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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोस्था सानुवाद ॥२८॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ प्रतिसंलीन तादिः दी* नादिप्रका .KAR.R अमनोज्ञ शब्दादि विषयोने विषे राग-द्वेषने दूर करनार ते इंद्रियप्रतिसंलीन जाणवा. आ संबंधमां गाथा दर्शावे छ केअपसत्थाण निरोहो,जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं। कज्जमि य विहीगमणं,जोगे संलीणया भणिया।।७४ अप्रशस्त योगोनो निरोध करवो अने कुशल योगोनी प्रवृत्ति करवी, कार्यप्रसंगे विधिथी जqआयोग विषयक सलीनता जाणवी. सहेस य भयपावएसु, सोयविसमुवगएसु।तुट्टेण व रुटेण व, समणेण सया न होयव्वं ॥७५॥ श्रोत्रंद्रियना विषयने-सारा अने खराब शब्दो प्राप्त थये छते साधुए राग-द्वेष न करवो जोईए. एभ ज चक्षुःइंद्रिय विगरेमां पण कहेQ, एवी रीते विपरीतपणाथी मन विगेरेथी असलीन थाय छे. (मू०२७८) प्रकारांतरथी असंलीनने ज चतुर्भगीरूप सत्तर दीन सूत्रोबडे कहे छ दीन-गरीबाईवाळो, उपार्जित धनवडे क्षीण-गरीब, पहेला अने पछी पण दीन ज; अथवा बाह्यवृत्तिवडे दीन, अने अंततिथी पण दीन इत्यादि *चतुर्भगी जाणवी. १, तथा दीन-बाह्यवृत्तिथी अर्थात् निस्तेज मुख विगरे पण शरीरथी गुण युक्त, एवी रीते प्रज्ञासूत्र पर्यंत प्रथम दीनपदनी व्याख्या करवी. दीनपरिणत-दीन नथी छतां अंतत्तिवडे दीनपणाए परिणत अर्थात् दीन थयेल छे इत्यादि चतुर्भगी २, तथा दीनरूप-मेला, जूनां वस्त्रादि पहेरवानी अपेक्षाए ३, वळी दीनमनः-स्वभावथी ज तुच्छ मनवाळो ४, हीनसंकल्प-स्वाभाविक मन उदार छते पण कईक न्यून विचारवालो, ५, दीनप्रज्ञ- सूक्ष्म अर्थना * अहि टीकाकारे एक ज भंग बतावेल छे परन्तु मूलानुवादथी सत्तर सूत्रनी चतुर्भगी जाणवी.. रा सू०२७८ ७९ KXXXXXXXXXX ४।३८७॥ KXXXX XXX For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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