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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir XX भीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ॥४४८॥ (xxxxxx ४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः ३ पत्राद्युपगचतुर्भगिका आश्वास Koxxxxxxxxxxxxxxxxxx कुमारना आवासो विगेरे उपलक्षणमात्र छ एथी बीजा आयतन(स्थान ने विषे पण वासने प्राप्त थाय छे अर्थात् रात्रिए वास करे छे ते ४ यावती-ज्यां सुधी आ मनुष्य अथवा देवदत्तादि छे एम कथनरूप यावत् कथावडे अर्थात् यावज्जीव सुधी ते रहे छे-बसे छे ते ' एवमेवे 'त्यादि० एमज दार्टातिक सूत्र छे. श्रमणान्-साधुओनी जे सेवा करे छे ते श्रमणोपासक-श्रावक तेने (सावध व्यापाररूप भारथी दबायलाने) आश्वासो-सावध कार्यने छोडवावडे चित्तने आश्वासन-स्वास्थ्यरूप विश्रामो छे, परलोकथी भय पामेल मने आत्राण-शरण छे एवा आ विश्रामो छे. ते श्रावक जिनागमना परिचयथी स्वच्छ बुद्धिवडे आरंभ अने परिग्रह ए बने दुःखनी परंपराने करनार अने संसाररूप कांतारना कारणभूत होवाथी छोडवा योग्य छ एम जाणतो थको इंद्रियरूप सुभटना वशथी आरंभ अने परिग्रहने विषे प्रवर्ततो छतो महान् खेद, संताप अने भयन वहन करे छे अने नीचे प्रमाणे भावना भावे छे-- हियए जिणाण आणा. चरियं मह एरिसं अउन्नस्स । एयं आलप्पालं,अब्बो दूरं विसंवयइ ॥१६२।। हयमम्हाणं नाणं, हयमम्हागं मास्तमाहप्पं । जे किल लद्धविवेया, विचेट्ठिमो बालबालब्ध ॥१६३॥ ___ मारा हृदयमां जिनेश्वरनी आज्ञा छतां पण पुण्य रहित मारुं चरित्र-वर्तन तो आवु छ अर्थात् संसार संबंधी वस्तु मने प्रिय लागे छ तो हवे शुं विशेष कहुं ? आ आश्चर्य छ, अत्यंत विरोध छे. अमारु सद् असना विवेकरूप ज्ञान हणायुं ! * अमारं मनुष्य संबंधी माहात्म्य हणायुं ! निश्चय विवेकने प्राप्त थया छतां पण नाना बाळकोनी जेम अमे प्रवृत्तिने करीए छीए. KXXXXXXX चतुष्कं XXXXxxx ०३१३ १४ KXxxxx ॥४४८॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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