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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त्रमिताते रोहिणीते, तत्थ णं जे से उत्तरपञ्च्चत्थिमिले रतिकरगपव्वते तत्थ णं चउदिसिमिसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउपहमग्गमद्दिसीणं जंबूद्दीवप्पमाणमित्तातो चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०रयणा रतणुच्चत्ता सव्वरतणा रतणसंचया, वसूते वसुगुत्ताते वसुमित्ताते वसुंधराए । सू० ३०७ मूलार्थ:-नंदीश्वरवर नामना आठमा द्वीपना चक्रवाल विष्कंभना बहुमध्यदेशभागमां चारे दिशाए चार अंजनक पर्वतो कहेला छे, ते आप्रमाणे- पूर्व दिशानो अंजनक पर्वत, दक्षिण दिशानो अंजनक पर्वत, पश्चिम दिशानो अंजनक पर्वत अने उत्तर दिशानो अंजनक पर्वत. ते चारे अंजनक पर्वतो चोरासी हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन जमीनमां ऊंडा अने मूलमां दश हजार योजन पहोळा छे. त्यारबाद थोडा थोडा प्रमाणथी हीन थता थता उपरना भागमां पहोळाईथी एक हजार योजन कहेला छे. ते चारे पर्वतो मूल( तळिया ) मां एकत्रीश हजार, छ सो वीश योजननी परिधिवाळा छे उपर (शिखर) ना भागमां त्रण हजार, एक सो छास योजननी परिधिवाळा छे. मूलमां विस्तारवाळा, मध्यमां सांकडा अने उपर ओछी पहोळाईवाळा छे. गायना पूंछडाना आकारवडे रहेला छे. बघा अंजन ( श्याम ) रत्नमय छे, स्फटिक जेवा स्वच्छ छे, कोमळ वस्त्र जेवा छे, घूंटेला वस्त्र जेवा छे, घसेल पत्थरनी प्रतिमा जेवा छे, पालीश करायेल पत्थरनी प्रतिमा जेवा छे, रज रहित छे, कठण मल रहित छे, कादव रहित छे, निरावरण शोभावाळा छे, स्वप्रभावाळा छे, किरणो सहित छे, उद्योत सहित छे, मनने आनंद करनारा छे, जोवालायक छे, मनोहर छे, दरेक जोनारने रमणीय लागे तेवा छे. ते अंजनक पर्वतोनी उपर अत्यंत सम अने रमणीय For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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