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आगमथी, उपदेशथी,आज्ञा-अर्थथी अने निसर्ग-स्वभावथी जिनप्रणीत भावानुं श्रद्धान करवं, ते धर्मध्यानना लक्षणो छे.
तत्वार्थना श्रद्धानरूप सम्यक्त्व ते धर्मर्नु लक्षण छे.आ भावार्थ छे. हवे धर्मना आलंबनो कहेवाय छे. धर्मध्यानरूप महेल उपर चडवा माटे जे आलंबन लेवाय छे ते आलंबनो कहेवाय, ते आ प्रमाणे-सम्यक् प्रकारे कहेवू ते वाचना अर्थात् शिष्यने कर्मनी निर्जरा माटे जे सूत्रनुदान विगरे आपq ते १, सूत्र विगेरेमा शंकावाळो थये छते शंकाने दूर करवा माटे गुरूने पूछबुं ते प्रतिप्रच्छना २, अहिं प्रति शब्द धातुना ज अर्थवाळो छे. तथा पूर्व भणेल सूत्र विगेरेनी विस्मृति न थाय अने निर्जरा थाय ते माटे जे अभ्यास (आवृत्ति ) ते परिवर्तना ३, तथा सूचना अर्थनुं चिंतन करवू ते अनुप्रेक्षा ४. हवे चार अनुत्प्रेक्षा (भावना) कहेवाय छे. अनु-ध्याननी पाछळ प्रेक्षणानि-सारी रीते विचारो करवा ते अनुप्रेक्षाओ. तेमां 'हुँ एक छ, मारुं कोई नथी, हुं अन्य कोईनो नथी, जेनो हुँ छु तेने जोतो नथी अने भविष्यमां कोई मारो थाय एम नथी.' एवी रीते एकाकी-असहायभूत आत्मानी अनुप्रेक्षा-भावना ते एकानुप्रेक्षा. (१) तथा 'काया, तरत नाश पामवावाळी छे, संपत्तिओ आपत्तिओनुं स्थान छे,संयोगो वियोगवाळा छे,जे उत्पन्न थाय छे ते क्षणभंगुर छे.' एवी रीते अनित्य जीवन विगैरेनी अनुप्रेक्षा ते अनित्यानुप्रेक्षा (२), तथा 'जन्म, जरा अने मरणना भयोवडे पराभव थये छते, व्याधिनी पीडावडे ग्रस्त थये छते आ लोकमां जीवने जिनवरना वचन सिवाय बीजें कोई शरणभूत नथी. एवी रीते शरण रहित एवा आत्मानी अनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षा (३) तथा 'आ संसारमा माता थईने दीकरी, बहेन अने स्त्री थाय छे, दीकरो थईने पिता थाय छे, भ्राता थाय छे, वळी शत्रु पण थाय छे.' चार गतिमां सर्व अवस्थाओने विषे संसरण(भ्रमण)रूप संसारनी अनुप्रेक्षा ते संसारानुप्रेक्षा. (४). हवे शुक्लध्यान
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