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श्रीस्थानानपत्र सानुवाद ॥४४४॥
णेरइएसु उववज्जति, एवं जाव सेलोदगसमाणं भावमणुपविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ । सू० ३११, चत्तारि पक्खी पं०२०-रुयसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने, रूबसंपन्ने नाममेगे नो रुतसंपन्ने, एगे रूवसंपन्नेवि रुतसंपन्नेवि, एगे नो रुतसंपन्ने णो रूवसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-रुयसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेड़ पत्तियं करेमीतेगे अपत्तितं करेति. अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तितं करेइ, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तितं करेति, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-अप्पणो णाममेगे पत्तितं करेति णो परस्स, परस्स नाममेगे पत्तिय करेति णो अपणो (४) चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तितं पवेसेइ, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तितं पवेसेति ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अप्पणो नाममेगे पत्तितं पवेसेइ णो परस्स परस्स०४ । सू० ३१२
मूलार्थः-चार प्रकारनी रेखाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे-पर्वतनी रेखा, पृथिवीनी रेखा, वालुका( रेती )नी रेखा अने उदकनी रेखा. ए दृष्टांते चार प्रकारनो क्रोध कहेलो छ, ते आ प्रमाणे-पर्वतनी रेखा (फाट) समान क्रोध-यावत् जीव
४ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ क्रोधः पक्षिरष्टान्तः सू०३११
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