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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४६६ ॥
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तथापि कंईक कहेवाय छ-'चरहिं ठाणेहिं नो संचाएइचि' अहिं संबंध ए छे के-देवलोकने विषे-देवोनी अंदर 'हवं'- ४ स्थानशीघ्र 'संचाएइत्ति'-समर्थ छ. मनोज्ञ शब्दादिरूप कामभोगोने विषे मूछितनी जेम मृढ, केम के-अनित्यादि स्वरूपवाळा काभ्ययने कामभोगना बोधमां समर्थ न होवाथी 'गृद्धः '-तेनी आकांक्षावाळो अर्थात् अतृप्त. 'ग्रथित '(बंधायेल )नी जेम ग्रथित उद्देशः ३ अर्थात् शब्दादि विषयमा स्नेहरूप दोरडीबडे गुंथायेल 'अध्युपपन्नः'-अत्यंत तन्मय ( उक्त कारणने लईने मनुष्य संबंधी)
मातापित्राकामभोगने विषे आदरवाळो थतो नथी. आ वस्तुभूत छे एम पण मानतो नथी अर्थात् तुच्छ गगे छ तथा तेओने विषे अर्थ बंधन करतो नथी अर्थात् एओनी साथे मारे काईपण प्रयोजन नथी एम निश्चय करे छ, आ मने प्राप्त था ओ एवी रीते
दिसमा:श्रातेओने विषे निदान करतो नथी तथा तेओने विषे स्थितिप्रकल्प-रहेवारूप विकल्प अर्थात् एओने विष हुँ रहुं के मने
|वकाः , वीरए रहो-स्थिर थाओ, आवा प्रकारना विकल्पने अथवा स्थिति-मर्यादावडे प्रकृष्ट कल्प-आचाररूप स्थितिप्रकल्पने
| श्रावकदेवकरतो नथी अर्थात् करवा माटे आरंभ करतो नथी. 'प्रकरोति' क्रियापदमा 'प्र' शब्दनो शरुआतरूप अर्थ छे. त्वं, देवाग' एवी रीते दिव्य देव संबंधी विषयने विषे आसक्तिरूप एक कारण छ जेथी तत्काल उत्पन्न थयेल कामभोगने विषे
मानागममच्छितादि विशेषणवाळो आ देव छ तथा तेने मनुष्य संबंधी प्रेम विच्छिन्न थयेल छ माटे दिव्य प्रेमर्नु संक्रमण |X| कारणानि थयेल छे आ बीजं कारण छे. तथा आ देव जे हेतुथी कामभोगने विपे मच्छितादि विशेषणवाळो होय छे तेथी तेना | सू०३२१प्रतिबंधने लईने 'तस्स ण 'मित्यादि. देवना कार्यने विषे आधीन थवाथी मनुष्यना कार्यमां आधीनपणुं नथी. आ त्रीजुं कारण छे. तथा दिव्यभोगने विषे मृच्छितादि विशेषणथी तेने मनुष्य संबंधी आ गंध प्रतिकूल-दिव्य गंधथी | |४६६॥
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