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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie XXXXXXX xxxxxxx कार्यने सिद्ध करवा माटे अने ४ करेल उपकारनो प्रत्युपकार करवा माटे. (सू० ३७०) नैरयिकोने चार कारणोबडे शरीरनी उत्पत्ति-प्रारंभ थाय. ते आ प्रमाणे-क्रोधथी, मानथी, मायाथी अने लोभथी. एवी रीते यावत् वैमानिकोने जाणवू. नरयिकोने चार कारणोबडे शरीरनी निष्पत्ति-पूर्णता थाय, ते आ प्रमाणे-क्रोधवडे निवर्तित यावन् लोभवडे निर्वर्तित. एवी रीते यावत् वैमानिकोने माटे पण जाणवू. (सू० ३७१) टीकार्थ:-'चत्तारी' त्यादि० सूत्रो स्पष्ट छ. विशेष ए के-मित्र-आ लोकमां उपकारी होवाथी, वळी मित्र-परलोकमां उपकारी होवाथी सद्गुरुनी जेम. बीजो मित्र स्नेहवाळो होवाथी पण अमित्र-परलोकना साधननो नाशकारक होवाथीप्रेमाल स्त्री विगेरेनी जेम. बीजो तो अमित्र-प्रतिकूळ होवाथी पण निर्वेदता-वैराग्यने उत्पन्न करवावडे परलोकना साधनने विषे उपकार करनार थवाथी-अविनीत स्त्री विगरेनी जेम. चतुर्थ अमित्र-प्रतिकळपणाथी पुनः संकले शना हेतुमगाए दुर्गतिर्नु निमित्त थवाथी अमित्र छे. अथवा प्रथम मित्र अने पछी पण मित्र एम कालनी अपेक्षाए चोभंगी जाणवी. (१) मित्र-अंतरंग स्नेहथी, पुनः बाह्य उपचार करवाथी मित्रनो ज रूप (आकार )छे जेनो ते मिरूप-आ एक, बीजो तो बाह्य उपचारना अभावथी अमित्ररूप, त्रीजो स्नेहथी रहित होवाथी अमित्र अने चतुर्य प्रतीत छे. (२) मुक्त-द्रव्यधी संगनो त्याग करनार, पुनः मुक्त-आसक्तिना अभावथी-सुसाधुवत्, बीजो आसक्तिवाळो होवाथी अमुक्त-रंका, त्री जो द्रव्यधी अमुक्त पण भावथी मुक्त-आसक्ति रहित-राज्यावस्थामां उत्पन्न थयेल केवळज्ञानवाळा भरतचक्रवर्तीनी माकक, चोयो गृहस्थ अथवा पूर्व अने अपर-पछी पण अमुक्त. कालनी अपेक्षाए आ सूत्र विचार. (३) आसक्ति न होवाथी मुक अने वैराग्यने XXXXXXXXXXXX EXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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