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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
स्वानुवाद
॥ ५४४ ॥
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नैरयिकोमांथी, तियेचयोनिको मांथी, मनुष्योमांथी अथवा देवोमांथी उत्पन्न थाय ते ज पंवेद्रियतियेव योनिक, पंर्वे यतियंचयोनिकपणाने छोडतो थको नैरयिकपणाए अथवा यावत् देवपणाए उत्पन्न थाय. मनुष्यो चार गतिवाळा अने चार आगतिवाळा कल छे. ए प्रमाणे ज तिर्यंचपंचेंद्रियनी जेम मनुष्यो पण जाणवा. ( पू० ३६७ ) इंद्रिय जीवाना आरंभने नहि करनारने चार प्रकारे संयम कराय छे - थाय छे, ते आ प्रमाणे- १ जिह्वाना रसास्वादरून सुखवी भ्रष्ट करनार थतो नथी. २ जिह्वानी हानिरूप दुःखने जोडनार थतो नथी, ३ स्पर्शन इंद्रिय संबंधी सुखनाविनाश करनार थतो नयी अने ४ स्पर्शमय दुःखनो संयोग करनार थतो नथी. बेइंद्रिय जीवोना समारंभ करनारने चार प्रकारनो असंयम कराय छेथाय छे, ते आप्रमाणे - १ रसनाना रसास्वादरूप सुखथी भ्रष्ट करनार थाय छे, २ रसनानी हानिरूप दुःखने जोडनार थाय छे, ३ स्पर्शन इंद्रिय संबंधी सुखनो विनाश करनार थाय छे अने ४ स्पर्शमय दुःखना संभोग करनार थाय छे. ( सू० (३६८ ) सम्यग्दृष्टि नैरयिकोंने चार क्रियाओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे आरंभि की, पारिश्रदिकी. मायाप्रत्ययाने अपत्या ख्यानक्रिया सम्यग्दृष्टि असुरकुमारोने ए ज प्रमाणे चार क्रियाओ कहेली छे, एसीरीने एहॉट्रेन अन विकलाद्रेयने छोडीने यावत् सम्यग्दृष्टि वैमानिकाने चार क्रियाओ कहेली छे, अहिं पांच क्रियानी अपेक्षाए चार क्रिया समजवी. मिथ्यादर्शनप्रत्यया न होय. ( सू० ३६९ ) चार कारणोबडे अन्यना छता गुणोनो नाश करे-अपलाप करे, त आ प्रनागे-१ क्रोधथी, २ बीजाना उत्कर्षनी ईर्ष्याने लईने, ३ अकृतज्ञताथी - बीजाना उपकारने न जाणवाथी अने ४ दुराग्रहवी. चार कारणोवडे अन्यना छता गुणोने दीपाव-प्रगट करे, ते आ प्रमाणे- १ प्रशंसा करवाना स्वभाववडे, २ बीजाना अभिनाय प्रमाण वचैवाथी, ३ इच्छित
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स्थान
काध्ययन उद्देशः ४
मित्र पञ्चे
न्द्रियनर
गत्या ग
तिहींद्रिया
संयमेतरसम्यग्दृष्टिक्रिया गुण नाशतनू
स्पादाः सू० ३६६-७१ ।। ५४४ ।।