रीते पगने | संकुचीने रह्यो के जेथी वायुवडे पग रही गयो-मळी गयो. अहिं आ संबंधी गाथाओ दर्शाये छ हास १ पदोस २ वीमंसओ ३, विमायाय ४ वा भवे दिव्यो। एवं चिय माणुस्सो, कुसीलपडिसेवणचउत्थो ॥ २१ ॥ तिरिओ भय १ प्पओसा २-ऽऽहाराऽ३वच्चादिरक्खणत्थं वा ४ । घट्टण १ थंभण २ पवडण ३, लेसणओ वाऽऽयसंचेओ ४ ॥ २११ ॥ KXxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsur Gyarmandie भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥५३८॥ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः कर्मसङ्घ बुद्धिः जीवा KoxxxxxXKXXXXXXXXXXXXXKAKKKXXXXX दिव्वमि वंतरी १ संगमे २, गजइ ३ लोभणादीया ४ [ इत्युत्तरार्द्ध ] गणिया १ सोमिल २ धम्मोव-एसणे ३ सालुजोसियाईया ४। तिरियमि साण १ कोसिय २, सीहा ३ अचिरसूवियगवाई ४ ॥ २१२ ॥ कणुग १ कुडणा २ भिपयणाइ ३. गत्तसंलेसणादओ ४ नेया। आओदाहरणा वाय १, पित्त २ कफ ३ सन्निवाया वा ४॥ २१३ ॥ पहेली साडीत्रण गाथा उपर जणावेला अर्थवाळी छे. आत्मसंचेतनीय उपसर्गोमां वायु, पित्त, कफ अने सन्निपात उदाहरणो छे. (स० ३३१) उपसर्गोने सहन करवाथी कर्मनो क्षय थाय छे तेथी कर्मना स्वरूपनुं प्रतिपादन करवा माटे सूत्रकार कहे छ चउठिवहे कम्मे पं० २०-सुभे नाममेगे सुभे, सुभे नाममेगे असुभे, असुभे नाम०४ (१) चउविहे कम्मे पं० २०-सुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे ४(२), चउब्धिहे कम्मे पं० तं-पगडोकम्मे ठितीकम्मे अणु १. तत्काल प्रसूता गाय विगेरे. Caxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ६५ an५३८॥ For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भावकम्मे पदेसकम्मे ४(३) । सू० ३६२, चउव्विहे संघे पं० तं०-समणां समणीओ सावगा सावियाओ। सू० ३६३, चउठिवहा बुद्धी पं० २०-उप्पत्तिता वेणतिता कम्मिया पारिणामिया, चउठिवधा मई पं० त०-उग्गहमती ईहामती अवायमई धारणामती, अथवा चउब्विहा मती पं० २०अरंजरोदगसमाणा वियरोदगसमाणा सरोदगसमाणा सागरोदगसमाणा । सू० ३६४, चउठिवहा संसारसमावन्नगा जीवा पं० २०-णेरइता तिरिक्खजोणीया मणुस्सा देवा, चउव्विहा सव्वजीवा पं० तं०-मणजोगी वइजोगी कायजोगी अजोगी, अहवा चउँव्विहा सव्वजीवा पं० पं०-इत्थिवेयगा पुरिसवेदगा णपुंसकवेदगा अवेदगा, अथवा चउब्विहा सव्वजीवा पं० तं-चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिंदंसणी केवलदसणी अहवा चउब्विहा सव्वजीवा पं० २०-संजया असंजया संजयासंजया णोसंजयाणोअसंजया । सू० ३६५ __ मूलार्थ:-चार प्रकारे कर्म कहेल छे, ते आ प्रमाण-१ एक कर्म शुभ-पुण्यप्रकृतिरूप अने शुभानुबंधी-पुण्यना अनुबंधवाळु छ अर्थात् पुण्यानुबंधी पुण्य, २ कोईक शुभ छ पण अशुभना अनुबंधवाळु छ अर्थात् पापानुबंधी पुण्य, ३ कोईक अशुभ छे पण शुभ पुण्यना अनुबंधवाळु छ अर्थात् पुण्यानुबंधी पाप अने ४ कोईक अशुभ छे अने अशुभना अनुबंधवाल्लु छ अर्थात् KAKKKKKKKKKKKKKKKKKEKX For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था ४ स्थान. काभ्ययने उद्देशः ४ कर्मसङ्घः ॥५३९॥x बुद्धिः पापानुबंधी पाप. (१) चार प्रकारे कर्म कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक कर्म शुभपणे बांधल छे अने उदयमां पण शुभपणाए आवे छ, २ कोईक कर्म शुभपणे बांधल छ पण संक्रमकरणबडे अशुभप्रकृतिमां मळी जईने अशुभपणाए उदयमां आवे छे, ३ कोईक कर्म अशुभपणे बांधल छ पण संक्रमकरणवडे शुभपणाए उदयमां आवे छे अने ४ कोईक कर्म अशुभपणे बांधल छे अने अशुभपणे उदयमां आवे छे. (२) चार प्रकारे कर्म कहेल छे, ते आ प्रमाणे-प्रकृतिकर्म, स्थितिकर्म, अनुभावकर्म अने प्रदेशकर्म. (३) (सू० ३६२ ) चार प्रकारनो संघ (ज्ञानादि गुणना पात्रभूत जीवसमूह ) कहेल छ, ते आ प्रमाणेश्रमणो, श्रमणीओ, श्रावको अने श्राविकाओ. (सू० ३६३) चार प्रकारनी बुद्धि कहली छे, ते आ प्रमाणे-तात्कालिक उत्पन्न थती बुद्धि ते औत्पत्तिकी, विनयथी उत्पन्न थती ते वैनयिकी, कार्य करवाना सतत अभ्यासथी उत्पन्न थती बुद्धि ते कार्मिकी अने लांचा काळ पर्यंत अनुभव मेळववाथी उत्पन्न थती जे बुद्धि ते पारिणामिकी. चार प्रकारनी मति कहेली छे, ते आ प्रमाणेअवग्रहमति, इहामति, अवायमति अने धारणामति अथवा चार प्रकारनी मति कहेली छे, ते आ प्रमाणे-घडाना पाणी जेवी, विदर-विरडाना पाणी जेवी, तळावना पाणी जेवी अने सागरना पाणी जेवी. (सू० ३६४) चार प्रकारना संसारमा रहेला जीवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ नैरयिको, २ तिर्यंचयोनिको, ३ मनुष्यो अने ४ देवो. चार प्रकारे सर्व जीवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ मनयोगी, २ वचनयोगी, ३ काययोगी, ४ अयोगी. अथवा चार प्रकारे सर्व जीवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे१ स्त्रीवेदवाळा, २ पुरुषवेदवाळा, ३ नपुंसकवेदवाळो अन ४ अवेदको. अथवा चार प्रकारे सर्व जीवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे१चक्षुदर्शनी, २ अचक्षुदर्शनी, ३ अवधिदर्शनी अने ४ केवलदर्शनी. अथवा चार प्रकारे सर्व जीवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे जीवाः सू०३६२ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx X॥ ५३९॥ For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ संयत, २ असंयत, ३ संयतासंयत-देशविरति अने ४ नोसंयतनोअसंयत (सिद्ध) (सू० ३६५) | टीकार्थ:-'चउब्विहे' त्यादि० प्रण सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के-जे कराय ते कर्म-ज्ञानावरणीय विगेरे. ते १ शुभ| पण्यप्रकतिरूप, पुनः शुभ-शुभना अनुबंधवाळ होवाथी, भरतादिनी जेम. २ शुभ पूर्ववत् पण अशुभना अनुबंधवाळं होवाथीं अशभ के. ब्रह्मदत्त विगेरेनी जेम. ३ अशुभ-पापप्रकृतिरूप, पण शुभना अनुबंधवाळ होवाथी शुभ छ-दुःखविशिष्ट अकाम निर्जरावाळा गाय विगेरेनी जेम. अशुभ पूर्ववत् वळी अशुभना अनुबंधवाळ होवाथी अशुभ छ, धीवर विगैरेनी जेम. (१) १शभ-साता विगेरे, जेम सातादिपणाए पांच्यु तेम ज उदयमा जे आवे ते शुभविपाक. २ शुभपणाए जे बांधलं परंत संक्रमकरणवशात अशुभपणाए उदयमा आवे ते बीजुं, संक्रमनामाकरण( जीवना सामर्थ्य )ना वशथी कर्मने विष बीजा कर्मना प्रवेश थाय छे. कधुं छे के-" मूळप्रकृतिवडे अभिन्न, उत्तरप्रकृतिओने आत्मा, प्रकृतिना स्वभावथी संक्रमावे छ अर्थात जे प्रकृतिमा संक्रमावे तत्स्वरूप संक्रमती प्रकृति थई जाय छे, प्रश्न-आत्मा अमृतं होवाथी केवी रीते संक्रमावे ? उत्तर-अ. ध्यवसायप्रयोगवडे केम के आत्माने कर्मजन्य अध्यवसायो होय छे तेने लईने संसारस्थ आत्मा कथंचित् मूर्त पण छे ॥१॥" तथा मतांतर आ प्रमाणे जाणवोमोत्तण आउयं खल. दंसणमोहं चरित्तमोहं च। सेसाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंकमो भणिओ।२१४। आयुषकर्मनी चार प्रकृतिओनो परस्पर संक्रम थाय नहिं तथा दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीयनी प्रकृतिओनो पर K.XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKAKKKK For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ५४० ॥ www.kobatirth.org स्पर संक्रम न थाय. शेष प्रकृतिओनो स्वजातीय उत्तरप्रकृतिमां संक्रम थाय पण विजातीयमां न थाय. मूल प्रकृतिनो सर्वथा परस्पर संक्रम थतो नथी. ३ अशुभपणाए जे बांधलं अने शुभपणाए उदयमां आवे ते श्रीजुं अने चोथुं सुगम छे. त्रीजुं कर्मसूत्र आ चतुर्थ स्थानकना द्वितीय उद्देशक्रमां कहेल बंधसूत्रनी जेम जाणवुं. ( मू० ३६२ ) चार प्रकारना कर्मना स्वरूपने संघ ज जाणे छे माटे संघसूत्र अने ते संघ सर्वज्ञपुरुषना वचनवडे संस्कारित बुद्धिवाळो होय छे माटे बुद्धिसूत्र, अने बुद्धि ते मतिविशेष छे माटे बे मतिसूत्रो कहेल छे. आ बधा य सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के संघ - गुणरत्नना पात्रभूत जीवोनो समुदाय, ते संघां *'श्राम्यन्ति', तपश्चर्या करे छे ते श्रमणो. अथवा शोभन मनवडे - नियाणाना परिणामलक्षण पाप रहित चित्त सहित व छे ते समनसः तथा समान स्वजन अने परजनने विषे तुल्य छे मन जेओनुं ते समनसः कबुं छे के— तो समणो जइ सुमो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसुं ज्यारे शून्य मनवाळो होय छे, अने आत्मपरिणामरूप भाववडे पापयुक्त मनवाळो थतो नथी, तथा स्वजन अने पर - जनम के मान अने अपमानमां समानभाववाळो रहे छे त्यारे श्रमण कहेवाय छे अथवा सम-समानपणाए शत्रु के मित्र विगेरेने विषे प्रवर्त्ते छे ते समणाः कधुं छे के * मूलमां 'समण' शब्द छे तेना भ्रमण, समनसः, समणः, समना इत्यादि अनेक रूपो करेला छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★★★ ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ कर्मसङ्घः बुद्धिः जीवाः सू०३६२- ६५ | ५४० ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नत्थयसि कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽवि पज्जाओ । २१६ । समस्त जीवाने विषे जेने कोई पण द्वेष करवा योग्य नथी अथवा कोई प्रिय नथी, आ समभाववडे समनाः, एनो बीजो पण पर्याय छे. प्राकृतपणाने लईने सर्वत्र 'समण' शब्द छे एम 'समणीओ' छे. 'श्रृण्वन्ति - जिनवचनने जे सांभळे हे ते श्रावक छे. कां छे के " प्राप्त करेल दृष्टि विगेरे विशुद्ध संपत्ति ( सम्यग्दृष्टि ), साधुजन पासेथी दररोज प्रभातमां जे आळस रहित उत्कृष्ट समाचार ( सिद्धांत ) ने सांभळे छे तेने जिनेंद्रो श्रावक कहे छे. " ( १ ) अथवा ' श्रान्ति' पचावे छे, तच्चार्थना श्रद्धानने निष्ठा प्रत्ये लई जाय छे ( निष्ठित-स्थिर थाय छे ) ते ' श्री ' तथा 'वपन्ति' - गुणवाळा सप्त क्षेत्रोने विषे धनरूप बीजने वावे छे ते ' वा ' तथा किरन्ति 'क्लिष्ट कर्मरूप रजने फेंकी दे छे ते ' का ' तेथी कर्मधारय समास कर्ये छते 'श्रावकाः ' एवो प्रयोग सिद्ध थाय छे. कधुं छे के" पदार्थना चिंतनथी श्रद्धालुताने दृढ करे छे, निरंतर पात्रोने विषे धन वावे छे अने सारा साधुना सेवनथी पापोने शीघ्र फेंके छे-दूर करे छे तेने ज्ञानीओ श्रावक कहे छे. एवीरीते श्राविका पण जाणवी. (०२३३) तथा उत्पत्ति ज छे प्रयोजन जेणीनुं ते १ औत्पत्तिकी बुद्धि. शंका- आ बुद्धिनुं तो क्षयो पशम कारण छे. समाधान - तमारुं कथन सत्य छे, परंतु ते अंतरंग कारण होवाथी सर्व बुद्धिनुं साधारण कारण छे, तेथी तेनी विवक्षा अहीं करेल नथी. वळी अन्य शास्त्र अथवा कर्म - शिल्पादिकार्यनी आ बुद्धि अपेक्षा करती नथी परंतु बुद्धिनी उत्पत्ति थया ९१ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **********X*XXXXXXXXXXXXXXXX Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था XXXXXX XI नागपत्र सानुवाद ॥५४१॥४ बुद्धिः अगाउ पोते नहि जोयेल. वीजा पासेथी नहि सांभळेल अने मनवडे पण नहि विचारेल अर्थने ते जक्षणमां जम छे तम जेनावडे ४ स्थान ग्रहण कराय छे ते उभय लोक अविरुद्ध, एकांतिक फळवाळी आ औत्पत्तिकी बुद्धि छे. कयु छ के काध्ययने पुवमदिट्ठमसुयम-वेइयतक्खणविसुद्धगहियत्था । अव्वाहयफलजोगा, बुद्धी उप्पत्तियानाम ॥२१७॥ उद्देशः ४ भावार्थ उपर मुजब छे. आ बुद्धि नटपुत्र रोहक बिगैरेनी जेम जाणवी. कर्मसङ्घः गुरुनी शुश्रूषा-सेवारूप विनय जेमां कारण छ अथवा बिनय प्रधान छ जेमां ते २ वेनयिकी बुद्धि. वळी कार्यना भारने पार पहोंचाडवाना सामर्थ्यवाळी, धर्म, अर्थ अने कामशास्त्रो संबंधी सूत्रार्थना परमार्थने ग्रहण करनारी अने उभय लोकमां जीवाः फळवाळी आ वैनयिकी बुद्धि छे. कई छे के | सू०३६२भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेयाला। उभओ लोगफलवती विणयसमुत्था हवइ बुद्धि॥२१०४ उक्तार्थ छे. आ बुद्धि नैमित्तिक सिद्धपुत्रना शिष्यादिनी जेम जाणवी. आचार्य-शिक्षक सिवाय शीखलं ते कर्म अने आचार्य पासेथी शीखेलुं ते शिल्प अथवा कोईक वखत करवामां आवतुं ते कर्म अने निरंतर व्यापार करातुं ते शिल्प जाणवू. कर्म-कार्यथी उत्पन्न थयेली बुद्धि ते कर्मजा. विवक्षित कार्यमा मनने जोडवाथी तेना परमार्थने जाणनारी, कार्यना अभ्यासथी अने विचारथी विस्तार पामेली तेमज 'सारं कयु' एम विद्वानोद्वारा प्रशंसा थाय तेवा फळवाळी त्रीजी कर्मजा बुद्धि छे. कयु छ के Xn५४१॥ ६५ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Xxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx उवओगादिसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्कारफलवती, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥२१९॥ उक्तार्थ छे. हैरण्यक-सोनाचांदी प्रमुखनी परीक्षा करनार पारेख अने खेडूत विगैरेनी जेम आ बुद्धि जाणवी. परिणाम-चिरकाल पर्यंत पूर्वापर पदार्थना अवलोकनथी उत्पन्न थयेल आत्मधर्म, ते प्रयोजन छ जेनु अथवा परिणाम छ प्रधान जेमां ते ४ पारिणामिकी बुद्धि. वळी अनुमान, कारणमात्र अने दृष्टांतोवडे साध्यने साधनारी, वयनी वृद्धिवडे पुष्ट थनारी तेमज अभ्युदय अने मोक्षना फळवाळी आ बुद्धि छे. कयु छ केअणुमाणहेउदिटुंत-साहिया वयविवागपरिणामा। हियनिस्सेसफलवई,बुद्धी परिणामिया नाम ।२२०। उतार्थ छे. *अभयकुमारादिनी जेम आ बुद्धि जाणवी. मनन करवू ते मति. तेमां समस्त विशेषनी अपेक्षा सिवाय निर्देश नहि करायेल एवा रूप विगरे सामान्य अर्थन 'अव'प्रथमथी ग्रहण (जाणवू) ते अवग्रह, तद्प मति ते अवग्रहमति. एवी रीते सर्वत्र जाणवू. विशेष ए के-ते ग्रहण करेल अर्थन विशेष आलोचन करवू ते इहा. आलोचित अर्थविशेषनो निश्चय ते अवाय अने निश्चित करेल अर्थविशेष- जे ( हृदयमां) अविच्युतिपणे धारी राखq ते धारणा. कयु छ के| सामन्नत्थावगहण-मोग्गहो भेयमग्गणमिहेहा। तस्सावगमोऽवाओ, अविच्चुई धारणा तस्स ॥२२॥ * चार प्रकारनी बुद्धि उपर दर्शावेला दृष्टांतो नंदीसूत्रनी टोकाथी जाणी लेवा. (xxxxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXxxx) For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद १५४२॥ ४ स्थान काभ्ययने उद्देशः ५ कर्मसञ्चः युदिः उक्तार्थ छ. अरंजर-उदकनो कुंभ, ते अलंजर नामथी पण प्रसिद्ध छ, तेने विष रहेल उदकना जेबी मति. केमक विशेष अर्थन ग्रहण, विचारणा अने धारणामां सामर्थ्यना अभावथी अल्प होय छे तेमज अस्थिरपणुं होय छे. अरंजरोदक ते जल थाई छ अने शीघ्र खाली थई जाय छे ते. बीजी विदर-नदीना किनारा विगेरेमा जकने माटेकरेल खाडामा (वीरडामा) जे पाणी छ तेना जेपी मति. केमके अल्प होवा छतां अन्य अन्य अर्थना विचारमा समर्थ थाय छ अने जलदी खाली थई जतुं नयी. तेमां जेपपाणी अत्य छे तेम अन्य अन्य थोडुं थोडु पाणी झरे छ-आवे छे तेथी जलदी खाली थतुं नथी. त्रीजी सरोवरना पागी जेबी मति कारण के सरोवर विस्तारपणाथी घणा जनने उपकारक छ अने खाली थतुं नथी. बळी 'चोथी सागरना पाणी जेपी मति. ते समस्त पदार्थना विषयपणावडे अत्यंत विपुल, अक्षय अने मध्यपणुं न जणाय तेवी छे. ममुदना उदकर्नु पग ए ज स्वरूप होय छे. (सू. ३६४ ) उपर वर्णवेल मतिबाळा जीवो ज होय छे माटे जीव संबंधी पांच सूत्रो कहेल छ, त स्पट छे. विशेष ए के-मनयोगीमन सहित, त्रण योगना सद्भावमा पण मनोयोगर्नु प्राधान्य होवाथी. एम वचनयोगी द्वीन्द्रिय विगरे, कापयोगी एंद्रियो, अने अयोगी-रुंधन करेल योगवाळा तथा सिद्धो छे. अवेदक जीयो सिद्ध विगेरे छे. चक्षुयी सामान्य अर्थतुं ग्रहण करवु ते अवग्रह अने इहारूप दर्शन ते चक्षुदर्शन. चक्षुदर्शनवाळा चतुरिंद्रिय विगेरे छे. अवक्षु-स्पर्शन विगरे इंद्रियो, ते दर्शनवाळा एकेंद्रिय विगरे. संयत-सर्वविरतिो , असंयत-अविरतिओ, संयतासंयत-देशविरतिओ अने संयतादि वगेना निषेधवाळा ते सिद्धो जाणवा. (सू० ३६५ ) जीवना अधिकारथी जीव विशेषभूत पुरुषना भेदो चार सूत्रोवडे कहे छ XXXXXXXXXXXXxxxxxxx जीवाः सू०३६२ EXXXXXXX । ५४२ ।। For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - मित्ते नाममेगे मित्ते, मित्ते नाममेगे अमित्ते, अमित्ते नाममेगे मिते, अमित्ते नाममेगे अमित्ते ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं मित्ते णाममेगे मित्तरुवे चउमंगो ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुते णाममेगे अमुत्ते ४ (३) चत्तारिपुरिसजाया पं० तं०-मुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे ४ (४) सू० ३६६, पंचिदियतिरिक्खजोणिया चउगईया चउआगईया पं० तं० - पंचिंदियतिरिक्खजोगिया पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उबवजमाणा णेरइएतो वा, तिविखजोणिएहिंतो वा, मणुस्सेहिंतो वा, देवेदितो वा उववजंज्ञा, से चेवणं से पंविदेिय तिरिक्खजोणिए पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्तं विप्पजहमाणे णेरइत्तत्ताए वा जाव देवत्ताते वा उपगच्छेजा, मणुस्सा चउगईआ चउआगतिता, एवं चेत्र मणुस्सावि । सू० ३६७, बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चउत्रिहे संजमे कज्जति, तं० - जिन्भामयातो सोक्खातो अनवरोवित्ता भवति, जिब्भामरणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासमयातो सोक्खातो अत्रवरोवेत्ता भवइ, फासमयाओ दुक्खाओ असंजोगित्ता भवति ४, बेइंदियाणं जीवा समारभमाणस्स चउविषे असंजमे कज्जति, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाशपत्र बानुबाद ॥ ५४३ ॥ www.kobatirth.org तं० - जिन्भामया तो सोक्खाओ ववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवति, फासामयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, फासामएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवइ ४ । सू० ३६८, सम्मद्दिट्टिताणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओ पं० तं० - आरंभिता परिग्गहिता मायावत्तिया अपच्चवखाण किरिया, सम्मद्दिट्ठियाणं असुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पं० तं०- एवं चैव, एवं विगलिंदियवज्जं जाव वैमाणियाणं । सू० ३६९, चउहि ठाणेहिं संते गुणे नासेज्जा, तं० कोहणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिनिवेसेणं । चउहिं ठाणेहिं संते गुणे दीवेज्जा, तं०अभासवत्तितं परच्छंदाणुवत्तितं कज्जहेउ कतपडिकतितेति वा । सू० ३७०, णेरइयाणं चउहिं ठाणे सरीरुपत्ती सिता, तंजहा- कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं जाव वैमाणियाणं, रइयाणं चउहिं ठाणेहिं निव्वत्तिते सरीरे पं० तं० - कोहनिव्वत्तिए जाव लोभनिव्वत्तिए, एवं जाव वेमाणियाणं । सू० ३७१ मूलार्थ:- चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे १ कोईक पुरुष मित्र - आ लोकमां उपकारी, वळी मित्र-परलोकमां पण उपकारी - सद्गुरुवत्, २ कोईक मित्र-स्नेहवाळा होवा छतां पण परलोकना साधनमां अहितकर होवाथी अमित्र-स्त्री For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************************** ४ स्थान काध्ययने उद्देश: ४ मित्रपश्चे न्द्रियनर गत्या गतिद्वींद्रिया संयमेतरसम्यग्दृष्टिक्रिया गुणनाशतनू स्पादाः सू० ३६६-७१ ।। ५४३ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXXXXXXXXXXXXXXxxxxxxXXXXXXXXX) तथा पुत्रादिवत्, ३ कोईक प्रतिकूल करनार होवाथी अमित्र पण वैराग्यनुं कारण थवाथी मित्र ते-अविनीत स्त्री विगेरेनी जेम अने ४ कोईक प्रतिकूल करनार होबाथी अमित्र अने संक्लेशनो हेतु थवाथी पुनः पण अमित्र छे.(१)चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक मित्र अंतरंग स्नेहवाळो छे अने मित्ररूप-बाह्यथी पण स्नेह बतावे छे, २ कोईक मित्र अंतरंग स्नेहवाळो छ पण अमित्ररूप-बहारथी स्नेह बतावतो नथी, ३ कोईक अमित्र-अंतरंग स्नेहवाळो नथी पण मित्ररूप-वहारथी कृत्रिम स्नेह देखाडे छे-असती स्त्रीवत् अने ४ अमित्र अने अमित्ररूप-अंतरंग के बाह्य स्नेह रहित छे. (२) | चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष मुक्त-द्रव्यथी संगनो त्याग करेल छ अने मुक्त-भावथी पण मूच्र्छानो त्याग करेल छ-सुसाधुवत्, २ कोईक द्रव्यथी मुक्त अने भावथी अमुक्त-आसक्तिवाळो होवाथी रंकवत् , ३ कोईक द्रव्यथी संगवाळो होवाथी अमुक्त पण भावथी मुक्त ते गृहवासमां केवळज्ञान पामेल भरत चक्रीवत् अने ४ द्रव्य तेमज भाव उभयथी अमुक्त ते गृहस्थ. (३) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक पुरुष मुक्त-आसक्ति रहित, वळी मुक्तरूप वैराग्यने सूचक वेषवाळो-यतिनी माफक, २ कोईक पुरुष मुक्त-आसक्ति रहित पण अमुक्तरूप-साधुना वेष रहित-शिवकुमारनी माफक, ३ कोईक अमुक्त-आसक्तिवाळो पण मुक्तरूप-कपटथी यतिवेषने ग्रहण करनारनी जेवो अने ४ अमुक्त अने अमुक्तरूप ते गृहस्थ. (४) (सू० ३६६) पंचेंद्रियतियंचयोनिको चार गतिवाळा अने चार आगतिवाळा कहेला छे, ते आ प्रमाणेपंचेंद्रियतियचयोनिको अर्थात् पंचेंद्रियतिथंच संबंधी* आयुष्यना उदयवाळा, पंचेंद्रियतियंचयोनिको विष उत्पन्न थतां . प्रथम आयुप्यनो उदय थाय छे, पछी गति विगेरेनो उदय थाय छे. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र स्वानुवाद ॥ ५४४ ॥ www.kobatirth.org नैरयिकोमांथी, तियेचयोनिको मांथी, मनुष्योमांथी अथवा देवोमांथी उत्पन्न थाय ते ज पंवेद्रियतियेव योनिक, पंर्वे यतियंचयोनिकपणाने छोडतो थको नैरयिकपणाए अथवा यावत् देवपणाए उत्पन्न थाय. मनुष्यो चार गतिवाळा अने चार आगतिवाळा कल छे. ए प्रमाणे ज तिर्यंचपंचेंद्रियनी जेम मनुष्यो पण जाणवा. ( पू० ३६७ ) इंद्रिय जीवाना आरंभने नहि करनारने चार प्रकारे संयम कराय छे - थाय छे, ते आ प्रमाणे- १ जिह्वाना रसास्वादरून सुखवी भ्रष्ट करनार थतो नथी. २ जिह्वानी हानिरूप दुःखने जोडनार थतो नथी, ३ स्पर्शन इंद्रिय संबंधी सुखनाविनाश करनार थतो नयी अने ४ स्पर्शमय दुःखनो संयोग करनार थतो नथी. बेइंद्रिय जीवोना समारंभ करनारने चार प्रकारनो असंयम कराय छेथाय छे, ते आप्रमाणे - १ रसनाना रसास्वादरूप सुखथी भ्रष्ट करनार थाय छे, २ रसनानी हानिरूप दुःखने जोडनार थाय छे, ३ स्पर्शन इंद्रिय संबंधी सुखनो विनाश करनार थाय छे अने ४ स्पर्शमय दुःखना संभोग करनार थाय छे. ( सू० (३६८ ) सम्यग्दृष्टि नैरयिकोंने चार क्रियाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे आरंभि की, पारिश्रदिकी. मायाप्रत्ययाने अपत्या ख्यानक्रिया सम्यग्दृष्टि असुरकुमारोने ए ज प्रमाणे चार क्रियाओ कहेली छे, एसीरीने एहॉट्रेन अन विकलाद्रेयने छोडीने यावत् सम्यग्दृष्टि वैमानिकाने चार क्रियाओ कहेली छे, अहिं पांच क्रियानी अपेक्षाए चार क्रिया समजवी. मिथ्यादर्शनप्रत्यया न होय. ( सू० ३६९ ) चार कारणोबडे अन्यना छता गुणोनो नाश करे-अपलाप करे, त आ प्रनागे-१ क्रोधथी, २ बीजाना उत्कर्षनी ईर्ष्याने लईने, ३ अकृतज्ञताथी - बीजाना उपकारने न जाणवाथी अने ४ दुराग्रहवी. चार कारणोवडे अन्यना छता गुणोने दीपाव-प्रगट करे, ते आ प्रमाणे- १ प्रशंसा करवाना स्वभाववडे, २ बीजाना अभिनाय प्रमाण वचैवाथी, ३ इच्छित For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *************** स्थान काध्ययन उद्देशः ४ मित्र पञ्चे न्द्रियनर गत्या ग तिहींद्रिया संयमेतरसम्यग्दृष्टिक्रिया गुण नाशतनू स्पादाः सू० ३६६-७१ ।। ५४४ ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie XXXXXXX xxxxxxx कार्यने सिद्ध करवा माटे अने ४ करेल उपकारनो प्रत्युपकार करवा माटे. (सू० ३७०) नैरयिकोने चार कारणोबडे शरीरनी उत्पत्ति-प्रारंभ थाय. ते आ प्रमाणे-क्रोधथी, मानथी, मायाथी अने लोभथी. एवी रीते यावत् वैमानिकोने जाणवू. नरयिकोने चार कारणोबडे शरीरनी निष्पत्ति-पूर्णता थाय, ते आ प्रमाणे-क्रोधवडे निवर्तित यावन् लोभवडे निर्वर्तित. एवी रीते यावत् वैमानिकोने माटे पण जाणवू. (सू० ३७१) टीकार्थ:-'चत्तारी' त्यादि० सूत्रो स्पष्ट छ. विशेष ए के-मित्र-आ लोकमां उपकारी होवाथी, वळी मित्र-परलोकमां उपकारी होवाथी सद्गुरुनी जेम. बीजो मित्र स्नेहवाळो होवाथी पण अमित्र-परलोकना साधननो नाशकारक होवाथीप्रेमाल स्त्री विगेरेनी जेम. बीजो तो अमित्र-प्रतिकूळ होवाथी पण निर्वेदता-वैराग्यने उत्पन्न करवावडे परलोकना साधनने विषे उपकार करनार थवाथी-अविनीत स्त्री विगरेनी जेम. चतुर्थ अमित्र-प्रतिकळपणाथी पुनः संकले शना हेतुमगाए दुर्गतिर्नु निमित्त थवाथी अमित्र छे. अथवा प्रथम मित्र अने पछी पण मित्र एम कालनी अपेक्षाए चोभंगी जाणवी. (१) मित्र-अंतरंग स्नेहथी, पुनः बाह्य उपचार करवाथी मित्रनो ज रूप (आकार )छे जेनो ते मिरूप-आ एक, बीजो तो बाह्य उपचारना अभावथी अमित्ररूप, त्रीजो स्नेहथी रहित होवाथी अमित्र अने चतुर्य प्रतीत छे. (२) मुक्त-द्रव्यधी संगनो त्याग करनार, पुनः मुक्त-आसक्तिना अभावथी-सुसाधुवत्, बीजो आसक्तिवाळो होवाथी अमुक्त-रंका, त्री जो द्रव्यधी अमुक्त पण भावथी मुक्त-आसक्ति रहित-राज्यावस्थामां उत्पन्न थयेल केवळज्ञानवाळा भरतचक्रवर्तीनी माकक, चोयो गृहस्थ अथवा पूर्व अने अपर-पछी पण अमुक्त. कालनी अपेक्षाए आ सूत्र विचार. (३) आसक्ति न होवाथी मुक अने वैराग्यने XXXXXXXXXXXX EXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भौस्थानागपत्र बानुवाद ॥५४५॥ toxxXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxx सूचक आकार(वेष)वडे मुक्तरूप-यतिनी माफक, आ एक, बीजो साधुना वेषथी विपरीत होवाथी अमुक्तरूप, गृहस्थावस्थामा (बे वर्ष) रहेल श्री महावीर भगवंतनी जेम, त्रीजो आसक्ति सहित होवाथी अमुक्त-शठ यतिनी जेम, चोथा गृहस्थ. (४) (मु०३६६) जीवना अधिकारवाळा पंचेंद्रियतिर्यच अने मनुष्य संबंधी चे सूत्र सुगम छे. एम बेइंद्रिय संबंधी चे सूत्र सुगम छे. (सू०३६७) विशेष ए के-बेइंद्रिय जीवो प्रत्ये आरंभ नहि करनार नाश नहि करनारने जिह्वानो विकार ते जिह्वामय, तस्मात् सौख्यात्-रसना अनुभवमय आनंदरूप सौख्यथी नाश नहि करनार तथा जिहेंद्रियनी हानिरूप दुःखवडे नहि जोडनार थाय छे. (सू०३६८) जीवना अधिकारथी ज सम्यग्दृष्टि जीवोना क्रियास्त्रो छे ते सुगम छे. विशेष ए के-सम्यग्दृष्टि जीवोने मिथ्यात्वक्रियानो अभाव होवाथी चार क्रियाओ छे. ' एवं विगलिंदियवजं' ति. एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने चतुर्गिद्रिय जीवोने पांच क्रियाओ छे; कारण के तेओने मिथ्यादृष्टिपणुं होय छे. द्वीन्द्रिय विंगरेने सासादन (पतनशील ) सम्यक्त्वना अल्पत्वने लईने तेनी विवक्षा नथी करी. एवी रीते अहिं विकलेंद्रियना वर्जनबडे सोळ क्रियासूत्रो थाय छे. (स० ३६९) अनंतर क्रियाओ कही, कियावाळो अन्यना सद्भूत-छता गुणो प्रत्ये नाश करे छे अने अवगुणांनो प्रकाश करे छे माटे आ अर्थवाळा ये पत्र छे ते सुगम छे. विशेष ए के-सतः-अन्यना विद्यमान गुणोने नाश करवानी माफक नाश करे छे-अपलाप करे छे. मानतो नथी क्रोध-रोषवडे, तथा प्रतिनिवेश-"आ पूजाय छे, हुं तो पूजातो नथी" एम परनी पूजाने सहन न करवावडे ( मात्सर्यथी) तेमज बीजाए करेल उपकारने जे जाणतो नथी ते अकृतज्ञ. तेना भावरूप अकृतज्ञतावडे अने मिथ्यात्वाभिनिवेशबोधना विपर्यासवडे. कयु छ के ४ स्थान काध्ययने उद्देशः४ मित्रपञ्चेन्द्रियनरगत्या गतिद्वींद्रियासंयमेतरसम्यग्दृष्टिक्रिया गुण४| नाशतनू त्पादाः सू० ४३६६-७१ ५४५॥ For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXxxxxx रोसेण पडिनिवेसेण, तहय अक्यण्णुमिच्छभावेणं । संतगुणे नासित्ता, भासइ अगुणे असंते वा।२२२॥ प्रायः उक्तार्थ छे. असत'-नहि विद्यमान गुणो प्रत्ये, (क्वचित् 'संते' त्ति पाठ छे त्यां विद्यमान गुणो प्रत्ये) दीपयेत्-बोले. अभ्यास| स्वभाव अथवा वर्णन करवा योग्यनी समीपतारूप निमित्त छे दीपन-बोलवामां ते अभ्यासप्रत्यय, अभ्यास टेव या विषय सिवाय अने फळ सिवाय पण प्रवृत्ति देखाय छे. समीपमा रहेनारना गुणोर्नु ज प्रायः ग्रहण थाय छे. परछंद बीजाना अभिप्रायनी अनुवृत्ति-तेनी पाछल वर्तवू छे जेमां ते परच्छंदानुवृत्तिक, तथा कार्यना हेतुथी-प्रयोजन निमित्ते इच्छित कार्यने अनुकूल करवा माटे, तथा उपकारने विषे प्रत्युपकार छे जेने ते कृतप्रतिकृतिक अर्थात् उपकारनो प्रत्युपकार करनार आ हेतुथी अथवा उपकारना प्रत्युपकार माटे अथवा कोई एक व्यक्तिने एकना उपकार कर्यों अथवा गुणो प्रशंस्या. ते तेना अछना गणाने । पण प्रत्युपकार माटे प्रशंसे छे. 'इति' शब्द समीप देखाडवामां अने 'वा' शब्द विकल्पमा छे. (सू० ३७०) आ गुणोनो नाश करवो विगेरे शरीरवडे कराय छे माटे शरीरनी उत्पत्ति अने निवृत्ति-पूर्णता सूत्रना बे दंडक छे ते सुगम छ. विशेष ए के-क्रोध विगेरे कर्मबंधना हेतओ छे अने कर्म शरीरनी उत्पत्तिनु कारण छ माटे कारणमा कार्यना उपचारथी क्रोधादि अग्नी उत्पत्तिना निमित्तपणाए कथन कराय छे. आ हेतुथी 'चउहिं ठाणेहिं सरीरे' त्यादि. का. क्रोधादिजन्य कर्मबडे पूर्ण थतं होवाथी क्रोधादिवडे निर्वर्तित शरीर एम कर्दा. अहिं उत्पत्ति-शरूआतमात्र अने निवृत्ति तो निष्पत्ति- पूर्णतारूप छ. (सू० ३७१) क्रोध विगेरे शरीरनी निवृत्तिना कारणो छ एम कयु, तेना निग्रहो-नाश करनारा धर्मना कारणो छ ते सत्रकार दर्शावे छ For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद । ५४६॥ (XKAKKAKKKAKKKKAKKKAKKKAKKAKExa चत्तारि धम्मदारा पं० तं-खंती मुत्ती अजवे मद्दवे। सू० ३७२, चउहि ठाणेहिं जीवाणेरतियत्ताए कम्मं पकरेंति. तंजहा-महारंभताते, महापरिग्गयाते, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं १, च उहिं ठाणेहिं जीया तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगति, तं०-माइल्लताते, णियडिल्लतात, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं २, चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते कम्मं पगरेंति, तं०-पगतिभदताते, पगतिविणीययाए, साणुकोसयाते अमच्छरिताने ३, चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेति तं-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामाणिज्जराए ४ । सू० ३७३, चउविहे वज्जे पं० ता-तते वितते घणे झुसिरे १. चउविहे नट्टे पं० तं०-अंचिए, रिभिए, आरभडे, | भिसोले २, चउब्विहे गेए पं० तं०-उक्खित्तए, पत्तए, मंदए, रोविंदए ३, चउविहे मल्ले पं० २० गंथिमे, वेढिमे, पूरिमे, संघातिमे ४, चउठिवहे अलंकारे पं० तं-केसालंकारे, वत्थालंकारे, मल्लालंकारे, आभरणालंकारे ५. चउबिहे अभिणते पं० त०-दि,तिते +पांडसते, सामंतोवाताणते, + ओरायपसे गोसूत्रना ८८ मा सूत्रमा "पाडिय" एवो पाठ मळे छे. आ चारे प्रकारना अभिनयोनु विशेष वर्णन टोकाकारे कर्यु नथो एटले जिज्ञासुए निष्णात पासेयो जाणवा प्रयत्न करवो. काध्ययने उद्देशः४ धर्मद्वारायु हेतुवाद्यादिविमानक दि मू० ३७२-७५ xxxxxxxxxxxxxxxxxxx ५४६॥ For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXX लोगमब्भावसिते ६। सू० ३७४, सणंकुमारमाहिदे सुणं कप्पेसु विमाणा चउवन्ना पं० तं०-णीला लोहिता हालिद्दा सुकिला, महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजा सरीरगा उक्कोसेणं चत्तारि रयणीओ उढे उच्चत्तेणं पन्नत्ता। सू० ३७५ ___ मूलार्थ:-धर्मना चार द्वारो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-क्षमा, निर्लोभता, सरलता अने मार्दवता. (सू० ३७२) चार कारण. वडे जीवो नैरयिकपणाना आयुष्कादि कर्मने बांधे छे, ते आ प्रमाणे-महान् आरंभ करवाथी, महान् परिग्रह धारण करवाथी, पंचद्रियना वधथी अने मांसाहार करवाथी. (१) चार कारणवडे जीवो तिर्यंचयोनिकपणाना आयुष्कादि कर्मने बांध छे, ते आ प्रमाणे-मननी कुटिलताथी, बीजाने ठगवा माटे कायानी जुदी रीते चेष्टा करवाथी, अलिक( जूटुं) बोलवाथी अने खोटा तोल अने मापबडे व्यवहार करवाथी. (२) चार कारणवडे जीवो मनुष्यपणाना आयुष्कादि कर्मने बांधे छे, ते आ प्रमाणेसरल स्वभावथी, विनीत स्वभावथी, दयाळूपणाथी अने मत्सर रहितपणाथी. (३) चार कारणवडे जीवो देवपणाना आयुष्कादि कर्मने बांधे छे, ते आ प्रमाणे-सराग संयमथी, देशविरतिपणाथी, बालतपरूप क्रियाथी अने अकाम निर्जराथी. (४) (सू० ३७३ ) चार प्रकारे वाद्य-वाजिंत्र कहेल छे, ते आ प्रमाणे-तत-वीणा विगरे, वितत-ढोल प्रमुख, घन-कांस्यतालााद अने शुपिर-वांसली विगेरे. (१) चार प्रकारे नाट्य(नाटक) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अंचित-रहीरहीने नाचवू, रिभित-गीत सहित पदनी संज्ञावडे नाचवू, आरभड-नाचते छते पंक्तिना अभिप्रायने हस्तादिद्वारा बतावतां थकां बोलवू. अने भिसोल KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir H मीस्थानागपत्र बानुबाद ॥५४७॥ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx नाचते छते नीचे पडवू. (२) चार प्रकारे गेय-गायन कहेल छे, ते आ प्रमाणे-उक्षिप्त-प्रथमथी प्रारंभ करातुं गायन, पत्रकछंद विगेरे चार भागरूप पदवडे बांधेलु, मंद-मध्यभागमां मूर्च्छनादि गुणयुक्तपणाए मंद मंद घोलनात्मक अने कहेल लक्षणयुक्तपणाए भावित छे छेडो जेनो ते रोचितावसान अर्थात् धीमे धीमे स्वरनी वृद्धि करवारूप. (३) चार प्रकार माल्य-पुष्पनी रचना कहेल छे, ते आ प्रमाणे-ग्रंथिम-सूत्रवडे गूंथेल पुष्पनी मालादि, वष्टिम-पुष्पना वीटनवडे बनावेल, पूरिम-मुकुटादि पूरवावडे थयेल अर्थात् जे पुष्पोवडे पूराय छे ते अने संघातिम-जे परस्पर पुष्पनालना संघात-मळवाथी बने छे ते. (४) चार प्रकारे अलंकार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-केशवडे करीने पुरुष शोभे छे ते केशालंकार. एम वस्खालंकार, माल्यालंकार अने आभरणालंकार जाणवा.(५) चार प्रकारे अभिनय-भावने बतावनार चेष्टाविशेष कहेल छे, ते आ प्रमाणे-दार्शतिक, पांडुसुत, सामंतोवाचनीक अने लोकमध्यावसान. (६) (सू० ३७४ ) सनत्कुमार अने माहेंद्रकल्पने विषे विमानो चार वर्णवाळा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-नीला, राता, पीळा अने धोळा. महाशुक्र तथा सहस्रार नामना देवलोकने विषे देवोना भवधारणीय शरीरो | उत्कृष्टथी चार हाथनी ऊंचाईवाळा कहेला छे. (सू० ३७५) टीकार्थः-'चत्तारि धम्मे' त्यादि० चारित्रलक्षण धर्मना चार द्वारो-उपायो कहेल छे. (मू० ३७२ ) क्षमा विगेरे धर्मना द्वारो छ एम का, हवे नारकत्वादिना साधनरूप आरंभादि कर्मना द्वारो छे ते विभागथी 'चउहिं ठाणेहिं' इत्यादि सूत्रचतुष्टयवेड कहे छे. आ सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-'नेरइयत्ताए' त्ति०-नैरयिकपणा माटे अथवा नैरयिकपणाए कर्म-आयुष्कादि. ' नेरइयाउयत्ताए' त्ति आ पाठांतरने विषे नैरयिकायुष्करूप कर्मदलिक( ने बांधे छ ). महान् ४ स्थान काध्ययन उद्देशः। धर्मद्वारायु. हतुवाद्यादिविमानव दि सू० ३७२-७५ erlii XXXXXXXXXX ५४७॥ For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (XOXOXXXXXXXXKOKKK) इच्छाना परिमाणवडे न करायेल मर्यादापणाए पृथिवी विगेरेना उपमईन लक्षणरूप मोटो आरंभ छ जेने ते महारंभ-चक्रवर्ती प्रमुख, तेनो भाव ते महारंभता, ते महारंभपणाए नारकीर्नु आयुष्कादि कर्म बांध छे. एवी रीते महापरिग्रहपणाथी. विशेष ए के-चौतरफथी ग्रहण कराय ते परिग्रह-हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद अने चतुष्पदादि. 'कुणिम'-मांस, ते ज आहार(भोजन)बडे. (१) 'माइल्लयाए' त्ति० मायावीपणाए अने माया एटले मननी कुटिलता, 'नियडिल्लयाए' त्ति निकृति एटले अन्यने ठगवा माटे शरीरनी चेष्टानुं अन्यथा करणरूप अथवा अभ्युपचाररूप, अने खोटा त्राजवा(तोला) तथा खोटा मापवडे जे व्यवहार ते कूटतुला-कूटमान कहेवाय छे, तेनावडे. (२) प्रकृति-स्वभाववडे भद्रकता. बीजाने अनुताप न करनारी ते प्रकृतिभद्रकतावडे, सानुक्रोशता-दयालपणाथी, मत्सरिकता-अन्यना गुणोने नहि सहन करवारूप ईर्ष्याना प्रतिषेधरूप अमत्सरिकपणाए (३) सरागसंयम-कषाययुक्त चारित्रवडे, कारण के वीतरागसंयमीओने आयुष्यना बंधनो अभाव होय छे. संयम अने असंयमरूप वे स्वभाववाळो होवाथी देशसंयम, बालकोनी जेम बाल-मिथ्यादृष्टिओ, तेओर्नु तपकर्म-तपरूप क्रिया ते बालतपःकर्मवडे, 'अकामेन'-निर्जरा प्रत्ये अभिलाषा न होवाथी जे निर्जरा कर्मने निर्जरण (खरवाना) हेतुरूप भूख विगेरेनुं सहq ते अकाम निर्जरा, तेना बडे ४. (सू० ३७३ ) हमणा ज देवनी उत्पत्तिनां कारणो कह्या अने देवो तो वाद्य, नाट्य विगेरेमा रतिवाळा होय छे. माटे वाद्यादिना भेदोने कहेवा माटे छ सूत्र पैकी प्रथम 'बजे' त्ति० वाद्य, वीणादि ते तत जाणवू, पटह-ढोल आयुप्यना बंधनो प्रारंभ छठ्ठा गुणठाणा सुधी होय छे, छठे बांधतो सातमे गुणठाणे आयुष्यना बंधने पूर्ण करे परंतु सातमे प्रारंभ करे नहि. तदुपरांत गुण ठाणे सरागी होवा छतां पण विशुद्ध परिणाम होबाथी आयुष्यने बांधे नहि. EXXXXXXXX KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX) For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxx श्रीस्था- प्रमुख वितत, कांस्यतालादि घन अने वांसली प्रमुख शुपिर मानेल छे. (१) नाट्य, गेय अने अभिनय विषयक सूत्रोन वर्णन स्था नागपत्र संप्रदायना अभावथी करेल नथी. मालाने विष सुंदर ते माल्य, पुष्प-तेनी रचना पण माल्य, ग्रंथ-संदर्भ, मूत्रथी गुंथवा- माध्ययन | वडे बनावेलुं तं ग्रंथिममालादि, वेष्टन-वीटg, तेनावडे बनावेलुं ते वेष्टिम-मुकुट विगरे. पूर-पूरवावडे बनावेल ते पुरिम, माटीपानुवाद x उद्देशः ४ Xमय अनेक छिद्रवालं अथवा वांसनी शळी ओ विगेरेनुं पिंजरे अर्थात् जे पुष्पोरडे पूराय छे ते पूरिम, संघात-एकात्रेत ॥५४८॥ धर्मद्वारा| करवावडे बनावेल ते संघातिम, जे परस्परथी पुष्पनाल विगरेना जोडाणवडे उत्पन्न कराय छे ते. जेनावडे शोभा कराय ते युर्हेतुवाद्याअलंकार.केशो ए ज अलंकार ते के शालंकार, एवी रीते वस्त्रालंकार विगेरे जाणवू.(मू०३७४) देवना अधिकारबाळाचे सूत्रो सुगम छे. विशेष एके-सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पने विषे चार वर्णवाळा विभानो छे. अन्य कल्याने विरे तो जुही रीत छे. कयु छ के दिविमानसोहम्मे पंचवन्ना, एकगहागी उ जा सहस्सारो। दो दो तुल्ला कप्पा, तेग परंपुंडरीयाओ ॥ २२३ ॥ सौधर्म अने ईशान ए वे देवलोकमां पांच वर्णवाळा विमानो छ, त्रीजा अने चोथामा कृष्णवर्ग सिवायना चार, पांचमा IX अने छठामा नीलवर्ण सिवाय त्रण, सातमा अने आठमामां राता वर्ग सिवाय पीत अने श्वेत ए चे वर्ग अने नवमाथी * मांडीने छेक सर्वार्थसिद्ध पयतना विमानोमां एक श्वेतवर्ण छे. ते भवमा धारण कराय अथवा ते भव प्रत्ये धारण कराय ते भवधारणीय अर्थात् जे जन्मथी मरण पर्यत रहे. बीडेल मुष्टि ते रत्नि, अने ते ज खुल्ली आंगलीवाळी मुष्टि ते अरत्नि, एवु वचन होवा छतां पण रनि' शब्दबड़े अहिं सामान्य थी हाथ कवाय छे. शुक अने सहस्रार कल्पने विषे चार हाथना प्रमाणवाळा देवो छे. बीजा देवलोकने विषे तो जुदी रीते छ. कधु छ के XKXXXXXXXXX वर्णादि सू० Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ***** www.kobatirth.org भवण १० वण ८ जोइस ५ सोह-म्मीसाणे सत्त होंति रयणीओ । एकेकहाणि सेसे, दुदुगे य दुगे चउक्के य ॥ २२४ ॥ विजेसुं दोन्नी, एका रयणी अणुत्तरेसु । ति० दश भवनपति, आठ वानव्यंतर, पांच ज्योतिष्क अने सौधर्म तथा ईशानकलने विषे देवोनुं सात हाथनुं शरीर होय छे. श्रीजा चोथामा छ, पांचमा छट्टामां पांच, सातमा आठमामां चार, नत्रमाथी वारमा सुधीनां त्रण, नत्र ग्रैवेयेकमा अनुत्तर विमानोमां देवोनुं एक हाथनुं शरीर होय छे. भवधारणीय शरीरो आ प्रमाणे छे. अने पांच उत्तरवैक्रिय शरीरो तो उत्कृष्टथी एक लक्ष योजन पण संभवे छे. जघन्यथी तो भवधारणीय शरीरो उत्पत्तिकालमा अंगुला असंख्य भाग प्रमाणवाळा होय छे अने उत्तरखैक्रियो तो अंगुलना संख्येयभाग प्रमाणवाळा होय छे. ( सू० ३७५ ) अनंतर देव संबंधी वक्तव्यता कही अने देवो अप्कायपणार पण उत्पन्न थाय छे माटे उदक संबंधी गर्भनुं प्रतिपादन करवा माटे ' चत्तारि ' इत्यादि० वे सूत्र कहे छे चत्तारि उदकगभा पं० तं०-उस्ता महिया सीता उसिणा, चत्तारि उदकगब्भा पं० तं०मग अब्भसंथा सीतोसिणा पंचरूविता - माहे उ हेमगा गन्भा, फग्गुणे अन्भसंथडा । सीतो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ************************* Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीस्थानास्त्र सानुवाद ॥५४९॥ xxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ उदकगर्भः मनुष्यगर्म सिणा उ चित्ते, वतिसाहे पंचरूविता ॥१॥ सू० ३७६, चत्तारि माणुस्सीगब्भा पं० तं०-इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए बिंबत्ताए-अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजातति। अप्पं ओयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ पजातति ॥१॥ दोण्हं पि रत्तसुक्काणं तुल्लभावेणपुंसओ। इत्थीतोतसमाओगे, बिंब तत्थ पजायति ॥२॥ सू० ३७७ मूलार्थ:-उदकना चार गों-काळांतरे जल वरसवाना हेतुओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अवश्या-झाकळ, महिका- धूमस, शीता-अत्यंत टाढ अने उष्णा-गरमी. उदकना चार गर्भो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-हिम-परफर्नु पडवू, अभ्रसंस्थितावादळाओवडे आकाशन आच्छादन थवू, शीतोष्ण-अत्यंत ठंडी अने गरमी तेमज गाज, वीज, जल, वायु तथा वादळां-आ पांच लक्षणना मिलनरूप पंचरूपिका. माह मासमां हिमवाळा गर्भो, फाल्गुन मासमां अभ्रसंस्थिता लक्षण गर्भो, चैत्र मासमां शीतोष्णा अने वैशाख मासमां पंचरूपी गर्भो होय छे. (३० ३७६) चार प्रकारे मनुष्यणीना गर्भो कहेला छे, ते आ प्रमाणेस्त्रीपणाए, पुरुषपणाए, नपुंसकपणाए अने किंव-गर्भाशयमा गर्भनी आकृतिरूप रूधिरनो बंध-पिंडपणाए. ज्यां अल्प वीर्य अने विशेष रुधिर होय छे त्यां स्वीपणे गर्भ उत्पन्न थाय छे, ज्यां अल्प ओज-रुधिर अने बहु वीर्य होय छे त्यां पुरुषपणे गर्भ उत्पन्न | थाय छे ।। १ ।। रुधिर अने वीर्य, ए बनेनो समानभाव ज्यां होय त्यां नपुंसकपणे गर्भ उत्पन्न थाय छे अने वायुना वशथी ज्यां स्त्रीचें रक्त स्थिर थई जाय छे त्यां गर्भाशयमां विंबरूपे गर्भ उत्पन्न थाय छे ।। २ ।। (सू० ३७७) ३७६-७७ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xn५४९॥ For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie KOKMOKXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxx टीकार्थ:-'दगगम्भ त्ति० दक-उदकना गर्भोनी जेम गर्भो ते उदकगर्भो अर्थात् काळांतरने विषे जल वर्षवाना हेतुओ. वर्षादने सूचन करनारा एवं तात्पर्य छे. अवश्याय-ठारनुं पाणी, महिका-धूमस, अत्यंत ठंडी अने गरमी. जे दिवसे ए उदकना गर्भो उत्पन्न थाय छे त्यारथी उत्कृष्टतः नाश न थया थका छ महिने उदकने वरसावे छे. बीजाओए बळी एवी रीते कर्ष छ के-"१ पवन, २ वादळा, ३ वृष्टि, ४ वीजळी, ५ गरिव, ६ शीत, ७ गरमी, ८ किरण, ९ परिवेष (कुंडाळ) अने १० जळमत्स्य-ए दश प्रकार जळने उत्पन्न करवाना हेतुओ कहेला छे. तथा-"शीत, पवनो, विंद, गर्जारव अने कुंडाळ-आ लक्षणोने गोंने विषे सारी रीते जोनारा निग्रंथो श्रेष्ठ कहे छे." तशा सातमे* सातम मासे अथवा सातमे सातमे दिवसे गर्भो परिपक्व थाय छे, जेवा गर्भो तेवू फळ समजवू. हिम-बरफ, ते ज हिमक, तेना गर्भो ते हैमका अर्थात् हिमना पडवारूप, 'अब्भसंथडा'-अभ्रसंस्थितो-वादळाओवडे आकाशना आच्छादनो, आत्यंतिक शीतोष्ण अने गर्जq, विद्युत, जळ, वायु अने वादळांरूप पांच लक्षणोनुं एकत्रित थर्बु ते पंचरूप, ते छ जेओने ते पंचरूपिका-पांच रूपवाळा उदकग . अहिं मतांतर आ प्रमाणे ठे-" मागशर अने पौष मासमां संध्याराग अने परिवेष (कुंडाळ) सहित बादळां, मागशर मासमा अत्यंत टाढ नहिं अने पौष मासमां अति टाढ अने हिमर्नु पडवू. (१) माह मासमा प्रबल वायु, तुषार-बरफना कणीआवडे कलुष (झांखी) कांतिवाळा सूर्य अने चंद्र, अने अतिशय शीत तथा वादळां सहित सूर्यनो अस्त * सातमे मासे परिपक्व धनारा गर्भो उत्कृष्टधी जाणवा, ते सारी वृष्टि करे छे भने सातमे दिवसे परिपक्व थनारा गर्भो अल्प वृष्टि करे छे. KKKKXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र मानुवाद ॥५५०॥ तथा उदय श्रेष्ठ छे. (२) फाल्गुन मासमां रूक्ष (लू) अने आकरो पवन, स्निग्ध अने सजल वादळाओ, असंपूर्ण कुंडालाओ तथा कपिल अने ताम्रवर्णवाळो रवि शुभ छे. (३) चैत्र मासमां पवन, वादळा वृष्टिपूक्त तथा कुंडाळाओ सहित गर्भो शुभ छे अने वैशाख मासमां वादळा, पवन, पाणी, वीजळी अने गर्जनावडे गभी हितने माटे थाय छे. (४)" मासना भेदवडे सूत्रकार ग ने ज बतावे छ 'माहे' इत्यादि (मूळमांनो) श्लोक (मू० ३७६ ) गर्भना अधिकारथी नारी संबंधी गर्भसूत्र कहेल छे ते स्पष्ट छे. मात्र 'इत्थित्ताए' त्ति स्त्रीपगाए 'विम्बम्'-गर्भनुं प्रतिबिंब अर्थात् गर्भनी आकृतिरूप आतेव-रुधिरना परिणाम; परंतु गर्भस्वरूप नहिं ज. कथु छ के-"वायुवडे अस्थित( स्थिर ) थल स्त्रीना रक्तने अजाण लोको गर्भ कहे छ केमके गर्भाकृति जणाय छे. वली कटुक, तीक्ष्ण अने उष्ण खोराकाडे केवल रक्तमोज परिणाम थाय छ एम पण श्रुतमां कहेल छे. (१) "जड पुरुषो भूतवडे हरण करायेल गर्भने कहे छे इत्यादि. गर्भ विचित्रपणुं कारणना भेदथी छे ते वे श्लोकाडे कहे छ 'अप्प' मित्यादि. शुक्र-पुरुष संबंधी वीर्य, ओज-आर्तव एटले गर्भाशयमा स्त्री संबंधी रक्त. तथा स्त्रीना ओजबडे समायोग-वायुना वशथी तेनुं स्थिर थवं. उक्त लक्षग स्वीना ओजनो सनायोग थपे छते गर्भाशयमां विंच उत्पन्न थाय छे. बीजाओए पण आ विषयमा कयु छ के-“आ हेतुथी ज शुकना बाहुल्पथी पुरुष थाय छे, रक्तनी बहुलताथी स्त्री थाय छे. वली शुक्र अने रक्तनी समानताथी नपुंसक थाय छे. (१) वावडे शुक्र अने शोणित अत्यंत भिन्न थये छते यथायोग्य बहु संतति थाय छे. विकृति पामेल मळोवडे वियोनि-गीत्पत्तिने अयोग्य अने विकृत आकारवाळा गर्भाशयो थाय छे. (२)" (म० ३७७) गर्भ प्राणीओनो जन्मविशेष छे, ते उत्पाद कहेवाय छे, अने उत्पाद, उत्पाद नामना पूर्वने विषे विस्तारपूर्वक ४ स्थान काध्ययचे उद्देशः ४ उदकगर्भः मनुष्यगर्भ श्च मू० ३७६-७७ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxxxx 3॥५५०॥ For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KoxxxxxxxxxxxxxxXXXXKOKKKKOKXXXX कहेवाय छे माटे तेना स्वरूपर्नु विशेष प्रतिपादन करवा माटे कहे छे उप्पायपुव्वस्स णं चत्तारि मूलवत्थू पन्नत्ता। सू० ३७८. चउबिहे कन्वे पं० तं०-गजे पजे कत्ये गेए। सू० ३७९, णेरतिताणं चत्तारि समुग्याता पं० तं०-यणासमुग्धाते कसायसमुग्घाते मारणंतियसमुग्घाए वेउब्वियस मुग्धाए, एवं बाउकाइयागवि । सू० ३८०, अरिहतो णं अरिटुनेमिस्स चत्तारि सया चोदसपुवीणमजिगाणं जिगसंकासाणं सबखरसन्निवाई गं जिगो इव अवितथवागरमाणाणं उक्कोसिता चउदसपुब्धिसंपया हत्था । सू० ३८१, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुयापुराते परिसाते अपराजियाणं उक्कोसिता वातिसंपया हुत्था । सू० ३८२, हेटुिल्ला च तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणतंठिया पन्नता तं०-सोहम्मे ईसाणे सणंकुमारे माहिंदे, मज्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडि पुन्नचंदसंठाणसंठिया पन्नत्ता, तं:-बंभलोगे लंतते महासुक्के सहस्सारे, उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धवंदसंठाणसंठिया पन्नता. तंजहा-आगते पाणते आरणे अच्चुत्ते । सू० ३८३, चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पं० त०-लव गोदे वरुणोदे खीरोदे oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxy For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानामसूत्र सानुवाद ॥ ५५१॥ घतोदे । सू० ३८४, चत्तारि आवत्ता पं० सं०-खरावत्ते उन्नतावत्ते गूढावत्ते आमिसावत्ते, एवामेव चत्तारि कसाया पं० तं०-खरावत्तसमाणे कोहे, उन्नत्तावत्तसमाणे माणे, गूढावत्तसमाणा माता, आमिसावत्तसमाणे लोभे, खरावत्तसमाणं कोहं अणुपविटे जीवे कालं करेति णेरइएसु उववजति उन्नत्तावत्तसमाणं माणं एवं चेव गृढावत्तसमाणं मातमेवं चेव आमिसावत्तसमाणं लोभमणपविटे जीवे कालं करेति नेरइएसु उववजेति । सू० ३८५ मूलार्थ:-उत्पाद नामना प्रथम पूर्वनी चार चूलिकानी जेम चूलिका वस्तुओ कहेली छे. (सू० ३७८) चार प्रकारे काव्य (ग्रंथ) कहेल छ, ते आ प्रमाणे-गद्य-छंद रहित, शस्त्रपरिज्ञाअध्ययनवत. पद्य-छंदबद्ध. विमुक्तिअध्ययनवत. कथ्यकथामा सारुं अने गेय-गावा योग्य. (सू० ३७९) नैरयिकोने चार समुद्घात कहेल छे, ते आ प्रमाणे-वेदनावडे समुद्घात, कषायवडे समुद्घात, मरणना अंतमा थनारो मारणांतिक समुद्घात अने उत्तरवैक्रिय करवाने माटे थतो वैक्रियसमुद्घात. एवी रीते वायुकायिकोने पण चार समुद्घात छे. (सू० ३८०) अरिहंत अरिष्टनेमिने जिन नहिं पण जिन सरखा, सर्व अक्षरना सन्निपाती-संयोगना जाण, जिननी जेम सत्य वचनना कहेवावाळा एवा चार सो चौदपूर्वी मुनिओनी उत्कृष्टी चौदपूर्वी संपदा हती. (सू० ३८१) श्रमणभगवान् महावीरस्वामीने देव, मनुष्य अने असुरो सहित परिषदने विष कोईथी पराजय नहि पाम ४ स्थान. काभ्ययने उद्देशः वस्तुसमुद्घात पूर्विवादि* कल्पसंस्था नाधिरसावर्ताः ०३७९ Xxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mroxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx नारा एवा चार सो वादी मुनिओनी उत्कृष्टी वादीसंपदा हती. (मू०३८२) नीचेना चार कल्पो अर्द्धचंद्राकार संस्थित कहेला लेते आ प्रमाण-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार अने माहेंद्र. वचला चार कल्पो परिपूर्ण चंद्राकारे संस्थित कहेला छ, ते आ प्रमाणे-ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र अने सहस्रार. उपरला चार कल्पो अर्द्धचंद्राकारे संस्थित कहेला छे. ते आ प्रमाणे-आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत. (मू० ३८३ ) चार समुद्रो भिन्न भिन्न रसवाळा कहेला छ, ते आ प्रमाणे-१ लवणोद-मीठाना जेवा पाणीवाळा, वारुणोद-दारुना जेवा पाणीवाळो, क्षीरोद-दूधना जेवा पाणीवाळो अने घृतोद-घृतना जेवा पाणीवाळो छे. (सू० ३८४) चार आवर्त्त-भ्रमण कहेला छे, ते आ प्रमाणे-समुद्रमा चक्रनी जेम पाणी, भमबुं ते खरावर्त्त, पर्वतना शिखर पर चडवाना मार्गरूप आवर्त ते उन्नतावर्त, दडाने गुंथेल दोरीनी जेम आवत्तं ते गूढावर्त अने मांसादि माटे पक्षीओन जे भ्रमण ते आमिषावर्त. आ दृष्टांत चार कपायो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-खरावत समान क्रोध, उन्नतावर्त्त समान मान, गूढावर्त समान माया अने आमिषावर्त समान लोभ छे. खरावर्त समान क्रोधने प्राप्त थयेल जीव-क्रोधना उदयवाको जीव काळ करे छते नैरयिकोने विषे उत्पन्न थाय छे, उन्नतावर्त समान मानना उदयमां, गूढावर्त समान मायाना उदयमां अने आमिषावर्त समान लोभना उदयवाळो जीव काळ करे छते नैरयिकोने विषे उत्पन्न थाय छे. (सू० ३८५) टीकार्थ:-' उप्पाये' त्यादि० सूत्र सरळ छे. विशेष ए के-चौद पूर्वोमा प्रथम उत्पाद नामर्नु पूर्व छ, तेनी चूलाआचारना अग्रभागोनी जेम तद्रूप वस्तुओ अर्थात् बोधविशेषो अध्ययननी माफक चूलावस्तुओ छे. (सू० ३७८) उत्पाद पूर्व काव्य छे माटे काव्यसत्र कहेल छे, ते सुगम छे. विशेष एके-काव्य एटले ग्रंथ.१ गद्य-छंदमा नहि बंधायेल-शस्त्रपरिज्ञा अध्ययननी जेम, For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxx बीस्थानानपत्र सानुवाद ॥ ५५२॥ २ पद्य-छंदमां बंधायेल-विमुक्ति अध्ययननी जेम, ३ कथामां सारं ते कथ्य-ज्ञाताअध्ययननी जेम अने ४गेय-गावा योग्य. अहिं गद्य अने पद्यमा अंतर्भाव होते छते पण कथ्य अने गेयना, कथा अने गानधर्मना विशिष्टपगाथी विशेष विवक्षा करेल छे. (सू०३७९) अनंतर गेय कडं, ते भापास्वभाव होवाथी दंड अने मंथानादिना कमाडे लोकना एक देश-विभागने पूरे छे अने समुद्घात पण ए प्रमाणे ज छे. आ साधर्म्यथी समुद्घातना बे सत्रो कहे छे, ते सुगम छे. विशेष ए के-'सम्' 'उत्' 'हननम्' अर्थात् एकी भाववडे, प्राबल्यताथी (कर्म पुद्गलोनो ) घात ते समुद्घात एटले के शरीरथी जीवना प्रदेशोतुं बहार प्रक्षेपकाढवू, वेदनावडे समुद्घात, कषायवडे समुद्घात, मरण ज अंत ते मरगांत, तेमा थनारो ते मारगांतिक समुद्वात. एवी रीते अहि समासो करवा. ( स० ३८०) क्रियसमुद्घात लब्धिरूप कोल छ माटे लब्धिना प्रत्तात्रयी विशिष्ट श्रुतलब्धिमानोने कहेवा माटे 'अरहओ' इत्यादि के सूत्रो कहेल छे, जे सुगम छे. विशेष एके-सज्ञ नहिं होगाथी अजिन, अविरोधी वचन होवाथी अने पूछेल प्रश्नने यथातथ्य कहेनार होवाथी जिन सदृश, अकारादि वधा य अक्षरोना सन्निपातो-दूयादि संयोगो, अभिधेय-कहेवा योग्य भावोना अनंतपणाथी अनंता पण अक्षरना संयोगो विद्यमान छ जेओने ते साक्षरसनियातीओ, एओर्नु जिन समानपणु होवार्नु कारण कहे छ-'जिणो विव' इत्यादि. 'उमेोसिय'-क्यारे पण उक्त संख्याथी ४स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ वन| मुद्वातपूर्विपादि कससंस्थानाब्धिरसावा सू०३७९ ८५ xxxxxxxxxxxxxxxxx XxxxxxxXXXXXXXXXX * वेदनावडे समुद्घात ते वेदनासमुद्घात, कषायबड़े समुद्घात ते कषायसमुद्घात, मरगना अंतमा थनारो समुद्घात ते मारणांतिकसमुदघात अने वैक्रिय शरीर करवा माटे समुद्घात ते वैक्रियसमुद्घात. For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अधिक *चौदपूर्वीओ (एमना) थया न हता. ( स० ३८१-३८२) । ते मुनिओ +प्रायः देवलोकमां गयेला छे माटे देवलोक संबंधी सूत्रो छे ते सुगम छे. विशेष ए के-'अद्धचंदसंठाणसंठिए' त्ति. पूर्वापरथी मध्यमां सीमा( हद)ना सद्भावथी. (सू० ३८३ ) देवलोको क्षेत्र छ माटे क्षेत्रना प्रस्तावथी समुद्र सूत्र कहेल छे ते सुगम छे. विशेष ए के-एकएक प्रत्ये भिन्न छे रस जेओना ते प्रत्येक रसो-जुदा रसवाळा. लवणना रसर्नु उदक होवाथी लवण, पाठांतरमां तो लवण माफक उदक छे जेमां ते लवणोद, (आ शब्द निपातथी सिद्ध थयेल छे.) आ प्रथम समुद्र. वारुणी एटले सुरा, तेनी समान ते वारुण, सुरा समान उदक छे जेमां ते वारुणोद-आ चतुर्थ समुद्र. दूध समान उदक छे जेमां ते क्षीरोद-पांचमो समुद्र अने घृत जेवू उदक छे जेमां ते घृतोद छ8ो समुद्र. कालोद समुद्र, पुष्करोद समुद्र अने स्वयंभूरमण समुद्र उदक रसवाळा छे, शेष समुद्रो इक्षुरसवाळा छे. कथु छ केवारुणिवरखीरवरो. घयवर लवणोय होति पत्तेया। कालो पुक्खरउदही,सयंभुरमणो य उदगरसा ॥२२५॥ भावार्थ उपर मुजब छे. (मू० ३८४) * नेमनाथ भगवानना एथी वधु थया न हता एम समन. श्री ऋषभादि तोकरोना तो घणा हता. x सू० ३८२ नी व्याख्या सुगम होवाथो टीकाकारे करी नथो. + प्रायः कहेवार्नु कारण ए के केटलाक मोक्षमा पण गयेला छे. XxxxxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ५५३॥ अनंतर समुद्रो कद्या, तेओने विषे आवत्तों (वमळ) होय छे माटे दृष्टांतरूप आवोंने अने दार्टीतिकरूप कषायोने कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार चे सूत्रने कहे छे जे सुगम छे. विशेष ए के-खर-कठण अति वेगथी पाडनार अथवा छेदनार भ्रमण इच्छावाळा पत्रकार ते आवर्त्त, ते समुद्रादिनो अथवा चक्रविशेषोनो खरावर्त, उन्नत-ऊंचो तद्रूप आवर्त ते उन्नतावर्त, ते पर्वतना शिखर उपर चडवाना मार्गनो अथवा ऊंचे चडवारूप वायुनो छे, गूढ एवो आवर्त ते गूढावर्त, ते दडा संबंधी दोरानो अथवा लाकडानी गांठ प्रमुखनो होय छे, आमिष-मांसादि, तेने माटे शमळी विगेरेनो आवर्त ते आमिषावर्त. खरावर्त्तादिनी समानता क्रमशः क्रोधादिनी कहे छे. बीजाने अपकार करवामां कठोर होवाथी क्रोधने, पांदडां अने तृण विगेरे वस्तुनी जेम मनने उन्नत(मोटाई)पणाने विष आरोपण करवाथी मानने, अत्यंत दुर्लक्ष्य होवाथी मायाने अने सेंकडो अनर्थनी प्राप्तिबडे व्याप्तस्थानने विषे पण नीचे पडवार्नु कारण होवाथी लोभने उपमाओ घटे छे. आ उपमा क्रमशः अतिशय क्रोधादिने छे. हवे तेओर्नु फल कहे छे-'खरावत्ते' त्यादि० अशुभ परिणाम ने अशुभ कर्मबंधना निमित्तपणाए दुर्गतिना निमित्तपणाथी कहेवाय छे के 'णेरइएसु उववजह' त्ति० (सू० ३८५) अनंतर नारको कह्या ते वैक्रिय विगेरेथी समान धर्मवाळा देवो छ माटे तेओना विशेषभूत नक्षत्र देवो संबंधी चार स्थानक प्रत्ये कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार 'अणुराहे ' त्यादि० त्रण सूत्रने कहे छे अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पं०-पुव्वासाढे एवं चेव उत्तरासाढे एवं चेव । सू० ३८६, जीवाणं चउठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, नेरतियनिव्व ४ स्थानकाध्ययने उद्देश ४ नक्षत्रतारकार पुद्ग लनिर्वर्तन पुद्गल प्रदे४ शादि सू० *३८६-८८ KXxxxxxxxxxxxxxxxxxx EXXXX KXXXXX KXXXXXXXXXX ४॥५५३॥ For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX तिते तिरिक्खजोणितनिव्वत्तिते मणुस्स. देवनिव्वत्तिते, एवं उवचिणिंसु वा उवचिणति वा उवचिणिस्संति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर वेत तह निजरे चेव । सू०३८७, चउपदेसिया खंधा अणंता पन्नत्ता-चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता, चउसमयद्वितीया पोग्गला अणंता, चउगुणकालगा पोग्गला अणंता, जाव चउगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता । सू०३८८॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो चउठाणं चउत्थमज्झयणं समत्तं ॥ मूलार्थ:-अनुराधा नक्षत्रना चार तारा कहेला छे. पूर्वाषाढा ए प्रमाणे छे, उत्तराषाढा ए प्रमाणे छे. (सू० ३८६ ) जीवोए चार स्थानवडे निवर्तित-कर्मपरिणामने पमाडेल पुद्गलोने पापकर्मपणाए चय-एकत्रित करेल छ, अर्थात् अल्प प्रदेशवाळी पापप्रकृतिओने बहु प्रदेशवाळी करेल छे, करे छे अने करशे, ते आ प्रमाणे-नैरयिकपणाए निर्वर्तित, तियंचयोनिक पणाए निर्वर्तित, मनुष्यपणाए निवर्तित अने देवपणाए निर्वतित. एवी रीते उपचय-फरीने फरीने वृद्धि करेल छे, करे छे अने ४ करशे. ए प्रमाणे चय, उपचय, बंध-शिथिलबंधवाळा कोने गाढ बंधवाळा करेल छे, उदीरण-उदयमा आबेल दलिकने विषे उदयमां नहिं आवेल कर्मदलिकने वीर्यवडे आकर्षाने भोगवेल छे, वेदन-प्रतिसमय स्वविपाकवडे अनुभवेल छे तेमज निर्जरा * करे छे अने करशे एम सर्वत्र समजवु. Exxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानानपत्र सासुबाद // 554 // Xxxxxx KX ४स्थान कामायने उदेवा मलानर्मदन आत्मप्रदेशथी दूर करेल छ, करे.छे अने करशे. ( सू० 387 ) चार प्रदेशवाळा स्कंधो अनंता कहेला छे. चार आकाशप्रदेशने अवगाहीने रहेला पुद्गलो अनंता कहेला छे. चार गुणवाळा काळा पुद्गलो अनंता कहेला छे यावत् चारगुण लूखा पुद्गले। अनंता कहेला छे. (मू० 388) ____टीकार्थ:-आ सूत्र सरळ छे. (सू० 386 ) जीवोना देवत्वादि भेद, कर्मपुद्गलना चय विगेरेथी करायेल छे माटे तेनुं प्रतिपादन करवा सारु 'जीवाणं' इत्यादि० छ सूत्र, जो के पूर्व (आनी) व्याख्या करायेल छ तथापि कंईक लखाय छे. 'जीवाणं' ति. '' शब्द वाक्यना अलंकार अर्थमां छे. निर्वनित-कर्मना परिणामने पामेला, तेवा प्रकारना अशुभ परिणामना वशथी बांधला ते चतुःस्थाननिवर्तितो. ते पुद्गलोने केवी रीते बांधला छे ते कहे छे-पापकर्मतयाअशुभस्वरूप ज्ञानावरणादिपणाए 'चिणिंसु' त्ति तथाप्रकारना अपर पुद्गलवडे वृद्धि करेला-अल्प प्रदेशवाळी पापप्रकृतिओने बहुप्रदेशवाळी करेली. 'नेरइयनिव्वत्तिए 'त्ति नैरयिकपणाए वर्तता सतां जे निवर्तिता ते नैरयिकनिर्वर्तिता. एवी रीते सर्वत्र समास करबो. तथा ' एवं प्रवचिणिंसु'त्ति० उपचय अर्थात् पुनः पुनः वृद्धि करेल छ 'एव' मिति. चयादिना न्यायवडे बंध विगेरेना सूत्रो कहेवा. अहिं ' एवं बंधउदीरें' त्यादिना वक्तव्यमा चय, उपचयनुं ग्रहण करेल छे ते स्थानांतरमा प्रसिद्ध गाथाना उत्तरार्द्धनी अनुवृत्तिना वशथी जाणवू. तेमां 'बंध' त्ति. 'बंधिंसु 3 शिथिल बंधनवडे बांधल कोने गाढ बंधनवडे बंधवाळा कयां छे, करे छ अने करशे. 'उदीर' ति० 'उदीरिंसु 3 उदयमां आवेल दलिकने विषे जे उदयमा नहि आवेल कर्मदलिकोने करण( वीर्य )वडे आकर्षीने वेदेल छे 3, 'वेय' ति०' वेदिसु 3 पुदगठप्रदे शादि 0 XXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxx Xxxxxxxxxxxxxx KKKKXXXX) For Private and Personal Use Only