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४ स्थान काध्ययने
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
उद्देशः १
कर्मचयादि
प्रतिमात्र सू०२५०
टीकार्थ:-'जीवा 'मित्यादि० सूत्र कहेल अर्थवाल्लु छे, विशेष ए के-चयन-कषायथी परिणत जीवने कर्मपुद्गलोर्नु ग्रहण मात्र, उपचयन-ग्रहण करेल कर्मना अबाधाकालने छोडीने ज्ञानावरणीवादि स्वरूपे निषेक करवो, ते आ प्रमाणेप्रथम स्थिति( प्रथम उदयमां आवे ते )मां अत्यंत कर्मदलिकने स्थापे छे, ते पछी बजिी स्थितिमा विशेषहीन कर्मदलने स्थापे छे, एवी रीते त्रीजी चोथी यावत् उत्कृष्ट स्थितिमां विशेषहीन दलिकने स्थापे छे. कड्युं छे केमोत्तूण सगमबाहं. पढमाइ ठिहऍ बहतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं, जावक्कोसंति सव्वेसि ॥४१॥ ।
भावार्थ जणाच्या मुजब छे.
बंधन-ज्ञानावरणीयादि स्वरूपे निषेक करेल कर्मदलिकने फरीथी पण कषायनी परिणतिविशेषथी निकाचन-मजबूत करवारूप, उदीरण-उदयमां नहि आवेल कर्मदलिकने करण(जीवना वीर्य)वडे खेंचीने उदयमा प्रक्षेपवं-लाव, वेदन-कमेनी स्थितिना क्षयथी सहज उदयमा आवेल अथवा उदीरणाकरणबडे उदयभावमा प्राप्त थयेल कर्मर्नु अनुभव, निर्जरा-कर्मनुं अकर्मस्वरूप थ, अहिं देशथी ज निर्जरा ग्रहण करवी, केम के चोवीश दंडकमां निर्जरानो असंभव होय छे. वळी निर्जरामा क्रोध विगैरे कारण थता नथी, केमके क्रोधादिकना क्षयने ज निजेरार्नु कारण होय छे अर्थात् क्रोधादि क्षय थवाथी ज निर्जरा थाय छे. अहिं प्रज्ञापना पत्रमा कहेली संग्रहगाथा जणावे छेआयपइट्रिय १ खेत्तं, पडच्च रणंताणुबंधि३ आभोगेशचिणउवचिणबंध. उदीर वेय तह निजराचेव ॥
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