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तो प्रशमवाहिता अथवा ज्ञानादिस्वरूप, वळी समाधि स्नेह रहितने ज होय छे माटे कहे छे के-लहे-रुक्ष-शरीर अने मनने विषे द्रव्य-भावरूप स्नेह रहितपणाए कठोर, अथवा लूषयति-कमरूप मळने दूर करे छे ते लूप, आ कई रीते संवृत्त-संबरवाळो छ ? ते कारणथी कहे छ- तीरट्ठी' तीर--भवरूप समुद्रना पारने प्रार्थे छ एवा स्वभाववाळो ते तीरार्थी अथवा तीरस्थायी, तीर-भवना पारने विष स्थितिवाळो, अथवा प्राकृतपणाथी 'तीरढे 'त्ति० आ कारणथी 'उवहाणवं' ति० जेनाबडे श्रुत स्थिर कराय छे ते उपधान, अर्थात् श्रुतविषय तपना उपचारवाळो, आ कारणथी 'दुक्खक्खवे' त्ति० सुख नहिं ते दुःख अथवा तेना कारणपणाथी कर्म, तेनो जे क्षय करे छे ते दुःखक्षय, तपना निमित्तथी कर्मनुं खपवु (क्षय ) थाय छ, आ कारणथी कहे छ-'तवस्सी' ति० तप-अभ्यंतर तप, कर्मरूप इंधन( लाकडा )ने बाळनार अग्नि जेवो, निरंतर शुभ ध्यान लक्षण छ जेनुं ते तपस्वी. 'तस्स णं' ति. जे आ प्रकारनो छे तेने (णंकार अलंकारना अर्थमां छे) तथाप्रकार-महावीर भगवानना जेवो अत्यंत घोर तप (अनशनादि) न होय. वळी तथाप्रकार-अति भयंकर उपसगांदिवडे प्राप्त करवा योग्य दुःखने विषे रहेनारी वेदना न होय, अल्प कर्मवडे ( मनुष्यभवमां) आवेल होवाथी अने ते कारणथी तथाप्रकाररूप अल्प कर्मप्रत्यायातादि विशेषणना समूह युक्त पुरुषजात-पुरुषप्रकार, दीर्घ-बहुकालीन पर्याय-साधनभूत प्रव्रज्यालक्षणबडे सिद्धयतिअणिमादि सिद्धिना योगवडे कृतार्थ अथवा विशेषथी मोक्ष जवाने योग्य थाय छे, कारण के सकल कर्मना नायकरूप मोहनीय कर्मनो नाश थाय छे अने एकंदर चार घातिकर्मना नाशवडे प्रगटेल केवळज्ञानथी समग्र वस्तुने जाणे हे, तेथी भापग्राही (भव संबंधी) कोवडे मृकाय छे, तेमज परिनिवाति-समस्त कर्मोबडे थयेल विकारना समूहनुं निराकरण थवाथी शीतल थाय
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