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कर्मबंधनने करनार जीव, प्रयोगवडे अन्य प्रकृतिना दलिकने बंधाती प्रकृतिमां तेना अनुभावबडे परिणमा छे ते संक्रम कहेवाय छ अर्थात् वर्तमानमां बंधाती प्रकृतिओमा न बंधाती (सतागत) प्रकृतिो, संक्रमती-भळती छती बंधाती प्रकृतिना स्वरूपथी परिणमे छे, जेम बंधाती सातावेदनीयमा नबंधाती असातावेदनीय, तेम बध्यमान ऊंच गोत्रमा अबध्यमान नीच गोत्र परिणमे छे एवी रीते सर्वत्र पतत्ग्रह-पात्रस्वरूप स्वजातीय उत्तरप्रकृतिमां स्वजातीय उत्तरप्रकृति संक्रमे छे-तद्रूप थाय छे.
तेमा प्रकृतिनो संक्रम, सामान्य लक्षणथी ज जाणवा योग्य छे. मलप्रकृतिनी अथवा उत्तरप्रकृतिनी स्थितिनुं जे उत्कर्षण- | वृद्धि अथवा अपकर्षण एटले हानि अथवा बीजी प्रकृतिनी स्थितिमा लई जq एम त्रण प्रकारे स्थितिसंक्रम छे. कडुं छे केठिइसंकमोत्ति वुच्चइ, मूलत्तरपगईओ उजाहि ठिई। उव्वट्टिया व ओवट्टियाव, पगई णिया वऽन्नं ॥९॥
भावार्थ उपर मुजब छे.
अनुभाग रसनो संक्रम पण एम ज-स्थितिसंक्रमनी जेम छे. कयुं छे केतत्थट्रपयं उव्व-ट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा।अणभागसंकमो एस,अन्नपगइंणिया वावि ॥९९॥ ___ अनुभागर्नु संक्रमना स्वरूपर्नु निर्धारण कहे छे-अनुभागो-उद्वर्तन करायेला रसना अंशो अर्थात् थोडा रसवालाने घणा रसबाला करायेला, अपवर्तन करायेला-घणा रसवालाने थोडा रसवाला करायेला, अथवा बीजी प्रकृतिमां रसना अंशोने लई जई तदूरूपे करायेला, एम ऋण प्रकारे अनुभागसंक्रम छे.
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