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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विचिकित्सा ( धर्मना फळनो संदेह ) सहित, आ साधुं के ते साधुं ? एम भेद ( द्विधा ) भावने पामेल अने धर्ममां विपरीत बुद्धिवाको थयो थको निग्रंथ प्रवचनने सहहतो नथी, प्रतीति करतो नथी, रुचि करतो नथी, निग्रंथ प्रवचनने विषे श्रद्धा न करतो थको, प्रतीति न करतो थको अने रुचि न करतो थको मनने ऊंचुनीचं ( डामाडोळ ) करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, प्रथम दुःखशय्या कही. हवे बीजी दुःखशय्या कहे छे कोईक मुंड थईने, गृहवासथी नीकळीने यावत् दीक्षित थयेल, ते स्वकीय अशनादिना लाभवडे संतोष पामतो नथो परंतु अन्य द्वारा लाभ मेळवावानी आशा करे छे, स्पृहा करे छे, प्रार्थना करे छे, अभिलापा-अधिक इच्छा करे छे, बीजाद्वारा लाभनी आशा करतो थको यावत् अभिलाषा करतो थको मनने ऊंचुंनीचुं करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, आ बीजी दुःखशय्या कही. हवे त्रीजी दुःखशय्या कहे छे कोईक मुंडने पाव दीक्षित थयेल, ते दिव्य ( श्रेष्ठ ) मनुष्य संबंधी कामभोगनी आशा करे छे यावत् अभिलाषा करे छे, दिव्य मनुष्य संबंधी कामभोगने विषे आशा करतो थको यावत् अभिलाषा करतो थको मनने ऊंचुं नीचुं करे छे अने धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, आ त्रीजी दुःखशय्या कही. हवे चोथी दुःखशय्या कहे छे-कोईक मुंड थईने यावत् दीक्षित थयेल, तेने एवो विचार थाय |छे के - ज्यारे हुं गृहवासमा वसतो हतो त्यारे संवाहण - हाडकाने सुखरूप मर्दनविशेष ( चंपी), पीठी विगेरेनुं मर्दन मात्र, शरीरने तेल विगेरेथी चोपडबुं अने शरीरना प्रक्षालन ( स्नान ) ने हुं मेळवतो हतो परंतु जे दिवसथी हुं मुंड घईने यावत् दीक्षित थया बाद संवाहण ( चंपी ) यावत् शरीरना पक्षालनने हुं पामतो नथी, ते साधु संबाधन ( चंपी ) यावत् गात्रप्रक्षालननी आशा करे छे यावत् अभिलाषा करे छे, ते संबाधन यावत् गात्रप्रक्षालननी आशाने करतो थको यावत् मनने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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