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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४१८॥
४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ प्रकृतिब
न्वादि सू०२९६
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संखजगुणाणि, जाव अगंतभागवुडिठाणाणि असंखेजगणाणि।" अनंतगुणवृद्धि अनुभागना स्थानो सर्वथी थोडा छ, तेथी असंख्यातगुण वृद्धिना स्थानी असंख्यातगुणा छ यावत् अनंत भाग वृद्धिना स्थानी असंख्यातगुगा छे. " .
प्रदेशानु अल्पबहुत्व आप्रमाणे-"अट्ठविहबंधगस्स आउयभागो योवो नामगोयाणं तुल्लो विसंसाहिओ नाणदं. सणावरणंतरायाणं तुल्लो विसेसाहिओ,मोहस्स विसेसाहिओ,वेयणीयस्त विसेसाहिओं" इति आठ मूल प्रकतिना बांधनारने आयुष्यकर्मना प्रदेशनो भाग सर्वथी थोडी होय छे, तेथी नाम अने गोत्र कर्मना प्रदेशनो भाग परस्पर तुल्य अन आयुष्यथी विशेषाधिक होय छे, तेथी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय कर्मना प्रदेशनो भाग परस्पर तुल्य अन नाम, गोत्रथी विशेषाधिक छे. तेथी मोहनीय कर्मना प्रदेशनो भाग विशेषाधिक छ अने तेथी बदनीय कर्मना प्रदेशनो भाग विशेषाधिक छे."
जीव जे प्रकृतिने बांधे छ तैना अनुभव ( रस )बडे अन्य प्रकृतिमा रहेल दलिकने बीयविशेषवडे परिणमाबे छे-तद्रूप करे छे ते संक्रम कहवाय छ. कयु छ केसो संकमोत्ति भन्नइ, जब्बंधणपरिणओ पओगेणं। पययंतरत्थदलियं, परिणामइ तदणभावे जं॥९७॥
* कर्मना प्रदेशोनो भाग कमनी स्थितिना अनुसारे छे तो पण वेदनोय कर्मनो स्थिति ओछो हावा छतां सहुथी वधु भाग होवार्नु कारण ए छे के जो वेदनीय कर्म थोडा दलीआवाळ हाय ते। ते विपाक आपी शके नहि.
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x॥४१८॥
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