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१ जे अवसरमां शील-सदाचार विशेष अथवा ब्रह्मचर्य विशेष, व्रत-स्थूल प्राणातिपातनुं विरमण विगेरे, बीजे स्थळे तो शील एटले पांच अणुव्रत अने व्रत-सात शिक्षाव्रत कहेल छे, परंतु गुणव्रता वगेरेनुं सूत्रमा साक्षात् ग्रहण जुएं करवाथी अहिं ते व्याख्या करी नथी.गुणव्रत-दिशाव्रत अने उपभोगपरिभोगव्रतस्वरूप छे तथा विरमण-अनर्थदंडनी विरतिना प्रकारो अथवा रागादिनी विरतिओ जाणवी. प्रत्याख्यान नवकारसी विगेरे, पौषध-अष्टमी विगेरे पर्वना दिवसामां उपवसन-आहारना त्याग ते पौषधोपवास. (शीलादि बधाय पदोनो द्वंद्व समास छे) शील विगरेने अंगीकार करे छे ते अवसरने विषे तेने एक विश्राम कहल छे. २ जे अवसरमां सावद्ययोगना त्यागपूर्वक निरवद्य योगना सेवनरूप सामायिकमा जे व्यवस्थित श्रावक होय छे ते श्रमणभूत थाय छे. वळी देशे-दिशा परिमाणव्रत ग्रहण करेल श्रावकने दिशाना परिमाणना विभागमा अवकाश-अवतार विषयक अवस्थान छे जे व्रतने विषे ते देशावकाश ते ज देशावकाशिक अर्थात् दिशाव्रतमां ग्रहण करेल दिशाना परिमाणने दररोज संक्षेपवारूप अथवा बधा य व्रतोतुं संक्षेप करवारूप व्रतर्नु अनुपालन करे छे अर्थात् व्रत ग्रहण कर्या पछी अखंड रीते पाळे छे ते अवसरे पण तेने एक विश्राम कहेल छे. ३ उद्दिष्टा-अमावास्या परिपूर्ण-अहोरात्र पर्यंत १ आहारनो त्याग, २ शरीरना सत्कारनो त्याग, ३ ब्रह्मचर्यनुं पालन अने ४ अव्यापार-सावद्य प्रवृत्तिना त्यागरूप चार भेदयुक्त पौषधने करे छे त्यारे एक विश्राम छे, ४ जे अवसरे वळी पश्चिम ज-छेल्ली परंतु अमंगलना परिहारने माटे अपश्चिमा एवी, मरण ज अंत ते मरणांत, तेमां जे थयेली ते मारणांतिकी-ते अपश्चिममारणांतिक एवी, जेनावडे शरीर अने कषायादि कृश कराय छे ते संलेखना-तपविशेष
* पश्चिम शब्द अमंगलरूप छे माटे अपश्चिम शब्द कहेल छे.
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