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उत्तरगुणोमा दोषने सेवे छे, अभिमानथी अथवा कल्पवडे ते संप्रकटप्रतिसेवी, एम बीजो प्रच्छन्न-छानी रीते दोषने सेवे छे ते प्रच्छन्नप्रतिसेवी, श्रीजो तो वस्त्र अने शिष्यादिनी प्राप्तिवडे अथवा शिष्य के आचार्यादि स्वरूपवडे थयो थको जे वृद्धि पामे छे ते प्रत्युत्पननंदी अथवा नंदनं नंदिः- आनंद, लाभवडे आनंद छे जेने ते प्रत्युत्पन्ननंदी, तथा प्राघूर्णक ( प्राहुणा ) साधुनो, शिष्य विगेरेनो अथवा पोतानो, गच्छ विगेरेमांथी नीकळवावडे जे आनंद पाने छे अथवा आनंद छे जेने ते निःसरणनंदी. पाठांतरवडे तो प्रत्युत्पन्न - जैम प्राप्त थयुं तेम सेवे छे, परंतु अनुचितने पृथक् - जुदो करतो नथी ते प्रत्युत्पन्नसेवी छे (१), 'जइत्त' ति० एक सेना शत्रुना बलने जीते छे ते जेत्री परंतु न पराजेत्री - शत्रुना बलथी हारती नथी, बीजी सेना पराजेत्री अर्थात् बीजाथी हार पामनारी छे आधी ज जीतनारी नथी, त्रीजी सेना कारणवशात् उभय स्वभाववाळी छे. चोथी सेना तो जीतवानी इच्छावाळी न होवाथी जीतनारी पण नथी तेम हारनारी पण नथी (२), पुरुष- साधु, परीपहोने जीतनार ते जेता, परंतु तेथी (महावीर परमात्मानी माफक ) पराजय पामनार नहि, आ एक. बीजो कंडरीकवत्, श्रीजो कदाचित् जीतनार अने कदाचित् कर्मवशात् हारनार शैलक राजर्षिवत् तेमज चोथो तो नहिं उत्पन्न थयेल परीपहवाळो ( ३ ), एक बखत शत्रुना बळने जीतीने फरीथी पण जीते छे ते पहेली सेना, बीजी सेना प्रथम जीतीने पछीथी हारे छे, श्रीजी प्रथम हारीने पछीथी जीते छे अने चोथी तो पहेला हारीने पछी पण हारे छे (४), पुरुषना संबंधमां तो परीषद विगेरेमां एवी रीते विचारवा योग्य छे. (सू०२९२) aavat तो कपायो ज जीतवा योग्य छे माटे तेना स्वरूपने देखाडवानी इच्छावाळा सूत्रकार, क्रोधने आगळ देखावामां आवार होवाथी मायादि त्रण कषायना प्रकरणने कहे छे
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