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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानागपत्र सानुवाद अपडिबद्ध। २. चउठिवहा पठ्वज्जा पं० सं०-ओवायपध्वजा. अक्खातफ्ठवजा, संगारपव्वज्जा, विहगगइपव्वज्जा ३, चउम्विहा पव्वजा पं० तं0-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, मोयावइत्ता, परिपूयावइत्ता ४, चउबिहा पव्वजा पं. तं०-नडखइया, भडखइया, सीहखइया, सियालक्खइया ५, चउविहा किसी पं० तं०-वाविया, परिवाविया, णिदिता, परिणिंदिता ६, एवामेव चउब्विहा पञ्चजा पं० तं०-वाविता, परिवाविता, णिदिता, परिणिदिता, ७ चउबिहा पवजा पं० २०-धन्नपुंजितसमाणा, धन्नविरल्लितसमाणा. धन्नविक्खित्तसमाणा, धन्नसंकहितसमाणा ८ । सू० ३५५ मूलार्थ:-चार प्रकारे प्रवज्या-दीक्षा कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ उदर भरवा माटे दीक्षा लेवी ते आलोकप्रतिबद्धा, २ देवादि संबंधी सुखन माटे दीक्षा लेवी ते परलोकप्रतिबद्धा, ३ उभय लोकना सुखने अर्थे दीक्षा लेवी ते उभयलोकप्रतिबद्ध। अने ४ मोक्षना अर्थ दीक्षा लेवी ते अप्रतिबद्धा. (१) 'जो हुं दीक्षा लईश तो मने शिष्य, आहारादि मळशे' एम अगाउथी दीक्षा लेनाराओने विषे जे अभिलाषा ते अग्रतःप्रतिबद्धा, २ जनादिके प्रथमथी दीक्षा लोधेल छ तेना स्नेहने लईने जे पाछ की दीक्षा लेवी ते पृष्टतःप्रतिबद्धा,३ उभयतः प्रतिबद्धा-आगळ्थी अने पाछळथी पण प्रतिबंधवाळी छे अने चौथी अप्रतिवद्धा पूर्ववन(२) चार प्रकारे प्रव्रज्या कहेली छे, ते आ प्रमाणे-१ सद्गुरुओनी सेवावडे जे दीक्षा लेवाय छे ते अवपातप्रव्रज्या, २ 'तुं दीक्षा ग्रहण KXXXXXXxxxxxxxxxxxx ४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ इहलोकप्रतिबद्धादिप्रव्रज्या भेदाः सू०३५५ (Oxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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