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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ४०३ ॥
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( स्वाध्याय करवाना समयनुं सूत्र ) स्पष्ट छे, विशेष ए के -' पुत्रवण्हे अवरण्हे 'ति० दिवसना पहेला अने छल्ला प्रहरमां पओसे पचसे ' ति० रात्रिना पहेला अने छेल्ला प्रहरमां. ( सू० २८५ ) स्वाध्यायमां प्रवर्त्तेलाने लोकनी स्थितिनुं परिज्ञान थाय छे, माटे लोकनी स्थितिनुं प्रतिपादन करतां थकां कहे छे के' चउव्विहे 'त्यादि० क्षेत्रलक्षण लोकनी स्थितिव्यवस्था ते लोकस्थिति, आकाशने आधारे घनवात अने तनुवातस्वरूप वायु रहेल छे. उदधि-घनोदधि, पृथिवी एटले रत्नप्रभा विगेरे. सा-द्वींद्रिय विगेरे त्रस जीवो. वळी रत्नप्रभादि पृथिवीने विषे जे नथी रहेला ते पण विमान अने पर्वतादि पृथिवीने विषे रहेला होवाथी पृथिवीमां ज रहेला छे. विमान संबंधी पृथिवीओनुं आकाश विगेरेमां रहेवापणुं जेम वटी शके तेम जाणवुं, अथवा अहिं विमान विगेरेमां रहेल देव प्रमुख सोनी विवक्षा नथी अने स्थावर जीवो तो अहिं बादर वनस्पति विगेरे ग्रहण करवा योग्य छे, कारण के सूक्ष्म जीवोनुं समग्र लोकमां रहेवापणुं छे. शेष सुगम छे ( सू० २८६ ) हमणां जत्रस प्राणीओ कला, हवे त्रस प्राणीविशेषना स्वरूपने चतुर्भगीरूप चार सूत्रोवडे बतावे छे-आ चार सूत्रो सरळ छे. विशेष ए के' तह ' ति०-सेवक छतो जेम आदेश कराय छे तेम जे प्रवर्ते छे ते तथा स्वीकारनार १, बीजो सेवक तो आदेश प्रमाणे करतो नथी परंतु बीजी रीते करे छे ते नोतथ २, वळी ' स्वस्ति ' एम कहेनार अथवा स्वस्ति कहीने आजीविका मेळवे छे ते सौवस्तिक ( प्राकृतपणाथी 'क' नो लोप अने दीर्घपणुं प्राप्त थवाथी ' सोबत्थी ' ) मांगलिकने बोलनार मागध विगेरे तृतीय ३, ए त्रणेने आराध्यपणाए प्रधान- स्वामी ते चतुर्थ भंग ४. ' आयंतकरे 'ति०- पोताना भवनो अंत करे छे ते आत्मांतकर परंतु बीजाना भवनो अंत करतो नथी ते धर्मदेशनाने नहिं कहेनार प्रत्येकबुद्ध विगेरे १, तथा मार्गने प्रवर्त्ताववावडे बीजा
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४ स्थान काध्ययने
उद्देशः २ महाप्रति
पदः सू० २८५-८८
॥॥॥ ४०३ ॥