SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था सानुवाद ॥ ३५७ ॥ www.kobatirth.org संवाससूत्र ने कहेल छे. ते सूत्र स्पष्ट छे, विशेष ए के संवास-मैथुन माटे एकत्र बसवुं, 'छवि' ति० त्वचा (चामडी ) ना योगथी औदारिक शरीर अने ते शरीरवाळी मनुष्यणी के तिर्यंचणी अथवा ते शरीरवाळा मनुष्य के तिर्यंच छवी कहेवाय. हमणां ज संवास कह्यो, ते वेदस्वरूप मोहना उदयधी होय छे, माटे मोहना विशेषभूत कषाय प्रकरणने कहे छे-' चत्तारि कसाये 'त्यादि० तत्र कर्मरूप क्षेत्रने जे खंडे छे, अर्थात् सुख-दुःखना फलने योग्य करे छे. अथवा जीवने मलिन करे छे, आ निरुक्ति विधिवडे ते कषायो कहेवाय छे. कां छे के सुहदुबखबहुसईयं, कम्मवखेत्तं कसंति ते जम्हा । क्लसंति जं च जीवं, तेण कसायत्ति वुच्चति ॥३९ प्रायः भावार्थ उपर वर्णव्या मुजब छे. अथवा प्राणीओने कषति - हणे छे ते कप-कर्म अथवा संसार, तेना लाभनो हेतु होवाथी आयो ते कषायो, प्राणीओने संसार के कर्म प्रत्ये जे ई जाय छे ते कषायो. कं छे के कम्मं कसं भवो वा, कसमाओ सिं जओ कसायातो। कसमाययंति व जओ, गमयंति कसं कसायत्ति ॥४० प्रायः भावार्थ उपर जणाव्या प्रमाणे छे. क्रोध करवो अथवा जेनाथी क्रोध थाय छे ते क्रोध, अर्थात् क्रोधमोहनीय कर्मना उदयवडे थवा योग्य जीवनी परिणतिविशेष, अथवा क्रोधमोहनीय कर्म एज क्रोध, एवी रीते मान, माया विगेरे कषायोमां पण जाणवुं. विशेष ए के हुं जाति विगेरे गुण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ संवासः कषायाच सू०२४८ २४९ ।। ३५७ ॥
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy