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श्रीस्था- | नाङ्गसत्र सानुवाद १३५८ ॥
पाठ कहेवा. अनंत भवने जे निरंतर बांधे छे-अनंत भवनी परंपराने करे छे एवा स्वभाववाळो जे कषाय ते अनंतानुबंधी, अथवा अनंत अनुबंध छ जेनो ते अनंतानुबंधी, सम्यग्दर्शनना सहभावी [साथेथनार क्षमादि स्वरूप उपशम विगरे चारित्रना लव(लेश)न अटकावनार छे, केम के अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीयरूप छे. उपशमादिलक्षण बडे ज चारित्री कवाय नहि, केम के अल्प संज्ञा होवाथी जेम अमनस्क संज्ञी कहेवाय नहिं, परंतु मननी संज्ञावडे संझी कहेवाय तेम महान मूलगुणादिरूप चारित्रवडे चारित्री कहेवाय छे. आ कारणथी ज त्रिविध दर्शनमोहनीय अने पचीस प्रकारे चारित्रमोहनीय छे. शंका'पढमिल्लुयाण उदए नियमे 'त्यादि. प्रथम कषायना उदयमां निश्चये समकितनो अभाव होय छे, परंतु चारित्रने रोकनार कषायनी सम्यक्त्वनो अटकाव करवामां उत्पत्ति नहिं थाय, आ हेतुथी सात प्रकारे दर्शनमोहनीय अने एकशि प्रकारे चारित्रमोहनीय छे, ए मत योग्य जणाय छ, समाधान-'पढमेल्लुयाणे 'त्यादि. जे कहेलुं छे ते अनंतानुबंधी कषायोने सम्यक्त्वनो अटकाव करवावडे कहेल नथी, परंतु सम्यक्त्वना सहभावी उपशम विगेरेना अटकाव करवावडे कहेल छे. जो एम नहिं मानीए तो अनंतानुबंधी कवायोबडे ज सम्यक्त्वनु आवृत(आच्छादन )पणुं होबाथी अन्य(कारणभूत) मिथ्यात्वथी शुं प्रयोजन छे ? आवृतनुं पण आवरण करवामां अनास्था( दोष )नो प्रसंग आवशे. ते कारणथी जेम 'केवलियनाणलंभो नन्नत्य खए कसायाणं' ति० कषायोनो क्षय थया सिवाय केवळजाननो लाभ न थाय, आ प्रसंगमां कषायोनुं केवलज्ञानने आवरण करवापणुं न छते पण कषायनो क्षय, केवलज्ञानना कारणपगाए कहेल छ केम के कषायनो क्षय थये छते ज केवळज्ञाननो भाव होय छे. एवी रीते अनंतानुबंधी कषायना क्षयोपशममां ज सम्यक्त्वनो लाभ कहेवाय छे. अनंतानुबंधी
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४ स्थानकाध्ययने उद्देश: संवासः कषायाश्च सू०२४८२४९
॥३५८॥
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