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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX तिते तिरिक्खजोणितनिव्वत्तिते मणुस्स. देवनिव्वत्तिते, एवं उवचिणिंसु वा उवचिणति वा उवचिणिस्संति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर वेत तह निजरे चेव । सू०३८७, चउपदेसिया खंधा अणंता पन्नत्ता-चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता, चउसमयद्वितीया पोग्गला अणंता, चउगुणकालगा पोग्गला अणंता, जाव चउगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता । सू०३८८॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो चउठाणं चउत्थमज्झयणं समत्तं ॥ मूलार्थ:-अनुराधा नक्षत्रना चार तारा कहेला छे. पूर्वाषाढा ए प्रमाणे छे, उत्तराषाढा ए प्रमाणे छे. (सू० ३८६ ) जीवोए चार स्थानवडे निवर्तित-कर्मपरिणामने पमाडेल पुद्गलोने पापकर्मपणाए चय-एकत्रित करेल छ, अर्थात् अल्प प्रदेशवाळी पापप्रकृतिओने बहु प्रदेशवाळी करेल छे, करे छे अने करशे, ते आ प्रमाणे-नैरयिकपणाए निर्वर्तित, तियंचयोनिक पणाए निर्वर्तित, मनुष्यपणाए निवर्तित अने देवपणाए निर्वतित. एवी रीते उपचय-फरीने फरीने वृद्धि करेल छे, करे छे अने ४ करशे. ए प्रमाणे चय, उपचय, बंध-शिथिलबंधवाळा कोने गाढ बंधवाळा करेल छे, उदीरण-उदयमा आबेल दलिकने विषे उदयमां नहिं आवेल कर्मदलिकने वीर्यवडे आकर्षाने भोगवेल छे, वेदन-प्रतिसमय स्वविपाकवडे अनुभवेल छे तेमज निर्जरा * करे छे अने करशे एम सर्वत्र समजवु. Exxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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