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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३५२
४ स्थान काध्ययने उद्देशः१
ध्यानानि
सू०२४७
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कहे छ-'पुहत्तवितकेत्ति पृथक्त्व-एक द्रव्यमां रहेल उत्पाद विगेरे पर्यायोना भेदवडे अथवा अन्य आचार्यों विस्तारपणे। कह छ, वितक-विकल्प, ते पूर्वगत श्रुतना अवलंबनरूप विविध नयने अनुसरण लक्षणवाळो छ जेने विषे ते पृथक्त्ववितके. पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणे श्रुतना अवलंबनपणाए उपचारथी वितर्क-श्रुत कहेल छे, तथा विचरण एटले अर्थथी व्यंजन(शब्द)मां अने शब्दथी अर्थमां, वळी मन प्रमुख त्रण योग पैकी कोई एक योगमांथी बीजा योगमां जq ते विचार,
"विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रांतिः" (तत्त्वा० अ०९, सू०४३) इति वचनात्. विचार सहित ते सविचारी, अहिं | 'सवधनादि ' गणथी समासांत इन्प्रत्यय थयेल छे. कडुं छे के:उप्पायठिति भंगाई पजयाणं जमेगदव्वमि। नाणानयाणुसरणं, पूव्वगयसुयाणुसारेणं ॥१७॥ सवियारमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्का होति पुहत्तवियकं. सवियारमरागभावस्स॥१८॥
उत्पात, स्थिति अने नाश विगेरे पर्यायोने जे एक द्रव्यमा पूर्वगतश्रुतने अनुसारे नाना-अनेक नयवडे अनुसरवू अर्थात् द्रव्यार्थिक विगरे नयभेदवडे चितव. अहिं मरुदेवी विगेरेनो अपवाद छे केम के तेमने पूर्वगतश्रुतर्नु आलंबन नथी. बळी विचार-अर्थथी शब्दमां अने शब्दथी अर्थमा संक्रमण तेम ज योगांतरमा संक्रमण ते प्रथम शुक्लध्याननो भेद पृथक्त्ववितर्क नामनो रागरहित भाववाळा पुरुषने होय छे अर्थात् उपशमश्रेणी के क्षयकश्रेणीवाळा जीवने होय छे. आ पहेलो भेद. तथा ' एगत्तवियक्के 'त्ति एकत्व-अभेदवडे उत्पादादि पर्यायोमांथी कोई एक पर्यायना अवलंबनपणावडे
X॥३५२॥
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