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कार्मण शरीखडे औदारिकादि शरीरो विशेषमिश्रको-हमेशां मिश्र होय छे परंतु तेओ एकला न होय. जेम औदारिकादि त्रण शरीरो वेक्रियादि शरीरोबडे अमिश्र पण होय छ तेम कार्मण शरीरथी रहित होता नथी. (सू० ३३२) शरीरो, कामेणबड़े उन्मिश्र ज छे एम कर्दा अने उन्मिश्रको. स्पृष्ट-स्पर्शायेला ज छ माटे स्पृष्टना प्रसंगथी वे सूत्र-'चउहीं' त्यादि० उक्तार्थ छे. केवल 'फुडे 'त्ति० स्पृष्ट-दरेक प्रदेश प्रत्ये व्याप्त. पृथिवीकायिकादि पांचे सूक्ष्मोनो सर्व लोकथी सर्व लोकमां उत्पादउपजq होवाथी बधाय लोकमांथी नीकळीने मनुष्यक्षेत्रमा ऋजुगति अने वक्रगतिवडे उत्पन्न थता बादर तेजस्कायिकोनो तो वे ऊर्ध्व कपाटने विषे चादरतेजस्कायत्वरूप व्यपदेशने इष्ट होवाथी 'चउहिं यादरकाएहिं ' एम कर्दा. बादर पृथिवी, अप, वायु अने वनस्पतिना जीवो समस्त लोकमांथी नीकळीने पृथ्वी आदि, घनोदधि विगेरे, अने धनवातवलयादिने विषे यथायोग्य पोताना उत्पत्तिस्थानोमा ऋजु अथवा वक्रगतिबडे उत्पन्न थता अपर्याप्तक अवस्थामा अत्यंत बहुपणाथी सर्व लोकने दरेक स्पर्श छे. आ पृथ्वीआदि पर्याप्ता बादर तेजस्कायिको अने त्रसजीवो, लोकना असंख्याता भागने ज स्पर्श छे. श्रीपनवणा सूत्रमा कयु छ के-"एत्य णं यादरपुढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे" अहिं चादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोना स्थानो कह्या छ. उत्पत्तिबडे लोकनो असंख्यातमो भाग छे. तथा "बादरपुढविकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सवलोए" चादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकोना स्थानो कहेला छ, उत्पत्तिवडे सर्व लोकमां छे. एवी रीते आ वायु अने वनस्पतिना स्थानो जाणवा. तथा-"यादरतेउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजहभागे" बादर पर्याप्तक तेजस्कायिकोना स्थानो
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