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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ४ ३७५ ।। www.kobatirth.org छे, आदान - परिग्रह, ते बनुं द्वंद्व समासथी एकत्व हे अथवा जे ग्रहण कराय छे ते आदान- ग्रहण करवा योग्य वस्तु ते धर्मोपकरण पण होय छे, तेथी कहे छे के बहिस्तात्-धर्मना उपकरण सिवाय जे परिग्रह, अहिं मैथुन परिग्रहमां अंतर्भाव था, कारण के ग्रहण न करायेली स्त्री भोगवाती नथी. प्रत्याख्यान करवा योग्य प्राणातिपातादिनुं चतुर्विधत्व होवाथी धर्मनी चतुर्यामता चार महाव्रतस्वरूप छे, अहिं आ भावना जाणवी के - - मध्यम बावशि अने महाविदहना तीर्थंकरांना चार महाव्रतरूप धर्मनी प्ररूपणा अने आदि तथा अंत्य तीर्थकरना पांच महाव्रतरूप धर्मनी प्ररूपणा शिष्योनी अपेक्षाए छे. परमार्थथी तो बन्नेनी पांच यामनी प्ररूपणा छे, केमके प्रथम अने पश्चिम (हेल्ला) तीर्थंकरना तीर्थमां साधुओ ऋजुज अने वक्रजड होय छे, ते कारणथी ज परिग्रह वर्जनीय छे एम उपदेश कर्ये छते मैथुनने तजी देवं जोईए एम जाणवाने अने पालवा समर्थता नथी. मध्यमना बावशि तीर्थंकरो अने महाविदेह ना तीर्थंकरोना तीर्थमां साधुओ ऋजु अने प्राज्ञ होवाथी मैथुनने जाणवा माटे तेमज तजवा माटे समर्थ थाय छे. अहिं आ संबंध वे श्लोक जणावे छे पुरिमा उज्जु ड्डा उ, वक्कजड्डा य पच्छिमा । माझमा उज्जुदन्नाउ, तेण धम्मे दुहा कए ॥ ६२ ॥ प्रथम तीर्थंकरना साधुओ सरल अने जड छे, छेला तीर्थंकरोना साधुओ वक्र अने जड छे, मध्यमना सरळ अने दक्ष छे. ते कारणथी वे रीते चतुर्याम अने पंचयामरूप धर्म कहेलो छे. पुरिमाणं दुव्विसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालए। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झे सुपालए ॥ ६३ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रमाणका लादिः परि णामः यामाः सू० | २६४-६६ ३७५ ।।
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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